बसन्त पंचमी से ही फाग शुरू हो गया था, मोहल्ले के सभी युवक-युवतियां होली के हुड़दंग में मग्न हो चले थे। रात को चंद्रमा कुछ अधिक ही प्रकाशित हो जाता जिसके चलते शाम को भोजन आदि से फुर्सत पाकर सभी युवा अपनी-अपनी टोली के साथ खेल खेलने में व्यस्त हो जाते थे। उस दिन भी सभी युवक विभिन्न खेल खेलने में व्यस्त थे, मोहन भी अपने छत पर बैठा चाँदनी का लाभ उठाते हुए अपना पसंदीदा कार्य 'चित्रकारी' कर रहा था। कभी-कभी वह छज्जे से झाँक कर नीचे खेलते लोगों को देखता और फिर अपने रँग और ब्रुश के साथ व्यस्त हो जाता। सत्रह साल का मोहन ऐसे तो देखने में बहुत आकर्षक व्यक्ति था किन्तु उसका एक पैर पोलियो के कारण घुटने के नीचे से पूरा सूख गया था जिसके कारण वह लाठी के सहारे ही चल पाता था और इसीलिए वह नीचे जाकर बाकी युवाओं के साथ नहीं खेलता था।
मोहन अपने चित्रकारी के कार्य में पूरी तरह डूबा हुआ अपना ब्रुश चला रहा था, उसे पता नहीं था कि उसके पीछे खड़ा होकर कोई काफी देर से उसे देख रहा है। मोहन ने केनवास पर नीचे गली का ही चित्र चित्रित किया था जिसने नीचे चल रहे खेल का दृश्य था। चित्र इतना परफेक्ट बना था मानो वह कोई चित्र न होकर खेल का सजीव मैदान ही हो, वहाँ खेल रहे एक-एक व्यक्ति और वस्तु का ऐसा वास्तविक चित्र बनाया था मोहन ने मानों ये सभी अभी कुछ पल विश्राम को रुके हैं और यह खेल पुनः शुरू होने ही वाला है।
"वाह! अद्भुत, कितना सुंदर चित्र बना है यह।" तभी मोहन ने अपने पीछे से यह आवाज सुनी।
"क...कौन है वहाँ?" मोहन ने चौंककर पीछे घूमते हुए देखा।
"हम हैं रागनी, वहाँ हमारी दीदी रहती हैं। हम आज ही यहाँ आये हैं दीदी से मिलने।" एक सोलह-सत्रह वर्षीय युवती मोहन के पीछे से निकलकर सामने आते हुये बोली।
"क्या आप रजनी भाभी की बहन हैं?" मोहन ने उसे अपलक देखते हुए धीरे से कहा। रजनी उसके पड़ोस में दो साल पहले व्याह कर आयी थी। सुरेश की पत्नी थी वह और सुरेश के घर की छत मोहन की छत से मिली हुई थी।
"आपने कैसे जाना?" मोहन की बात पर उस लड़की ने हँसते हुए पूछा।
"आप बिलकुल रजनी भाभी जैसी ही तो दिख रही हो।" मोहन ने भी हँसकर जवाब दिया।
"अच्छा जी मैं आपको दीदी जैसी दिखती हूँ।" रागनी ने उसी तरह हँसते हुए कहा।
"नहीं, आप तो भाभी से भी ज्यादा सुंदर हैं।" मोहन ने कहा और रागनी की आंखों में देखने लगा।
"हुँह! बनाओ मत हमें, हमें पता है दीदी बहुत ज्यादा सुंदर है हम नहीं।"रागनी ने हँसना बन्द करके धीरे से कहा और आस्तीन उठाकर अपना एक हाथ दिखाने लगी जो कन्धे के ऊपर से सूख गया था।
"अरे! यह क्या हुआ? कैसे हो गया यह?" मोहन ने उसे देखकर गम्भीरता से पूछा।
"पता नहीं, बचपन में कोई इंजेक्शन लगा था और उसके बाद यह हो गया।" रागनी ने उदास होकर कहा।
"और मेरा पोलियो से।" मोहन ने कहा और अपना पैर रागनी के आगे कर दिया। उसके बाद इन दोनों के बीच काफी देर तक खामोशी पसरी रही।
"क्या मैं तुम्हारा चित्र बनाऊं?" कुछ देर बाद मोहन ने धीमे से पूछा।"
“क्या सच में आप मेरा चित्र बनाओगे?" रागनी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"हाँ हाँ, क्यों नहीं बनाऊँगा। तुम यहाँ बैठो।" मोहन ने रागनी को एक जगह बिठाया और पेपर बदलकर कूँची चलाने लगा। वह लगातार रागनी की आँखों में देख रहा था और मुस्कुरा रहा था। रागनी भी अब उसकी मुस्कान के प्रतिउत्तर में मुस्कुरा रही थी।
लो बन गया चित्र, देखो इसे।" लगभग आधे घण्टे बाद मोहन ने स्टैंड रागनी की ओर घुमा दिया।
"वाओ...अमेजिंग, आप तो सच में महान चित्रकार हैं मोहन जी।" चित्र को देखकर रागनी खुश होते हुए बोली।
"अरे नहीं ऐसा कुछ नहीं है मैं तो बस ऐसे ही कभी-कभी रँगों से खेलता हूँ और थोड़ा बहुत चित्र बना लेता हूँ।
"अच्छा जी, यदि यह थोड़ा है तो अधिक में तो आप लोगों को चित्र में ही जीवित कर दोगे।" रागनी ने कहा और जोर-जोर से हँसने लगी।
मोहन रागनी की हँसी की मधुरता में खोता ही चला गया, वह रागनी के माधुर्य में खुद को ही भूल गया था।
"तो क्या हम यह चित्र रख लें?" कुछ देर बाद रागनी ने पूछा।
"आपका ही है जी, यह चित्र भी और यह चित्रकार भी।" मोहन ने बहुत धीमी आवाज में कहा और चित्र रागनी की ओर बढ़ाने लगा।
"देख लो! अपनी बात से मुकरना मत।" रागनी ने कहा और उसका हाथ पकड़कर उसकी आँखों में देखने लगी।
"क...किस बात से?" मोहन ने अचकचा कर पूछा।
"यही की यह चित्रकार भी हमारा है।" रागनी ने कहा और मुस्कुरा दी। रागनी की मुस्कान और उसकी आँखें कह रही थीं कि उसने मोहन की धीमी आवाज में कही गयी वह बात सुन ली थी और वह भी मोहन को पसंद कर रही थी।
"अच्छा वह! ठीक है नहीं फिरेंगे, बस होली हो जाये फिर हम अपने घर आपकी बात करेंगे।" मोहन ने धीमे स्वर में कहा और रागनी की आँखों में देखने लगा।
"ऐसे क्या देख रहे हो?" रागनी ने धीरे से कहा और पलकें झुका लीं।
"यही की यह रात अचानक इतनी चाँदनी रात कैसे हो गयी।" मोहन ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर रागनी की आँखों में देखने लगा।
"यह अपनी नजरों का धोखा है और कुछ नहीं।" रागनी ने उसी स्वर में कहा।
"यह कोई भ्रम नहीं है रागनी, यह तो आपका सुंदर रूप है जो चाँदनी बनकर मेरे मन को प्रकाशित कर रहा है।" मोहन ने कहा और रागनी की ओर अपलक देखने लगा।
"धत्त!! ऐसा कुछ नहीं है।" रागनी ने कहा और मोहन के गले लग गयी। अब इन दोनों के दिल की धड़कने एक साथ संगीत बजा रही थीं और एक साथ रागनी गा रही थीं।
अब तो रोज जी रात को जब सभी लोग फाग खेलने में व्यस्त होते तब मोहन और रागनी छत पर एक दूसरे में खो जाते और प्रेम की रागनी सुनते।
देखते ही देखते होली भी हो ली और रागनी दुःखी मन से अपने घर वापस चली गयी। मोहन के मन में तो बस रागनी ही बसी थी लेकिन रागनी की कोई खबर ही नहीं थी। वह तो जैसे हवा के साथ आयी थी वैसे ही ऑंधी जैसे गायब हो गयी।
एक दिन हिम्मत करके मोहन ने रजनी भाभी से पूछ ही लिया, "भाभीजी वो...वो रागनी कैसी है? अब कब आएगी आपसे मिलने?"
कौन रागनी मोहन जी? और मुझसे मिलने क्यों आएगी?" मोहन की बात सुनकर रजनी भाभी चौंकते हुए बोलीं।
"अरे भाभी, क्यों मज़ाक करती हो? अरे आपकी छोटी बहन रागनी, जो होली पर आपके घर आयी थी।" मोहन ने रजनी की बात पर गम्भीरता से जवाब दिया।
"सपने में देखा क्या किसी को मोहन देवर जी? मेरी तो कोई छोटी बहन ही नहीं है, और रागनी तो नाम ही हमने पहली बार सुना है।" रजनी ने कहा और आगे बढ़ गयी।
मोहन रजनी की बात सुनकर सन्न रह गया और सिर पकड़कर जमीन पर बैठ गया, "रागनी नहीं है? कोई रागनी नहीं है! कहीं नहीं है? किन्तु ये निशान?? नहीं नहीं मेरी रागनी सच में है।" मोहन बड़बड़ा रहा था और अपने सीने पर लगे उन निशानों पर हाथ फेर रहा था जो रागनी के नाखूनों से उसे मिले थे।
तब से न जाने कितनी बार चाँदनी रातें आयीं ना जाने कितनी बार होली आयी लेकिन मोहन के जीवन से नीरस अंधेरा नहीं मिटा सकीं। मोहन ने फिर कभी रँगों को हाथ नहीं लगाया, हर बार होली पर बस वह उन निशानों पर हाथ लगाता और रागनी के सपनों में खो जाता।
अब जब भी कोई मोहन को होली पर होली खेलने के लिए कहता तो मोहन का यही उत्तर होता।
"बस भाई, हमारी होली तो हो ली।
उस बात को पूरे पाँच साल बीत चुके थे, मोहन अभी भी रागनी के सपनों से बाहर नहीं आया था। मोहन की माँ इस बात से बहुत परेशान रहती थी कि "ना जाने इस मोहन का क्या होगा, एक तो यह विकलांग है ऊपर से ना जाने इसे किसकी नज़र लग गयी है जो ये हर समय बस गुपचुप आसमान में देखता रहता है। इसका बड़ा भाई भी कब तक इसका बोझ उठाएगा? अब मोहन कोई बच्चा तो रहा नहीं तो उसे अपने लायक कोई काम ढूंढ लेना चाहिए जिससे अपना खर्चा वह खुद उठा सके।"
लेकिन मोहन को तो जैसे किसी बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था, वह तो बस अपनी रागनी के ख्यालों में ही खोया रहता था। अब मोहन रंगों को भी हाथ नहीं लगाता था, ना होली के और ना ही चित्रकारी के।
पूरे पाँच साल बाद फिर वही होली का दिन था, नीचे होली का वही दृश्य था जहाँ युवक-युवतियां रँग-गुलाल खेल रहे थे और ऊपर छत के बरामदे से मोहन उस दिन की तरह ही नीचे देख रहा था। मोहन उस दिन को याद कर रहा था जब ऐसे ही होली के दिन वह चित्र बना रहा था और रागनी उसके जीवन में आयी थी।
"रागनी! कहाँ हो तुम? क्या तुम्हें मेरी तनिक भी याद नहीं आती?" मोहन उदासी में बड़बड़ा रहा था, नीचे के होली के हुड़दंग उसे तनिक भी दिखाई नहीं दे रहे थे।
कुछ देर ऐसे ही बैठे रहने के बाद मोहन को ना जाने क्या सुझा और वह पाँच साल बाद एक बार फिर अपना चित्रकारी का सामान लेकर फिर उसी जगह आ गया जहाँ बैठकर उसने रागनी का चित्र बनाया था।
मोहन ने कैनवास सजाया और ब्रुश हाथ में उठाकर उस कोरे कागज की ओर देखने लगा।
कुछ देर ऐसे ही खाली पेपर को देखने के बाद मोहन ने ऑंखें बन्द की ओर फिर उसकी उंगलियां ब्रुश थामे उस पेपर पर घूमने लगीं। काफी देर ब्रुश चलाने के बाद जब मोहन ने निगाह भरकर उस पेपर को देखा तो उसकी आँखें वहीं अटक गयीं, पेपर पर रागनी का चित्र ऐसा बना था जैसी वह उस दिन उससे मिलने आयी थी।
अभी मोहन उस चित्र को ध्यान से देख ही रहा था तभी उसकी नज़र उसके कागजों पर रखे एक लाल रँग के लिफाफे पर पड़ी।
"अरे! यह कैसी चिट्ठी है? यह पहले तो नहीं थी, फिर अचानक कहाँ से आयी?" मोहन ने वह लिफाफा उठाया और उसे खोलकर देखने लगा।
उस लिफाफे में कुछ कागज़ थे, मोहन उन कागजों को पढ़ने लगा।
सबसे ऊपर एक निमंत्रण पत्र था जिसमें लिखा था।
मान्यवर,
हमें आपको सूचित करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है कि आपकी बनायी पेंटिंग्स हमारी कला प्रदर्शनी में बहुत पसंद की गयीं और कई लोग उन्हें बहुत ऊँची कीमत पर खरीदना चाहते थे किंतु हमारे पास तो ना आपका पता था और ना ही कोई अन्य सम्पर्क माध्यम, आपके चित्रों के नीचे बस आपके नाम के अतिरिक्त हमारे पास चित्रकार की कोई भी दूसरी पहचान नहीं थी। ऐसे में हम बिना आपकी अनुमति के आपकी कलाकृति को बेच भी नहीं सकते थे, फिर एक दिन हमें आपका एक और चित्र मिला जिसपर आपका पता भी लिखा हुआ था। हम अब आपको यह निमंत्रण पत्र भेज रहे हैं जिसमें हम आपको होली के पाँच दिन बाद मुंबई में लगने वाली कला प्रदर्शनी के लिए आमंत्रित करते हैं। मुंबई तक आने-जाने की टिकिट हम साथ में भेज रहे हैं और आपके ठहरने का पूरा प्रबंधन हमारे मंच की ओर से ही होगा। आयेगा अवश्य हम लोग आपकी प्रतीक्षा करेंगे।
धन्यवाद।
मोहन ने यह पत्र कई बार पढ़ा, उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि उसके चित्र कब और कैसे किसी प्रदर्शनी में पहुँचे और अब यह निमंत्रण पत्र उसे कैसे मिला? क्या कोई ऐसा है जिसे उसके बारे में सब पता है कि वह कब क्या करता है, उसे यह भी पता था कि आज मैं फिर एक बार चित्र बनाऊँगा और उसने यह लिफाफा मेरे कागजों में रख दिया। लेकिन कौन है वह? कहीं रागनी तो...??
तो क्या रागनी सच में है? क्या वह मुझे मिलने के लिए मुंबई बुला रही है? लेकिन मेरे पास तो ना अच्छे कपड़े हैं और ना ही पैसे, फिर कैसे मैं मुंबई जाकर उससे मिलूँगा? मोहन सोच में डूब गया और अपना सिर पकड़कर बैठ गया, मोहन सोच रहा था कि वह क्या करे! कैसे पैसे लाये और मुंबई जाए??
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