पकड़म-पकड़ाई खेलते हुए एक बच्चा संस्कृति के घर की तरफ़ दौड़ा। दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था। बच्चों ने दरवाज़े पर हाथ लगाया और वह अंदर की तरफ़ खुल गया। तुरंत ही वह दरवाज़े के पीछे छुपकर दरवाज़ा बंद कर दिया। थोड़ी देर तक वह बच्चा वहीं छुपा रहा। बरामदे में कोई नहीं था, लेकिन बच्चे ने किसी चीज़ के फटने की आवाज़ सुनी।
वह बच्चा आवाज़ की तरफ़ बढ़ा। किचन और उसके बगल के कमरे का दरवाज़ा भी खुला था। वह बच्चा इस तरह से घर के अंदर दाखिल हुआ था कि अगर अंदर कोई होता तो उसे उसकी आहट भी नहीं महसूस होती। जैसे ही वह आवाज़ की तरफ़ बढ़ा, उसने संस्कृति को देखा। संस्कृति दीवार की तरफ़ मुँह करके बैठी थी। उसके दाहिने हाथ में कुछ कागज़ थे, जिन्हें वह पढ़ते हुए अपने बाएं हाथ से रख रही थी। वह बच्चा वहाँ पहुँचकर इन कागज़ों को ध्यान से देखने लगा। संस्कृति दाहिने हाथ से कागज़ उठाती और उन्हें ध्यान से पढ़ती, फिर थोड़ी देर तक जैसे मूर्ति की तरह चुप रहती और फिर उन्हें टुकड़े-टुकड़े करके अपने बाएं हाथ में रख देती।
संस्कृति उन कागज़ों को पढ़ते-पढ़ते जैसे कहीं गुम हो गई थी। उसका शरीर कमरे में था, लेकिन वो शायद किसी शून्य में खोई हुई थी, जिससे न किसी के आने का पता था, न किसी के पीछे खड़े होने का। जैसे कोई साधु अपनी तपस्या में लीन होता है, वैसे ही संस्कृति उन कागज़ों में पूरी तरह से डूबी हुई थी। वह बच्चा दरवाज़े पर खड़ा संस्कृति को ऐसा करते हुए देख रहा था, अचानक ही उसे छींक आ गई। जैसे ही वह बच्चा छींकता है, संस्कृति को होश आता है। उसने घबराकर पीछे पलटकर देखा। वह कोई और नहीं, दिवाकर का बेटा डुग्गू था। संस्कृति को समझ में नहीं आया कि उसे डुग्गू पर गुस्सा होना चाहिए या नहीं, लेकिन वह न जाने किस बात से घबराई हुई थी। उसने हड़बड़ाते हुए डुग्गू से कहा, ‘’डुग्गू, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? तुम यहाँ कब आए?''
वैसे तो डुग्गू को कुछ भी समझ में नहीं आया कि उन कागज़ों में क्या लिखा था और संस्कृति उन्हें टुकड़े-टुकड़े क्यों कर रही थी, वह क्या करने वाली थी, बस उसे देखने में अच्छा लग रहा था। उसने संस्कृति को बताया कि वह पकड़म पकड़ाई खेलते-खेलते यहाँ आ गया था और उसने किसी से नहीं बताया कि उसने क्या देखा। डुग्गू ने संस्कृति से कहा कि वह भी वैसा ही कागज़ फाड़ना चाहता है। संस्कृति को डुग्गू की बात सुनकर हँसी आ गई।
संस्कृति (हँसते हुए) - तुम्हें क्यों फाड़ना है काग़ज़? क्या तुमने भी अपने सपने कागज़ पर लिखकर रखे हैं? अगर लिखा भी है तो तुम्हें फाड़ने की ज़रूरत नहीं होगी। यह तो बस हमारे नसीब में लिखा है, इसलिए हमें इन कागज़ों को फाड़ना है।
वह यह सारी बातें डुग्गू से नहीं, बल्कि अपने आप से कह रही थी। डुग्गू को संस्कृति की बातें समझ में नहीं आई। उसे बस काग़ज़ फाड़ना था। संस्कृति ने जाकर दरवाज़ा बंद कर दिया और फिर हँसते हुए डुग्गू को अपने पास बिठा लिया। हालाँकि दिवाकर ने डुग्गू को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना शुरू किया था, लेकिन डुग्गू इतना बड़ा नहीं था कि वह कोई ख़त पढ़ सके। डुग्गू कागज़ फाड़ते-फाड़ते भूल चुका था कि वह अपने दोस्तों के साथ पकड़म-पकड़ाई खेल रहा था। जब कागज़ फाड़ने की खलबली खत्म हुई, तो उसे अचानक अपने दोस्तों की याद आई और वह संस्कृति के पास से उठकर भागने लगा। संस्कृति ने उसके जाने के लिए दरवाज़ा खोला और फिर उसके बाद तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया। अभी भी यमुना, दिव्या और नंदिनी बाहर ही थीं। अब कुछ कागज़ बचे थे। उन्हें पढ़ते-पढ़ते अचानक संस्कृति रुक गई। उसने गहरी साँस ली और फिर उस काग़ज़ के ऊपर की लाइन पढ़ी, ‘’हम आसमान पर अपना नाम लिखेंगे''
ख़ुशियों से भरी सुबह-शाम लिखेंगे,
एक दिन आएगा वक़्त हमारा जब भी,
लोग हमारे नाम पर कलाम लिखेंगे।
यह पढ़ने के बाद संस्कृति को ऐसा लगा जैसे उसके हृदय को चीर दिया हो। उसकी आँखों से आँसूं गिरकर कागज़ पर पड़ने लगे। उसने काँपते हाथों से उस कागज़ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। वह काफ़ी देर से उन कागज़ों को फाड़ रही थी, लेकिन जैसे ही आख़िरी दो कागज़ बचे, उसकी आँखों से आँसूं आने लगे और वह फूट-फूटकर रोने लगी। चुपचाप, शायद संस्कृति ने अपने पिता से सीखा था। उसने आख़िरी कागज़ उठाया और फिर उसे सरस्वती की तरह निगाहों से देखने लगी। उसने उसे पढ़ा और फिर हँसी आ गई। उसे ख़ुद मालूम नहीं था कि वह उन लिखी लाइनों के लिए हँसी थी या ख़ुद पर हँसी थी।
संस्कृति (रोते-हँसते हुए) -
मैं संस्कृति मेहनत करूँगी दिन और रात,
बदल दूंगी घर के बुरे हालात,
पापा का मैं हाथ बटाऊंगी,
हरदम उनका साथ निभाऊंगी।
आँखों में आँसूं और हाथ में फटे कागज़ों के टुकड़े के बाद संस्कृति ने उसे भी फाड़ डाला। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठने के बाद उसने सभी कागज़ों के टुकड़ों को एक साथ समेट लिया और फिर रसोई में जाकर उन्हें आग में जला डाला। ये सभी कागज़ों के टुकड़े वह थे, जिन पर संस्कृति ने वह सारे सपने लिखे थे, जो उसने अपने घर, जीवन और बहनों के लिए देखे थे। मगर उसके लाख कोशिशों के बावजूद, एक भी सपना पूरा नहीं हो पाया। वह अपने पिता की मदद नहीं कर पा रही थी। जितना अपने बहनों के लिए कर पा रही थी, वह पर्याप्त नहीं था। उसने अपने सपनों को तो जीना कब का छोड़ दिया था और जो सपने कागज़ पर थे, आज उन्हें भी जला दिया। सभी कागज़ जलाने के बाद उसने उनका अस्तित्व भी ख़त्म कर दिया।
वह फिर से घर के कामों में लग गई थी। इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई। संस्कृति को लगा जैसे यमुना आई होगी, लेकिन जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, सामने डुग्गू खड़ा था। इस वक़्त उसके हाथ में उसके स्कूल की कॉपी का एक पन्ना था, जिस पर एबीसीडी लिखी थी। जैसे ही संस्कृति ने दरवाज़ा खोला, डुग्गू ने हँसते हुए उस काग़ज़ को फाड़ दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े करके हवा में उछाल दिए। डुग्गू को कागज़ फाड़ने में मज़ा आ रहा था, इसलिए संस्कृति के उन कागज़ों को फाड़ने के बाद, उसने अपनी कॉपी का पन्ना लाकर ले आया। डुग्गू को ऐसा करते देख, संस्कृति के मन में एक टीस उठी।
संस्कृति (मन ही मन) - किसी के सपने टुकड़े-टुकड़े होते हैं और किसी को मज़ाक लगता है।
हालाँकि संस्कृति डुग्गू के बचपन पर नहीं, बल्कि अपनी जिंदगी और समाज पर टिप्पणी कर रही थी। डुग्गू जा चुका था, शाम होने वाली थी। यमुना और बाकी बहनें लौटने वाली थीं, इसलिए संस्कृति ने दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं किया और फिर अपने काम में वापस लग गई। रात को खाने पर सभी एक साथ बैठे। संस्कृति ने अपने पिता से दिनभर के काम के बारे में पूछा। आज दशरथ कुछ बुझा-बुझा मालूम पड़ रहा था, इसलिए उसने अनमने ढंग से जवाब दिया।
दशरथ (अनमने ढंग से) - ज़्यादा कुछ ख़ास नहीं। हाँ, आज दिल्ली से आने वाली एक ट्रेन में बहुत से लोग आए थे। सभी एक ही जगह जा रहे थे और उनके पास बहुत से सामान थे। आज सभी कुलियों को काम मिला और इंसान ने सभी को मेहनत से ज़्यादा पैसे भी दिए। ऐसा बस दिल्ली में हुआ करता था, लेकिन आज कानपुर में भी हुआ। सब ऊपर वाले की दया है। अगर ऐसे लोग मिले।
दशरथ की बात सुनकर सभी बेटियों ने उस इंसान को मन ही मन धन्यवाद किया और उसके उज्जवल भविष्य की कामना की।
संस्कृति(संभलते हुए) - पापा, राशन तो अभी एक हफ़्ते और चल जाएगा, लेकिन हमें गैस सिलेंडर एक-दो दिन में ही रिफिल करनी होगी।
दशरथ (सोचते हुए) - अच्छा, ठीक है, कल गैस डलवा लेना। बिना गैस के तो खाना नहीं ही पकेगा।
खाना खाने के बाद सभी अपने-अपने बिस्तरों में चले गए। हमेशा की तरह संस्कृति ने सभी का ख़्याल रखते हुए उनके पास पीने का पानी रख दिया और फिर सोने चली गई। दशरथ खाट पर लेटे-लेटे आज के दिन के बारे में सोचता रहा। दिल्ली से जितने लोग आए थे, उनमें कुछ लड़कियाँ भी थीं और वह सारी लड़कियाँ पढ़ी-लिखी मालूम पड़ती थीं। उन लड़कियों को देखते हुए उसे अपनी बेटियों की याद आई। काश वह उन्हें भी पढ़ा सकता, काश वे भी देश-विदेश घूम सकतीं। मगर जितनी पढ़ाई उसकी बेटियों ने की थी, उससे तो वे मोहल्ले से बाहर भी नहीं निकल सकती थीं, देश-दुनिया की बात तो बहुत दूर थी। अपनी हालत को अपनी नियति मानकर दशरथ बहुत देर तक सोते-सोते सो गया। संस्कृति सोने की कोशिश तो कर रही थी, मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। उसकी आँखों के सामने वह काग़ज़ दिखाई दे रहे थे, जिन्हें उसने दिन में टुकड़े-टुकड़े किया था। उन टुकड़ों में लिखे सपने संस्कृति की आँखों के सामने नाचने लगे थे, मानों जलने के बावजूद वे सपने न जले हों, मानों उनके चित्र होने के बाद भी वे सपने जिंदा होकर वापस आ गए हों। वह सपने उसे चिढ़ा रहे थे। वह उन सपनों से दूर भाग जाना चाहती थी और अपनी हक़ीकत को अपना लेना चाहती थी। उसकी आँखें सूज गई थीं, फिर भी बेचैनी कम नहीं हुई। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके सपने उससे सवाल कर रहे हों, आख़िर उनके पूरा होने से पहले उन्हें जलाने का हक़ संस्कृति को किसने दिया?
क्या काग़ज़ों के साथ-साथ संस्कृति के सपने भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे…या फिर संस्कृति की ज़िंदगी में भगवान ने कोई ऐसा जादू लिख रखा है जिससे उसकी किस्मत बदल जाएगी…?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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