आदित्य ने कलाई की घड़ी देखी। दो बजकर कुछ मिनट हो रहे थे। साथ ही उसे लोकल ट्रेन के हार्न की आवाज भी सुनाई दी और वह अनायास दौड़ने लगा। स्टेशन की इमारत में दाखिल होने से पहले ही लोकल ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी और जब तक वह प्लेटफार्म तक पहुंचता, ट्रेन चलने लगी थी। यह आखिरी ट्रेन थी, अगर यह भी निकल जाती तो उसे चार बजे सुबह तक प्लेटफॉर्म पर ही समय काटना पड़ता, जब लोकल ट्रेन की दोबारा सर्विस शुरू होती।

आदित्य ने छलांग लगाईं ओर जो पहला डिब्बा सामने पड़ा, उसी में चढ़ गया। अपनी सांसें ठीक करने से पहले ही उसने यह तो देख लिया कि वह फर्स्ट क्लास में चढ़ गया है लेकिन तत्काल यह नहीं देख सका कि वह फर्स्ट क्लास लेडीस कम्पार्टमेंट है। उसके पास सैकण्ड क्लास का वीरार से चर्चगेट तक का पास था। रात के दो बजे किसी टी० सी० के आने की भी सम् भावना कम थी, इसलिए वह ज्यादा परेशान नहीं हुआ हालांकि उसकी जेब में इस समय इतने पैसे भी नहीं थे कि अगले स्टेशन तक का ही फर्स्ट क्लास और सैकण्ड क्लास के अन्तर का जुर्माना भर देता। फिर भी उसने अपने आपको भाग्य के ऊपर छोड़ दिया।

फिर वह उचित-सी बैठने की जगह देख ही रहा था कि अचानक उसकी निगाहें बिलकुल आखिर में एक कोने की सीट पर बैठी हुई लड़की पर पड़ी और उसका पूरा शरीर झनझना गया। अब उसे आभास हुआ था कि वह लेडीस फस्ट क्लास में चढ़ गया है। बैठते-बैठते वह रुक गया और दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया। उसे कुछ सप्ताह पहले की घटना याद आ गई थी। इसी तरह लोकल के फर्स्ट क्लास में एक अकेली लड़की सफर कर रही थी जिसकी इज्जत कुछ गुण्डों ने लूट ली थी और एक ऐसा मुसाफिर जिसने उस लड़की को बचाने की कोशिश की थी और गुण्डों की मार खाकर बेहोश गया था, उसे पुलिस ने न सिर्फ गिरफ्तार कर लिया था बल्कि लड़की ने बदमाश के रूप में उसकी शिनाख्त भी कर ली और उसे सजा भी हो गई।

आदित्य ने झुरझुरी सी ली और धड़कते दिल के साथ उसने पूरे कम्पार्टमेंट का अवलोकन किया। वहां पर आदित्य और उस लड़की के अलावा कोई तीसरा नहीं था।

आदित्य ने थोड़ा सन्तोष का सांस लेकर सोचा कि अगला जो भी स्टेशन आएगा वह उस पर उतरकर कम्पार्टमेंट बदल लेगा । लेकिन यह फास्ट ट्रेन थी। इसलिए अगला स्टेशन आने में अभी कई मिनट शेष थे जबकि उसके ऊपर एक एक मिनट मारी हो रहा था।

यों तो वह कोशिश कर रहा था कि उसकी नजरें लड़की की तरफ न उठें, कहीं उस लड़की को आदित्य की तरफ से कोई गलतफहमी हो जाए। लेकिन न चाहते हुए भी वह बार-बार लड़की की तरफ देखने लगता था। अचानक उसका दिल जोर से धड़का, क्योंकि वह लड़की शायद रो रही थी। पीली रोशनी में भी उसकी आंखें लाल लाल अंगारों की तरह नजर आ रही थीं और पपोटे सूजे हुए से थे। बार-बार वह छोटे से रूमाल से आंसू और ताक पोंछती थी।

आदित्य के दिल की धड़कनें बढ़ती रहीं। लड़की गुलाबी सलवार कमीज में थी। गुलाबी ही दुपट्टा उसके कंधों पर था। हाथ की कलाई में एक वैनिटी बैग लटका हुआ था जो सफेद रंग का था। आदित्य अभी सोच ही रहा था कि उसने लड़की को वैनिटी बैग खोलते देखा। उसमें से लड़की ने एक नोट बुक निकाली और एक बाल पेन।

नोट बुक पर कुछ लिखा और उसका पन्ना फाड़कर उसने नोट बुक और बाल पेन वापस वैनिटी बैग में रख लिए और एक सफेद लिफाफा निकालकर नोट बुक में से फाड़ा हुआ परचा तह करके उसने लिफाफे में रखकर लिफाफा बन्द किया । फिर वह अपनी सीट से उठकर सीधी आदित्य की तरफ चली आई और आदित्य का दिल एकबारगी इतनी जोर से धड़का जैसे मुंह से बाहर आ जाएगा।

लड़की बहुत खूबसूरत थी। रंगत गुलाबी थी और रोने के कारण उसके पपोटे और नाक की नोक लाल हो गई थी। उसने थोड़े भारी लेकिन स्पष्ट स्वर में आदित्य से कहा, ‘प्लीज, मेरा एक काम करने का कष्ट करेंगे ?’ 

आदित्य ने शिष्ट स्वर में कहा—'अवश्य, आज्ञा दीजिए ।' लड़की ने वह लिफाफा आदित्य की तरफ बढ़ा कर कहा इसे अपने पास संभालकर रख लीजिए।'

आदित्य ने लिफाफा लेकर कहा- 'जी, क्या करूं इसका?"

लड़की ने कहा- 'इसके ऊपर पता लिखा है- इस पते पर पहुंचा दीजिए।'

'बेहतर है।'

आदित्य ने बड़ी शालीनता से लिफाफा लेकर पतलून की जेब में रख लिया। लड़की इस तरह वापस मुड़ गई जैसे आदित्य उसके लिए अनजाना न हो। और फिर, अचानक आदित्य के दिमाग में उस समय एक बम का-सा धमाका हुआ, जब उस लड़की ने दूसरी तरफ के दरवाजे के पास जाकर अचानक बिजली की रफ्तार से दौड़ती हुई ट्रेन बाहर अन्धेरे में छलांग लगा दी।

आदित्य का पूरा शरीर कांप कर रह गया। कुछ क्षणों के लिए उसके मस्तिष्क में यह भी आया कि वह जल्दी से दरवाजे से कूद पड़े लेकिन उसे अपनी भूल का तुरन्त ही आभास हो गया। क्योंकि उस लड़की ने तो शायद आत्महत्या की थी। आदित्य बेमौत ही मारा जाता।

उसकी टांगें थर-थर कांप रही थीं। पिंडलियों में खड़े रहने की भी शक्ति नहीं थी। ऐसा लगता था जैसे कुछ पल और ट्रेन म रुकी तो शायद वह अनिश्चय की दशा में ही नीचे कूद पड़ेगा। पता नहीं कितने साल बाद अगला स्टेशन आया ? आदित्य को तो ऐसा महसूस हुआ था। यह आदित्य का दुर्भाग्य ही था कि जैसे ही उसने प्लेटफार्म पर पांव रखा, अचानक ठीक उसके पास से ही एक कर्कश स्वर ने उसे चौंका दिया-

'ठहरो।'

आदित्य ने पलटकर देखा तो रही-सही सुध-बुध भी जाती रही। क्योंकि वह एक टी० सी० ही था जो तेजी से उसके पास आता हुआ बोला- 'टिकट दिखाओ ।' 

"म...म... मेरे पास टिकट नहीं पास है।'

आदित्य ने हकलाकर जवाब दिया ही था कि ट्रेन चल पड़ी टी० सी० ने उसे वापस ऊपर धकेलते हुए कहा- 'ऊपर चढ़ो!'

आदित्य को ऐसा लगा जैसे टी० सी० उसे मौत के मुंह में चापस ले जा रहा हो। क्योंकि टी० सी० के पीछे ही, एक नीली वर्दी वाला हवलदार भी चढ़ आया था जिसे देखकर आदित्य की रही-सही चेतना भी जाती रही थी।

ट्रेन तत्क्षण ही गतिशील हो गई थी और अब फिर वह बिजली की सी रफ्तार से चल रही थी। टी० सी० ने हवलदार के साथ एक सीट संभाल ली और आदित्य किसी अपराधी की तरह उन दोनों के सामने खड़ा हो गया। उसका चेहरा स्थाही लिए पीला हो रहा था।

टी० सी० ने आदित्य से यह भी नहीं पूछा था कि उसे पिछले ही स्टेशन पर तो नहीं उतरना था। वह एक भौंह चढ़ाकर आदित्य से किसी बड़े आफीसर की तरह बोला- 'तुम्हें मालूस है यह लेडीस कम्पार्टमेंट है।'

आदित्य ने होंठों पर जीभ फेरकर कहा- 'जी, आखिरी गाड़ी थी– मैं प्लेटफार्म पर पहुंचा तो गाड़ी चल चुकी थी, जल्दी में जो कम्पार्टमेंट सामने आया उसमें चढ़ गया।'

टी० सी० ने व्यंग्य से कहा- 'और यह तुम्हारा दुर्भाग्य है कि इस कम्पार्टमेंट में संयोगवश कोई लड़की नहीं सफर करती हुई नजर आई।'

"हम तुम जैसे नौजवानों को अच्छी तरह समझते हैं तुम ही जं से लोगों से साधारण रूप में ऐसी चूक होती है। भला क्लोई लड़की गलती से किसी जेंट्स कम्पार्टमेंट में क्यों नहीं चढ़ पाती।'

आदित्य के होंठ कांपते रह गए। वह कुछ बोल न सका। टी० सी० ने उसे घूरकर पूछा 'कौन से स्टेशन से चढ़े थे?"

आदित्य थूक निगलकर बोला- "जी, बोरीवली से।"

'हुँह, वीरार के बाद बोरीवली ही रुकती है न ट्रेन?" 

'मैं सच कह रहा हूं मेरे पास वैसे पास तो वीरार से चर्चा गेट तक का ही है।' 

'ठीक है, पास दिखाओ ।'

आदित्य के शरीर में एक बार झटका-सा लगा। उसने कंप कंपाते हाथों से पास निकालकर टी० सी० की ओर बढ़ा दिया. और। .टी० सी० चौंककर सीधा बैठता हुआ बोला- 'अच्छा, तो पास भी सैकण्ड क्लास का है।'

आदित्य हकलाकर बोला- ''ज... जी व... वह जल्दी में था न जो डिब्बा सामने नजर आया उसी में चढ़ गया।' 

टी० सी० ने झटके से कहा—'कहां जाना है ?' 

‘जी ब...ब बांद्रा ।’

'हुं वीरार से बांद्रा तक का अन्तर दो सो दस रुपए निकालो।'

आदित्य के पैरों तले से डिब्बा सरकते सरकते बचा उसने कहा— 'म... मेरे पास तो केवल पन्द्रह रुपए हैं।' 

टी० सी० उछलकर बोला-'केवल पन्द्रह रुपए?"

'ज ज जी हां।' 

'अरे पकड़े जाने पर सभी ऐसा कहते हैं।' 

फिर टी० सी० ने हवलदार से कहा, "और फर्स्ट क्लास में यात्रा करने का चाव?'

‘म...म मैं सच कहता हूं जान-बूझकर नहीं चढ़ा था।’

'इसे हिरासत में ले लो।' आदित्य ने विनीत स्वर में कहा- ‘भगवान के लिए ऐसा मत कीजिए!’

भगवान के सगे-पकड़े गए तो भगवान के नाम क दुहाई देने लगे।'

'मैं सच कह रहा हूं-जान-बूझकर नहीं चढ़ा था। वरना अगले ही स्टेशन पर भला किसलिए उतर जाता?"

‘बको मत बैठ जाओ।' 

टी० सी० साहब! बड़ी मुश्किल से मुझे नौकरी मिली है— अगर में पकड़ा गया तो वह भी हाथ से निकल जाएगी और मैं फिर बेरोजगार हो जाऊंगा।' 

'बोरीवली में नौकरी करते हो?’

'जी, ड्यूटी आजकल वहीं पर है।"

'क्या काम करते हो?

'जी, सरस्वती हाई स्कूल में टीचर हूं।'

'सरस्वती हाई स्कूल| यह लड़कियों का स्कूल है?"

“जी हां साहब।”

'और अभी नया-नया ही खुला है?"

‘जी हां।'

टी० सी० ने कुछ सोचा और बोला- ‘यह वही स्कूल है जिसे विद्या देवी ने खोला है और कुछ महीने पहले जिसका उद्घाटन मुख्यमन्त्री ने किया था?'

'जी हां, अभी उसका भवन भी पूरी तरह नहीं बना छात्राएं भी बहुत नहीं हैं- उधर ऐसे वर्ग के लोग अधिक हैं न जिन्हें पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा रुचि नहीं है– मजदूरी और घरेलू काम-काज करते हैं।' 

'अरे साला पेट' जब भरेगा तभी तो पढाई में रुचि होगी- मैंने एम० एस० सी० डी० एस० सी० किया है और एक टी० सी० बनकर झक मार रहा हूं।" 

फिर वह रुककर बोला— ‘तुमने क्या डिग्रो ली?’

‘जी एम० काम० फर्स्ट क्लास फर्स्ट।’

'लो, होना चाहिए या किसी बहुत बड़ी फर्म में अकाऊंट और झक मार रहे हो एक विद्यालय में साधारण अध्यापक बने।’

‘दो साल की बेरोजगारी के बाद बड़ी मुश्किल से एक भले आदमी की मदद से यह नौकरी मिली है - मैं तो इसी को ईश्वर की देन समझता हूं।’

'समझना ही पड़ता है। अच्छा सचमुच तुम्हारी जेब में सिर्फ पन्द्रह रुपए ही हैं या कुछ और भी है!"

'साहब! तलाशी ले लीजिए।'

'ठीक है, चलो पांच रुपए रखो दस का नोट निकालो- चाय-पानी तो मिलना ही चाहिए।'

आदित्य ने बड़ी फुर्ती से दस रुपए का नोट निकालकर टी० सी० को दे दिया। 

उसका दिल यह सोचकर खुशी से उछल फिर वह हंसकर बोला- "और युग देखा, वह रिक्शावाला उनके विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाने के लिए पुलिस स्टेशन आया या, कभी औरतें मर्दों के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाती थीं।

'अरे यार, कुछ और भी निकला? सहसा हवलदार उछल पड़ा और जल्दी से बोला-- 'अरे वाह, नोटों की गड्डी।' टी० सी० उछलकर बैठता हुआ बोला- 'नोटों की गड्डी?'

 

ऐसा लगा जैसे टी० सी० में नई जान पड़ गई हो। हवल दार ने गड्डी दिखाकर खुशी में कांपते स्वर में कहा- ‘पचास-पचास के नोट हैं- वे भी नए-नए।’

टी० सी० ने जल्दी से कहा— 'अरे जल्दी से यह सामान वापस वैनिटी बैग में रख और बैग को वहीं रख आ जहां से उठाया था— स्टेशन जा रहा है।' हवलदार ने जल्दी-जल्दी सारा सामान वापस बैग में रखा और वहीं रखकर लोट लाया जहां से उठाया था। 

टी० सी० ने कहा– ‘ला गड्डी मुझे दे मैं जेब में रखे लेता हूं- मुम्बई सेंट्रल आ रहा है— फर्स्ट क्लाम के वेटिंग रूम में चलकर देखेंगे कितने हैं।’

हवलदार ने जल्दी से गड्डी टी० सी० को दे दी। टी सी० ने गड्डी जेब में रख ली। इतने में मुम्बई सेंट्रल आ गया और वे दोनों जल्दी से प्लेटफार्म पर उतर गए। गाड़ी चलने से पहले ही एक स्मार्ट अधेड़ उम्र की औरत जिसके हाथ में एक लम्बा खूबसूरत-सा अटैची केस था, कम्पार्टमेंट में चढ़ी और तुरन्त ही ट्रेन चल पड़ी।

औरत ने अटेची पास की सीट पर रखकर गिरेबान से रूमाल निकालकर चेहरा पोंछा और दोबारा चश्मा लगाकर उसने जैसे ही रूमाल वापस गिरेबान में रखा उसकी निगाहें सामने पड़े वैनिटी बैग पर पड़ीं।

औरत उठकर आगे गई। वैनिटी बैग उठाकर लाई और अपने पास सीट पर रखकर वह बैठकर अपने बालों का जूड़ा ठीक करने लगी।

क्रमशः 

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