अर्जुन ने गहराई से ध्रुवी की आंखों में देखते हुए कहा। ध्रुवी की आंखों में कुछ चमका - कुछ ऐसा जो प्यार नहीं था, लेकिन पूरी नफ़रत भी नहीं।

"तो डरती रहो," उसने कहा।

ध्रुवी धीरे से उठी। उसकी आँखें अब भी नम थीं, लेकिन चेहरा... एकदम शांत। इतना शांत कि अर्जुन को देख लेती तो शायद उसमें भी खुद की कोई परछाईं नज़र आ जाती। ध्रुवी उठी और दरवाज़े की ओर बढ़ी। अर्जुन ने एकाएक उसे टोका। अर्जुन की बात सुनकर ध्रुवी के बढ़ते क़दम फ़ौरन ही अपनी जगह ठिठक गए।

अर्जुन (आँखें नीची करते हुए): क्या आप मुझसे नफ़रत करने लगी हैं?

ध्रुवी (आवाज़ भारी होकर): नफ़रत तो तब होगी जब दिल बचा हो... अब तो मैं सिर्फ़ एक सवाल हूँ - और जवाब क्या है... मुझे खुद नहीं पता... अर्जुन…

अर्जुन कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द नहीं मिले। बस एक सन्नाटा उनके बीच पसर गया। अर्जुन का कंठ रुद्ध हो गया। ध्रुवी ने दरवाज़ा खोला और बाहर चली गई। अर्जुन वहीं बैठा रहा - कमरे में, उस सन्नाटे में, जो अब शायद उसकी आत्मा का स्थायी हिस्सा बन चुका था।

ध्रुवी के जाने के बाद अर्जुन उस कुर्सी पर देर तक बैठा रहा। कमरे में सन्नाटा था, पर भीतर कुछ चिल्ला रहा था। उसके दिल की धड़कनें, उसकी खामोशियों से टकरा रही थीं। उसने पहली बार महसूस किया - शायद ध्रुवी टूट गई है, पर पूरी तरह नहीं... उसके भीतर कहीं अब भी आग सुलग रही है। और वही आग उसे अपनी ओर खींच रही थी।

(तीन दिन बाद...)

महल में सब कुछ शांत था - बाहर की दुनिया में। लेकिन ध्रुवी के भीतर एक तूफान अब भी शांत नहीं हुआ था। पिछले तीन दिन उसने लगभग चुप्पी में बिताए थे - न किसी से बात, न महल के किसी हिस्से में जाना। बस कभी खिड़की, कभी झूला, और कभी किताबों की अलमारी को घूरते हुए।

एक दोपहर अर्जुन फिर उसके कमरे में आया - उसके हाथ में फिर वही थाली थी, पर इस बार कुछ अलग था।

अर्जुन: “आज हलवा बनाया है दाई माँ ने... आपको पसंद है न?”

ध्रुवी ने उसकी ओर देखा, फिर थाली की ओर, और एक हल्की मुस्कान उभरी - ऐसी जो आई तो थी, पर मन से नहीं।

ध्रुवी: “जो लोग अंदर से खाली होते हैं... वो मीठे से नहीं भरते।”

अर्जुन चुप था। पर उसकी आँखों में जो अपराधबोध था, वह अब भी कम नहीं हुआ था।

अर्जुन (धीरे से): “तो क्या जो ख़ाली कर जाए... उसे कभी भरने का हक़ नहीं होता?”

ध्रुवी ने सिर झुका लिया - और यह वही क्षण था जहाँ अर्जुन पहली बार उसके पास ज़मीन पर बैठ गया। कोई राजसी दूरी नहीं, कोई औपचारिकता नहीं।

वे दोनों कुछ देर यूँ ही बैठे रहे। बाहर तेज़ हवाएँ चल रही थीं। तभी एक खिड़की अपने आप ज़ोर से भड़भड़ाई - ध्रुवी चौंकी।

ध्रुवी (घबराकर): “ये क्या था?”

अर्जुन (फौरन): “हवा है शायद... मैं देखता हूँ।”

अर्जुन खिड़की के पास गया - पर वहाँ... मिट्टी से बनी एक पुरानी गुड़िया पड़ी थी, जो इस महल में कभी किसी बच्चे की थी - अब मटमैली और टूटी-सी।

अर्जुन (हैरान): “ये यहाँ कैसे आई?”

ध्रुवी अब उसके पास आ गई थी - और उसकी आँखें उस गुड़िया को देख रही थीं, जैसे उसमें कोई बहुत पुराना भय छिपा हो।

(कुछ दिन बाद...)

महल में जैसे सामान्य दिनचर्या लौटने लगी थी। लेकिन हर मुस्कुराहट के पीछे एक अधूरी बात थी, हर ख़ामोशी के पीछे एक टूटा हुआ बीता कल।

ध्रुवी अब अपने कमरे में सारा दिन बंद नहीं रहती थी। कभी-कभी बगीचे में जाती, कभी मंदिर में बैठती। पर उसका चेहरा अब भी चुप रहता - कुछ कहता नहीं था, पर बहुत कुछ छुपाता था।

अर्जुन ने अपनी तरफ़ से बहुत कुछ बदलने की कोशिश की - महल का माहौल, उसका व्यवहार, और खुद की मौजूदगी। वह अब हर सुबह मंदिर जाता, और हर शाम बगीचे की उसी जगह किताब लेकर बैठता - जहां से ध्रुवी की बालकनी दिखती थी।

ध्रुवी ने शुरू में उसकी कोशिशों को नज़रअंदाज़ किया। पर धीरे-धीरे... उसकी मौजूदगी से उसे कोई आपत्ति नहीं रही। कभी-कभी उसकी तरफ़ देख लेती, और कभी हल्के से मुस्कुरा भी देती।

एक दिन, ध्रुवी महल की लाइब्रेरी में कुछ ढूंढ रही थी, तभी अर्जुन भी वहाँ आया।

"काफी किताबें हैं यहां... शायद जवाब भी," उसने धीमे स्वर में कहा।

ध्रुवी ने उसकी तरफ देखा - फिर वापस किताबों की तरफ़ मुड़ गई।

“अगर आप चाहें तो... मैं आपको कुछ अच्छी किताबें बता सकता हूँ।”

“और अगर मैं चाहूं कि आप बिल्कुल न बोलें?”

अर्जुन मुस्कुरा दिया - “तो मैं चुप रहूँगा।”

ध्रुवी ने पहली बार सीधी नज़र से देखा - उसमें कोई आग्रह नहीं था, न कोई माफी, बस एक शांति... जो अर्जुन ने खुद ओढ़ रखी थी।

(एक और दिन - बगीचे में)

ध्रुवी गुलाबों के पास खड़ी थी। अर्जुन दूर से आया और कुछ नहीं बोला - बस पास खड़ा हो गया।

"इन फूलों की खुशबू... कभी-कभी सब कुछ भुला देती है," अर्जुन ने कहा।

"और कभी सब कुछ याद भी दिला देती है," ध्रुवी का जवाब था।

उस दिन पहली बार ध्रुवी ने अर्जुन के साथ चाय पी। कोई गंभीर बात नहीं हुई - मौसम की बातें, फूलों की, और महल की पुरानी दीवारों पर उग आए काई की। लेकिन उस बातचीत के भीतर एक बदलाव की बूँद थी - जो धीरे-धीरे रिसने लगी थी।

(अगले दिन सुबह की हल्की धूप...)

अव्या के खिलौने फैले हुए थे। ध्रुवी ज़मीन पर बैठी थी, घुटनों पर तकिया रखकर अव्या को कुछ सिखा रही थी - कुछ रंग-बिरंगे कार्ड्स और खिलौनों के बीच।

अव्या (अपनी ही भाषा में कुछ बड़बड़ाती हुई): “मामा... मम्म... मम्मा!”

ध्रुवी ठिठकी - उसकी उंगलियाँ हवा में रुक गईं।

उसने धीरे से अव्या की तरफ देखा।

"क्या कहा अव्या?" उसकी आवाज कांपी।

अव्या मुस्कराकर उसके गले लग गई - और फिर मासूमियत से बोली, “मम्मा!”

ध्रुवी की आँखें अचानक भर आईं - एक पल को वह बिलकुल चुप हो गई। पीछे से अर्जुन खड़ा देख रहा था - उसकी आंखों में कुछ अजीब सी आभारी नर्मी थी।

अर्जुन (धीरे से): "इन्होंने आपको माँ कहा... बिना सिखाए, बिना कहे... खुद से"... (एक पल रुक कर)... बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते... वो जो महसूस करते हैं, वही बोलते हैं।"

अर्जुन की बात सुनकर... ध्रुवी ने कुछ नहीं कहा... वो बस ख़ामोश रही।

(रात का समय)

ध्रुवी पलंग पर बैठी थी। उसकी गोद में अव्या थी - गहरी नींद में सोई हुई। उसकी छोटी उंगलियाँ ध्रुवी की अंगुली को कसकर पकड़े हुए थीं।

ध्रुवी (धीरे से, फुसफुसाते हुए): “तुम मेरी नहीं हो, अव्या... लेकिन तुमसे ज़्यादा कोई मेरा नहीं लगता...”

उसकी आँखों से एक आँसू टपका - जो अव्या की हथेली पर गिरा।

अव्या हल्के से कुनमुनाई... पर फिर मुस्कराकर ध्रुवी की छाती से सट गई।

ध्रुवी (मन में): “किसका बदला है ये अर्जुन... तुझसे या खुद से?”

(एक और दिन बीतता है…)

रात का समय था। अर्जुन अभी अपनी स्टडी रुम में ही ठहरा था... ध्रुवी अपनी अलमारी से पुराने कपड़े निकाल रही थी - तभी पीछे से एक परछाईं दीवार पर हिली। वह तेजी से पलटी - वहाँ कोई नहीं था।

ध्रुवी की साँसे तेज़ हो गईं।

ध्रुवी (घबराकर फुसफुसाई): “क... कौन है?”

कोई उत्तर नहीं आया - सिर्फ एक ठंडी हवा कमरे के अंदर आई, और अचानक वह गुलाब, जो अर्जुन ने उसे दिया था, अपनी जगह से गिर गया।

ध्रुवी कुछ देर उसे देखती रही - फिर जल्दी से कमरे का दरवाज़ा बंद किया। और खुद को उस चादर में लपेट लिया - जैसे वो इसमें छिप कर सुरक्षित थी।

(अगली सुबह...)

महल के अंदर एक गहरी शांति पसरी थी, जैसे समय खुद भी कुछ पल ठहर गया हो।

अर्जुन ने उस सुबह धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।

“आज थोड़ा बाहर चलते हैं, ध्रुवी?”

ध्रुवी ने हल्के से सिर हिलाया... "ठीक है"।

अब वो उससे डरती नहीं थी, लेकिन भरोसा भी नहीं करती थी। फिर भी, अर्जुन की आँखों में कुछ तो ऐसा था... जो टूटे हुए लोगों को भी थामने का हुनर जानता था।

गाड़ी महल के पिछले रास्ते से पुराने मंदिर की ओर बढ़ी। वो मंदिर, जो राजा साहब ने अपनी बेटी अनाया के जन्म के बाद बनवाया था। वहाँ आज भी दिया जलता था... और यादें संजोई हुई थीं।

"आप मुझे यहाँ क्यों लाए?" ध्रुवी ने पूछा, जब मंदिर के सीढ़ियों पर पहुँचे।

"क्योंकि यहाँ सुकून है," अर्जुन ने कहा, “और मुझे लगा... शायद आपको सुकून की ज़रूरत है।”

ना जाने क्यों ध्रुवी की साँसें थोड़ी अनियमित हो गईं। इस जगह पर उसे कुछ अजीब महसूस हुआ... हर पत्थर, हर दीपक, हर फूल जैसे कोई कहानी कह रहा था...!

उसने चुपचाप मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ीं। अंदर जाकर हाथ जोड़ने से पहले उसकी आँखें मूर्ति पर नहीं - उस छोटे से घंटे पर पड़ीं जिसे कभी अनाया ने चढ़ाया था। अब वो एक कोने में जंग खा चुका था।

"ये घंटा अनाया ने यहां चढ़ाया था"... अर्जुन ने उसे बताया।

"कभी किसी ने कहा था... जो सच्चा होता है, वही खो जाता है" ... ध्रुवी ने धीरे से फुसफुसाया।

अर्जुन ने उसकी बात सुनी, लेकिन कुछ कहा नहीं।

"क्या आप मानते हैं अर्जुन?" “कि मन्नतें कभी पूरी नहीं होतीं, बस अधूरी रहकर हमें याद दिलाने आती हैं कि हमने क्या खोया?”

"नहीं," अर्जुन ने जवाब दिया। “हम मानते हैं कि कुछ मन्नतें किसी और रूप में पूरी होती हैं - जहाँ जवाब हमें समझ में नहीं आते, पर वक़्त उन्हें खोल देता है।”

ध्रुवी की आँखें भरी थीं। “और अगर जवाब खो जाएँ तो?”

"तब... सवालों को साथ लेकर जीना पड़ता है," अर्जुन ने सहजता से कहा और उसकी ओर एक लाल चूनर बढ़ाई।

"ये चढ़ाना चाहोगी?"... अनाया हमेशा यहां आकर चुनर चढ़ाया करती थीं... कहती थीं उन्हें यहां आकर सुकून मिलता है"... अर्जुन ने जैसे अतीत को याद करते हुए ध्रुवी को बताया।

ध्रुवी ने कांपते हाथों से चुनर लिया। पर उसके होठ कुछ नहीं बोले। उसने चूनर मूर्ति के पास रख दी। और तब अचानक - उसके आँसू बह निकले। रोने की कोई आवाज़ नहीं, बस मौन टूटता जा रहा था।

"आपको अपने आँसुओं से शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, ध्रुवी..." अर्जुन ने धीरे से कहा... "ये आँसू इस बात के गवाह हैं कि आप अब भी जज़्बातों को महसूस करती हो..."।

ध्रुवी ने उसकी ओर देखा। “क्या आप भी रोते हो अर्जुन?”

वो मुस्कराया, बहुत हल्के से। “हां, मैंने रोना सीख लिया है... अंदर ही अंदर...”

एक लंबा मौन दोनों के बीच खिंचा रहा। फिर अर्जुन ने हाथ आगे बढ़ाया - “चलिए, एक दीपक जलाते हैं - किसी मन्नत के लिए नहीं, बस इसलिए कि अंधेरा थोड़ा कम हो सके...”

ध्रुवी ने पहली बार उसके हाथ में हाथ दिया। हाथ ठंडा था, पर उसने उसका थाम लिया था।

और उस शाम, मंदिर के भीतर एक नया दिया जला - न तो किसी देवता के नाम पर, न किसी व्रत की कामना में, बस दो टूटे हुए इंसानों के भीतर एक रोशनी के लिए।

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महल की दीवारें शाम के सूरज की लालिमा में कुछ और पुरानी लग रही थीं। ध्रुवी खिड़की के पास बैठी थी, चुपचाप। दिन में मंदिर का दृश्य अब भी उसकी पलकों से चिपका हुआ था।

तभी दरवाज़ा खटका।

“क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?”

ये अर्जुन था। ध्रुवी ने सिर हिलाया। वो अंदर आया और उसकी तरफ़ नहीं देखा - बल्कि एक पुरानी, धातु की चाबी उसकी ओर बढ़ाई।

“ये कमरा... कभी किसी और का था। अब, ये आपका है।”

ध्रुवी ने चौंककर उसकी ओर देखा। “मेरा?”

"जी," उसने कहा। “शायद इस महल में सिर्फ यही सबसे सुकून भरा कमरा है जो आपको अपने टुकड़ों को जोड़ने में मदद कर सकता है।”

ध्रुवी चुपचाप खड़ी रही। अर्जुन मुड़ा और बोला, "आइए, मैं दिखाता हूँ।”

अर्जुन की बात सुनकर ध्रुवी उसके पीछे चल पड़ी। दोनों लंबे गलियारे से होते हुए महल के उस हिस्से में पहुँचे जहाँ कोई नहीं जाता था। धूल जमी ज़मीन, बंद खिड़कियाँ, और एक वीरान-सी ख़ामोशी…

कमरे का दरवाज़ा वैसा ही था - सफ़ेद, पुराना, लकड़ी का, जिस पर समय ने भी निशान छोड़ दिए थे।

क्लिक। अर्जुन ने चाबी घुमाई।

दरवाज़ा धीरे से खुला। और अंदर कमरे में देखते ही ध्रुवी की साँस जैसे थम सी गई।

 

 

(ऐसा क्या देखा ध्रुवी ने अनाया के कमरे में?..... क्या ध्रुवी के ज़ख्म भर पाएगा अर्जुन का रवैया?..... जानने के लिए पढ़ते रहिए..... "शतरंज–बाज़ी इश्क़ की".....!)

 

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