बच्चों के खेलने के बीच घंटाघर का घंटा बजा और सारे बच्चे एक साथ गिनने लगे-  ‘’एक, दो, तीन, चार, पाँच।''

कानपुर सेंट्रल स्टेशन से थोड़ी दूर, घंटाघर चौराहे के पास, कानपुर-रायबरेली रोड के किनारे पर बसा है यह मोहल्ला 'बिराना मोहल्ला'।

इस मोहल्ले के नामकरण को लेकर कानपुर में कई कहानियाँ मशहूर हैं। कोई कहता है कि इस मोहल्ले में पहले सिर्फ़ मजदूर ही रहते थे, जो अंग्रेजों के लिए काम करते थे। बाद में सभी मजदूर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए और यह मोहल्ला वीरान हो गया। इसी वज़ह से इसका नाम वीरान से विराना हुआ और फिर विराना से बिराना हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि इस मोहल्ले में मजदूरों को जॉर्ज टी. बूम ने बसाया था, जिसने कानपुर शहर में घंटाघर बनवाया था। सब कहते हैं कि बाल गंगाधर तिलक ने यहाँ गणेश उत्सव मनाया था।

जितने लोग, उतनी कहानियाँ हैं इस 'बिराना मोहल्ले' की लेकिन इस बिराना मोहल्ले में एक इंसान के बारे में सिर्फ़ एक ही कहानी है- उसकी मेहनत, ईमानदारी और सभी के साथ प्यार और भाईचारे से साथ रहने की कहानी। वह है इस मोहल्ले के आख़िरी घर में रहने वाले दशरथ की कहानी, जो चार बेटियों का पिता है। वह कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करता है। मजदूरों के मोहल्ले में रहने वाला दशरथ बाकियों से ज़्यादा मजदूरी करता है, फिर भी उसकी आर्थिक स्थिति बाकियों से ख़राब है। ये सभी जानते हैं कि यह सब उसकी ईमानदारी का परिणाम है।  

दशरथ के साथ-साथ उसकी चार बेटियों संस्कृति, यमुना, दिव्या और नंदनी को भी पूरा मोहल्ला जानता है। उसने अपनी बेटियों को बहुत ही प्यार से पाला है, पत्नी के गुज़र जाने के बाद उसने माँ-बाप दोनों की ज़िम्मेदारी निभाई है।

आस-पड़ोस के लोग दीप जलाने कि तैयारी में लगे थे, लेकिन दिवाली के दिन भी दशरथ अब तक घर नहीं लौटा था। गलियों में खेल रहे बच्चे भी अपने-अपने घर लौट चुके थे। कुछ बच्चे पटाखों के लिए घर में हल्ला मचा रहे थे, कुछ बच्चे फुलझड़ी जलाने का इंतज़ार कर रहे थे। दूसरे मोहल्ले से भी पटाखों की आवाज़ आनी शुरू हो गई थी, लेकिन दशरथ के घर में पूरी तरह से सन्नाटा था।  

जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ रहा था, उसका घर पड़ोसियों के घर की रोशनी में और भी ज़्यादा काला-स्याह दिखाई पड़ रहा था। चारों बेटियाँ स्टेशन से आने वाले रास्ते को निहार रही थीं, इतने में एक पड़ोसी दिया लेकर आया। उसका नाम दिवाकर था, वह उम्र में दशरथ से लगभग पाँच साल छोटा था। उसे आता देखकर संस्कृति और उसकी बाकी बहनों के चेहरों पर बनावटी मुस्कान आ गई।

दिवाकर ने वह दिया उनकी चौखट पर रख दिया। दिवाकर ने घर के अंधेरे को देखा और हैरानी जताते हुए पूछा कि दशरथ भाई अभी तक नहीं आए? आज तो दिवाली है। कम से कम आज तो जल्दी आ जाते, लेकिन जवाब में नंदनी ने कहा कि पापा आते ही होंगे। वो कहकर गए थे कि दिवाली का सामान भी लौटते समय लेते आएंगे।

दिव्या ने नंदनी को हौसला बढ़ाते हुए कहा कि पापा दिवाली का सामान ही ले रहे होंगे। संस्कृति और यमुना ने भी सिर हिलाते हुए इस बात पर सहमति दी। दिवाकर ने फिर हैरानी जताते हुए कहा, "लेकिन, आज दिवाली है, आज तो दुकानें भी जल्दी बंद हो जाएंगी। मैंने उन्हें कल ही कहा था कि दिवाली की ख़रीदारी कर लें।”

इस पर सभी बहनें चुप हो गईं। वे सभी अपने पिता के स्वाभिमान को अच्छे से जानती थीं। उन्हें पता था कि अगर उनके पास पैसे नहीं हैं तो वह ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जो ज़रूरी न हो। दिवाकर ने आगे बताया कि दशरथ ने कल उससे पैसे लेने से मना कर दिया और सामान नहीं ख़रीदा। अगर वो कल सामान ले लेता तो आज घर में अँधेरा तो नहीं रहता।

यमुना मन ही मन उसकी चालाकी समझ रही थी, अगर दिवाकर ने कल सामान ख़रीदने के लिए पैसे दिए हुए होते तो आज दिवाली के दिन पैसे के लिए सिर पर चढ़ भी जाता।

 

संस्कृति (बात सँभालते हुए)- दिवाकर चचा, आप तो हमसे बड़े हैं और आप पापा को हमसे ज़्यादा जानते है। आप ही बताइए जब आपकी नहीं सुनते तो हम बहनों की क्या सुनेंगे? वैसे मुझे भी लगता है कि वो सामान लेने में ही लेट हो रहे होंगे।

यमुना सोच रही थी कि शायद इस तरफ़ की दुकानें बंद हो गई होंगी, इसलिए पापा रेलवे स्टेशन की दूसरी तरफ़ चले गए होंगे।

दिवाकर ने अपना दिया उनकी चौखट पर रख दिया था। दिवाली के दिन, संस्कृति और बाकी बहनें उस दिए को मना नहीं कर सकती थीं, इसलिए वे बस दिवाकर को देखकर मुस्कुराती रहीं। इससे पहले कि दिवाकर और कुछ कह पाता, उसका आठ साल का छोटा बेटा, जिसे सभी डुग्गु कहते थे, उसके पास आया। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला, पापा-पापा, मुझे फुलझड़ी जलानी है। जल्दी दो न मुझे।

दिवाकर मुस्कुराते हुए डुग्गु को फुलझड़ी दिलाने के लिए अपने घर लौट आया। उसने जाते-जाते बताया कि पटाखे रैक पर रखे हैं और ऊंचाई पर है, इसीलिए डुग्गु उस तक नहीं पहुँच पा रहा। आख़िरी में उसने चारों बहनों से कहा कि कभी कोई दिक्कत हो, तो अपने दिवाकर चाचा को बताएं, वो हमेशा उनके साथ खड़े हैं। यह कहकर दिवाकर, डुग्गु को साथ लेकर अपने घर लौट गया। चारों बहनें उन्हें जाते हुए देखती रहीं।

 

घर के बाहर तो दिवाली की रोशनी थी, लेकिन दशरथ के घर के अंदर अंधेरा था। दिवाकर का चौखट पर रखा गया दिया, कुछ-कुछ जगमगा रहा था, लेकिन वह दिया दिवाकर का था, इसलिए उसकी रोशनी चारों बहनों को अच्छी नहीं लग रही थी। दशरथ जिस स्वाभिमान और ईमानदारी के साथ अपनी ज़िंदगी जी रहा था, वह गुण धीरे-धीरे उसकी सभी बेटियों में भी आ गए थे। ऐसा शायद ही कभी हुआ था कि किसी ने अपनी ग़रीबी या घर की हालत के लिए अपने पिता से कोई शिकायत की हो।

 

वो चारों सिर्फ़ अपने पिता का नहीं, बल्कि उनके साथ आने वाले खाने के राशन का भी इंतज़ार कर रही थीं। सुबह किसी तरह खाना बना था, जो अब खत्म हो चुका था। धीरे-धीरे शाम, रात में बदल रही थी। पटाखों की आवाज़ से पूरा कानपुर शहर गूंज रहा था। शाम होते ही पटाखों के बारूद की गंध हवा में फैल गई थी।

 

नंदनी पेट पकड़ते हुए दर्द से बेबस होकर बोली कि उसे भूख लगी है। यह सुनकर दिव्या ने अपनी दोनों बड़ी बहनों को देखा। उनकी आँखें डबडबा गईं, लेकिन संस्कृति ने ख़ुद को संभाला और चुपचाप किचन की ओर बढ़ गयी। थोड़ी देर बाद, वह एक गिलास में पानी लेकर वापस आई।

संस्कृति(समझाते हुए)- लो पानी पी लो, पापा आते ही होंगे। वो आयेंगे तो आज खीर बनायेंगे।

दोपहर से ही नंदनी को भूख लगी थी। उसने दोपहर से लेकर शाम तक पानी ही पी-पीकर अपनी भूख को रोक रखा था, लेकिन अब न तो पानी किसी काम आ रहा था और न ही बड़ी बहन का दिलासा। उसकी भूख अब उसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। नंदनी दर्द से रोते हुए बोलने लगी कि उससे और पानी नहीं पिया जाएगा। भूख लगी है, उसे खाना खाना है।

संस्कृति (ढाँढस बंधाते हुए, काँपती आवाज़ में) - फिक्र मत करो, सब ठीक हो जाएगा। एक दिन सब ठीक हो जाएगा। बस कुछ देर और पापा आते ही होंगे।

यमुना अपनी जगह पर ही बैठी एक टक सड़क को देखती रही। उसकी आँखें भी नम हो चुकी थीं, लेकिन वह कुछ भी नहीं बोल रही थी, मानों मूर्ति की तरह बैठी हो। अगर चारों बहनें इस समय फूट-फूट कर रोतीं, तो भी उनकी आवाज़ पटाखों की आवाज़ में गुम हो जाती। थोड़ी देर बाद सड़क पर एक बाइक की रोशनी दिखाई दी, हालांकि किसी ने उस रोशनी पर ध्यान नहीं दिया। जब वह बाइक गली तक आई, तब सभी बहनों ने उस बाइक को देखा। उस पर दो लोग सवार थे।

बाइक पर पीछे कोई और नहीं, बल्कि दशरथ था और उसके हाथ में दो झोले थे। यह देखते ही चारों बहनों ने राहत की साँस ली। वे अभी दूर सड़क पर ही खड़ी थीं, तब तक चारों ने अपने आँसुओं को जल्दी से पोछ लिया, जैसे कुछ हुआ ही न हो, जैसे किसी बात का दर्द ही न हुआ हो।

दशरथ संभलकर बाइक से उतरा। बाइक ड्राइवर हेलमेट पहने हुए था, इसीलिए दूर से पहचानना मुश्किल था। दशरथ ने उसे धन्यवाद के साथ दिवाली की शुभकामनाएँ दीं। बाइक ड्राइवर तेज़ी से वहाँ से निकल गया। दशरथ ने मोहल्ले में चारों तरफ़ रोशनी देखी और फिर अपने वीरान से अंधेरे घर की ओर बढ़ने लगा। उसने थोड़ा-सा संभलकर पैर आगे बढ़ाया। यमुना चौंकी, उसके चेहरे पर घबराहट थी और वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। उसने जल्दी से देखा और चिल्लाई कि वो लंगड़ाकर क्यों चल रहे हैं?

यह सुनते ही संस्कृति अपने पिता की ओर भागी साथ-साथ बाकी तीनों बहनें भी भागती चली आईं।

संस्कृति ने दौड़ते हुए दशरथ को संभाला। इस बीच, नंदनी और दिव्या ने उसके हाथों से झोला ले लिया और उसे सहारा दिया। यमुना ने आकर दूसरी तरफ़ से उसे सहारा दिया, ताकि वह ठीक से चल सके।

दशरथ (मुस्कुराते हुए)-"अरे! कुछ नहीं हुआ है मुझे, बस हल्की सी चोट लग गई है।

नंदनी और दिव्या ने जल्दी से झोले से कुछ मोमबत्तियाँ निकालीं और घर में जलाने लगीं। संस्कृति और यमुना ने अपने पिता को खाट पर बिठाया और फिर एक मोमबत्ती की रौशनी में उनके पैरों की जाँच करने लगीं। दाहिने पैर में मोटी पट्टी बंधी थी और खून अभी भी रिस रहा था। बायें पैर में रबर की चप्पल पूरी तरह से टूटने के कगार पर थी। नंदनी ने एक और झोला खोला और उसमें से मोमबत्तियाँ और कुछ फुलझड़ियाँ भी निकालीं। जैसे ही नंदनी ने एक फुलझड़ी निकाली, उसके नीचे दाहिने पैर की टूटी चप्पल पड़ी थी। साथ में कुली का बिल्ला भी पड़ा था, जो दशरथ के कुली होने की पहचान थी।

दशरथ दर्द में भी मुस्कुराते हुए अपनी बेटियों को देख रहा था, जैसे वह चाहता था कि वे घबराएं नहीं, वह ठीक हो जाएगा। बेटियाँ अपने पिता के चेहरे को देखते हुए सवालों से घिरी हुई थीं, लेकिन वे कुछ नहीं पूछ पाईं। वे केवल चुपचाप अपने पिता को देख रही थीं, उनके चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थीं और उन लकीरों के साथ एक सवाल भी था कि क्या वाकई पापा जल्दी ठीक हो पाएंगे…क्या उनके ठीक होने तक हमारी दो वक़्त की रोटी का ठिकाना हो पाएगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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