घने जंगल में जुगनू का होना, कांटों के बीच गुलाब का होना, अमावस के बाद पूनम का होना, और कीचड़ के बीच कमल का खिलना, ये तमाम उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि, नफरत के बीच ही प्यार पनपता है। चाहे कोई भी सदी हो, प्यार हमेशा रहेगा।

जिस इश्क में हाथ पकड़ने की चाहत हो, गले लगाने की तड़प हो, होंटों को छूने की तमन्ना हो, वह इश्क काया का गुलाम होने लगता है। जिस इश्क में आँखों से देखना हो, खामोशी को समझना हो, पास ना होकर भी साथ रहना हो, बस देख के मुस्कुराना हो, दुआओं में शामिल करना हो, वह इश्क रूह से होता है। यह वही इश्क है, जिसे जब महसूस किया जाए, तो लगता है कि यह एहसास इस जनम तक सीमित नहीं है, बल्कि पुनर्जन्म से जुड़ा है। यही कहानी है अमर और प्रिया की।

“अमर” इन्द्रप्रस्थ के राजा ठाकुर जय सिंह का बेटा है, राज्य का अगला उत्तराधिकारी। अमर की आंखों में तेज है, भविष्य के लिए बेहतर सपने हैं, और दूसरों के लिए दिल में दया है। दूसरी ओर है “प्रिया”, काशी के राजा वर्मा की बेटी, जो खूबसूरत और सभी कलाओं में निपुण है। उसकी आवाज़ में प्यार और लहज़े में नर्मी है।

तक्षशिला के राजा आदित्य के राज भवन में एक शाही महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसमें सभी नगरों के राजा आमंत्रित थे। काशी के राजा वर्मा और इन्द्रप्रस्थ के राजा जय सिंह ने, अपने आपसी मतभेदों के बावजूद, इस महोत्सव में सम्मिलित होने का निर्णय लिया। दोनों को ही तक्षशिला के राजा आदित्य से अच्छे संबंध बनाए रखने थे।

इसी महोत्सव में, एक ही छत के नीचे, अमर और प्रिया मिले। उन्हें यह पता नहीं था कि, यह मुलाकात उनकी आखिरी सांस तक की यात्रा का आरंभ होगी।

जब भी दो दिलों में प्यार पनपता है, पूरा जमाना उनके खिलाफ हो जाता है। अमर और प्रिया भी इस नियम से अछूते नहीं रहे। प्यार की एक खासियत होती है—इसके आगे हर मुश्किल घुटने टेक देती है। प्यार को बढ़ने के लिए मुलाकातों की सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। अमर और प्रिया ने उस सीढ़ी पर अपने कदम रख दिए थे।

एक तरफ शाही महोत्सव में सभी नर्तक और नर्तकियाँ नृत्य में मग्न थे, तो दूसरी ओर कठपुतली का खेल लोगों का मन मोह रहा था। हर कोई अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उत्सव का आनंद ले रहा था। सभी अतिथियों को तरह-तरह के लज़ीज़ पकवान परोसे जा रहे थे। महल का एक हिस्सा एक छोटे से बाजार जैसा सजा हुआ था, जहाँ तक्षशिला के कारीगरों द्वारा बनाए गए सुंदर वस्त्र और बेशकीमती गहने बिक रहे थे। महोत्सव की भव्यता से हर कोई अभिभूत था, लेकिन सबसे मनमोहक जगह थी राजमहल का आँगन। आँगन के बीचों-बीच एक खूबसूरत फव्वारा था, जिसके चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ सजी हुई थीं। फव्वारे के बगल में बैठे संगीतकार प्रेम धुन बजा रहे थे, जो माहौल को और भी मधुर बना रहे थे।

इस आकर्षक वातावरण के बीच, अमर और प्रिया अपने-अपने अंदाज़ में उत्सव का आनंद ले रहे थे। अमर नृत्य देखने में खोया हुआ था, जबकि प्रिया बाज़ार की खूबसूरती में डूबी हुई थी। जैसे ही बांसुरी की मधुर धुन फव्वारे के पास गूँजी, दोनों अनायास उस ओर खिंच गए।

कभी-कभी हमें लगता है कि हम प्रेम की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन सच यह है कि प्रेम हमारी प्रतीक्षा कर रहा होता है। यहाँ प्रेम का संकेत वह संगीत था, जिसने अमर और प्रिया को एक जगह ला खड़ा किया। प्रिया बांसुरी की उस मधुर धुन में पूरी तरह से रम गई थी। उसकी आँखों में एक अनकही चमक थी। वहीं, अमर अपनी जगह खड़ा उसकी मासूमियत और निश्छलता को अपलक निहार रहा था। वह उसे देखता रहा, जैसे वह एक स्वप्न हो जिसे वह टूटने नहीं देना चाहता।

कुछ देर बाद, अचानक प्रिया की नज़र अमर पर पड़ी। वह थोड़ी असहज हो गई। उसे ऐसा लगा कि शायद उसका यूँ मग्न होकर खड़ा रहना विचित्र लग रहा होगा। उसने तुरंत अपनी दृष्टि हटाई और आँगन के एक कोने में जाकर बैठने की कोशिश की। जैसे ही उसने आँखें बंद कीं, अमर का चेहरा उसकी कल्पना में उभर आया। उसने आँखें खोलीं और फिर बंद कीं, लेकिन हर बार उसे वही चेहरा दिखाई दिया। अंततः उसने आँखें बंद न करने का निश्चय किया।

दूसरी ओर, अमर अभी भी उसे देखे जा रहा था। उसकी आँखों में एक गहराई थी, मानो वह प्रिया के हृदय की हर भावना को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। प्रिया ने फिर से उसकी ओर देखा, और इस बार दोनों की नज़रें मिल गईं। दोनों ने हल्की-सी मुस्कान साझा की, जो बिना कहे बहुत कुछ कह रही थी।

इसी बीच, प्रेम धुन समाप्त हो गई, और लोगों ने संगीतकारों की प्रशंसा की, लेकिन इतने शोर-शराबे के बावजूद, अमर और प्रिया एक-दूसरे में पूरी तरह खोए हुए थे। उनका यह मूक संवाद जैसे समय को रोक देने वाला था। धीरे-धीरे, अमर के मन में प्रिया की छवि और गहरी होती गई। उसने महसूस किया कि वह पहली बार किसी के लिए इस तरह के भाव अनुभव कर रहा है।

जैसे ही अमर की बातों में हल्का सा दर्द झलका, प्रिया ने उसकी आँखों में झांकते हुए गंभीरता से पूछा।

प्रिया : सब ठीक तो है?

अमर : (हल्का सा मुस्कुराते हुए) ठीक है, लेकिन ये इन्द्रप्रस्थ… ये बस मेरे ख्वाबों का राज्य है।

प्रिया : (हल्की मुस्कान के साथ) और राजा का सपना क्या है?

अमर : (थोड़ा रुककर) सपना... बस इतना कि मेरा राज्य, मेरे अपने।

नरेटर : प्रिया ने महसूस किया कि अमर का जवाब सादगी से भरा होने के बावजूद, उसमें गहराई छुपी थी। उसने माहौल को हल्का करने की कोशिश की।

प्रिया : अच्छा, तो राजा साहब को संगीत सुनना पसंद है?

अमर : (मुस्कुराते हुए) संगीत तो रूह की दवा है। और आप जब गाती हैं, तो लगता है जैसे हर सितारा सुन रहा हो।

प्रिया : (हैरानी और हल्की शर्म के साथ) आपने कब सुना?

अमर : जब आपने अपनी आँखों से गाया था।

प्रिया : (हँसते हुए) ये कवि राजा कब से बन गए?

अमर : जब प्रजा इतनी सुंदर हो, तो राजा कवि ना बने, ये नामुमकिन है।

नरेटर : प्रिया अमर के अंदाज से प्रभावित थी, लेकिन उसने खुद को शांत रखा। बातचीत में अब एक हल्का सा अपनापन झलकने लगा था।

प्रिया : (थोड़ा गंभीर होकर) वैसे, इन्द्रप्रस्थ में क्या सब खुश रहते हैं?

अमर : (थोड़ा भावुक होकर) इन्द्रप्रस्थ में तो खुशियां हैं, लेकिन वो अपनों की कमी महसूस करता है।

प्रिया : (धीमे स्वर में) शायद अपनों की तलाश भी एक सफर है।

अमर : (गहरी नजरों से देखते हुए) और सफर में अगर साथी मिल जाए, तो रास्ता आसान हो जाता है।

प्रिया अमर की बातों के मायने समझने लगी थी। उसकी मुस्कान अब और गहरी हो गई थी। अमर के सरल और सच्चे शब्दों ने प्रिया को एक अनकही भावना के करीब ला दिया।

प्रिया की मुस्कान पलभर में गायब हो गई। उसने बिना किसी भाव के कहा, “काशी।” दोनों ने अपने राज्यों के बीच की दुश्मनी को समझते हुए, अपने रास्ते अलग करना ही बेहतर समझा।

जिनके भाग्य में प्रेम लिखा हो, वे कितना भी दूर जाने की कोशिश करें, किस्मत उन्हें बार-बार मिलाती रहती है। यही प्रेम की ताकत है, जो हर बाधा को पार कर जाती है।

दोनों राजभवन में फिर से मिले, जहाँ श्री राग वैष्णव जी का काव्य पाठ हो रहा था। वैष्णव जी ने अपनी कविता के माध्यम से प्रेम के महत्व को खूबसूरती से रेखांकित किया:

भाग्य का लिखा कौन बदल सकता है,

प्रेम जिससे होना है, होकर ही रहता है।

राह में फैला दिया जाता है कीचड़,

फिर उसी कीचड़ में कमल खिला करता है।

प्रेम संभल-संभलकर चलता है,

प्रेम कहां किसी से डरता है।

प्रेम में तिनका भी तलवार है,

प्रेम वो फूल है, जो खिलता सदाबहार है।"*

कविता के ये शब्द अमर और प्रिया के दिलों में गूंजने लगे। दोनों को ऐसा महसूस हुआ जैसे ये शब्द उनके लिए ही लिखे गए हों। यह बेचैनी उन्हें उस आँगन तक खींच लाई, जहाँ उनकी पहली मुलाकात हुई थी।

कविता के प्रभाव ने दोनों को और करीब ला दिया। कुछ पलों की खामोशी के बाद, दोनों ने एक साथ कहा, “हम आपसे बात करना चाहते हैं।”

अमर: पहले आप कहिए।

प्रिया: क्या... क्या हम बात आगे बढ़ाएँ, तो बात बनेगी?

अमर: पता नहीं। पर अगर बात नहीं बढ़ाएँगे, तो?

प्रिया: पता नहीं...

अमर: जब हम दोनों को ही नहीं पता, तो क्यों न कोशिश करें? शायद बात बन जाए।

प्रिया: पर क्या आप हमारे राज्यों के संबंधों के बारे में नहीं जानते?

अमर: जानता हूँ। अच्छी तरह से जानता हूँ..  लेकिन संबंध बदले जा सकते हैं—प्रेम से।

प्रिया: प्रेम से? पहली नज़र में ही?

अमर: हाँ!

प्रिया: लेकिन हम अभी आश्वस्त नहीं हैं।

अमर: मैं वादा करता हूँ कि दोनों राज्य एक दिन संबंधी जरूर बनेंगे।

प्रिया: और मैं भी वादा करती हूँ कि जब हमारे पिता संबंधी बनेंगे, तब मैं पूरी प्रजा के सामने आपको बाँसुरी सुनाऊँगी। पर...

अमर: पर क्या?

प्रिया: अगर इससे पहले कुछ अनहोनी हो गई तो?

अमर: अगर इससे पहले तुम हमारी हो गई, तो?

अमर की इस बात पर प्रिया फिर से उसकी ओर खिंची चली आई। उनके प्रेम की चर्चा धीरे-धीरे महल की दीवारों के पार फैलने लगी। लेकिन उनके इस प्रेम की भनक, सबसे बड़े विरोधी को लग चुकी थी।

महाराजा वर्मा ने अपनी बेटी को दुश्मन राज्य के राजकुमार के साथ हँसते हुए देख लिया था। उनके चेहरे पर गुस्से की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं।

आगे क्या होगा? क्या प्रिया और अमर का प्रेम इन राजनीतिक दीवारों को तोड़ पाएगा? क्या भाग्य उनके प्रेम की कहानी को अमर कर पाएगा? जानने के लिए पढ़ते रहिए। 

 

 

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