ड्रेस न होने के कारण दिव्या और नंदनी अपनी दोस्तों से बीमार होने का बहाना बनाकर स्कूल जाना एक हफ़्ते से टाल रही थीं। इस वक़्त भी दोनों यही बहाना बनाकर अपनी दोस्तों के साथ जाने से मना करने वाली थीं, लेकिन जैसे ही संस्कृति ने उनके हाथ में पॉलीथिन थमाई, दोनों के चेहरे पर चमक आ गई। उसमें दो नई ड्रेसें थीं। दिव्या ने हैरानी से नई ड्रेस के बारे में पूछा और नंदनी ने भी वही सवालिया नज़रों से संस्कृति की ओर देखा। इससे पहले कि संस्कृति कुछ कह पाती, यमुना ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ आ गई और बताया कि संस्कृति ने अपनी गुल्लक तोड़कर उससे कपड़े ख़रीदे और दिव्या और नंदनी के नाप के हिसाब से नए ड्रेस सिलवा दिए।

संस्कृति (मुस्कुराते हुए) - मैंने अकेले ने नहीं यमुना ने भी अपनी गुल्लक तोड़ दी है।

ये सुनकर चारों बहन एक-दूसरे से लिपट गईं। इससे पहले कि चारों रो पड़तीं फिर से आवाज़ आई।

 

बाहर खड़े बच्चों ने फिर से पूछा कि वे दोनों बहनें स्कूल जाएंगी या नहीं। नंदनी उत्साह से यह कहते हुए भागी कि वह बस दो मिनट में आ जाएगी और अगले ही पल दोनों बहनें तैयार होकर बाकी दोस्तों के साथ स्कूल की ओर चल पड़ीं।

 

कानपुर रेलवे स्टेशन आज सूना-सूना पड़ा था, दशरथ स्टेशन पहुँचा। साथ काम करने वाले कुछ कुली उसके पास आकर हाल-चाल पूछने लगे। कुछ लोग दशरथ को आज घर पर ही रहने के लिए और आराम करने के लिए कहने लगे।

दशरथ( भरोसे से) - अरे! तुम लोग परेशान मत हो। मैं ठीक हूँ। वो तो बस कल जब पैर में वो रॉड समाया तब ज़्यादा तकलीफ़़ थी। अभी ठीक है।

दशरथ की बात सुनते ही पास खड़े नरेश ने गुस्से में उसे डांटते हुए कहा कि वह दुनिया को बेवकूफ बनाना छोड़ दे, क्योंकि उसने ख़ुद अपनी आँखों से कल सारा खून बहते हुए और रॉड को गहराई तक धंसा हुआ देखा था। कानपुर रेलवे स्टेशन पर नरेश, दशरथ के ज़्यादा क़रीब था। दशरथ जब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करता था, उस समय नरेश कानपुर स्टेशन पर कुली का काम करता था। स्टेशन पर चार से पाँच ही कुली थे, जो उम्र में दशरथ और नरेश से बड़े थे।

दिल्ली से आई एक एक्सप्रेस जब स्टेशन पर पहुँची, तो कुछ सवारियां अपने भारी सामान के साथ नीचे उतरीं और उतरते ही कुली तलाशने लगीं। दशरथ ने उनकी ओर जाने का सोचा, लेकिन उससे पहले ही दो कुली उनके पास पहुँच गए और झोला और सूटकेस सिर पर उठाकर ले जाने लगे। दशरथ भी उठने की कोशिश करता, लेकिन दर्द से उसका पूरा शरीर काँप गया।

दशरथ (मन ही मन) -  काश! अभी ठीक होता। कुछ पैसे कमा लेता। ऐसे नज़र के सामने से तो कमाई दूर जाती न देखनी पड़ती।

नरेश भी किसी सवारी के पास नहीं गया। उसका मन तो था, लेकिन नए कुलियों के जल्दी पहुँच जाने की वज़ह से उसने जाने का विचार छोड़ दिया। झुंझलाते हुए नरेश ने दशरथ से कहा कि उसे आज घर पर आराम करना चाहिए था। उसने यह भी जोड़ा कि दशरथ अपने शरीर का बिल्कुल ख़्याल नहीं रखता। घर में चार बेटियां हैं और अगर वह ख़ुद का ध्यान नहीं रखेगा, तो उनके भविष्य के बारे में कौन सोचेगा? अगर दशरथ ठीक नहीं रहेगा, तो उन बेटियों का क्या होगा? दशरथ ने गंभीरता से जवाब दिया कि उसे अपनी बेटियों की ही चिंता है और इसी वज़ह से वह एक दिन भी बिना मेहनत किए नहीं रह सकता। नरेश ने शांत स्वर में समझाते हुए कहा कि केवल चिंता करने से समस्या का समाधान नहीं होता। उसने दशरथ को यह भी याद दिलाया कि जो घाव उसे हुआ है, उसका ठीक होना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि अगर उसका सही इलाज़ नहीं किया गया, तो इन्फेक्शन होने का खतरा बढ़ जाएगा।

दशरथ (सहजता से) - नहीं, नहीं। कोई इन्फेक्शन नहीं होगा, क्योंकि कल ही सरकारी अस्पताल में टिटनेस की सुई लगवायी थी और डॉक्टर ने ख़ुद ही यह बताया था कि सब ठीक हो जाएगा, बस कुछ टैबलेट दी हैं, जो एक हफ़्ते तक लेनी होंगी।

अपनी बात खतम करने के बाद दशरथ के चेहरे पर फिर से एक उदासी छा गई।

दशरथ (मायूस होकर) - नरेश, बेटियां बड़ी हो गई हैं। समझ में नहीं आता कैसे क्या होगा।  

नरेश ने समझाते हुए कहा कि वह कब से यह सलाह दे रहा था कि संस्कृति की शादी एक अच्छे लड़के से कर दी जाए। उसने आगे कहा कि संस्कृति होनहार है और उसका स्वभाव बहुत प्यारा है। वह बड़ों का आदर करना जानती है और छोटे बच्चों को स्नेह देना भी। नरेश का मानना था कि कोई भी अच्छा परिवार अपनी संस्कृति से शादी करने से मना नहीं कर सकता। संस्कृति की शादी की बात सुनते ही दशरथ अचानक से घबरा गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने आसमान का पूरा बोझ उसके सिर पर रख दिया हो और वह बोझ उसे किसी भी हाल में सहन करने का सामर्थ्य नहीं दे रहा था। उसकी आँखों में बेचैनी और चिंता साफ़ दिखने लगी, जैसे समय उसके हाथों से फिसलता जा रहा हो। उसे घबराते देख नरेश, जो हमेशा उसकी चिंता करता था, धीरे से पास आकर उसे समझाने लगा।

नरेश ने कहा कि बेटियों को तो एक दिन जाना ही होता है और ऐसे घबराने से कोई हल नहीं निकलेगा। उसे यह महसूस हुआ कि दशरथ, संस्कृति की शादी के ख़र्चे और उसकी विदाई की बात से घबराया हुआ था, लेकिन जब उसने शादी का ज़िक्र किया, तो दशरथ अचानक कंपकपाने लगा। ऐसा लगा जैसे कोई और गहरी चिंता उसे सता रही हो।

नरेश ने दशरथ को संभालते हुए उसे शांत किया और फिर अचानक नई दिल्ली से एक और ट्रेन के आने की अनाउंसमेंट हुई। नरेश को यह मौका मिला और वह जल्दी से उठते हुए बोला कि वह आ रहा है, ताकि अगर कोई सवारी मिले तो वह काम की शुरुआत कर सके। उसने दशरथ से कहा, "तुम यहीं आराम करो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ। "

दशरथ चाहकर भी कोई सामान लेकर सीढ़ियां चढ़ने की स्थिति में नहीं था। दर्द और थकान के कारण वह अपनी जगह पर ही बैठा रहा और उसकी आँखों में चिंता के साथ-साथ निराशा भी थी। बैठे-बैठे उसे दिल्ली स्टेशन के दिन याद आने लगे। उन दिनों वह बहुत तेज़ी से एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म तक सामान पहुँचाया करता था बिना रुके, बिना थके लेकिन अब वह सब बीते सालों की बात हो गई थी।

अब कंधे झुक गए थे, बालों में सफेदी बहुत पहले आ चुकी थी और चेहरे पर बढ़ती उम्र का असर साफ़ नज़र आने लगा था। हालाँकि, उसके चेहरे पर ईमानदारी की चमक थी, लेकिन वह चमक गरीबी के अंधेरे से धीरे-धीरे दबती जा रही थी। शादी के नाम से उसका कलेजा फटने लगता था। घर में खाने-पीने की दिक्कतें थीं और मुश्किल से बेटियाँ पढ़ पा रही थीं। ऐसे में दहेज और शादी के ख़र्चों के बारे में सोचना भी उसे डराने लगा था। कुछ साल पहले संस्कृति के लिए रिश्ते आए थे। वह पहला रिश्ता था जिसमें लड़के वाले संस्कृति के स्वभाव से खुश हो गए थे। बिना दहेज और ख़र्चे के शादी करने को तैयार थे। तब संस्कृति हाई स्कूल में थी। उस समय भी घर की हालत ठीक नहीं थी, लेकिन किसी को समझ नहीं आया था कि दशरथ ने ऐसे अच्छे रिश्ते को क्यों मना किया। उसके बाद से उसने कभी संस्कृति की शादी का ज़िक्र ही नहीं किया। दशरथ के पास न तो कोई खानदानी ज़मीन थी, न ही बैंक बैलेंस। घर में गहने और जवाहरात भी नहीं थे। अगर शादी में पैसों की ज़रूरत हुई तो सिर्फ़ एक ही उपाय था - बाज़ार से ब्याज पर पैसा उठाना, यानि 'साहूकारों से क़र्ज़, वो भी मोटे सूद के साथ'। वो क़र्ज़ और सूद की मार झेल चुका था। कुछ साल पहले उसकी पत्नी की तबियत अचानक से ख़राब हो गई थी। सरकारी अस्पताल वालों ने बचने की उम्मीद छोड़ दी थी। तब मोहल्ले में रहने वाले एक पड़ोसी ने, प्राइवेट अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से इलाज़ कराने की सलाह दी थी। उस समय अपनी पत्नी को बचाने के लिए दशरथ ने उस सलाह को मान लिया था। प्राइवेट अस्पताल में एडमिट होते ही डॉक्टर ने बताया कि किसी स्पेशलिस्ट को बुलाना होगा इलाज़ के लिए।

उसके सामने हाँ कहने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। बरसों से बेटियों की शादी के लिए बचाया हुआ सारा पैसा इलाज़ में चला गया, लेकिन उसके बाद भी पैसे कम पड़ते गए। जिस पड़ोसी ने सलाह दी थी, उसने ही सूद पर पैसों का इतंजाम भी करा दिया। बेटियां दिन-रात माँ के लिए रोती रहतीं और दशरथ अपनी पत्नी के ठीक होने के डर से काँपता रहता। ये इतंजार एक हफ़्ते में खत्म हो गया, डॉक्टर ने आकर उसकी पत्नी को न बचा पाने के लिए माफ़ी माँगी। थोड़े से क़र्ज़ के जो पैसे हाथ में थे, वो अस्पताल के बाक़ी बिल्स में चले गए। उसके बाद से उसने दिन रात मेहनत करके कर्ज़ का सूद चुकाया है और अभी भी कुछ पैसे चुकाना बाक़ी रह गया है।

क़र्ज़ चुकाने में उसकी उम्र के साथ-साथ बेटियों को और आगे पढ़ाने का सपना, सपना ही रह गया। संस्कृति की पढ़ाई कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद ही रुक गई। उसके ठीक पीछे यमुना की पढ़ाई भी वैसे ही रुक गई। दोनों बहनों ने आसपास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर पढ़ने की कोशिश भी की लेकिन मोहल्ले के बच्चों के माता-पिता कभी कम पैसे देते, तो कभी वो भी नहीं। अभी दोनों छोटी बेटियों की पढ़ाई चल रही थी। दोनों बड़ी बेटियां हर तरह से चाहती थीं कि उनकी पढ़ाई के जैसे उनकी छोटी बहनों की पढ़ाई भी बीच में न रुक जाए, इसीलिए कभी संस्कृति सिलाई करके कुछ पैसे जुगाड़ लेती, तो कभी किसी को मेंहदी लगाकर, लेकिन इन पैसों से कुछ भी नहीं होता था।

दशरथ कभी नहीं चाहता था कि उसकी बेटियां मोहल्ले में सिलाई का काम करें और न ही उन्हें बाहर भेजने की हिम्मत थी, इसीलिए जितना हो सकता था, मेहनत करता था, ताकि उसे कभी अपनी बेटियों को ऐसा काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े। स्टेशन पर बैठे-बैठे दशरथ अपनी बेटियों की शादी और घर की हालत के बारे में सोचता रहा। सोचते-सोचते और भी कई ट्रेनें आईं और निकल गईं, लेकिन उसकी चिंता जस की तस बनी रही।

उसके साथ कुली का काम करने वाला ऐसा कोई दोस्त भी नहीं था, जो उसकी बेटी की शादी में मदद कर सके। सभी अपने परिवार के ख़र्चों को लेकर, ज़रूरत पूरी करने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे थे। अचानक से ही दशरथ को याद आया, कल शाम जिस बाइक वाले ने उसे उसके मोहल्ले तक छोड़ा था, वह अपने किसी रिश्तेदार के बेटे के बारे में बता रहा था। वह शादी के लिए रिश्ता ढूंढ रहे थे। कल दर्द के मारे, दशरथ उस इंसान की बात पर कुछ कह नहीं पाया था। अब उसे उस इंसान की कही हुई सारी बातें याद आ रही थीं।

दशरथ (मन ही मन) - मुझे तो याद भी नहीं कि उसने अपना नाम क्या बताया था। ये भी नहीं मालूम वो कहाँ रहता है? कैसे पता करूँ उसके बारे में?

सामान्य दिनों में दशरथ शाम के 6 बजे तक घर की तरफ़ लौटता था, लेकिन आज चोटिल पैरों से उसे घर पहुँचने में वक़्त लगना था, इसीलिए वो धीरे-धीरे अपने घर की ओर निकलने लगा। अपने क़रीबी नरेश को बताकर वो स्टेशन से बाहर आ गया। थोड़ी दूर निकलने के बाद उसे कुछ सुझा।

 

दशरथ (अनुमान लगाते हुए)- क्यों न अस्पताल की तरफ़ चलूं, जहाँ कल गया था। वो बाइक वाला इंसान शायद मिल जाए।

 

वो कल उससे हुई सारी बातें याद करने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसे उसके बारे में ज़्यादा कुछ भी याद नहीं आया। उसे बस गाड़ी का और हेमलेट का रंग याद था और साथ ही किसी रिश्तेदार के बेटे की शादी की बात। कल जिस समय वो अस्पताल गया था, उसी समय पर पहुँचने के लिए थोड़ा तेज़ चलने लगा लेकिन तेज़ चलने पर दर्द बढ़ने लगा, फिर भी उसने अपनी रफ़्तार कम नहीं की, क्योंकि उसका दर्द उसके पिता की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बड़ा नहीं था। वो बाइक वाला आखिर था कौन…और क्या वो दशरथ की परेशानियों को सचमुच खत्म कर पाएगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

Continue to next

No reviews available for this chapter.