कालांतक मंडल, त्रिकालदर्शी और ब्रह्मग्रह के बीच उलझी अपनी जिंदगी को संभालते हुए नारायण ब्रह्मांडीय असंतुलन को ठीक करने की कोशिश तो कर रहा था, लेकिन उसे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि इसका उसके परिवार पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
पहले अपने बेटे को तंत्र मंत्र के चक्कर में पड़ते देख नारायण को लग रहा था कि ये सब शायद किसी और ने किया है, लेकिन आभा ने अभी नारायण से त्रिकालदर्शी के बारे में जो कहा था, उसे सुनकर नारायण को बेहद तेज झटका लगा। अभी तक डर की वजह से आभा के हाथ पाँव काँप रहे थे, लेकिन त्रिकालदर्शी के मरने की बात आभा के मुँह से सुनकर अब नारायण भी डर की वजह से काँपने लगा था।
त्रिकालदर्शी के मरने की बात सुनकर नारायण के चेहरे पर पसरी चुप्पी को देखते हुए उसकी पत्नी राधिका ने उससे कहा, "अरे आपको क्या हो गया? वैसे अब ये त्रिकालदर्शी कौन है, जिसके मरने की बात आभा कर रही है।"
राधिका के सवालों को सुन नारायण सोच में पड़ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो राधिका के सवालों का क्या जवाब दे। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद जब राधिका ने उससे एक बार फिर यही सवाल किया, तो नारायण ने घबराते हुए कहा, "वो त्रिकालदर्शी पौराणिक कथाओं में एक किरदार है। जरूर आभा ने इसे कहीं पढा होगा।"
राधिका से झूठ बोलते हुए नारायण ने खुद को जैसे तैसे संभाला। उसकी बातों को सुनकर आभा उसे घूरने लगी। आभा की आँखों का रंग धीरे धीरे सुर्ख लाल होते जा रहा था, जैसे उसे इस झूठ से नफरत हो और नारायण भी ये महसूस कर सकता था। तभी राधिका ने कहा, "अरे बेटी क्या तुम ये सब पढ़ते रहती हो और इसी वजह से तुम्हें ये डरावने सपने आ रहे हैं। अभी अपना ध्यान कॉलेज की किताबों में लगाओ। चलो अब सो जाओ।"
आभा से इतना कहकर राधिका और नारायण उस कमरे से चले गए। सच से अंजान राधिका को इसका जरा भी अंदाजा नहीं था कि आभा की बातों ने नारायण को कितना गहरा सदमा दिया है। उसकी निगाहें अभी भी आभा पर ही थी और वो भी उसे घूर रही थी।
आभा का यूं घूरना और उसके द्वारा त्रिकालदर्शी का जिक्र किया जाना, नारायण पचा नहीं पा रहा था। इसलिए उसने राधिका से कहा, "मेरा फोन आभा के कमरे में छूट गया। मैं अभी लेकर आता हूँ।"
राधिका से इतना कह नारायण तुरंत अपनी बेटी के पास आया। नारायण को देख आभा भी चुप थी। इस चुप्पी को तोड़ते हुए नारायण ने उससे कहा, "आभा बेटी, तुम्हें त्रिकालदर्शी के मरने की बात कैसे पता चली और क्या तुम उसे जानती हो?"
नारायण के सवालों को सुन राधिका ने उसकी आँखों में आंखें डालते हुए कहा, "मैं उसे नहीं जानती, लेकिन मेरे सपने में मुझे किसी ने संदेश दिया था कि मैं ये सब आपको बता दूं। मुझे बस यही पता है।"
नारायण से इतना कहने के साथ ही आभा बिस्तर पर लेट गई और अगले ही सेकेंड वो बेहद गहरे नींद में जा चुकी थी। आभा को देख ऐसा लग रहा था, जैसे वो अपने सपने के बीच बस ये बात बताने के लिए ही जगी थी। आभा के सोते ही नारायण भी वहां से निकल गया और अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गया।
"जो आभा त्रिकालदर्शी के बारे में कुछ जानती नहीं है, जिसने त्रिकालदर्शी का नाम भी नहीं सुना है, वो आखिर उसके बारे में कैसे बात कर रही है। जरूर कोई आभा के सपनों को अपने वश में कर उसके साथ खेल रहा है। मुझे अपने परिवार को इनसब से दूर करना ही होगा।" इन बातों को नारायण सोच ही रहा था, तभी उसका ध्यान आभा की कही बात पर गई।
"आभा कह रही थी, त्रिकालदर्शी मर चुका है। नहीं लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। त्रिकालदर्शी कैसे मर सकता है और अगर वो सचमुच मर गया, तो फिर तुम्हारा क्या होगा नारायण।" दिमाग में एक बार के लिए ये ख्याल आते ही नारायण भीतर तक कांप गया।
नारायण को अब ये अंदाजा होने लगा था कि जो भी उसका दुश्मन है, वो कोई बड़ा खेल कर रहा है, लेकिन नारायण को इस खेल में जितने का कोई रास्ता नहीं मालूम था।
"त्रिकालदर्शी जीवित है या उसके साथ कुछ हुआ है, इसकी जानकारी के लिए तुम्हें उससे ही मिलना होगा, लेकिन वो कब मिलेगा, ये भी ठीक नहीं है। ऐसे में तुम्हें तुम्हारे सवालो का जवाब शायद गुरुजी ही दे पाए नारायण।" नारायण के दिमाग में अब मुंबई में मौजूद अपने गुरु ज्योतिषाचार्य सदाशिव का नाम चल रहा था और वो सुबह होते ही उनसे मिलने जाने के बारे में सोचने लगा।
हर रोज की तरह नारायण आज रात भी जगा रहा और पूरी रात अपने दुश्मनों दोस्तों, परिवार, त्रिकालदर्शी और सिग्नल पर मिले भिखारी के बारे में सोचते रहा। नारायण जब से इन चक्करों में पड़ा था, उसके बाद से शायद ही किसी रात वो चैन की नींद सोया था। नींद उसके आंखों से अब कोसों दूर रहती थी और नारायण के शरीर पर भी इसका प्रभाव साफ दिखने लगा था, लेकिन नारायण चाहकर भी सो नहीं पाया।
सुबह की पहली किरण के साथ ही नारायण ने अपना बिस्तर छोड़ दिया और नहा धोकर वो अपने गुरु से मिलने के लिए निकलने लगा। अपने घर से बाहर निकलते वक्त उसकी नजर जब चिंतामणि के कमरे पर गई, तो उसके कमरे का दरवाजा खुला हुआ था।
ये देख नारायण जब अंदर गया, तो चिंतामणि अपने कमरे में नहीं था। "इतनी सुबह आखिर चिंतामणि कहाँ जा सकता है। कहीं ये रात से ही तो बाहर नहीं निकला हुआ है। हे भगवान, मैं क्या करूँ।" ये सोच नारायण की चिंता और भी बढ़ने लगी।
अपने परिवार को इस तरह मुसीबत में देख नारायण ने तुरंत उनकी कुंडलियां निकाली और उन्हें लेकर अपने गुरु के पास जाने लगा। "गुरुजी मेरी मुसीबतों के बारे में नहीं जानते थे, लेकिन वो कम से कम मेरे परिवार को तो इससे बाहर निकाल ही देंगे।"
ये सोच नारायण अपने घर से निकल गया। उसके सामने इस वक्त हर रोज नई तरह की मुसीबत आकर खड़ा हो जाती, लेकिन उनका समाधान उसे कुछ नहीं मिल रहा था। इन्हीं ख्यालों में खोया हुआ वो ऑटो में बैठा और थोड़ी ही देर में अपने गुरुजी के यहां पहुँच गया।
ऑटो से उतरने के बाद नारायण ने गुरुजी के घर का दरवाजा खटखटाना शुरू किया, लेकिन काफी देर तक किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। ये देख नारायण ने आवाज लगाना शुरू कर दिया, "गुरुजी.. गुरुजी.. मैं नारायण हूँ। कृपया मुझे अंदर आने दीजिए, मुझे आपसे बेहद ही जरूरी बात करनी है।"
नारायण काफी देर तक दरवाजा खटखटाता रहा, लेकिन उसे अंदर से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, "ये गुरुजी आखिर कहां चले गए, जो ये जवाब नहीं दे रहे हैं। कहीं उनके ऊपर भी कोई मुसीबत तो नहीं आ गई।"
ये सोचते ही नारायण अंदर तक कांप गया। अभी तक जो मुसीबत उसके और परिवार के हिस्से तक ही थी, उसे अब अपने जानने वालों में भी फैलने का सोचकर नारायण की धड़कने तेज होने लगी। नारायण वहीं खड़ा ये सब सोच ही रहा था, तभी एक शख्स ने बेहद ही कड़क अंदाज में उससे पूछा, "आप कौन हैं और आप गुरुजी का दरवाजा क्यों खटखटा रहे हैं?"
नारायण ने एक अंजान शख्स को अपनी ओर बढ़ते हुए ये सवाल करता देख तुरंत घबराते हुए कहा, "वो मैं गुरुजी का शिष्य हूँ और उनसे मिलने के लिए आया था। लेकिन, ये दरवाजा ही नहीं खोल रहे हैं।"
नारायण की बातों को सुन उस शख्स ने अजीब निगाहों से नारायण को पहले ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर उससे कहा, "जीवन में कभी कभी लक्ष्य से इधर उधर भी देख लेना चाहिए। क्या आपको गुरुजी के दरवाजे पर लगा इतना बड़ा ताला नहीं दिखाई दे रहा, जो आप दरवाजा खटखटाये जा रहे हैं।"
उस आदमी की बातों को सुन नारायण ने जब दरवाजे से लटकता हुआ ताला देखा, तो वो खुद पर ही शर्मिंदा होने लगा, "मुझे माफ़ कीजियेगा। मैं जरा जल्दी में था, इसलिए मेरी नजर इस ताले पर नहीं गई।"
उस शख्स से इतना कह नारायण तुरंत वापस जाने के लिए मुड़ा और वहां से निकल गया। गुरुजी से भी ना मिलने के बाद अब नारायण को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वो आगे क्या करे, "गुरुजी को भी अभी ही जाना था। आखिर अब तेरी मदद कौन करेगा नारायण और तू किसके पास जाएगा।"
मुसीबत की इस घड़ी में अब नारायण को कोई भी सहारा नहीं दिख रहा था। गुरुजी के घर से निकलकर वो मेन रोड पहुँचकर ऑटो की राह देखने लगा, लेकिन उसे काफी देर तक कोई ऑटो नहीं मिला। ये देख लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए वो पैदल ही स्टेशन की ओर जाने लगा।
स्टेशन तक जाने के लिए नारायण ने जो रास्ता लिया था, उससे वो कई बार जा चुका था, लेकिन आज उसे वो रास्ता कुछ ज्यादा ही सुनसान लग रहा था। नारायण को आज वो जाना पहचाना रास्ता डरा रहा था और ये एहसास होते ही उसके कदम और भी तेजी से आगे बढ़ने लगे।
नारायण की रफ्तार बढ़ते जा रही थी, तभी अचानक उसके कंधों पर किसी ने हाथ रखा। ये एहसास होते ही नारायण भीतर तक सिहर गया। फिर भी किसी तरह हिम्मत करके वो जब पीछे मुड़ा, तो उसकी आँखों के सामने वही शख्स खड़ा था, जो उसे गुरुजी के घर के बाहर मिला था।
उसे देख नारायण ने कहा, "आप इस तरह मुझे क्यों रोक रहे हैं। मैंने कहा तो मुझे गलती से वो ताला नहीं दिखा, इसलिए मैं गुरुजी का दरवाजा खटखटा रहा था।"
उसकी बातों को सुन सामने खड़े शख्स ने हँसते हुए कहा, "आप मुझे जो समझ रहे हैं, वो मैं नहीं हूं। दरअसल वो मेरा जुड़वा भाई है। मुझे जैसे ही आपके आने का पता चला, मैं आपके पीछे चला आया। आप मेरे साथ चलिए, मेरे पास आपके लिए एक संदेश है।"
उस शख्स की बातों को सुन नारायण को उसपर यकीन तो नहीं हो रहा था, लेकिन अभी उसे बस एक छोटे से सहारे की जरूरत थी। इसलिए वो मन मारकर उस आदमी के पीछे पीछे जाने लगा। थोड़े ही देर में वो लोग रेलवे स्टेशन की एक पुरानी बिल्डिंग के बाहर खड़े थे।
उस सुनसान बिल्डिंग में जाते हुए नारायण को थोड़ा अजीब तो लग रहा था, लेकिन फिर भी उस शख्स के पीछे पीछे वो चले जा रहा था। रेलवे के उस पुराने खंडहर बिल्डिंग में रौशनी भी बेहद छनकर आ रही थी और नारायण को सब धुंधला दिख रहा था।
तभी उसके आगे चल रहा शख्स अचानक ही रुका और उसने पीछे मुड़ नारायण से कहा, "तुम्हें यूँ किसी पर भी भरोसा करके उसके साथ नहीं चल देना चाहिए नारायण। ऐसा भी तो हो सकता है कि मैं यहाँ तुम्हें मारने में लिए लाया हूँ।"
नारायण से इतना कहते ही उस शख्स ने अपने हाथ में एक लोहे की पाइप उठा ली और उसे जमीन पर घसीटते हुए वो नारायण की ओर बढ़ने लगा। ये देख नारायण को एहसास होने लगा कि उसने यहाँ पर आकर बहुत बड़ी गलती कर दी है और वो शख्स अब उसपर हमला कर ही देगा।
"अब यहां से भागने का भी कोई फायदा नहीं है नारायण, क्योंकि ये तुम्हें पकड़ ही लेगा। तुमने यहाँ आकर सच में बहुत बड़ी गलती कर दी है नारायण।" नारायण ये सोच रहा था, तो उधर उसकी ओर बढ़ रहे उस शख्स की आकृति और भी बड़ी होते जा रही थी। नारायण को अब वो शख्स किसी राक्षस की तरह विशाल दिख रहा था और ये देख उसे अपने फैसले पर और भी अफसोस हो रहा था।
नारायण और उस शख्स के बीच की दूरी अब महज कुछ कदमों की बची थी और डर की वजह से नारायण ने अपनी आंखों को बंद कर लिया। नारायण के हाथ पांव डर की वजह से कांप रहे थे, तभी उसके कानों में उस शख्स की आवाज गूँजी, "डरो मत नारायण। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा, क्योंकि मैं त्रिकालदर्शी हूँ।"
उस शख्स के इतना कहते ही उस इमारत में अचानक ही लाइटें जलने लगी और अब नारायण सबकुछ अपनी आंखों के सामने देख सकता था। उस शख्स का चेहरा त्रिकालदर्शी से बिल्कुल भी नहीं मिल रहा था और ये देख नारायण ने कहा, "तुम क्यों झूठ बोल रहे हो। मैं त्रिकालदर्शी से मिला हूँ और वो काफी अलग दिखता है।"
नारायण की बातों को सुन उस शख्स ने कहा, "दरअसल त्रिकालदर्शी को कालांतक मंडल ने बंधक बना लिया है नारायण, इसलिए उसकी जगह अब त्रिकालदर्शी का काम मैं देख रहा हूँ। तो मैं हुआ न त्रिकालदर्शी।"
उस शख्स की बातों को सुन नारायण काफी दुविधा में था और उसे घूरे जा रहा था।
आखिर क्या है उस शख्स की हकीकत और वो क्या सच में है त्रिकालदर्शी.?
त्रिकालदर्शी को कालांतक मंडल ने बनाया है बंधक या फिर हो गई है उसकी मौत.?
आखिर इन सवालों का जवाब कैसे खोजेगा नारायण.?
जानने के लिए पढिए कहानी का अगला भाग।
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