संस्कृति की तीनों छोटी बहनों की शादी तय हो चुकी थी। न ही संस्कृति ने और न ही तीनों बहनों ने कभी सोचा था कि संस्कृति से पहले उन तीनों की शादी तय हो जाएगी। संस्कृति ख़ुद ही चाहती थी कि उनकी छोटी बहनें पढ़ाई करें और कुछ अच्छा करें, लेकिन घर की हालत की वज़ह से वह भी इस फैसले पर कुछ नहीं कह सकी लेकिन वह मन ही मन सोच रही थी कि आख़िर पापा ने उसे शादी के लिए क्यों नहीं कहा? शादी तय हो चुकी थी। आस-पास के लोग भी शादी की तारीख के निर्णय के लिए एक साथ थे और उन्होंने भी अपने-अपने सुझाव दिए। शादी मुहूर्त देखकर तीन महीने बाद की तय हुई। तीनों छोटी बहनों को भी घर की हालत पता थी, इसलिए उन्होंने भी कोई सवाल नहीं किया। तीनों चाहती थीं कि वे आगे बढ़ें, कम से कम दिव्या और नंदनी दसवीं की पढ़ाई पूरी करना चाहती थीं। शादी तय होने के कुछ दिन बाद, संस्कृति ने अपने पिता से बात करने की हिम्मत जुटाई।
संस्कृति (थोड़ा घबराते हुए) - पापा! मुझे हमारे घर की हालत मालूम है, इसलिए मैंने आपसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मैं चाहती हूँ कि आप लड़के वालों से यह बात करें कि कम से कम दिव्या और नंदिनी को दसवीं की परीक्षा पास करने दे और उसकी आगे की पढ़ाई में भी उनकी मदद करें।
दशरथ(गंभीरता से) - संस्कृति, मैं भी चाहता हूँ कि नंदिनी और दिव्या अपनी पढ़ाई को आगे भी जारी रखें। मैंने जितना हो सका, लड़के वालों से बात की है, वे सभी मुझे स्वभाव के बहुत अच्छे लगे हैं और उन्होंने कहा है कि वे नंदिनी और दिव्या की पढ़ाई को आगे जारी रखने देंगे। उसके बाद तो सब ऊपर वाला मालिक है।
दशरथ हालात के आगे मजबूर था और शायद संस्कृति भी इस बात को कबूल कर चुकी थी। एक बात थी, जो न तो संस्कृति कबूल कर पा रही थी और न ही उसकी बहनें और वह थी संस्कृति की शादी का तय न होना। बातें बनने लगी थीं। आख़िर क्या बात है, जो संस्कृति की शादी तय नहीं हुई? आख़िर संस्कृति के लिए भी तो लड़के देखे जा सकते हैं, कोई रिश्ता ढूंढा जा सकता है, कम से कम उसकी शादी पहले कर देते, फिर तीनों बेटियों की शादी करते। तीनों बेटियों की शादी कर देंगे तो बड़ी बेटी से शादी कौन करेगा? ऐसे भी बहुत सारे सवाल उठने लगे थे। धीरे-धीरे यह बात दशरथ को भी मालूम पड़ी, लेकिन उसने इन सारी बातों को अनसुना कर दिया। शादी में आने वाले ख़र्चों के लिए दिवाकर ने दशरथ की मदद की लेकिन सारे पैसे कर्ज़ ही थे। दशरथ के न चाहते हुए भी उसे अपनी बेटियों की शादियों के लिए कर्ज़ लेने पड़े। धीरे-धीरे संस्कृति के मन में अपनी शादी की बात से ज़्यादा अपनी बहनों की शादियों और घर के हालात की फिक्र होने लगी। वह दिन-रात सोचने लगी कि आख़िर किस तरह वह अपने परिवार की मदद कर सकती है। एक शाम जब दशरथ स्टेशन से वापस आया, तब संस्कृति ने हिम्मत करके अपने मन की बात उससे की।
संस्कृति(गंभीरता से) - पापा, मुझे मालूम है कि आपने मुझे पहले भी कोई काम करने से मना किया था, लेकिन मैं चाहती हूँ कि मैं कुछ ऐसा काम करूँ, जिससे मैं आपकी मदद कर सकूं। मैं आपको यूं दिन-रात मेहनत करते परेशान होते और चिंता करते नहीं देख सकती।
दशरथ (समझाते हुए) - संस्कृति, मुझे मालूम है कि तुम हमेशा से मेरी और अपनी बहनों की मदद करना चाहती हो और तुमने किया भी है। तुमसे जितना बन पड़ा, तुमने अपनी बहनों से उसकी माँ के जैसे प्यार किया है। इस घर को और इस घर की जिम्मेदारियों को अच्छे से निभाया है। तुमने जब आख़िरी बार मोहल्ले में ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के बारे में मुझसे पूछा था, तो मैंने तुम्हें हाँ कहा था, लेकिन उससे भी कुछ हासिल नहीं हुआ। यह कानपुर है, अगर यह दिल्ली होता तो कोई ना कोई काम ज़रूर मिल जाता।
दशरथ बात तो संस्कृति से कर रहा था, लेकिन ऐसा लग रहा था मानों वह अपने पुराने दिनों को याद कर रहा हो, अपने अच्छे दिनों को याद कर रहा हो और फिर से दिल्ली वापस जाना चाहता हो। आज तक उसने कभी किसी को नहीं बताया था कि वह दिल्ली से वापस ही क्यों आया। हालाँकि संस्कृति ने बहुत बार अपने पापा से पूछने की कोशिश की थी कि वह दिल्ली में क्यों नहीं रुके, लेकिन पूछा नहीं था। उसने अपने माता-पिता को आपस में अक्सर बात करते सुना था कि दिल्ली में होते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। आस-पड़ोस के लोग भी कभी-कभी यह बात करते थे कि जिस तरह से दशरथ की हालत हो गई है, उससे बेहतर तो वह दिल्ली में ही था।
संस्कृति(उम्मीद में) - नहीं, कुछ तो, कम से कम मैं सिलाई करके ही कुछ पैसे कमा लूंगी। कम से कम मुझे सिलाई के लिए तो हाँ कह दो।
दशरथ(थोड़ा झुंझलाते हुए) - सिलाई करके नहीं…तुम्हारी माँ ने जीवन भर सिलाई करके ही इस घर की हालत को सुधारे रखा था। आज उसके जाने के बाद भी हमारी स्थिति सही नहीं है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे पढ़ने-लिखने के बाद भी तुम सिलाई करो। लोग यह कहेंगे कि दशरथ की बेटी पढ़ाई करने के बाद भी लोगों के कपड़े सिलती है। तुम घर के कपड़े सिलती हो, उतना काफ़ी है।
दशरथ चाहता था कि उनकी बेटियां पढ़ाई करें और कुछ अच्छी सी नौकरी करें, अच्छी सरकारी नौकरी की तैयारी करें। बाकी माँ-बाप की तरह, दशरथ और उसकी पत्नी ने भी अपनी बेटियों को अफसर बनते देखने का सपना देखा था। कानपुर जैसे शहर में वह अपनी बेटियों को प्राइवेट नौकरी करते नहीं देखना चाहते थे। दशरथ ने संस्कृति के काम करने को लेकर अपना फ़ैसला सुना दिया था। वह भी कुछ काम करके, कुछ पैसे कमा कर, अपने पिता की मदद करना चाहती थी, लेकिन अपने पिता के फैसले के आगे सभी चुपचाप खड़ी थीं। एक दिन चारों बहनें आपस में बात कर रही थीं, तभी यमुना ने संस्कृति से बाकी तीनों बहनों की शादी तय होने के बारे में पूछा। दिव्या और नंदिनी ने संस्कृति से अपने दिल की बात बताते हुए आगे पढ़ने की इच्छा जताई। संस्कृति इस बारे में पहले ही अपने पिता से बात कर चुकी थी। उन दोनों को उसने समझाते हुए हिम्मत दी और ढांढस बंधाया।
संस्कृति (समझाते हुए)- यह बात तो तुम सभी को मालूम है कि पापा दिन-रात कितनी मेहनत करते हैं और वह तो हमेशा से ही चाहते थे कि हम सभी पढ़-लिख लें, कुछ आगे करें, अपने पैरों पर खड़े हो सकें, लेकिन घर की हालत देखते हुए उन्हें यह फ़ैसला लेना पड़ा। फिर भी उन्होंने तुम सभी की पढ़ाई के लिए लड़कों वालों से बात की है, वे तुम्हें पढ़ने देंगे। तुम लोग वहाँ जाकर मन लगाकर पढ़ना, घर के काम में ही मत रह जाना।
यह कहते हुए संस्कृति के मन ही मन कई सवाल चल रहे थे, लेकिन वह अपने मन के बेचैन सवालों को अपनी बहनों के साथ नहीं रख सकती थी, नहीं तो वे बहुत ही मुश्किल से शादी के लिए राज़ी हुए थे। अपनी बड़ी बहन का दुःख देखकर जीवन भर ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाते। सभी बहनों के लिए संस्कृति सिर्फ़ बड़ी बहन नहीं थी, माँ के जाने के बाद, पिताजी कानपुर स्टेशन पर जब सामान उठाते थे, उस समय संस्कृति अपनी बहनों के लिए माँ बन जाती थी। माँ के जैसा ही प्यार, माँ के जैसा ही दुलार और माँ के जैसा ही चिंता करना, जैसे माँ के जाने के बाद जैसे उनकी आत्मा अब संस्कृति की आत्मा हो गई थी।
ऐसा कई बार हुआ था कि संस्कृति अपनी बात बहनों से कहती-कहती रह गई, लेकिन सभी बहनें अपनी बड़ी बहन के दिल की बात समझती थीं। जब बात करते-करते नंदिनी ने संस्कृति से कहा हमारे ना रहने पर आप कैसे रहोगे? तब संस्कृति ने अपनी आँखों में आने वाले आँसूं को रोकते हुए कहा, ‘’तुम लोग चले जाओगे, तब तो इस घर पर सिर्फ़ मेरा राज होगा। मैं और पापा होंगे, तब तो और ज़्यादा आसानी हो जाएगी, ना? अच्छा ही है, जो तुम लोग जा रहे हो! ‘’
संस्कृति अपने अंदर का दुःख अपने ही अंदर रखना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि बहनें उसके अंदर का दुःख पहचानें, लेकिन वे तीनों भी अपनी बड़ी बहन के दर्द को इतनी अच्छी तरह समझती थीं कि मज़ाक करने के बाद भी हँस नहीं पा रही थीं। दिव्या ने बहुत ही रूंधे गले से अपने मन की बात कही कि हमारे ना रहने पर यह घर तो आपका होगा, लेकिन आपका प्यार फिर हमें कौन देगा? माँ जैसा प्यार हमें कौन करेगा? न जाने ससुराल में किस तरीके से हमारे साथ प्यार किया जाएगा? ऐसे ना जाने कितने सवाल-जवाब हर दिन होते रहे और दिन पर दिन शादी के दिन नजदीक आते रहे। दशरथ के मना करने के बावजूद, संस्कृति ने अपनी बहनों के साथ मिलकर चोरी-चुपके से पड़ोस में ही कपड़े की सिलाई करनी शुरू की, ताकि वह बहनों की शादी में होने वाले ख़र्च में थोड़ा सा भी अपने पिता की मदद कर सके। संगीता बुआ जब तक बिराना मोहल्ले में थी, संस्कृति की मदद के लिए, पड़ोस की कुछ भाभियों के कपड़े सिलने के लिए माँग कर, संस्कृति को दे दिया करती थीं। इसी तरह दिवाकर भी आकर संस्कृति से और उसकी बहनों से हाल-चाल पूछने के बहाने चाय पीने आ जाता था। पैर में हुए जख्म ठीक होने के बाद, दशरथ दिन-रात मेहनत कर रहा था और हर उस जान-पहचान वाले से अपनी बेटियों की शादी के लिए मदद माँग रहा था, जिससे भी वह माँग सकता था। एक दिन, दशरथ खाट पर बैठा, मन ही मन सोच रहा था।
दशरथ(उदास होते हुए) - अगर बेटियों की शादी की बात नहीं होती, तो मैं कभी किसी से भी कर्ज़ नहीं लेता, कभी कोई उधार नहीं लेता।
यह सोचते-सोचते, दशरथ को पता भी नहीं चला कि संस्कृति कब से चाय लिए उसके सामने खड़ी है और अपने पिता के चेहरे को ठीक से निहार रही है, उनके परेशानियों को पढ़ रही है और मन ही मन कह रही है
संस्कृति(दुःखी होकर)- मेरे होते हुए भी मेरे पापा को इतना दुःख हो रहा है, आख़िर मैं कैसे अपने पापा की मदद करूँ?
संस्कृति, अपने पिता की मदद तो करना चाहती थी, लेकिन वो ये भी जानती थी कि कपड़े सिलकर या ट्यूशन पढ़ाकर वो सिर्फ़ एक सीमित पैसे ही घर के लिए जुटा सकती थी। क्या वाकई संस्कृति अपने पिता के लिए कुछ कर पाएगी या सिर्फ़ अपने हालात और गरीबी के हाथों मजबूर होकर बैठ जाएगी?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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