जब सफलता किसी के क़दम चूमे तो हम बधाई देते हैं। वैसे ही जैसे क्रिकेट के मैदान में जब बल्लेबाज़ सेन्चुरी मारता है, तो सब मिलकर बधाई देते हैं क्योंकि उसने एक सौ बना लिए।
आज इस मंच पर हमारे साथ एक ऐसी ही शख़्सियत मौजूद हैं, जिन्होंने अपने फील्ड में शतक लगा दिया है और इनके फील्ड में शतक क्या एक रन भी बनाना आसान नहीं है। ‘आसान’ क्या, “असंभव” कह सकते हैं। इसके लिए अलग हिम्मत चाहिए होती है। वैसे, हम इनसे मिल चुके हैं। असल ज़िन्दगी में नहीं, फ़िल्मों में, खासकर जिन्होंने सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक की फ़िल्में देखी हैं।
आप भी मन ही मन कह रहे होंगे, बेचैनी के गार्डन में सिर्फ़ घुमाओगे या मिलवाओगे भी? लीजिए हुज़ूर, मिलवाते हैं। कुर्सी की पेटी बाँध लीजिए और तालियों से स्वागत कीजिए चक्रधर बाबू का!
यह एक पेशेवर “हैंगमैन” हैं, यानि के जल्लाद! अभी कुछ अरसे पहले ही इन्होंने फाँसी देने का शतक पूरा किया है। समाज से एक सौ अपराधियों को साफ़ कर दिया है चक्रधर बाबू ने।
चक्रधर:
आप सभी का धन्यवाद इस सम्मान के लिए। मेरा यहाँ आने का मकसद कोई सम्मान पाना या उसकी उपेक्षा करना नहीं था। मैं तो यहां अपना मन हल्का करने आया हूँ. सौ फाँसियाँ नहीं, सौ कहानियां हैं मेरे पास. जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा, ख़ुद को समझा, इस पागल दुनिया को समझा। बस, अपनी दुनिया की कहानियां आपसे बांटने आया हूँ.
चक्रधर:
मैं हूँ चक्रधर. जल्लाद चक्रधर.
जवानी के दिन भी क्या दिन होते हैं. ऐसा लगता है पूरी दुनिया ऊपरवाले ने बस आपके लिए ही बनाई है. पूरी तरह से ग़ैर ज़िम्मेदार होकर जी सकते हैं लेकिन अगर ग़ैर ज़िम्मेदारी आपको बेपरवाही के रास्ते पर ले जाए तो यही जवानी ज़िन्दगी भर का श्राप बन जाती है. जैसे उस बेचारे के लिए बन गयी थी.
अभी पिछले संडे ही मैं एक मॉल में घूम रहा था तो मॉल के अंदर ही एक बड़ी सी दुकान थी- वीडियो गेम्स की। स्कूल के बच्चे आँखों पर चश्मा लगाए हाथों में बड़ी बड़ी बंदूकें पकड़ कर हवा में गोलियां चला रहे थे और उनके माँ बाप उनमें जोश भर रहे थे। मुझे यह सब देखकर सिर से पाँव तक डर लग रहा था क्योंकि पचास साल की मेरी इस जल्लाद की नौकरी में, एक अठारह साल के लड़के को फाँसी देने की याद, मुझे आज भी अक्सर रातों को सोने नहीं देती।
उसका नाम था नितिन। बैरक नंबर ग्यारह मिली थी उसे। अभी की बात है - 2016 की। बाकी क़ैदी भी उसे बच्चा ही बुलाते थे. था भी बच्चा ही. जेल आने से बस चार महीने पहले ही उसने अपने अठारह साल के होने का केक काटा था।
2016 की सर्दियां थीं. सुबह देर तक धुंध रहती और शाम को जल्दी आ जाती। बाहर देख कर पता ही नहीं लगता था कि सुबह के दस बजे हैं या शाम के पांच। ऐसे ही एक दिन एक पार्क में सुबह सुबह कुछ अंकल लोगों को, बेंच के नीचे, चार बड़े वाले काले पॉलिथीन की थैलियाँ दिखी। चारों तरफ़ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। वैसे सर्दियों में सारे मक्खी-मच्छर छिप जाते हैं और बड़ी मुश्किल से दिखते हैं, ऐसे में मक्खियों की भरमार? उस ग्रुप में से एक अंकल आगे आए तो बदबू से बेहोश हो कर गिर गए। अगले आधे घंटे में उस पार्क को पुलिस ने अपने कब्ज़े में ले लिया था.
रोज़ अख़बार में उन थैलियों की खबर छप रही थी। मैं भी पढ़ता था रोज़ जेल की लाइब्रेरी में और हर रोज़ जैसे-जैसे उस ख़बर की परतें खुलती, शहर वालों के मन पर डर की परतें, और चढ़ती जातीं।
जानते हैं उन काली पॉलिथीन की थैलियों में क्या था? नौ टुकड़े थे. पूरे नौ टुकड़े। आप सोच रहे होंगे किसके?
इंसान के। एक औरत के। औरत भी नहीं, एक लड़की के। वह लड़की जो पेशे से प्रॉसस्टिट्यूट थी।
पूरा शहर इस ख़बर से सन्न रह गया! पुलिस ने कहा हो सकता है कि इसके ग्राहक ने पैसे ना देने के बदले इसको मार दिया हो लेकिन इतनी बेरहमी से कोई ग्राहक क्यों मारेगा? वैसे भी जब डीएनए रिपोर्ट आई तो पता चला कि उस रात तो उस प्रॉसस्टिट्यूट ने संभोग किया ही नहीं था. यानि की कोई ग्राहक था ही नहीं। टीवी न्यूज़ पर इस कत्ल पर रोज़ाना डिबेट होने लगी।
उस ज़माने में इतने सीसीटीवी भी नहीं होते थे. मैं यह नहीं कह रहा कि नहीं होते थे लेकिन कम होते थे। पुलिस पर मीडिया, पब्लिक और सरकार का भारी दबाव था कि इस केस को जल्द से जल्द सुलझाया जाए। कई मानवाधिकार वाले तो पुलिस पर इलज़ाम भी लगाने लगे कि क्योंकि मरने वाली एक प्रॉसस्टिट्यूट है, इसलिए वह केस को सुलझाने के लिए सीरियस नहीं हैं.
बढ़ता दबाव देखकर पुलिस ने भी काम में तेज़ी दिखाई और सुलझा दिया ये केस। जब सुलझा तो पूरे शहर को मानो झटका लग गया हो क्योंकि उस प्रॉसस्टिट्यूट का खूनी था, एक अठारह साल का एक लड़का, नितिन। अच्छे और बड़े घर का लड़का नितिन, शहर के एक पॉश इलाके में रहता था। बाप का बड़ा बिज़नेस था और माँ एक सोशल वर्कर थी।
इसी जेल में आया था वो. बैरक नंबर ग्यारह। इस जेल के इतिहास में सबसे कम उम्र का अपराधी। उसे पहली बार देख मुझे अपनी जवानी के दिन याद आ गए। जब मैं कुछ अरसे बाद जल्लाद के रूप में अपनी ज़िन्दगी शुरु करने वाला था, लेकिन नितिन की ज़िन्दगी तो ख़त्म होने वाली थी।
एक छोटा बच्चा, जब पहली बार स्कूल में जाता है तो वह हैरानी से सबको देखता है यह सोचते हुए कि कौन हैं यह लोग, कहाँ से आए हैं! इनमें तो ना मेरी मम्मी है, ना पापा हैं, ना मेरे खिलौने हैं, ना यह मेरा घर है… बस कुछ ऐसी ही थी पहले दिन नितिन की शक्ल। जेलर साहब ने अंदर भेजने से पहले बाकायदा उसकी कॉउंसलिंग करवाई क्योंकि वह सिर्फ़ अठारह का हुआ ही था और अगर यह अपराध उसने कुछ टाइम पहले किया होता तो उसे बाल सुधार केंद्र भेजा जाता ना कि जेल. अपराध तो खैर, अपराध होता है। एक बेक़सूर लड़की के नौ टुकड़े किये थे उसने। बड़े बड़े अपराधियों के पसीने छूट जाते हैं, यहां तो अठारह साल के लौंडे ने यह कारनामा कर दिखाया था।
नितिन चुप रहता। दिन भर किसी से बात नहीं करता। जेलर साहब ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं उससे मेल-जोल बढ़ाऊँ। मैंने शुरू में मना किया, पर जेलर साहब ने ज़ोर दिया। उसे किसी ने नहीं बताया कि मैं जल्लाद हूँ और मैं ही तुझे आखिरी मुकाम तक पहुंचाऊंगा।
मेरा मिलनसार स्वभाव धीरे धीरे रंग लाया। नितिन ने मुझसे दुआ-सलाम शुरू कर दिया। काका कहने लगा मुझे। शायद मेरी सफ़ेद दाढ़ी की वजह से.
पुलिस की जांच में जो कहानी आई थी, वह तो अब सभी को पता थी ही कि नितिन ने उस प्रॉसस्टिट्यूट को क्यों मारा था लेकिन जेल में ज़िन्दगी बिताने वालों की एक आदत बन जाती है। वह पुलिस से ज़्यादा अपराधी की बात पर यकीन करने लग जाता है क्योंकि पुलिस तो बाहर वाली होती है, यह क़ैदी लोग हमारे घर वाले होते हैं. मुझे भी नितिन के मुँह से ही सच सुनना था.
एक रविवार को जेल में पूरी-छोले बने थे. नितिन को बहुत पसंद थे. मैंने खाना बनाने वाले को बोलकर उसे ज़्यादा छोले और पूरी दिलवा दी थी. नितिन ख़ुश हो गया. खाने के बाद मैंने उसके कंधे पर एक दोस्त की तरह हाथ रखा और कहा- भाई, यकीन नहीं होता कि तूने यह सब किया था.
नितिन ने हैरानी से मुझे देखा और पूछा- काका, क्या किया मैंने?
मैं हल्का सा हंस पड़ा और मज़ाकिया अंदाज़ में कहा- एक बेचारी को लेग पीस की तरह काटा है तुमने।
सिर्फ़ मैंने नहीं काटा काका, नितिन ने जवाब दिया।
मैं ठिठक गया क्योंकि पुलिस के मुताबिक़ तो सिर्फ़ नितिन ने ही मारा था उस प्रॉसस्टिट्यूट को. मैंने पूछा और भी कोई था क्या पार्क में ?
नितिन ने जवाब दिया " पार्क में नहीं, दिमाग में था कोई और".
कौन? मैंने पूछा।
नितिन का जवाब सुनकर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ख़िसक गई थी. उसने कहा कि वही जो मेरे दिमाग में थी, उसका नाम था - यूँ-सु-किम। वो चीन से है और मेरी गर्लफ्रेंड है.
मैंने एकदम पूछा नितिन से कि वह चीन गया था या वो किम-शिम इंडिया आई थी.
नितिन हंस पड़ा. इतने दिनों में मैंने पहली बार उसे हँसते हुए देखा था. उसने कहा ‘काका किम-शिम नहीं, यूँ-सु-किम’.
तो मर्डर के टाइम वह दिमाग में कैसे थी, मैंने पूछा।
नितिन की लव स्टोरी सुनने का मन कर रहा है काका का, नितिन ने शरारत भरे अंदाज़ से कहा.
मैंने जवाब में कहा कि सुनने का मन नहीं है, बस जानने की जिज्ञासा है कि जो दिमाग इस देश-समाज के काम आ सकता था, वह इन सबका दुश्मन कैसे बन गया?
नितिन बैठ गया और बताने लगा. पांच कमरों के उसके बड़े से घर में पांच लोग भी नहीं रहते थे. पापा ज़्यादातर बाहर अपने बिज़नेस के लिए, मम्मी सोशल वर्क और दादा-दादी जी को शहर की ज़िन्दगी समझ नहीं आती थी, इसलिए वो दोनों गाँव में रहते थे. घर के कमरों में लोगों से ज़्यादा कंप्यूटर थे. अनलिमिटेड इंटरनेट था, बस बात करने के लिए लोग नहीं थे. तो जो मेरे सामने थे, मैंने उन्हें ही अपना बना लिया। कंप्युटर और इंटरनेट। मैं अपने दोस्तों से बात नहीं चैटिंग करने लग गया था। बस ऐसे ही एक दिन चैटिंग करते करते एक ऐड्वर्टाइज़्मेंट आया, एक वीडियो गेम का। कुछ भी नहीं करना था, बस उनकी वेबसाइट पर जाकर फ़्री में गेम खेलो और जीतो एक गर्लफ्रैंड।
लड़की जीतो!!! मैंने हैरानी से नितिन की बात काटते हुए पूछा।
नितिन अपनी बातों में इतना मशगूल हो गया था कि उसने मेरी बात शायद सुनी ही नहीं। वह बोलने लगा - गर्लफ्रेंड जीतो और वो भी चाइना वाली! एकदम हॉट और सुपर हॉट! देखी हैं चाइनीज़ लडकियां?
उसी वेबसाइट पर मेरी दोस्ती हुई यूँ-सु-किम से। क्या इंग्लिश बोलती है वो! मैं उसे हिंदी गाने सिखाता था। पता है उसकी फ़ेवरिट फ़िल्म कौन सी है- दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे.
कहती है मैं शाहरुख़ ख़ान लगता हूँ थोड़ा थोड़ा. बस, एक दिन उसने कहा कि एक स्पेशल गेम है प्यार मोहब्बत वाली। अगर तुम उसमें जीत गए तो मैं तुम्हारी। मैं चाइना छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी। पता है काका उसने अपने मम्मी पापा से भी बात करवाई मेरी। उन्हें भी बहुत अच्छा लगा मैं! उसने कहा जब तक तुम जीत नहीं जाते तब तक मेरे बारे में किसी को नहीं बताओगे। कसम दे दी उसने। मैंने कहा तुम्हारे लिए मैं कोई भी गेम खेलने को तैयार हूँ.
हमने शुरू कर दिया वह खेल. कई स्टेजेस थी उस गेम की. मैं हर बार जीतता। जानते हो काका, जीतने के बाद मुझे क्या इनाम मिलता… यूँ-सु-किम मुझे वीडियो कॉल करती और हम वीडियो पर सब कुछ करते.
मैं नितिन की सारी बात ध्यान से सुन रहा था. वह अचानक चुप हो गया और मेरी तरफ़ देखने लगा।
मैंने हिम्मत करके पूछा "इन सब में वो प्रॉसस्टिट्यूट कहाँ से आ गई?"
नितिन बोला ‘काका गेम की आखिरी स्टेज का नाम था- विनर विनर, ओ माय डीयर
अगर मैं यह स्टेज पार कर लेता तो यूँ-सु-किम मेरे पास आ जाती। मैं अपना घर छोड़ देता और हम अपनी एक दुनिया बसा लेते। गेम की उस स्टेज को पार करने के लिए एक लड़की के नौ टुकड़े करने थे. ना आठ, ना दस. पूरे नौ. क्योंकि नौ यूँ-सु-किम का लक्की नंबर था और नौ टुकड़े करके मुझे अपना सच्चा प्यार साबित करना था.
मैं कहाँ से लाता इस काम के लिए लड़की। मुझे आईडिया आया कि अगर मैं एक प्रॉसस्टिट्यूट को मार दूँ तो इस दुनिया को क्या ही फ़र्क़ पड़ेगा? मैंने अपने एक स्कूल सीनियर से एस्कॉर्ट सर्विस वालों का नंबर लिया और बुला लिया उसे पार्क में. वहाँ से उसे होटल ले जाने की बात कही. वो मान भी गई. पार्क में बैठा रहा. हम बातें करते रहे. मैंने कई बार पूछा, पर उसने नहीं बताया कि वो कहाँ से है. मैं अँधेरा होने का इंतज़ार कर रहा था. मुझे पता था वहाँ ना सी-सी -टीवी है और ना चौकीदार।
अँधेरा हुआ और मैंने उसे एक चॉकलेट खिलाई, यह कहकर कि इसे खाने से दोनों का मूड बन जाएगा। थोड़ी देर में उसके बेहोश होते ही मैंने अपने बैग से मीट कटर निकाला और कर दिए उसके नौ टुकड़े जैसा कि मेरी जान यूँ-सु-किम ने कहा था. उसके टुकड़े करते हुए ना कोई दर्द था मन में और ना पछतावा। बस ख़ुशी थी कि अब मैं और यूँ-सु-किम एक हो जायेंगे.
नितिन चुप हो गया काफ़ी देर कुछ नहीं बोला। शायद कुछ बचा नहीं था बोलने को। सब ख़तम हो चुका था।
मुझे लगा कि अब मुझे बता देना चाहिए - सब कुछ, बिल्कुल सच-सच। मैंने हिम्मत करके नितिन को बता दिया कि मैं जल्लाद हूँ और मैं ही तुम्हें फ़ाँसी दूंगा। वह आहिस्ता से मुस्कुराया और बोला मुझे तो दूसरे दिन ही पता लग गया था कि आप जल्लाद हो और सबसे पुराने वाले हो.
नितिन की फाँसी का दिन आ गया था. उसे सुबह नहलाया गया. वह समझ गया था कि क्या होने वाला है और हैरानी की बात है उसके चेहरे पर कोई डर नहीं था. एकदम नार्मल था, जैसे दुनिया पर से भरोसा उठ गया हो.
बहुत हिम्मत करके मैंने पूछा कि कोई आखिरी इच्छा। मुझे लगा वो माँ बाप से मिलना चाहेगा। उनके गले लग कर रोना चाहेगा। पर जानते हैं उसने क्या कहा? उसने कहा कि यूँ-सु-किम ज़रूर आएगी और उसे कह देना कि मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ।
मेरे दिल में आया कि कह दूँ, अरे बेवक़ूफ़ लड़के, कहीं कोई नहीं आ रहा. फिर मेरे दिल ने कहा कि अगर यह एक प्यार भरे ख्याल के साथ इस दुनिया से जाना चाहता है तो अच्छा ही है.
फाँसी का समय हुआ. नितिन फंदे की तरफ़ बढ़ा. जेलर साहब उसे ला रहे थे. मैं पहले से ही ऊपर खड़ा था. मैंने उसके कान में “हे राम” कहा और उसने कहा यूँ-सु-किम।
मरने वाले का नाम- नितिन
उम्र - 18 साल 8 महीने
मरने का समय - सुबह 7 बज कर 16 मिनट
सब कुछ होकर भी कभी कभी कुछ नहीं होता हमारे पास. दूर से देखो तो किस चीज़ की कमी थी नितिन के पास? किसी भी चीज़ की नहीं लेकिन पास जाओ तो सब खाली-खाली-सा था. घर खाली, मन खाली। बस ऐसे ही नौजवानों को ढूंढते हैं ये वीडियो गेम वाले ताकि पूरी की पूरी पीढ़ी बर्बाद कर सकें। एक स्वस्थ समाज को असंतुलित बना सकें।
क्या उम्मीद कर रहा था नितिन अपने माँ बाप से? थोड़ा सा वक़्त, और क्या! सोचिये, अगर वो दिन में एक घंटा भी उसे दे देते तो आज घर का चिराग घर में ही होता। न जाने ऐसे कितने नौजवान नितिन हमारे समाज में घूम रहे हैं। कोई नहीं है उनसे बात करने वाला, उन्हें समय देने वाला। कल को जब यह कोई गलत कदम उठा लेते हैं तो हम समाज को दोष देने लग जाते हैं. अपने अंदर झांकिए... अपने परिवार को वक़्त देना सीखिए। मोबाइल, लैपटॉप आपकी दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा हैं. इन्हें अपनी पूरी दुनिया मत बनाइये. पैसा ज़रूरी है लेकिन अगर परिवार नहीं बचा तो वही पैसा बोझ बन जाएगा.
चलता हूँ, अगले एपिसोड में एक और अपराधी की कहानी लेकर आऊंगा।
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