संस्कृति अपने पिता के लिए चाय लेकर खड़ी रही। उसके मन में कितने ही सवाल उठ रहे थे।

संस्कृति (मन ही मन)- अगर मैं बेटी न होकर बेटा होती, तो क्या तभी पापा मुझे काम करने से रोकते?

चाय देते वक़्त संस्कृति ने अपने पिता से कहा, ‘’पापा, हम जो शादी के लिए कर्ज़ ले रहे हैं, क्या वह कर्ज़ किसी बैंक से नहीं ले सकते? मैंने सुना है कि शादी के लिए लोन भी मिलता है। या किसी सरकारी योजना से कोई मदद मिल सकती है?''

दशरथ ने चाय का कप हाथ में लेते हुए एक गहरी साँस ली।

दशरथ (हताशा से)- तुम जिस बैंक से लोन लेने की बात कर रही हो, मैं वह सारे देख चुका हूँ। जिसकी तुम बात कर रही हो, उसके लिए भी हमें अधिकारियों को पहले से पैसे देने पड़ेंगे और जहाँ तक बैंक से लोन लेने की बात है, उसके लिए भी हमारे पास कुछ ऐसी चीज़ गिरवी रखने के लिए होनी चाहिए, जिसे बैंक कर्ज़ चुकता न होने पर नीलाम कर सके। अपने पास तो ऐसी कोई चीज़ है नहीं, जिसे हम बैंक में दिखाकर लोन ले सकें।

अपने पिता की हताश आवाज़ सुनकर संस्कृति मन ही मन और भी दुःखी हो गई। अपने दुःख को छुपाते हुए उसने अपने पिता को उम्मीद दी।

संस्कृति- पापा, आपने जो शादी के लिए सूद पर कर्ज़ लेने का फ़ैसला किया है, मैं उसके बारे में तो कुछ नहीं कह सकती, लेकिन हाँ, मुझे इतना पता है कि आप उसका कोई न कोई हल ज़रूर निकाल लेंगे।

अपनी बेटी को इतनी समझदारी से बात करते हुए सुनकर दशरथ का दिल भर आया। शादी तय होने के बाद एक बार भी संस्कृति ने दशरथ से कोई सवाल नहीं किया था, न ही कोई शिकायत की थी। बिराना मोहल्ले के जितने भी लोग थे, वे मौका मिलते ही जानबूझकर संस्कृति के सामने उसके पिता के बारे में बात करते थे। पड़ोसियों को पता था कि संस्कृति सीधे तौर पर अपने पिता के बारे में कोई ग़लत बात नहीं सुन सकती। इसीलिए , पड़ोसियों के लिए यह पहला मौका था जब वे एक साथ दशरथ पर सवाल उठा सकते थे। आख़िर ऐसी क्या बात थी कि दशरथ ने अपनी बड़ी बेटी की शादी तय नहीं की? अपनी बेटी का विश्वास पाकर दशरथ ख़ुश तो हुआ, लेकिन मन ही मन उसे कुछ कचोटता रहा।

दशरथ (भरोसे के साथ)- मुझे नहीं मालूम कि आने वाला दिन कैसे कटेगा, लेकिन ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी बहनों के लिए इससे अच्छा रिश्ता नहीं हो सकता, लेकिन...

दशरथ अपनी बात कहते-कहते बीच में ही रुक गया। अपने पिता को बीच में ही चुप होते देख संस्कृति ने आगे पूछा, ‘’लेकिन क्या, पापा?''

दशरथ (बुझे हुए मन से)- मुझे मालूम है कि तुम नहीं चाहती कि बिना पढ़ाई पूरी किए तुम्हारी बहनों की शादी हो। तुम्हें मालूम है कि तुम्हारे पापा तुम सब से कितना प्यार करते हैं। तुम सब तो मेरे जीने का सहारा हो। मैंने तो कभी नहीं चाहा कि तुम सबको कोई दुःख हो, लेकिन मुझ मजबूर को माफ़ कर देना, तुम सब।

दशरथ ने बहुत कोशिश की थी कि वह कभी भी अपना दुःख किसी से न कहे और अब तक तो उसने अपनी बेटी को भी कभी नहीं बताया था। आज उसकी आँखों में आँसू रोक नहीं रुके। चाय का कप खत्म करते हुए उसने जल्दी से अपना गमछा आँखों पर लगाया, जैसे कि उसकी आँखों का आँसू उसकी बेटियों को बिल्कुल भी न दिखे। दशरथ की बात सुनते-सुनते संस्कृति की आँखों में भी आँसू आ गए। दूसरे कमरे में यमुना, दिव्या और नंदिनी अपने पिता की बात सुन रही थीं। यह सुनते ही तीनों कमरे से दौड़कर बरामदे पर आ गईं और अपने पिता से लिपट गईं।

तीनों बहनों के लिपटते ही संस्कृति भी उनसे लिपट गई। आख़िरी बार चारों बेटियाँ अपने पिता से अस्पताल में लिपटी थीं, जब डॉक्टर ने आकर उनकी माँ को बचा न पाने के लिए माफ़ी माँगी थी। सालों पहले एक वह दिन था जब दशरथ भी अपने आँसुओं को रोक नहीं पाया था और एक दिन आज है। अभी भी शादी होने में कुछ समय बाकी था, लेकिन ऐसा लग रहा था मानों पलक झपकते ही समय बीत जाएगा और फिर दशरथ और संस्कृति को छोड़कर बाकी बेटियाँ एक पंछी की तरह यह घोंसला छोड़कर उड़ जाएँगी।

शादी से कुछ दिन पहले, कानपुर रेलवे स्टेशन पर नरेश ने दशरथ को बेटियों की शादी तय होने की मुबारकबाद दी। साथ में यह सवाल भी पूछ लिया कि उसने संस्कृति की शादी के लिए कोई रिश्ता देखना शुरू किया है या नहीं। अगर वह बाकी छोटी बेटियों से पहले कोई अच्छा सा रिश्ता देख ले और उसकी शादी कर दे, तो वह अपनी होने वाली जग हँसाई से बच जाएगा।

दशरथ (परेशानी जताते हुए)- बात तो तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन भगवान ने छोटी बेटियों के लिए जो रिश्ता बना कर भेजा है, उसके लिए भी तो मना नहीं कर सकता था। बाकी घर की हालत तो तुम्हें भी मालूम है। जहाँ तक संस्कृति की बात है, तो अगर तुम्हारी नज़र में कोई लायक लड़का मिले तो मुझे बताना।

दशरथ की बात सुनकर नरेश ने उसे आश्वासन दिया कि अगर उसकी नज़र में संस्कृति के लिए कोई भी लड़का मिलेगा, तो वह उसे ज़रूर बताएगा। नरेश मन ही मन यह सोचता रहा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दशरथ,  संस्कृति की शादी के लिए पूरे मन से कोशिश नहीं कर रहा है। दशरथ संस्कृति की शादी की बात सुनकर हमेशा गुस्सा हो जाता था, इसलिए नरेश ने आगे कोई और सवाल करना ठीक नहीं समझा।

उस दोपहर, बिराना मोहल्ले में रद्दी ख़रीदने वाला पहुँचा। दिव्या और नंदिनी स्कूल गई हुई थीं। यमुना भी दुकान से कोई सामान लाने के लिए घर से बाहर थी। संस्कृति बहुत देर तक रद्दी वाले की आवाज़ सुनती रही। अपना एक काम छोड़कर भारी कदमों से दरवाज़े तक आई। एक बार उसका मन हुआ कि वह रद्दी वाले को पुकारे और अपने पास बुलाए, लेकिन उसका मन बार-बार उसे रोक रहा था।

मोहल्ले के कुछ घरों से लोग रद्दी वाले के पास पहुँच चुके थे। ज़्यादातर लोगों के पास कोई पुरानी लोहे की चीज़ें थीं, जो उन्हें घर के किसी मजदूर ने कंपनी में काम करते-करते मैनेजर की आँखों से बचाकर दे दी थीं। दिवाकर के पास तांबे की कुछ तारें थीं। बहुत से लोग जानते थे कि दिवाकर अपने एक जान पहचान के दोस्त से टेलीफ़ोन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तार चुपके से रात में जलाता है और उससे निकलने वाले अल्युमिनियम और तांबे को रातों में बेचता है, जिससे अच्छी कीमत मिलती है। आज भी दिवाकर के पास लगभग ढाई सौ ग्राम तांबे की तार थी। रद्दी वाले ने उसका अच्छा भाव लगाया, फिर भी दिवाकर बीस से तीस रुपये ज़्यादा लेने पर अड़ा रहा। आख़िरकार, हार मानकर रद्दी वाले ने दिवाकर को 30 रुपये दे दिए। संस्कृति ने जब देखा कि दिवाकर और बाकी पड़ोसी रद्दी वाले के पास से अपने घर लौट चुके हैं, तब उसने धीरे से आवाज़ लगाई।

संस्कृति (बुझे मन से)- रद्दी वाले भैया, इधर आओ, हमें भी कुछ रद्दी बेचने है।

रद्दी वाले ने संस्कृति की आवाज़ सुन ली और फिर अपने ठेले को उसके घर की तरफ़ मोड़ लिया। दोपहर का समय था, इसलिए ज़्यादा लोग घर के बाहर नहीं थे। रद्दी वाले की आवाज़ सुनकर इक्के-दुक्के लोग जो बाहर आए थे, वे भी अब घरों में जा चुके थे।

रद्दी वाला दरवाज़े तक पहुँच कर संस्कृति का इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर बाद संस्कृति दरवाज़े पर वापस आई। उसके हाथ में कुछ किताबें थीं। रद्दी वाले को लगा कि संस्कृति अपने घर के अंदर से बहुत सारी रद्दी, पेपर, या किताबें लेकर वापस आएगी। मगर संस्कृति के हाथ में बस कुछ ही किताबें थीं। हालाँकि वे किताबें रद्दी तो नहीं थीं, बहुत ही संभालकर रखी गई थीं। मगर अब रद्दी वाले के हाथ में आनी थीं, इसलिए उसने उन किताबों की कीमत रद्दी के भाव में ही लगाई।

संस्कृति (शिकायत करते हुए)- भैया, ठीक से भाव लगाओ। ये बहुत महंगी किताबें हैं। आप मार्केट में ख़रीदोगे, तो आपको एक किताब 200-250 की मिलेगी और आप इसे रद्दी के भाव में ख़रीद रहे हो। कम से कम कुछ तो दाम बढ़ाओ।

रद्दी वाले ने संस्कृति से सीधे-सीधे कह दिया कि अगर उसे इतने पैसे में किताबें नहीं बेचनी हैं, तो वह अपनी किताबें अपने पास रख ले। हालाँकि संस्कृति कभी भी वह किताबें बेचना नहीं चाहती थी। उसने उन किताबों को बहुत सलीके से संभालकर रखा था, लेकिन अब रद्दी वाला एक बार भी कीमत बढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। आख़िरकार, संस्कृति ने मन मारकर जो भी पैसे मिले, अपने पास रख लिए।

संस्कृति (मन ही मन)- मुझे माफ़ करना, मेरी किताबें। तुम्हारा और मेरा साथ इतना ही था। मैं तो चाहती थी कि तुम्हारे साथ हर वक़्त बिताऊँ। हालात के आगे मैं भी मजबूर हूँ।

जो किताबें रद्दी वाले के ठेले पर जा चुकी थीं, वे 11वीं की किताबें थीं। सिलेबस बदलने के कारण वे न यमुना के काम आ सकती थीं और न ही दिव्या या नंदिनी के काम आ सकती थीं। उन किताबों को संस्कृति ने न जाने कितनी बार पढ़ा था। वही आख़िरी किताबें थीं जो दशरथ ने बहुत मुश्किल से संस्कृति को दिलाई थीं। उसके बाद न तो संस्कृति के हिस्से में कभी कोई किताब आई और न ही कॉलेज जाने का कोई दिन।

अपनी किताबों को बेचने के बाद संस्कृति बरामदे में देर तक बैठी रही। उसके हाथों में तो कुछ रुपये थे, लेकिन उन रुपयों से वह ख़ुश नहीं थी। उसे लग रहा था जैसे उसने अपने जीवन का एक हिस्सा बेच दिया है, अपने सपनों की कीमत लगा दी है। इस गरीबी में उसके पास सपने ही तो थे। वे कुछ किताबें ही तो थीं जो उसे हौसला देती थीं कि एक रोज हालात बदलेंगे। तब किताबें अकेली नहीं रहेंगी। इन किताबों के साथ ढेर सारी किताबें होंगी, ढेर सारी कॉपियाँ होंगी, ढेर सारे रजिस्टर होंगे, ढेर सारे सपने होंगे और वह एक-एक कर उन सपनों को पूरा करेगी। वहीं बैठे-बैठे संस्कृति ने अपनी माँ की तस्वीर की तरफ़ देखा, मानों वह उससे शिकायत कर रही हो।

संस्कृति (रूंधी आवाज़ में)- माँ, तुम इतनी जल्दी क्यों चली गईं? काश! तुम आज हमारे साथ होतीं। हम साथ मिलकर सारे मुश्किलों का हल निकाल लेते।

कहीं ना कहीं संस्कृति के मन मेंं ये बात बराबर चल रही थी कि चाहे जो हो जाए, मुझे इस गरीबी और परेशानी के दौर से ख़ुद को और अपने परिवार को निकालना ही है। लाख टके का सवाल ये था कि आखिर वो रास्ता है कौन सा…और कहां है वो रास्ता जिस पर चलकर संस्कृति अपने परिवार की गरीबी हक़ीकत में दूर कर सकती है? क्या वाकई उसे ये रास्ता मिल भी पाएगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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