यह शहर नहीं था। गाँव भी नहीं था। इसे क़स्बा कहना क़स्बे की तौहीन ही होता। यह कुछ ऐसी जगह थी, जो अपने आप ही बन गयी थी, इसे किसी ने बसाया नहीं था। मानो यह अपने आप उग आई जगह हो, जैसे कभी कभी बारिश के मौसम में कुकरमुत्ते उग आते हैं। अब अपने आप उग आई थी, तो कभी भी हटाई, बहाई, उजाड़ी जा सकती थी। बारिश तेज़ आ जाए तो दिक्कत, न आए तो दिक्कत। ठंड पड़ती थी, तो सिकुड़कर मरते, और गरमी पड़ती तो हैज़ा और मलेरिया से मरते। इतना मरते इतना मरते कि मच्छर ख़ुद इनकी वजह से मरते।

यह एक जगह थी, जहाँ कुछ बस्तियाँ थीं, बस्तियों में लोग थे। लोगों के अपने सपने थे। अपनी इच्छाएँ थीं, अपने दुःख थे और अपनी कहानियाँ थीं।

 

यह एक ऐसी जगह थी जिसे दो तरफ़ से ट्रेन की पटरियों ने काट दिया था।मसलन ऐसा कि दो पटरियों के बीच एक बहुत बड़ा तिकोना जैसा ख़ाली मैदान था, जहाँ यह जगह थी और जाने किसने इस जगह का नाम रख दिया था इंद्रपुरी।

तो साहब! इस इंद्रपुरी की हालत यह थी कि जब कभी इसकी सीमाओं पर कोई ट्रेन गुज़रती तो यह पूरा इलाक़ा हिलने लगता। जो झुग्गियाँ थीं, वह हिलने लगतीं, खाट हिलने लगते, बर्तन हिलने लगते, नींद हिलने लगती, दुनिया हिलने लगती। डोलचि में रखा दूध हिलता, शराबी और हिलता, पेड़ पर बैठे पक्षी हिलते सूरज हिलता चंदा हिलता। जीवन हिलता।

 

इस छोटी सी दुनिया यानी कि इस इंद्रपुरी में बहुत छोटे छोटे लोगों की अपनी बहुत बड़ी बड़ी दुनिया थी। एक साथ कई दुनियाएँ थीं। हाँ लेकिन चाँद एक था, सूरज एक था और यह चाँद और सूरज इंद्रपुरी के लिए ही था। बाहर की दुनिया जैसे चाँद और सूरज नहीं।

यहाँ रामकृपा पंडित थे, खोमचे वाले थे, झुन्नी काकी थी, लल्लन लाला थे,इन्हीं में एक डाक्टर भी था, जिसे डाक्टर बनाया किसने यह भगवान ही जाने। जाने न जाने बस इतना ही जाने कि कुछ न जाने रे।इस ससुरे की दो ही दवाई--पानी उबाल कर पियो और भगवान का नाम लो। भगवान सबको बचाते हैं, सबकी रक्षा करते हैं, उनके होते किसी को कुछ नहीं हो सकता। और हो जाता तो कहता कि क्या बात करते हैं फलाने बाबू! डाक्टर भगवान थोड़े ही है। और अब जिसको जाना है वो तो गया ही। महँगाई इतनी है, आदमी जिए या मरे, इसका फ़ैसला भगवान करे। महीने भर से भाभी जी का इलाज मैंने अपनी जेब से किया था, इंसाफ़ हो तो कर देना हिसाब। हमने तो इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी।

--और इतना सुनकर फलाने बाबू की हालत उस कुत्ते जैसी होती जिसे पास बुलाया जाता है रोटी का झाँसा देकर और पास आते ही, दरवाज़ा बंद कर लिया जाता है और कुत्ता है कि रोटी की आस में बैठा रहता है। श्रीमन नारायण नारायण नारायण!

डाक्टर एक बेहददिलचस्प किरदार है. उसकी दिनचर्चा एकदम मशीन की तरह फिक्स है. सुबह होते ही, एक टेबलऔरकुर्सी लगाकरऔर उस पर खुद तशरीफ़ रखके वो ग्राहकों उर्फ़ बीमारों के आनेका इंतज़ार करने लगते. हर आदमी सुबह उठकर अलग अलग तरह कि प्रार्थानाएं करते थे, कोई भगवान्से रुपयों पैसों कीमांगकरता, कोई खाने की मांग करता, कोईघर माँगता, और कोई नौकरी लेकिन अपने डाक्टर हर सुबह यही प्रार्थना करते कि लोग ज्यादा से ज्यादा बीमार पड़ें. एक एक व्यक्ति को अधिक से अधिक बिमारी हो. बुरी से बुरी बिमारी होने पर डाक्टर ज्यादा से ज्यादा खुश होता. और मान लीजिये कि कोई खुशहाल व्यक्ति चलता फिरता घूमता टहलता यूंही डाक्टर से नमस्ते कर दे तब डाक्टर उसे अपने पास बुलाताऔरधीरे धीरे उससे बात करते करते उसमें कोई न कोई बिमारी निकाल ही देता. मसलन ये आपकी आँख के नीचे काले काले धब्बे कैसे आ रहे हैं? आप आजकल कुछ कमज़ोर से होते जा रहे हैं, उबला हुआ पानी पीजिये वरना वो दिन दूर नहीं जब हैजा आपको ले उड़ेगा. ऐसी कुछकुछ बातों से वह सामने वाले को परेशान कर देता और करदेता और अगले दिन आकर दिखा जाने को कहता. तो इतने चतुरऔर साक्षात चित्रगुप्त थे हमारे डाक्टर साहब.

इसी में एक कसूरी बाई भी थीं (इसका नाम लोग छुप छुप कर लेते और जो लड़के जवान होने वाले थे, उनके दिलों पर कोई एश्वर्या या रानी मुखर्जी नहीं, बल्कि यही कसूरी बाई का राज चलता था)कसूरी ने अपने जीवन में बहुत सी परेशानियां उठाई थीं. बहुत छोटी उम्रमें उसकी शादी हो गयी थी. लेकिन हाय रे किस्मत! बहुत छोटी उम्र में ही कसूरी का पति उसे छोड़कर भाग गया था. जाते जाते बोल गया था, कि तुझसे सब प्यार करते हैं. तू मेरी नहीं सबकी है. तब से कसूरी सब की हो गयी. कसूरी की बात चल रही है तो उसकी खूबसूरती कि चर्चा आपसे कर देनी चाहिए.कसूरी की आँखें बहुत सुन्दर थीं. काली रात से अधिक काली आँखें, हमेशा काजल लगाये जैसी, इतनी गहरी आँखें, जैसे कोई घना जंगल, और इस घने जंगल में भटकने वाले ढेरों आशिक. इस इंद्रपुरी जैसी हेय जगह में कसूरीबाई जैसी किसी स्त्री का होना, हमेशा उत्सव जैसा लगता. लेकिन यह दूसरों के लिए होता. खुद कसूरी के दिल का हाल एकदम अलग बुझा बुझा सा रहता.जब कोई लड़का कसूरी के बेहद करीब आने की कोशिश करने लगता, तब कसूरी उसे प्यार से समझा कर कहती, कि एक दिनआएगा, जब वो इस इंद्रपुरी से किसी परी की तरह उड़ जायेगी. तो क्या वो दिन कभी आयेगा, उसकी कहानी फिर कभी. अभी बाकी के पात्रो से आपकी मुलाक़ात करानी है.

कसूरी बाई और डाक्टर के बारे में तो आप जान ही गए हैं। क्या मतलब थोड़ा ही बताया है? रूको ज़रा सबर करो। तो कहानी आगे बढ़े, इस लिए थोड़ा थोड़ा परिचय तो इन लोगों का आपको जान ही लेना चाहिए। तो देर किस बात की, हाथ में लीजिए अक्षत और थोड़ा सा जल और आँख बंद करके सुनिए। 

हमारी कहानी के सबसे दिलचस्प व्यक्ति हैं रामकृपा पंडित। रामकृपा पंडित सुबह ब्रह्म मूहूरत में उठते। उनके उठने से क्या? पानी तो सुबह आता नहीं था, सुबह क्या? पानी सुबह शाम रात कभी नहीं आता था। पानी कभी भी आ जाता जैसे संकट कभी भी आ सकता है। लेकिन ख़ैर पंडित। रामकृपा पंडित सुबह ब्रह्म मूहूरत में उठते। और जाने वो कैसे नहाते लेकिन नहा पाते! फिर काला चन्दन (जोकि पता नहीं इस दुनिया में कहाँ पाया जाता था, वह बहुत महिमा से बताते कि हिमालय में एक जगह से वो घिसकर इसे लाए थे, आजतक इसका बुरादा ख़त्म नहीं होता। भोले भाले लोगों के लिए जो कहो वही सच। भोले भाले लोगों ने मान लिया था कि पंडित सच कहता था। लेकिन अब कहानीकार आपको इतनी सचाई नहीं बताएगा तो आप आनंद कहाँ से लेंगे। दरस्सल रात में दूर फ़ैक्ट्री से कालिख उड़ती थी, पेपर जलाए जाते और उससे इतनी कालिख उड़ती कि पटरी के उस तरफ पड़ी ख़ाली मैदान में कार्बन के धूल जमा हो जाते। तो पंडित महीने में एक बार वहाँ ब्रह्म मूहूरत में जाकर चक्कर लगा आते और हिमालय की कालिख --मेरा मतलब है काला चन्दन महीनो माथे पर लगाते(हरी ओम्)।और सुबह से ही लोगों के घर जाकर भिक्षा लेना, पूजा पाठ, चन्दन लगाना, धुँआ बाती करना, गृह दोष बताना(घर बेशक न हो लेकिन दोष बताने में क्या जाता है?) चाहे बीमारी हो, पति पत्नियों के क्लेश हों, बच्चा न होने की बीमारी हो, शीघ्रपतन, वशीकरण, मुठकरणी--हर मर्ज़ के चलते फिरते इलाज थे रामकृपा पंडित। जय हो प्रभु! तेरी लीला अपरंपार!

कहानी के दूसरे दिलचस्प किरदार है वो खोमचेवाले जो सुबह होते होते शहर चले आते दिनभर वहाँ खोमचा लगाते और जो पैसा कमाते, उससे रात को देसी पीते, हुद्दंग मचाते।इन खोमचे वाले की आँखों में कोई सपना नहीं था. नींद इनकी आँखों में हमेशा छाई रहती. ये बस किसी तरह ज़िंदा थे. क्यूँ थे, यह किसी को नहीं पता था. इनमें से अधिकांश के पास रहने की जगह तक नहीं थी. सब जब काम से लौटते, तब किसी जुग्गी की आड़ में, किसी घर यह पेड़ के किनारे अपना बसेरा बना लेते. बस यही इनकी दुनिया होती. यही इनका घर होता. इन्हीं में इनका परिवार होता, इनके बच्चे होते, इनकी बीवियां होतीं.

एक काकी थी झुन्नी काकी। जो सबकी काकी थी। उम्र ज़्यादा नहीं थी, लेकिन क्या बच्चे और क्या बूढ़े वो सबकी काकी थी। जिसे पा जाती उसे गाली दे देकर भगा देती और अगर किसी पर प्यार आ जाए तो उसके लिए जान देने पर तुल जाती। काकी ने जबसे होश संभाला था तब से बहुत दुःख झेला था. कभी भर पेट खाने को नहीं मिला. अधिकाँश ऐसा ही होता कि हफ्ते में तीन दीन ही खाने को मिला हो. पर काकी तो काकी. कभी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं. दांत सारे झर चुके थे. और कमर पूरी तरह झुक गयी थी. लेकिन ये सब होते हुए भी काकी की अकड में कभी कमी नहीं आई. एकदम दबंग स्वभाव कि औरत थीं हमारी झुन्नी काकी. काकी के घर में अब कोई नहीं बचा था. पति बहुत पहले दमा की बिमारी से खांसते खांसते मर गया था. जवान लड़का एक लड़की की बेवफाई में ट्रेन से कटकर मर गया. एक लड़की थी जिसे शहर से आये एक लड़के ने भगाकर शादी कर ली थी. और तबसे काकी ने कसम खाई थी, कि लड़की का मुंह नहीं देखेगी.

अब बारी आती है लल्लन लाला की। एकनम्बर का काइयाँ। मैं बता रहा हूँ आपको। गिरगिट ने रंग बदलना इसी से सीखा होगा। कब क्या हो जाए किसी को नहीं पता। आज आपका हितैषी और कल ख़ून का प्यासा। लल्लन लाला के पास पाँच झुग्गियाँ थीं। इसलिए सबसे अधिक रुतबा इसी का था। लेकिन अव्वल दर्जे का छँटा हुआ बदमाश। नहाती हुई औरतों को पन्नियों से झांककर देखना, बच्चे के हाथ टोफ़ी लेकर उसे जादू का करतब बताकर ख़ुद खा जाना, उधारी देता एक रुपए लिखता तीन। पंगा कौन ले, फिर ज़रूरत पड़ती थी।

एक बार पटरी के किनारे तीन खोमचे वालों की लाश पाई गयी थी. लोगों ने तरह तरह के अनुमान लगाये थे. लेकिन घूमफिर कर सबका शक लल्लन लाला पर ही गया था. कारण यह था कि यह खोमचे वाले अक्सर भुखमरी की हालात में लाला से उधारी लेते. लेकिन कभी इतने पैसे कमा नहीं पाते जिससे उधारी चुका सकें. तो बदले में लाला इनसे इतना काम कराता कि मौत तो वैसे ही आ जाती.

तो इसकी कथा फिर कभी।

अब बारी आती है परम प्रतापी की। नहीं नहीं रुकिए। परम प्रतापी नाम से आप कुछ और अर्थ निकालें, इससे पहले मैं आपको बता दूँ कि जैसे इस जगह का नाम इंद्रपुरी था वैसे ही एक व्यक्ति था जिसका नाम परम प्रतापी था। अब था तो था। क्या करें?

परम प्रतापी गोंडा जिले के किसी गाँव से भागे थे, अपनी क़िस्मत बदलने। लेकिन और दूर तक भागने के लिए जो ताक़त चाहिए वो इस इंद्रपुरी में जाकर कम हो गयी और परम प्रतापी यहीं आकर बस गए। यूँ परम प्रतापी का असल नाम तो चुन्नी था बचपन का, लेकिनइस इंद्रपुरी में आकर उन्होंने अपना नाम बदल लेना ही उचित समझा--कौन साला वही पुराना नाम लेकर गाली सुने? धक्के खाए? जब भागकर आए हैं तो नाम भी बदल लेना चाहिए। जो लोग कहते हैं कि नाम में क्या रक्खा है? वो यहाँ से पहली फ़ुर्सत में निकल लें क्यूँकि उन्हें यह बात माननी ही होगी कि नाम में बहुत कुछ रखा है। बल्कि सबकुछ रखा है। इसलिए आगे की कहानी के लिए हाथ में चावल अक्षत लें चाहें न लें लेकिन यह ज़रूर मान लें कि नाम में बहुत कुछ रखा है।

 

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