सभी बच्चे सर्दी की धूप में खेल रहे थे। इतने में कुछ लोग अनाथालय आए और ऑफिस में पहुँचे। ऑफिस से एक स्टाफ निकलकर संस्कृति के पास आया और उसने बताया कि यह लोग बच्चों को स्वेटर गिफ्ट करना चाहते हैं।

संस्कृति (सोचते हुए) - कितने स्वेटर गिफ्ट करना चाहते हैं?

उस स्टाफ ने इशारे से उन लोगों को संस्कृति के पास बुला लिया और ख़ुद ही बात करने का इशारा दिया। उन लोगों ने बताया कि वे सौ बच्चों को स्वेटर गिफ्ट कर सकते हैं। यह सुनकर संस्कृति अपनी जगह से उठी और उनके साथ ऑफिस में चली गई। उसने अपने डेस्क पर रखे एक रजिस्टर को निकाला और उन लोगों का नाम, पता और संपर्क नंबर लिखने लगी। अगले ही पल उसने ऑफिस स्टाफ से मेघा को बुलाने के लिए कहा। मेघा के ऑफिस में आते ही संस्कृति ने स्वेटर डिस्ट्रीब्यूट करने की सारी बात बता दी। पूरे अनाथालय में सौ बच्चे थे, इसलिए सभी को एक-एक स्वेटर मिल सकता था। उन लोगों ने अपनी जानकारी देने के बाद किसी को कॉल किया और लगभग दस-पंद्रह मिनट बाद दो लोग एक साथ सौ स्वेटर लेकर वहाँ आ गए।

संस्कृति ने सभी बच्चों को सर्कल में बैठने का इशारा किया। मेघा भी दूसरे हॉल से सभी बच्चों को बुला चुकी थी। उन बच्चों ने भी आकर उस सर्कल को ज्वाइन किया, एक-एक करके सभी बच्चों को स्वेटर दिए गए। सभी स्वेटर लेने के बाद बच्चों ने मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर धन्यवाद किया। जाते वक़्त संस्कृति ने भी स्वेटर देने वालों को धन्यवाद दिया। वह जब भी अनाथालय में होती, उसका ध्यान अक्सर माणिक लाल के उस कमरे की तरफ़ खिंच जाता, जिसमें उन्होंने अपनी बेटी से जुड़ी यादें संजोकर रखी थीं। जोगिंदर चाचा की तबियत ठीक होने के बाद वे फिर से अनाथालय आने लगे थे। जिस दिन से संस्कृति को माणिक लाल की बेटी के बारे में पता चला था, उसके मन में माणिक लाल के प्रति स्नेह और सम्मान और बढ़ गया था। एक दिन, सही समय देखकर संस्कृति ने फिर से जोगिंदर चाचा से बातचीत शुरू की। उसी दौरान जोगिंदर चाचा ने उसे बचपन अनाथालय की शुरुआत के बारे में विस्तार से बताया।

जोगिंदर चाचा ने बताया कि एक रोज माणिक लाल सड़क से गुज़र रहे थे। वे अपनी गाड़ी में थे, तभी उनकी नज़र फुटपाथ पर ठंड से काँपते कुछ बच्चों पर पड़ी। वे सारे बच्चे उनकी बेटी की उम्र के थे। यह देखकर उनका दिल पसीज गया। उस दिन उन्होंने अपने सारे ज़रूरी काम छोड़ दिए और तुरंत उन बच्चों के लिए स्वेटर ख़रीदे और उन्हें खाना खिलाया।

उस दिन के बाद से आसपास के फुटपाथ पर रहने वाले और भी बच्चे माणिक लाल के पास आने लगे। वो हर बार उन बच्चों को खाना खिलाते और उनके लिए कपड़े का इंतज़ाम करते। एक दिन उनके दोस्त कुंवर प्रताप सिंघानिया ने उन्हें सुझाव दिया कि उन्हें एक अनाथालय खोलना चाहिए ताकि इन बच्चों की और बेहतर तरीके से देखभाल की जा सके। इस सुझाव ने माणिक लाल के दिल को छू लिया और उन्होंने कानपुर में "बचपन" अनाथालय की नींव रखी। सबसे पहले, वे उन बच्चों को यहाँ लेकर आए जिन्हें उन्होंने फुटपाथ पर देखा था। आज वे बच्चे अच्छे कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। कुछ समय पहले वे यहाँ घूमने के लिए आए थे और बताया कि जब उन्हें छुट्टियाँ मिलेंगी, तो वे फिर से यहाँ आएंगे। माणिक लाल उन बच्चों से बहुत प्यार करते हैं और उनकी सफलता पर गर्व करते हैं।

यह सारी बातें बताते हुए जोगिंदर चाचा ने संस्कृति से एक बात और कही कि आज से पहले उनके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ था कि वह सारी बातें किसी से इतनी आसानी से कह दे यह सिर्फ़ संस्कृति ही थी जिसके सामने वह बेझिझक और सहज होकर सारी बातें बता रहे थे। यह सुनकर संस्कृति ने उनका आभार व्यक्त किया।

संस्कृति (ख़ुशी से) - यह तो मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे इस लायक समझा।

सारी बातें जानने के बाद संस्कृति और भी मेहनत से बच्चों की पढ़ाई और उनके स्वास्थ्य पर काम करने लगी। वह समय निकालकर लाइब्रेरी से कुछ किताबें घर ले जाने लगी। ये सारी किताबें बच्चों से जुड़ी हुई होती थीं। वह उन किताबों से खेल सीखती और फिर आकर बच्चों के साथ खेलती। कहानियों को पढ़ती और फिर बच्चों के साथ मिलकर उन्हें याद कराती।

धीरे-धीरे बच्चे उसके क़रीब आने लगें। हालाँकि, उनकी शरारतें ज़रा भी कम नहीं हुई थीं। कभी-कभी संस्कृति को गुस्सा आ जाता, लेकिन वह ख़ुद पर काबू कर लेती। ज़्यादातर समय वह बच्चों से प्यार से ही बात करती थी। अगले महीने माणिक लाल फिर से अनाथालय आए। इस बार भी लोगों ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। संस्कृति हमेशा की तरह सबसे पीछे खड़ी रही, लेकिन उसकी नज़रें माणिक लाल पर टिकी रहीं। जैसे ही उनकी नज़र संस्कृति पर पड़ी, उन्होंने इशारे से उसे आगे बुलाया। संस्कृति थोड़ी झिझकते हुए उनकी ओर बढ़ी। पूरे अनाथालय का एक चक्कर लगाने के बाद माणिक लाल फिर से उस कमरे में चले गए, जहाँ केवल वही जा सकते थे। बाकी सभी स्टाफ बच्चों की देखभाल में बिजी थे और बच्चे अपनी खेल-कूद में मग्न। संस्कृति के मन में अभी भी एक उधेड़बुन चल रही थी।

उसका ध्यान लगातार उस कमरे की तरफ़ था, जिसमें माणिक लाल अभी भी बैठे थे। मेघा ने उसे कमरे की ओर देखते हुए बीच में टोक दिया, “संस्कृति! माणिक लाल कभी भी बाहर निकलकर हमारी तरफ़ आ सकते हैं। बेहतर होगा कि हम अपना काम ठीक ढंग से करें।” संस्कृति को अपनी ईमानदारी और मेहनत पर पूरा भरोसा था। वह हर काम पूरी ज़िम्मेदारी और निष्ठा से करती थी, इसलिए उसे किसी बात की चिंता नहीं थी। उसने मेघा को कोई जवाब नहीं दिया। बस शांत रहकर, अपनी जगह से उस कमरे की ओर देखती रही, जैसे ही माणिक लाल उस कमरे से बाहर आए और दरवाज़ा बंद किया, संस्कृति तुरंत उनके पास पहुँच गई। संस्कृति को अपने पास देखकर माणिक लाल थोड़ा घबरा गए। उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि वे रो चुके थे—उनकी आँखें लाल और सूजी हुई थीं। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि माणिक लाल ने उस कमरे से बाहर निकलने के बाद किसी से बात की हो। आमतौर पर वे सीधे अपनी गाड़ी में बैठते और वहाँ से चले जाते थे लेकिन आज संस्कृति उनके सामने खड़ी थी और उनके भीतर की भावनाएं उन्हें अनकम्फ़र्टेबल  कर रही थीं।

माणिक लाल (घबराते हुए)- संस्कृति, तुम यहाँ क्या कर रही हो? क्या बात है? तुम्हें तो अभी बच्चों के साथ होना चाहिए था?"

संस्कृति ने माणिक लाल का चेहरा देख लिया था इसलिए वह उससे नज़रें नहीं मिला रही थी। नज़रें  झुकाए ही उसने कहा

संस्कृति (हिम्मत जुटाते हुए)- "सर! मुझे आपसे एक बात पूछनी थी। अगर आप इजाज़त देंगे तो मैं पूछ सकती हूँ?"

संस्कृति ने अपनी बात को धीरे-से रखा और गहरी साँस ली, जैसे कुछ भारी सवाल पूछने की तैयारी कर रही हो।

माणिक लाल (गंभीरता से)- पूछो, क्या पूछना है तुम्हें?"

उनकी आवाज़ में गंभीरता थी, लेकिन संस्कृति का मन था कि वह माणिक लाल से वह सवाल पूछे जो लंबे समय से उसके मन में था।

संस्कृति (गंभीरता से) - मुझे ऑफिस से इस अनाथालय का नियमों वाला बुकलेट दिया गया था। उसमें इस अनाथालय का उद्देश्य भी लिखा है मगर मुझे आपसे जानना है कि आपने क्या सोचकर इसकी शुरुआत की थी और आने वाले दिनों में आप इसे और कहाँ देखते हैं?

माणिक लाल (बहाना बनाते हुए) - जो बुकलेट में लिखा है वही तो हमारे अनाथालय का उद्देश्य है। उससे अलग तो कोई भी उद्देश्य नहीं है और तुम्हें मुझसे क्यों जानना है?

संस्कृति (गंभीरता से) - सर! मुझे लगता है की बुकलेट में जो उद्देश्य लिखा है उसमें कुछ कमी है। वह सिर्फ़ दुनिया को दिखाने के लिए लिखी गई है, इसलिए मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि आपका  उद्देश्य क्या है “बचपन” को लेकर?

बाकी स्टाफ संस्कृति को माणिक लाल जी से बात करते देखकर बहुत सी बातें करना शुरू कर चुके थे। कुछ लोग उसकी हिम्मत की दाद दे रहे थे तो कुछ लोग उसे बेवकूफ कह रहे थे। संस्कृति के जवाब में माणिक लाल ने आगे साथ चलने का इशारा किया।

माणिक लाल (गंभीरता से) - संस्कृति, तुमने पूछा है तो तुम्हें एक बात बता दूँ। तुम जिस उद्देश्य को जानना चाहती हो ठीक यही सवाल आज से सालों पहले मुझे मेरे दोस्त कुंवर प्रताप सिंघानिया ने पूछा था। तब मैंने उसे जो जवाब दिया था शायद अभी तुम्हें वही जवाब दूंगा।

संस्कृति (उत्सुकता से) - जी, बताइए।

माणिक लाल (गंभीरता से)-

"जब मैंने 'बचपन' की शुरुआत की थी, तब जो बच्चे यहाँ आए थे, वे सभी कानपुर सेंट्रल स्टेशन के बाहर फुटपाथ पर भीख माँगते थे। मैं जब भी उन्हें देखता, तो सोचता कि उनके लिए कभी कुछ करूँगा लेकिन मैं तो बिजनेसमैन था, मैं उनके लिए क्या कर सकता था? जो पैसे थे, उनसे उन्हें कपड़े दिला सकता था, खाना खिला सकता था। एक-दो बच्चों को किसी स्कूल में एडमिशन भी दिला सकता था, लेकिन वे एक-दो बच्चे नहीं थे, जब मैं शहर के फुटपाथ पर घूमता तो काफ़ी बच्चे मिलते थे। सभी के लिए कुछ करना था। ऐसा कुछ कि सभी पढ़-लिख सकें, अपने पैरों पर खड़े हो सकें, उन्हें कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े और उन्हें यह एहसास न हो कि उनके माँ-बाप उनके साथ नहीं हैं। जब 'बचपन' की शुरुआत हुई, तब कई लोगों ने बच्चों को गोद लेने की भी बात की वहाँ से एक और उद्देश्य जुड़ गया। जिन माँ-बाप के पास बच्चे नहीं हैं, 'बचपन' उन्हें वह कमी महसूस नहीं होने देगा।

अपनी बात खत्म करते-करते माणिक लाल की आवाज़ काँपने लगी थी। संस्कृति ने जो सवाल पूछा था, उसका जवाब माणिक लाल ने अभी भी नहीं दिया था। वह सीधे-सीधे कह सकते थें कि उन्होंने 'बचपन' की शुरुआत अपनी बेटी की याद में की है, लेकिन आज तक उन्होंने यह बात किसी से नहीं कही थी और आज भी नहीं कह पाए थें। संस्कृति ने पूरी बात सुनने के बाद उन्हें धन्यवाद कहा।

संस्कृति (गंभीरता से) - सर! मैं पूरी कोशिश करूँगी कि आपने जिस सपने के साथ 'बचपन' की शुरुआत की थी, उसे सच करूँ।

माणिक लाल (भरोसा जताते हुए)- संस्कृति, मुझे मालूम है कि तुम पूरी ईमानदारी के साथ हमारे इस 'बचपन' अनाथालय को और भी बेहतर बनाने की कोशिश कर रही हो और मुझे तुमसे बहुत उम्मीद है। मुझे अच्छा लगा कि आज तुम मेरे पास आई और मुझे यह सवाल किया। वैसे, पहली बार भी जब तुमने अपनी बात रखी थी, तो मुझे बहुत पसंद आई थी। आगे भी कभी कुछ लगे, तुम्हें बात करनी हो, तो बेझिझक बताना।

संस्कृति (ख़ुशी से)- जी, ज़रूर बताऊंगी। अभी तो बस वापस बच्चों के पास जाना है।

इतना कहकर संस्कृति वापस जाने लगी, लेकिन उसके मन में अभी भी कई सवाल कौंध रहे थे कि क्या माणिकलाल जी ने जो वज़ह बताई वो सही है…क्या वो जो कह रहे हैं वो सच है….क्या वो मुझसे कुछ छुपा रहे हैं…या फिर चाह कर भी बता नहीं रहे हैं?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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