पटाखों की आवाज़ों के बीच दशरथ की ख़ामोशी मानों चीख कर बहुत कुछ कहना चाहती थी, लेकिन वह अपनी बेटियों के सामने कभी भी कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था। वह अपने पैरों की ओर देख रहा था। संस्कृति से रहा नहीं गया।
संस्कृति(भावुक होते हुए) – पापा! बताइए, ये कैसे हुआ? कब हुआ ये? हमें पता है, आप हमेशा की तरह कोई न कोई बहाना बना कर टाल ही दोगे।
दशरथ ने आज तक कभी भी अपनी परेशानियों को किसी से साझा नहीं किया था। जब उसकी पत्नी अनुराधा जीवित थी, तब उसने शायद उससे अपनी पीड़ा बताई हो। चाहे जैसी भी हालत रही हो, अपनी बेटियों के सामने वह हमेशा एक मजबूत पिता बनने की कोशिश करता रहा था।
दशरथ(समझाते हुए, धीमी आवाज़ में) – आराम से बात करेंगे, पहले तो मोमबत्तियाँ जलाओ, घर अभी पूरी तरह से अंधेरे में है। जल्दी से खीर बनाओ, दूध उसी मोमबत्ती वाले झोले में होगा।
नंदनी पहले ही झोले से दूध निकाल चुकी थी।
संस्कृति (मुस्कुराने की कोशिश करती हुई) – ठीक है, मैं खीर बनाने चली जाती हूँ पापा, लेकिन आप भी हमें अपने पैरों की हालत के बारे में बताइए।
यमुना और नंदिनी ने हामी भरते हुए अपने पिता से कहा कि अब वे छोटी बच्ची नहीं हैं, बड़ी हो गई हैं, इतना दर्द हो रहा है, लेकिन वो जानबूझ कर उनके सामने कुछ भी ज़ाहिर नहीं होने देते। इतनी मेहनत करते हुए अपने शरीर का ख़्याल भी नहीं रखते, वो जल्दी से बताएं कि उनके साथ क्या हुआ था।
अपने पिता के आते ही नंदनी की भूख मानों गायब हो गई थी। जैसे उसे अब कोई दर्द ही नहीं हो रहा था। सच ही कहते हैं, बड़े दर्द के सामने छोटा दर्द अपने आप कम लगने लगते हैं और ऐसा लगता है जैसे हमारे साथ कभी कुछ हुआ ही न था। नंदिनी को उछलते हुए देखकर संस्कृति और यमुना के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वह सभी बहनों में सबसे छोटी थी। उसकी उम्र 19 साल थी। जैसे ही उसने कहा कि वह बड़ी हो गई है, दशरथ भी हँस पड़ा। उसकी ज़िद के आगे, दशरथ की भी नहीं चलने वाली थी।
दुनिया में किसी के सामने कभी न झुकने वाला दशरथ, आख़िरकार था तो बेटियों का बाप और वही उसकी ज़िंदगी का मकसद था। दशरथ ने अपनी सभी बेटियों को बड़े ही प्यार से निहारा।
दशरथ (मन ही मन) – सच ही तो कह रही है। सभी बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। संस्कृति भी कुछ महीनों में 23 साल की हो जाएगी, यह सोचकर दिल में थोड़ी हलचल सी होती है।
दशरथ ( कराहते हुए) – अच्छा ठीक है बाबा, बताता हूँ, बताता हूँ। पानी तो पिला दो। बताया नहीं तो पानी भी नहीं पिलाओगे।
यमुना ने खाट पर ठीक से बैठने में दशरथ की मदद की। दिव्या तुरंत ही एक गिलास में पानी लेकर आ गई। पानी पीकर दशरथ ने गहरी साँस ली।
दशरथ (सोचते हुए) – आज दिवाली के दिन भी बहुत सारे लोग कानपुर स्टेशन पर उतर रहे थे। सुबह से ही हर ट्रेन में भीड़ ही भीड़ थी, कुछ ट्रेनों में तो इतनी भीड़ थी कि लोग टॉयलेट में बैठे हुए थे। रत्ती भर भी जगह नहीं थी ट्रेन में। बहुत से लोग दिल्ली से बहुत सारा सामान लेकर आ रहे थे, उन्हें कुली की ज़रूरत महसूस हो रही थी, इसीलिए दिन भर तो बहुत अच्छा रहा।
नंदनी की आँखों में ख़ुशी की चमक थी, मानों उसे कुछ अच्छा सुनने को मिलने वाला हो। उसने उत्साह के साथ कहा कि यह तो अच्छी बात है कि भीड़ जितनी ज़्यादा होगी, उतना ही ज़्यादा पैसे कमाने का मौका मिलेगा।
दशरथ (समझाते हुए) – हाँ, बात तो तुम ठीक ही कह रही हो। दिन भर तो ऐसा ही होता रहा, लेकिन शाम को एक ट्रेन आई, उसमें बहुत भीड़ थी। धड़ाधड़ लोग उतरने लगे, मैं एक सवारी का सामान उठाने ही जा रहा था कि पीछे से किसी का पैर मेरी चप्पल पर पड़ गया। चप्पल वहीं टूट गई, मैं आगे की ओर गिरा। जब तक मैं उठकर खड़ा होता, तब तक एक पैसेंजर ने ट्रेन से अपना सामान स्टेशन पर फेंक दिया।
दशरथ ने कहते हुए उस पल को फिर से याद किया और दर्द से कराहने लगा। संस्कृति ने दूध उबालने के लिए रख दिया था। वह खीर और बाकी खाना बनाने की तैयारी कर रही थी, लेकिन उसका पूरा ध्यान अपने पिता की बातों को सुनने में था। दिव्या भी उसके साथ खाना बनाने की प्रक्रिया में शामिल हो गई थी।
यमुना और नंदनी अभी भी दशरथ के पास ही बैठी थीं। जैसे ही दशरथ अपनी बात कहते हुए रुका, सभी बहनें आगे की बात सुनने के लिए उसकी तरफ़ एक टक देखने लगीं।
सभी बहनें इतनी बेचैन थीं कि उनका बस चलता, तो वे उस समय
में वापस जाकर उस इंसान को रोक देतीं जिसने ट्रेन से अपना सामान स्टेशन की तरफ़ फेंका था। नंदनी की आँखों में हैरानी थी और वह सोच रही थी कि उसी सामान से दशरथ के पैरों में चोट कैसे लगी।
यमुना की आँखों में अफ़सोस था, उसने देखा कि दशरथ का घाव कोई साधारण चोट नहीं थी। चोट को देखकर उसने महसूस किया कि यह सिर्फ़ ऊपरी घाव नहीं हो सकता, जिस तरह की पट्टी बंधी थी, वह किसी गहरे घाव पर ही हो सकती है। यमुना की बात सुनकर दशरथ ने प्यार से उसकी तरफ़ देखा, जैसे उसकी समझदारी और चिंता को वह महसूस कर पा रहा हो।
दशरथ (मन ही मन) – सच में, कितनी समझदार हो गई है यमुना। हर एक छोटी सी बात समझती है। अब वह अपनी बड़ी बहन जैसी बातें करने लगी है।
दशरथ (दर्द में)– उस सामान में कोई खिलौना था, जो टूटा हुआ था। जब उस पैसेंजर ने सामान ट्रेन से बाहर फेंका, तब उसका नुकीला हिस्सा पैर पर लगा और थोड़ा-सा कट गया।
दशरथ ने अपनी बात में "थोड़ा सा कट गया" शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन सभी बेटियाँ समझ गईं कि घाव गहरा है।
संस्कृति (रसोईघर से चिल्लाती हुई) – अरे, उस सवारी के दिमाग नहीं था क्या! वो आराम से भी तो सामान उतार सकता था ना!
दशरथ (समझाते हुए) – कर तो सकता था, लेकिन किया नहीं ना। नहीं तो यह नौबत नहीं आती।
दशरथ लगभग बीस साल पहले, कई साल तक नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुली का काम कर रहा था। वहाँ से कानपुर लौटकर वही काम करते हुए लगभग बीस साल पूरे हो चुके थे, लेकिन इस तरह की घटना कभी नहीं हुई थी।
दिल्ली शहर में दशरथ और उसकी पत्नी अनुराधा ख़ुशी-ख़ुशी रहते थे। उन दिनों कुली की ज़रूरत बहुत से लोगों को होती थी। जब दोनों दिल्ली शहर छोड़कर इस बिराना मोहल्ला में आए थे, तब संस्कृति चार साल की थी। उसने भी अब तक अपने पिता के साथ ऐसी किसी भी दुर्घटना को होते नहीं देखा था।
दिन-रात मेहनत करके दशरथ ने अपनी बेटियों को पाला था। अभी तक घर में एक ही कमाई का ज़रिया होने के कारण वह बीमार होने पर भी काम करता था। इस समय भी उसे अपने पैर के दर्द से ज़्यादा कल के काम को लेकर चिंता हो रही थी। अगर वह काम नहीं करेगा, तो घर में पैसे कैसे आएंगे?
बाहर अभी भी पटाखों का शोर था। खाना तैयार होने के ठीक बाद ही संस्कृति और दिव्या ने खाना परोसा। सभी खाने के लिए एक साथ बैठे ही थे कि किसी के आने की आहट सुनाई दी। यह दिवाकर के आने की आहट थी। दरवाज़े तक पहुँचते ही दिवाकर ने आवाज़ दी, "अरे! दशरथ भाई, कहाँ हो? क्या हो गया? सुना पैर में चोट लग गई।" अपनी बात कहते हुए वह घर के अंदर चला आया।
दशरथ अपनी बेटियों के साथ खाने के लिए बैठा था और दर्द के मारे एक पैर को फैलाए हुए था। उसे आते देख वह मुस्कुराने लगा।
दशरथ (ख़ुशी से) - अरे, आओ दिवाकर! दिवाली मुबारक हो! आओ, खीर खाओ, संस्कृति और दिव्या ने मिलकर बहुत अच्छी खीर बनाई है।
दिवाकर ने खीर से आती ख़ुशबू को सूंघते ही इंतज़ार करने लगा कि कोई उसे खीर खाने के लिए कहे। जब दशरथ ने उसे खाने के लिए आमंत्रित किया, तो वह तुरंत खाने के लिए बैठ गया।
उसने देखा कि दशरथ के पैर में काफ़ी ज़्यादा चोट लगी है, उसने हैरान होते हुए सोचा कि बहुत गहरा घाव लगता है, लेकिन कोई सवाल नहीं किया। खीर का स्वाद लेते हुए वह अंदर ही अंदर यह सोचने लगा कि कैसे यह चोट लगी होगी।
संस्कृति और दिव्या के बनाई खीर की महक़ पूरे मोहल्ले में फैल गई थी, जिससे दिवाकर खिंचा चला आया था। उसने थोड़ी देर पहले लड्डू खाने का ज़िक्र किया और थोड़ी-सी खीर और खाने की इच्छा ज़ाहिर की।
दिव्या ने मन ही मन सोचा कि लड्डू मिठाई का ज़िक्र तो वह कर रहे हैं, लेकिन अगर दो लड्डू लेकर आते और खिलाते तो कोई बात होती।
संस्कृति ने दिव्या के चेहरे को पढ़ लिया और कुछ भी नहीं बोलने का इशारा किया। दिव्या ने दिवाकर से छुपाकर उसे आँखें दिखाई। दशरथ ने फिर से दिवाकर को आज की पूरी घटना के बारे में बताया। दिवाकर के जाने के बाद दशरथ वहीं खाट पर सो गया। सोने से पहले उसने जेब से निकालकर कुछ दर्द की गोलियाँ खाईं। दशरथ के सोने के बाद, यमुना संस्कृति के पास गई और एक थाली में खीर दी।
संस्कृति (चौंकते हुए)- ये खीर! खीर तो खत्म हो गई थी।
यमुना ने हँसते हुए बताया कि उसने दिवाकर चाचा के आते ही मौका देखकर थोड़ी-सी खीर अलग कर ली थी, उसे पहले ही मालूम था कि उनसे खीर नहीं बचती। यह सुनकर संस्कृति की आँखें नम हो गईं, साथ ही यमुना की भी। दोनों ने साथ बैठकर खीर खाई तब तक दिव्या और नंदनी सोने जा चुकी थीं।
यमुना ने काँपती हुई आवाज़ में कहा कि उसे माँ की याद बहुत आती है, क्या संस्कृति को भी माँ की बहुत याद आ रही है। अगर वह होतीं, तो पापा को इतनी तकलीफ़़ नहीं होती, उनकी दिवाली भी आज धूमधाम से होती। संस्कृति ने खीर का आख़िरी निवाला लिया और उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े।
संस्कृति (रुंधी हुई आवाज़ में)- माँ की याद तो बहुत आती है, लेकिन पापा ने कभी माँ की कमी नहीं होने दी। तुम ठीक कहती हो यमुना, आज अगर माँ होती तो हमारी दिवाली भी बाकियों की तरह बहुत धूमधाम से होती।
दोनों बहनें अपनी बातों में, देर तक माँ को याद करती रहीं। सोने से पहले संस्कृति ने अपने पिता की टूटी हुई चप्पल ठीक करने की कोशिश की लेकिन वह ठीक नहीं हुई… संस्कृति के हाथ भले ही चप्पल ठीक करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उसके ज़हन में यही खयाल दौड़ रहा था कि त्योहारों पर लोग नए कपड़े, जूते, चप्पल ख़रीदते हैं, रात को पटाखे फोड़ते हैं…और उसकी दिवाली की रात टूटी हुई चप्पल जोड़ती हुई बीत रही थी। आसमान आतिशबाज़ी से भरा हुआ था और संस्कृति की आँखें पानी से…लेकिन सवाल ये था कि गरीबी की मार झेल रही चारों बहनों की रौशनी से जगमग दिवाली आखिर कब आएगी?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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