अमर और प्रिया ने अपने दिलों की आवाज़ सुननी शुरू कर दी थी, जिसकी भनक काशी के राजा वर्मा को लग गई थी। कहते हैं, इश्क़ है भी या नहीं, यह शीशे में देखकर नहीं, आँखों की चमक में छुपी बेचैनी से पता चलता है। अमर और प्रिया को साथ देखकर महाराजा वर्मा ने भाँप लिया था कि मामला क्या हो सकता है। अगर कोई और होता, तो शायद उसी वक्त सूली चढ़ा दिया जाता, लेकिन उनके सामने उनकी बेटी प्रिया थी। इसलिए महाराजा ने उस वक्त कुछ कहना उचित नहीं समझा और वापस भवन की ओर चल दिए।
इस बात से अंजान कि उसके पिता ने उसे अमर के साथ देख लिया है, प्रिया रथ में बैठी-बैठी अपने ही ख्यालों में खोई ढलती शाम का नारंगी सूरज बार-बार उसे अमर की याद दिला रहा था। पहली बार, प्रिया को एहसास हुआ कि प्रेम का रंग लाल के साथ नारंगी भी हो सकता है। कैसे हम प्रेम में अपना सब कुछ प्रेमी से जोड़ लेते हैं, चाहे वह चारों पहर हों, फूल हों, कोई गीत हो, या फिर कोई जगह।
फिलहाल, यह जुड़ाव प्रिया को ढलते सूरज के साथ होने लगा था, जिसकी किरणें उसके बालों पर पड़ रही थीं और उसकी माँग सिंदूरी लग रही थी। इस एहसास से प्रिया खुद ही शर्मा गई, उसकी नज़रें और झुक गईं, और चेहरे पर एक सुकून भरी हंसी आ गई। कई दिनों बाद, प्रिया की माँ, काशी की महारानी प्रियंवदा ने अपनी बेटी के चेहरे पर यह तसल्ली देखी।
प्रेम को परखने का सबका अपना तरीका होता है। किसी ने इसे तसल्ली की तरह जाना, तो किसी ने तनाव की तरह.. लेकिन सवाल यह था कि अमर और प्रिया जो कदम उठाना चाहते थे, वह किस हद तक सही होगा? क्या बात का बतंगड़ बनेगा, या फिर बात बनेगी? इन दोनों ही सवालों के जवाब, भविष्य के गर्भ में छुपे थे। फिलहाल, प्रिया के दिल में छुपा था उसका अमर के लिए प्यार।
जब प्रिया अपने महल पहुँची, तो उसे अमर के साथ बिताए पल एक-एक करके याद आने लगे। चाहे अमर का उसे देखना हो या उसे दिलासा देना, प्रिया को सबसे ज्यादा उसकी सरलता और सच्चाई याद आ रही थी। प्रेमी अगर सच्चा हो, तो आधे मसले यूँ ही सुलझ जाते हैं, और आधे साथ देकर सुलझाए जाते हैं।
प्रिया जितनी गुमसुम महल से बाहर निकली थी, उससे ज्यादा खुश होकर वापस लौटी थी। यह उसकी दासी ने देख तो लिया था, पर वह थकी हुई दिख रही थी, इसलिए उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। सही ही कहा है किसी ने कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते।
उस रात, प्रिया को कई दिनों बाद गहरी नींद आई। किसी का सिर्फ हमारा होना, हमारी चिंताओं को दूर कर देता है। प्रिया ने भी अपनी चिंता अमर के पास छोड़ रखी थी। उसे अमर की वह बात बार-बार याद आ रही थी, जब उसने कहा था:
"मैं तुमसे वादा करता हूँ कि दोनों राजाओं की सहमति से ही तुमसे शादी करूँगा।"
सच कहते हैं, शब्द भी मरहम होते हैं, जो दिल के घावों को भर देते हैं। अगले दिन जब प्रिया बाग़ में टहल रही थी, तभी उसके पिता, महाराजा वर्मा, वहाँ आ पहुँचे। कुछ देर प्रिया को देखने के बाद उन्होंने कहा:
महाराजा वर्मा: "प्रिया...!"
प्रिया: "पिताजी, आप..."
महाराजा वर्मा: "क्यों नहीं हो सकता?"
प्रिया: "वो बात नहीं है, आप तो इस वक्त राज्य के मंत्रियों के साथ राजनैतिक गतिविधियों पर चर्चा करते हैं।"
महाराजा वर्मा: "कितनी भली-भाँति जानती है हमारी राजकुमारी हमें।"
प्रिया: “जानूँगी कैसे नहीं? बचपन से माँ के साथ रहने से ज्यादा, आपके साथ जो रहती आई हूँ।”
प्रिया ने अपने ही जवाब पर जब गौर किया, तो वह चुप हो गई। अचानक, उसका बचपन उसकी आँखों के सामने आ गया। पिता के कंधे पर बैठकर राज्य को देखना, आम खाने की ज़िद पकड़कर बैठना, और कभी ज़्यादा गुस्से में महल की सजावट बिखेर देना, फिर अपने पिता से कह देना, "मुझे मेरे खिलौने वापस दो।" एक पल के लिए प्रिया सोच में पड़ गई और खुद से सवाल करने लगी कि आखिर क्यों वो अपने पिता के प्यार को समझ नहीं पा रही है। वो इन्हीं ख़यालों में थी कि तभी महाराजा वर्मा ने उसे आवाज़ लगाई।
महाराजा वर्मा: "प्रिया? कहाँ गुम हो गई?"
प्रिया: "कुछ नहीं, पिताजी। बस बचपन की कुछ यादें आँखों के सामने झूल गईं।"
महाराजा वर्मा: “तुम हमारा मान हो, प्रिया!”
प्रिया ने जैसे ही अपने पिताजी के मुँह से यह बात सुनी, उसका दिल थम गया। मानो एक पल के लिए उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई हो। उसने जैसे-तैसे खुद को संभाला और नज़रें झुकाकर वापस अपने कमरे में आ गई। प्रिया को मायूस जाता देख महाराजा वर्मा ने कुटिल हँसी हँसी और बुदबुदाने लगे, "जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ।"
हैरानी की बात है, जब किसी को धोखा देना होता है, तो लोग प्यार का रास्ता अपनाते हैं, लेकिन जब दो लोगों को साथ लाना होता है, तो दुश्मनी का तरीका अपनाते हैं। इस वक्त महाराजा वर्मा भी ऐसे ही नतीजे पर पहुँच रहे थे।
वहीं दूसरी तरफ, प्रिया अपने पिता की बातों को बार-बार याद कर रही थी। उसे अपने बड़े से कमरे में घुटन महसूस होने लगी। उसके हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगे थे। वह बेचैनी से अपने कमरे में गोल-गोल चक्कर लगा रही थी। जब थक गई, तो वह अपने कमरे की खिड़की के पास जाकर बैठ गई। तभी खिड़की की तरफ एक पत्थर उड़ता हुआ आया, जिसमें एक काग़ज़ लिपटा हुआ था। काग़ज़ पर लिखा था:
अमर : “अपने होंठों से यह मायूसी हटा दो, तुम्हारे होंठों पर बाँसुरी अच्छी लगती है।”
काग़ज़ के नीचे लिखा था—"अमर।"
प्रिया ने जैसे ही चिट्ठी में अमर का नाम पढ़ा, वह खुश हो गई, जैसे किसी बच्चे को उसका खोया हुआ खिलौना मिल गया हो। प्रिया को उस वक्त एहसास हुआ कि अमर उसकी खोई हुई उम्मीद है। उसने खिड़की से बाहर झाँका, पर उसे कोई नहीं दिखा। तभी एक और पत्थर उसके पास आकर गिरा। इस बार लिखा था:
"कितना अच्छा लगता है आपके नाम के आगे हमारा नाम, जैसे भटके हुए राहगीर को मिली उसकी मुस्कान। आपके चेहरे की इस हँसी को दोबारा देखने के लिए हमने एक कर दी सुबह से शाम।"
इस बार चिठ्ठी में अमर का नाम नहीं था, बल्कि नीचे लिखा था "प्रियम।" यह देखकर प्रिया ने फिर से पंक्तियाँ दोहराईं, "कितना अच्छा लगता है आपके नाम के आगे हमारा नाम।"
प्रिया की आँखें अमर को देखने के लिए और भी बेताब हो गईं। उसने फिर खिड़की से बाहर झाँका, लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं दिया। तभी उसे एक जानी-पहचानी खुशबू आई—वही मोगरे का इत्र, जो उसने शाही महोत्सव के दौरान महसूस किया था। उसे यकीन हो गया कि अमर आस-पास ही है। उसने पूरे प्यार से कहा:
प्रिया : “अमर, कहाँ हो तुम?”
अमर खुद को सामने आने से रोक नहीं पाया। अमर को देखते ही प्रिया की आँखों से आँसू निकल आए। प्रेम में इंसान जब निःशब्द हो जाता है, तो आँसू ही जज़्बात का ज़रिया बन जाते हैं। प्रिया भी वही कर रही थी। फिर प्रिया ने अमर से अपने जज़्बात बयां किए। उसने कहा:
प्रिया : “अमर, तुम मेरे लिए रोशनी की तरह हो।”
प्रिया के इज़हार ने अमर को स्तब्ध कर दिया। अमर ने प्रिया के माथे को चूमा और उसे गले से लगा लिया। प्रिया को यकीन हो गया कि दुनिया कितनी भी मुसीबतें लाए, अमर की बाहों में वह हमेशा महफूज़ रहेगी।
उसी वक्त महल की एक दासी ने चुपके से उन्हें देख लिया। प्रिया ने अपने कमरे के आगे किसी की परछाई देखी और अमर को तुरंत जाने के लिए कहा। अमर के जाने के बाद, प्रिया ने राहत की साँस ली।
अगली सुबह, महाराजा वर्मा ने प्रिया से कहा कि वह उसका विवाह अंग के महाराजा के पुत्र, प्रत्युष से करवाना चाहते हैं। यह सुनकर प्रिया फिर से घबरा गई। एक दासी ने आकर कहा कि, उसकी सहेली बाग में प्रतीक्षा कर रही है। प्रिया हैरान हुई, पर बिना देर किए बाग में पहुँच गई। वहाँ एक औरत घाघरा-चुनरी पहने खड़ी थी, जिसका सर ओढ़नी से ढका हुआ था। प्रिया ने आवाज़ लगाई:
प्रिया : “कौन हैं आप?”
वह पलटी और बोली:
अमर : “तुम्हारी दोस्त हूँ, अमृता।”
प्रिया चौंक गई, फिर उसने महसूस किया कि यह अमर ही है। अमर को ऐसे देख प्रिया कुछ पल के लिए खूब हँसी, फिर अचानक उसकी हँसी रुक गई। अमर के पूछने पर उसने अपने विवाह की बात बताई, जिसे सुनकर अमर का दिल बैठ गया। अमर ने प्यार भरे स्वर में प्रिया को भरोसा देते हुए कहा:
अमर : “प्रिया सिर्फ अमर की है और उसी की होकर रहेगी। हमें किस्मत ने जरूर मिलाया है, पर हमें हमारी कोशिशें ही साथ ला पाएँगी।”
यह सुनकर प्रिया में फिर से खोई हुई उम्मीद जागी। वह अमर को गले लगाना चाहती थी, पर अमर ने इशारे से रोक दिया। प्रिया भी समझ गई और फिर वहाँ से जाने लगी। जाते हुए वह मुड़ी और बोली:
प्रिया : “मेरा प्रेम अमर है।”
यह सुनकर अमर भी मुस्कुराते हुए वहाँ से चला गया। बाग़ में प्रिया के लिए एक दासी महाराजा वर्मा का ख़त लेकर आई, और तब इस बात का खुलासा हुआ कि उन्हें मालूम है कि वह अमर को पसंद करती है। साथ ही उन्होंने चेतावनी भी दी कि अगर उसने अपनी मर्यादा लाँघी, तो अंजाम उसकी सोच से परे होगा प्रिया एक बार फिर ख़यालों के अंधेरे में चली गई।
बिना अमर को बताए, क्या प्रिया खुद को संभाल पाएगी या फिर अपने पिता की बात मान लेगी? आगे क्या होगा, यह जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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