सोने से पहले संस्कृति ने फुलझड़ी का डब्बा देखा। पिता के पैरों के घाव और दिनभर की भूख में किसी को दिवाली में फुलझड़ी जलाना भी याद नहीं रहा। यमुना ने फुसफुसाते हुए संस्कृति को बताया कि उसने सोने के लिए बिस्तर लगा दिया है। जिस कमरे में यमुना संस्कृति को बुला रही थी और बिस्तर लगाने की बात कह रही थी वो कमरा नहीं, उन्हीं का रसोईघर था जो थोड़ी देर पहले खाना बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था।

पूरा घर दो कमरे और एक बरामदे का था। बरामदे के ठीक सामने दरवाज़ा था, जहाँ से बैठ कर बिराना मोहल्ला से होकर जाने वाली सड़क दिखाई देती थी।

इस समय रसोईघर में गैस सिलिंडर खत्म होने को था, जिस बात से संस्कृति कुछ दिनों से परेशान थी। राशन पहले ही खत्म हो गया था। सिलिंडर में दो से तीन दिन की गैस बाक़ी थी। राशन तो आज दशरथ ले आया था, लेकिन आने वाले दिनों की किसी को ख़बर नहीं थी। दिवाली के कारण जैसे-तैसे करके उसने खीर बनाने के लिए दूध और चावल अलग से ख़रीदे थे। रसोईघर के अलावा एक और कमरा था जिसमें दिव्या और नंदनी सो रही थीं, वहीं दशरथ बरामदे में सो रहा था। संस्कृति ने दूसरे कमरे में अपनी बहनों को जाकर देखा। दोनों गहरी नींद में थी, दिन भर की भूख के बाद भर पेट खाना और पिता का प्यार पाकर दोनों ही निश्चिंत होकर सो गईं थी। दोनों के चेहरे पर मुस्कान छलक रही थी, मानों सपने में भी उन्हें कोई भर पेट खाना खिला रहा हो। संस्कृति ने दोनों बहनों को प्यार से निहारा और फिर बरामदे में, अपने पिता को ध्यान से निहारती रही।

संस्कृति (मन ही मन)- हे! भगवान, मेरे पापा को इतना दुःख क्यों देते हो? वो इतना मेहनत करते हैं, आपको पूजते हैं, सुबह शाम आपका नाम जपते हैं फिर भी इतना दुःख देते हो, तुम इतने निर्दयी क्यों हो? कुछ तो दया दिखाओ हम पर।

शिकायत के साथ-साथ ही संस्कृति ने मन ही मन भगवान से सब कुछ ठीक करने के लिए प्रार्थना भी की। चौखट पर रखा दिवाकर का दिया लगभग बुझने को आ गया था। दरवाज़ा बंद करने के लिए संस्कृति ने उस दिए को बाहर की तरफ़ थोड़ी-सी जगह में रख दिया।

 

दरवाज़ा बंद करने के बाद उसने पूरे घर को एक बार निहारा और बरामदे में लगी अपनी माँ की तस्वीर को एक टक निहारने के बाद रसोईघर में यमुना के पास सोने चली आयी। दोनों बहनों ने एक नज़र एक-दूसरे को देखा, लेकिन एक-दूसरे से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पायीं। दोनों ही बड़ी बहनें अपने घर की हालत बदलना चाहती थी, लेकिन एक के बाद एक दुःख इस घर में आ ही जाता था।

 

सुबह होते ही हर रोज़ की तरह दशरथ नहा-धोकर पूजा पाठ करने के लिए उठा, लेकिन उसे बहुत दर्द महसूस हो रहा था। उससे पहले संस्कृति जग चुकी थी, उसने घर की सफ़ाई के बाद चाय के लिए पानी चढ़ा दिया था। बरामदे पर अपने पिता को खाट से उठते देख वो तुरंत ही उसके पास पहुँची और खाट से उठने में मदद करने लगी।

 

संस्कृति (समझदारी के साथ) - पापा! आज रहने दो पूजा पाठ। आपका घाव नया है भीग गया तो और दिक्कत होगी।

बुखार में भी दशरथ ने कभी भी सुबह उठकर नहाना नहीं छोड़ा था, लेकिन उसके घाव गहरे थे। उसने एक नज़र संस्कृति की ओर प्यार से देखा।

दशरथ (दर्द में)- ऐसे कैसे रहने दूँ, जब तबियत ठीक रहती है तो हर कोई पूजा-पाठ कर सकता है। भगवान दुःख देकर ही तो हमारी परीक्षा लेता है। ऐसे कैसे मैं पीछे हट जाऊं? बस दूसरा कोई गमछा है तो दे दो और कल जिसमें राशन लाया था, उसमें से कोई बड़ी पॉलीथिन ले आओ।

 

अगले ही पल एक पुराना सफ़ेद गमछा दशरथ के हाथ में था, ये गमछा बहुत पुराना था। जगह-जगह से फटा हुआ ये गमछा किसी और घर में होता तो फ़र्श पोछने के काम आ चुका होता लेकिन संस्कृति ने इसे भी संभाल के रखा था। दशरथ ने घाव वाले हिस्से को पॉलीथिन से ढंककर बांध लिया।

दशरथ (उत्साह के साथ) - ये देखो, हो गया समस्या का समाधान। अब तो घाव पर पानी नहीं आएगा?

संस्कृति (नाराज़ होते हुए)- हाँ, नहीं लगेगा पानी, आप कर लेना पूजा पाठ। वैसे भी आप पूजा पाठ के मामले में कहाँ मानने वाले हो।

दशरथ धीरे-धीरे दरवाज़े से बाहर निकल कर मोहल्ले के सामूहिक शौचालय की तरफ़ बढ़ गया। कल रात दिवाली में जलाये गए पटाखों से चारों तरफ़ बारूद की महक़ थी, मोहल्ले में जले हुए पटाखों के हिस्से बिखरे पड़े थे। संस्कृति को अपने पिता की हालत देखकर समझ आ गया था कि उन्हें देर होने वाली है, इसीलिए उसने चाय के लिए उबल रहे पानी की आँच को कम कर दिया और खाना बनाने की तैयारी करने लगी। यमुना भी जाग चुकी थी।

संस्कृति (प्यार से, तेज़ आवाज़ में)- यमुना! हाथ मुँह धो लो और पीने का पानी भर लो।

बिराना मोहल्ले में सार्वजनिक तौर पर कुछ चीज़ें थी, पहला शौचालय, दूसरा विवाह-भवन तीसरा हैण्ड पम्प। मोहल्ले में जिन लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर हो गयी थी, उन्होंने हैण्ड पम्प से पानी भरना छोड़ दिया था। स्टेशन के पास ही एक मिनरल वाटर की कंपनी से इन लोगों ने बड़ी-बड़ी नीली बोतलों में पानी लेना शुरू कर दिया था, लेकिन अभी भी पीने का पानी भरने के लिए हैण्ड पम्प के पास भीड़ लगी रहती थी। यमुना ने हाथ-मुँह धोया और रसोईघर में रखे पानी का बर्तन और बोतल लेकर घर से बाहर निकल गयी।

संस्कृति ने सब्जी काटने के बाद दिव्या और नंदनी को बहुत ही प्यार से जगाया। मोहल्ले में एक पानी की टंकी भी थी, जिसका इस्तेमाल ज़्यादातर लोग नहाने और कपड़े धोने के लिए करते थे। शौचालय के थोड़ी दूर पर ही हैंडपंप था, जहाँ लोग नहाते और कुछ लोग बर्तन भी धोते थे। कुछ लोग वहीं से पानी भरकर अपने घरों में बर्तन और कपड़े धोया करते थे। यमुना पानी का बर्तन और साथ में कुछ बोतलें लेकर पानी भरने पहुँची। हर दिन की तरह तो भीड़ नहीं थी, लेकिन इतने भी कम लोग नहीं थे कि यमुना को जाते ही पानी मिल जाए। वो वहाँ पहुँचकर अपने नंबर का इन्तज़ार करने लगी। मोहल्ले के ज़्यादातर घरों में पानी भरने वाले लोग फिक्स थे। दशरथ के घर में यह काम यमुना करती थी। जिस किसी भी दिन यमुना बीमार होती, तो ये काम दिव्या और नंदनी साथ में मिलकर करती थी और ऐसा जिस दिन भी होता एक दो बोतल कम ही पानी भरा जाता था।

 

यमुना को देखते ही मोहल्ले की संगीता बुआ उसकी तरफ़ बढ़ी। रात को जिन लोगों ने दशरथ को घर लौटते देखा था, उनमें संगीता बुआ भी थी, लेकिन वो इस समय पूरी जानकारी ले रही थी। यमुना ने मन ही मन सोचा कि जब कल रात पापा उनके सामने से लंगड़ाते हुए जा रहे थे, तब तो नहीं आई फिर अब क्यों पूछ रही हैं? पहले तो यमुना ने उनको नज़रंदाज़ किया लेकिन दुबारा पूछने पर ऊपरी मन से सब कुछ बता दिया। तब तक मोहल्ले की ही एक चाची ने आते से ही अपना पानी का बर्तन यमुना से आगे रख दिया। ये देखते ही यमुना आग बबूला हो गयी, उसने तुरंत अपना बर्तन  उठाकर उनसे आगे रख दिया। संगीता बुआ के सामने ही यह सब हो रहा था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप देखती रही। वहाँ खड़े सभी लोगों को पता था कि यमुना अपनी आँखों के सामने ग़लत होता नहीं देख सकती। देखते ही देखते बहस छिड़ गयी। संगीता बुआ ने देखा कि ये बहस और बढ़ रही है, इसीलिए वो तुरंत ही दशरथ के घर पहुँच गयी और संस्कृति को पुकारते हुए बता दिया कि यमुना और बिसुंदरी आपस में लड़ रहे हैं। ये सुनते ही संस्कृति संगीता बुआ के साथ हैण्ड पम्प के पास जल्दी से पहुँची। उसे देखते ही यमुना ने अपनी तेज़ आवाज़ धीमी कर ली। संस्कृति, बिसुंदरी चाची और अपनी बहन, दोनों को ही जानती थी। उसे अपनी बहन पर पूरा भरोसा था, इसीलिए बिसुंदरी चाची के झूठे आरोपों के बाद भी उसने अपनी बहन से कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ उसे शांत करके घर भेज दिया।

 

नंदनी आकर संस्कृति के पीछे ही खड़ी थी। दिव्या घर पर ही थी। वो समझ गयी थी कि अब उसे पानी भरके लाना है। यमुना जब तक घर लौटी दशरथ अपनी पूजा पाठ में लगा था।

यमुना गुस्से में आकर दूसरे कमरे में लेट गयी उसके पीछे पीछे संस्कृति भी घर लौट आई।

संस्कृति(स्नेह से)- यमुना, तुझे मालूम है न, बिसुंदरी चाची जब भी जल्दी में रहती हैं, ऐसा ही करती है। झूठ बोलना तो उनकी आदत है, कितनी ही बार कहा है उनसे मत उलझा कर।

यमुना ने अपने आप को सँभालते हुए बताया कि वह वहाँ पहले से खड़ी थी, लेकिन बिसुंदरी चाची ने बाद में आकर उसका पानी का बर्तन वहाँ से हटा दिया था। वो अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी। उसे हमेशा से लगता था कि घर की माली हालत ठीक ना होने की वज़ह से ही मोहल्ले वाले उसके और उसके परिवार के साथ ऐसा करते है। अगर उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी होती तो किसी की हिम्मत नहीं होती ऐसा कुछ भी करने की।

संस्कृति (समझाते हुए)- तू बस किसी से मत उलझाकर। अपने समय को इन छोटे-मोटे झगड़ों में मत गंवाया कर।

यह समझाते हुए संस्कृति रसोईघर में चली गयी। थोड़ी देर में दिव्या और नंदनी पानी लेकर आ गए। दशरथ की हालत काम पर जाने की नहीं थी, साथ ही सभी बेटियों ने मना भी किया लेकिन वो नहीं माना।

दशरथ(समझाते हुए)- मैं आज काम नहीं करूँगा, लेकिन आराम स्टेशन पर ही कर लूँगा।

ये कहकर दशरथ जैसे-तैसे घर से निकलने को हुआ और अपनी चप्पल ढूंढने लगा, लेकिन अचानक उसे याद आया कि कल उसकी चप्पल टूट गयी थी। ये सोचकर वो मायूस हो ही रहा था कि दिव्या ने उसकी दोनों चप्पल सामने लाकर रख दी। टूटी हुई चप्पल ठीक हो चुकी थी, संस्कृति ने बड़े प्यार से दिव्या को देखा। छोटी कील से दिव्या ने टूटी हुई चप्पल को अच्छे से जोड़ दिया था, जहाँ ज़रूरत थी उसे पतली तार से ऐसे जोड़ा था मानों कोई डिजाईन हो।

 

दशरथ स्टेशन चला गया। मोहल्ले के आसपास पहले कोई स्कूल या कॉलेज नहीं था। इस कारण मोहल्ले के ज़्यादातर बच्चों की पढ़ाई बहुत देर से शुरू हुई थी। स्कूल लेट से शुरू हुआ तो कॉलेज भी लेट ही शुरू हुआ। इस मोहल्ले से दशरथ की बेटियाँ और साथ में कुछ बच्चे पहली जेनेरेशन थी जिसे पढ़ाई नसीब हो पाई थी। हालाँकि अभी भी बहुत से लोग थे जो अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाए थे। दिव्या और नंदनी इस बार दसवीं में थे। दोनों बहनें स्कूल जाने को तैयार हुई लेकिन अगले ही पल दोनों उदास होकर बैठ गईं। उनके पास स्कूल जाने तक के कपड़े नहीं थे। वे उदास बैठी थी कि संस्कृति उनके पास आकर बैठ गईं। उसके हाथ में एक पॉलीथिन थी, दोनों बहनें संस्कृति के हाथ में रखी पॉलीथिन देख रहे थे। इतने में घर के बाहर से किसी ने दिव्या और नंदनी को साथ में स्कूल चलने के लिए पुकारा। आखिर कौन था वो जो उन्हें स्कूल जाने के लिए पुकार रहा था?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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