दशरथ बहुत तेज़ी से अस्पताल की तरफ़ बढ़ रहा था। जिस चप्पल को सुबह उसकी बेटी ने अच्छे से जोड़ा था, वह उतना साथ नहीं निभा रही थी। उसने फिर भी संभल कर चलना शुरू किया। वह तुरंत अस्पताल पहुँचकर बाइक वाले इंसान से मिलना चाहता था। जब वह अस्पताल पहुँचा, तो फिर से उसी जगह पर गया, जहाँ कल इलाज़ के लिए वह बैठा था।
दशरथ (मन ही मन) - उसका नाम याद रहता तो किसी से उसके बारे में पूछ भी लेता। अब क्या करूँ?
अपनी बेटियों की शादी होने का बोझ इतना था कि अपने पैरों के दर्द को भी वह नज़रअंदाज़ कर रहा था। वह काफ़ी समय तक वहाँ बैठा, आने वाले हर इंसान को पहचानने की कोशिश करता रहा। एक पल के लिए उसने सोचा कि वह उस नर्स से जाकर उस इंसान के बारे में पूछे, लेकिन वह पूछता भी तो क्या?
इस बीच कुछ लोग वैसा ही हेलमेट पहनकर अपने किसी रिश्तेदार के साथ पहुँचे, उनका इलाज़ कराया और फिर वापस लौट गए। उसे महसूस हुआ कि बाइक वाले इंसान से मिलने की बात सोचकर उसने ग़लती कर दी थी। अस्पताल में काफ़ी देर हो चुकी थी। वह मन मारकर अस्पताल से बाहर निकलने लगा।
दशरथ(रुंधे गले से)- हे! भगवान, कब बदलेगी हमारे घर की क़िस्मत? तुझसे कभी हौसले के अलावा कभी कुछ नहीं माँगा है। मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटियों की क़िस्मत, मेरे घर जैसी हो। कम से कम ऐसी जगह उनकी शादी हो, जहाँ उन्हें खाने के बारे में न सोचना पड़े। मुझ ग़रीब पर कुछ तो दया दिखा!
धीरे-धीरे वह अपने घर की ओर बढ़ने लगा। उसकी आँखों के कोने में आँसू आ गए थे। कोई देख न ले, इसीलिए उसने गमछे से आँसू पोंछे और आगे बढ़ता रहा। बीच-बीच में बस स्टैंड पर बनी बैठक पर थोड़ा सुस्ता भी लेता और फिर आगे बढ़ता। सड़कों पर गुज़रने वाली बाइक का हॉर्न जब भी बजता, वह एक बार पलटकर देखता। सूरज डूब चुका था, दोनों छोटी बहनें नए कपड़ों से बहुत ख़ुश थीं। दोनों ने ही स्कूल से लौटकर दिन भर की बातें बताई। उन दोनों के चेहरे पर ख़ुशी देखकर संस्कृति भी बहुत ख़ुश हुई।
संस्कृति- देखो, तुम दोनों हँसते-मुस्कुराते कितनी अच्छी लगती हो। ऐसे ही हँसते-मुस्कुराते रहना, तुम दोनों की हँसी देखकर तो कोई उदास इंसान भी हँसी में डूब जाए।
संस्कृति यह बात कह रही थी, तभी यमुना भी वहाँ आ गई। उसे देखकर संस्कृति और भी मुस्कराने लगी।
संस्कृति(ख़ुशी में) -तुम सभी मेरी ख़ुशियाँ हो। इस घर में दिवाली की रोशनी से ज़्यादा तुम सभी की मुस्कान से चार चाँद लग जाते हैं।
यमुना ने अपनी बड़ी बहन को बहुत ही प्यार से निहारा और मन ही मन भगवान से ऐसी अच्छी बहन देने के लिए धन्यवाद कहा। सभी बहनें दिन की बातचीत के बाद, अपने पिता के लौटने का इन्तज़ार करने लगीं। यमुना ने संस्कृति से बातों ही बातों में अपने पिता के आराम न करने पर थोड़ी सी नाराज़गी जताई, लेकिन ये उसकी नाराज़गी नहीं अपने पिता के प्रति प्रेम था। बिराना मोहल्ले में संस्कृति की उम्र की लगभग सभी लड़कियों की शादी हो चुकी थी। उनमें से ज़्यादातर लड़कियाँ या तो स्कूल नहीं गयी थी, या फिर पाँचवीं तक ही पढ़ पायी थी। पड़ोस में जो सहेलियां थी, वो शादी करके ससुराल जा चुकी थी। वो जब भी अपने मायके आती संस्कृति से अपने ससुराल की बातें करतीं। अपने घर परिवार के बारे में बताती लेकिन हर बातचीत के आख़िरी में सभी उसकी शादी कब होगी का सवाल छोड़ जातीं। ऐसे में संस्कृति के पास कोई जवाब नहीं होता था कि उसकी शादी कब होगी लेकिन अपनी सहेलियों की बात सुनकर वो मन ही मन अपने पति के स्वभाव के बारें में ज़रूर सोचते रहती। अपनी शादी का सपना जब भी देखती तुरंत ही उसे अपने घर की हालत की सच्चाई सामने नज़र आने लगती और उसका सपना चकनाचूर हो जाता। अपने पिता का इन्तज़ार करते-करते वो फिर से किसी उधेड़बुन में खो गयी।
संस्कृति (मन ही मन)- मुझे पापा का हाथ बंटाना है, मैं उन्हें ऐसे मजबूर नहीं देख सकती। आज मैं उनसे कहूँगी कि मुझे ही कोई नौकरी करने दे ताकि मैं अपनी बहनों की पढ़ाई में मदद कर सकूँ लेकिन पापा कैसे मानेंगे? ट्यूशन पढ़ाकर पैसे कमाने की सोची थी, लेकिन वो भी तो नहीं हो पाया, मैं कैसे कहूँगी ये सब उन्हें?
सोचते-सोचते उसने एक आह भरी और फिर घर का काम करने लगी। दशरथ घर पहुँचने तक बार-बार मुड़कर देखता रहा लेकिन जब बाइक वाला नहीं मिला तो उसने हार मान ली।
दशरथ(दुःखी होकर)- भगवान ने हमारी किस्मत में न जाने और कितने दुःख लिखें हैं। जो उम्मीद दिखाता है उसे भी छीन लेता है।
वह घर पहुँच गया। मोहल्ले के एक-दो लोग उससे मिलने आए। इनमें से कुछ लोगों को आज ही दिवाकर और संगीता बुआ ने पूरी ख़बर बताई थी। जो भी आता, कुछ न कुछ सलाह देकर जाता। दशरथ मुस्कुराते हुए उन्हें आगे से ध्यान रखने के लिए हामी भरता। उनमें से कुछ लोग बस, इसीलिए आते, ताकि उन्हें फिर से कहानी सुनने को मिले। कुछ पड़ोसियों ने अफ़सोस भी जताया साथ ही कल मिलने न आ पाने के लिए माफ़ी भी माँगी लेकिन किसी ने बेटियों की शादी की बातचीत नहीं की।
आज अचानक ही दशरथ के मन में बार-बार यह विचार आ रहा था कि कोई उसे उसकी बेटियों के लिए किसी अच्छे रिश्ते के बारे में बताए। एक पड़ोसी ने बात करते-करते दशरथ को यह याद दिलाया कि उसकी बेटियाँ बड़ी हो गई हैं, लेकिन उसने सीधे तौर पर यह नहीं कहा कि उनकी शादी कर दे। मोहल्ले में कुछ लोग ऐसे भी थे जो आपस में यह कहते थे कि अकेला पड़ जाने के डर से ही दशरथ अपनी बेटियों की शादी नहीं कर रहा है, नहीं तो कौन सा बाप अपनी जवान बेटियों को घर में बैठाकर रखता है। कुछ पड़ोसी उसकी गरीबी पर दया भी दिखाते थे, लेकिन जो बुराई करने वाले लोग थे, वे वैसे लोगों की बातों को अनसुना कर देते थे। दशरथ घर पहुँचकर हाथ-मुँह धो रहा था, तभी दिवाकर ने उसे पुकारा और पुकारते हुए घर के अंदर आ गया। दशरथ ने खाट पर बैठने का इशारा किया, तब तक दिवाकर ने उसे बताया कि दोपहर में कोई उसके बारे में पूछ रहा था। उसी ने उसे बता दिया था कि दशरथ भाई से मिलने के लिए स्टेशन जाना होगा। ऐसे घर पर मिलना शाम को ही हो पायेगा।
दशरथ (हैरानी में) - कौन था? उसने अपने बारे में कुछ बताया? किस लिए मिलना था उसे?
दशरथ ने एक ही साथ बहुत से सवाल दिवाकर से पूछ डाले, लेकिन दिवाकर ने उसे ज़्यादा जानकारी नहीं दी थी। जो कुछ उसे पता था, उसने वही बताया, लेकिन उतनी बातें सुनकर भी दशरथ के मन में उठ रहे सवालों का समाधान नहीं हुआ। घर पहुँचने से पहले उसे बाइक वाले इंसान से मिलने की बेचैनी थी और अब एक और बेचैनी उसे घेर रही थी। दिवाकर पूरी बात बताने के बाद भी वहीं बैठा रहा। उसे बैठा देख संस्कृति समझ गई कि वह बिना चाय के नहीं जाने वाला। इसलिए उसने चाय के लिए बर्तन चढ़ा दिए। दशरथ के लिए संस्कृति ने फीकी चाय बनाई और दिवाकर के लिए शक्कर वाली चाय, क्योंकि दिवाकर को ज़्यादा मीठी चाय पसंद थी। मीठी चाय पीकर दिवाकर ख़ुशी से मुस्करा उठा। दशरथ और दिवाकर चाय पीते हुए दुनिया भर की बातें करने लगे, लेकिन साथ ही दशरथ का मन किसी के आने का इंतज़ार भी करने लगा।
थोड़ी देर बाद ही एक बाइक घर की ओर आ रही थी। जैसे ही वह बाइक पास आई, दशरथ ने उसे पहचान लिया। बाइक पर अकेला आदमी था और पीछे कुछ सामान बंधे थे। दिवाकर ने भी उसे पहचान लिया। दशरथ ने अपनी खाट से उठकर बाहर निकलना चाहा, लेकिन तब तक वह बाइक वाला इंसान उसे उठने से मना करता हुआ बरामदे में आ गया। उसने अपना हेलमेट निकाला और पास में रखे स्टूल पर बैठ गया। उसने अपना नाम धीरू बताया। दशरथ को उसका नाम याद नहीं था लेकिन दिवाकर के बताने के बाद उसे नाम पता हो गया था। धीरू ने दशरथ से उसके घाव के बारे में पूछा और फिर अपने बारे में बताने लगा। संस्कृति और बाकी बहनें कमरे में बैठी थीं। घर में कभी-कभी ही पड़ोसी आते थे, लेकिन इस बार मोहल्ले के बाहर से बहुत समय बाद कोई घर में आया था। सभी बहनों को अचानक बहुत बुरा लगने लगा, क्योंकि कम से कम किसी गेस्ट को दूध की चाय तो पिलानी चाहिए थी, लेकिन वह भी घर में नहीं था। गरम पानी और चायपत्ती उबालकर संस्कृति ने अपने पिता और दिवाकर को चाय दी थी, लेकिन किसी नए गेस्ट को वह कैसे वही चाय पिलाती? दशरथ ने मन मसोसते हुए धीरू से चाय पीने के लिए पूछा। उसने मना कर दिया। उसके मना करने पर संस्कृति के दिल का बोझ हल्का हुआ।
धीरू ने सरसरी निगाहों से ही पूरे घर की हालत को एक बार में भाँप लिया था। उसने इधर-उधर की कुछ बातें की और फिर दशरथ से रिश्तेदार के लड़के की शादी की बात करने लगा। दशरथ का मन था कि वह उससे अपनी बेटियों के बारे में बात करे, लेकिन वह चुप रहा। दिवाकर धीरू की बात बहुत ध्यान से सुन रहा था और फिर उसने बात करते-करते ही दशरथ की बेटियों की तारीफ़ करनी शुरू कर दी। उसने धीरू से लड़के के बारे में भी बहुत कुछ पूछ लिया। दशरथ ने एक पल के लिए अपनी संस्कृति की शादी के बारे में सोचा, फिर रुक गया। धीरू ने अपनी सारी बातें क्लियर करते हुए अपने रिश्तेदार के लड़के के लिए यमुना का हाथ माँग लिया।
यह सुनकर सभी हैरान रह गए। दिवाकर ने उसे बताया कि संस्कृति सबसे बड़ी है, पहले उसकी शादी होगी, लेकिन धीरू ने सिर्फ़ यमुना का हाथ माँगा और दहेज में कुछ भी नहीं चाहिए, यह बात भी रखी। आगे जब बात खुली, तो धीरू ने कॉल पर अपने रिश्तेदारों से बात की और फिर उन्हें बताया कि वह यमुना के साथ-साथ दिव्या और नंदनी की शादी के लिए भी तैयार हैं। दशरथ के लिए ये बात किसी हैरानी से कम नहीं थी, क्योंकि एक तरफ़ तो उसकी बाकी दोनों बेटियों की शादी के लिए उससे पूछा नहीं जा रहा था, लेकिन दूसरी तरफ़ उसके ज़हन में ये बात भी चल रही थी कि चलो अच्छा ही है, एक ही खर्चे में तीनों बेटियों की शादी निपट जाएगी।
रिश्तेदार के पड़ोस में भी दो लड़के शादी के लिए लड़की ढूंढ रहे हैं। धीरू ने दशरथ को बताया कि जिस रिश्तेदार के लड़के की शादी की बात वह कर रहा था, उसने यमुना को कॉलेज के पहले दिन देखा था और फिर बाकी बहनों के बारे में भी उसे पता था, इसीलिए उन्हें किसी को देखने की ज़रूरत नहीं थी, बस दशरथ लड़कों को देख ले। दिवाकर धीरू की बात सुनकर हैरान था, लेकिन उसने इस बात पर जोर दिया कि तीनों बहनों की शादी एक साथ हो जाए। देखते ही देखते तीनों बहनों की शादी तय हो गई। पैसों के प्रबंध की बात दिवाकर ने संभाल ली, लेकिन यह बात किसी को समझ नहीं आई कि संस्कृति की शादी के लिए दशरथ ने क्यों ज़्यादा जोर नहीं दिया? कायदे से तो बड़ी बेटी की शादी भी पहले होनी चाहिए थी, आखिर वो कौन-सी वज़ह थी जिसके चलते दशरथ संस्कृति की शादी को टाल गया था?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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