ध्रुवी काँप रही थी। पहली बार वह अर्जुन की बाँहों में थी  लेकिन दिल कहीं और ही दूसरी दुनिया में गुम था।  तभी  उसने धीरे से अर्जुन को पीछे धकेलते हुए कहा- "तुम्हारी बाँहों में सुकून नहीं है, अर्जुन सिर्फ राहत है। एक पल की राहत  जिसमें मैं अपनी गलती, अपना दर्द भूल जाना चाहती हूँ।"

“यकीन रखिए ध्रुवी सब ठीक हो जायेगा।” अर्जुन ने धीमे से कहा।

“तो क्या तुम ये गारंटी दे सकते हो कि कल सुबह मेरी आँखों में फिर से वही चमक होगी, वही खुशी होगी?”

अर्जुन चुप था। उसके पास जवाब ही नहीं था। ध्रुवी कुछ पल तक शांत रहीं फिर वह पलटी और सधे कदमों से वापस पलंग पर जा कर बैठ गई।

“मुझे कुछ समय चाहिए… खुद से लड़ने के लिए और शायद... तुमसे भी।”

अर्जुन ने धीमे से सिर हिलाया।

“ठीक है, जैसा आप कहें। मगर याद रखिएगा हम यहीं रहेंगे आपके आस पास। हमेशा जब भी आप खुद को अकेला महसुूस करें या तंन्हा समझें तो बस हमें याद कर लीजिएगा।”

इतना कहकर अर्जुन कमरे से बाहर निकल गया — पर जाते-जाते ध्रुवी की आँखों ने जो देखा, वो अर्जुन नहीं था बल्कि एक अजनबी की छाया थी...... जो एक ऐसा आदमी था जो या तो बहुत ही सच्चा था, या ज़रूरत से जा्यादा बेहद चालाक।

***************************************

 

(कुछ देर बाद).....।

कमरे में रात का अंधेरा पसरा था। खिड़की से चांद की रोशनी भीतर आ रही थीं, जैसे किसी बुझती हुई उम्मीद की अंतिम झलक। महल की छत से दूर बादलों को देखते हुए उसने धीमे से फुसफुसाया.....।

ध्रुवी(अपनी आँखें बंद करते हुए): “क्यों किया तुमने ऐसा आर्यन…... क्यों?”

 

                        ध्रुवी उसी पुराने झूले पर बैठी थी, जहाँ कभी अनाया बैठा करती थी। कपड़े बेतरतीब, बाल उलझे हुए और चेहरा... जैसे किसी अँधेरे कुएँ में झाँक रहा हो। उसकी उंगलियाँ लगातार काँप रही थीं, मानो कोई भी चीज़ थामने की ताक़त बाकी न हो। 

ध्रुवी(टूटती हुई आवाज़ में): शायद तुम मेरी ग़लती नहीं थे..... बल्कि सबसे बड़ा धोखा थे…".....।

               तभी दरवाज़ा धीरे से खुला। एक बार फिर अर्जुन अंदर आया। इस बार हाथ में खाने की थाली के साथ.....।

अर्जुन(मद्धम लहज़े से): ध्रुवी खाना खा लीजिए.....।

                उसने ध्रुवी को इस हाल में पहले कभी नहीं देखा था — न तेज़, न गुस्से में, न बहादुर — बस एक टूटा हुआ इंसान। उसके पास आने से पहले अर्जुन थोड़ी देर चुपचाप खड़ा रहा, फिर धीरे से आगे बढ़ा।

"खाना ठंडा हो रहा है..."..... उसकी आवाज़ में नर्मी थी — सधे हुए सुर में।

                  ध्रुवी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें उस दीवार पर थीं जहाँ कुछ भी नहीं था। बस एक ग़ायब होती पहचान की परछाईं।

"आप कुछ कहना चाहें..... तो हम सुन सकते हैं..."..... अर्जुन अब उसके सामने बैठ गया था..... “और अगर कुछ नहीं कहना चाहती... तो हम बस यहीं बैठे रह सकते हैं।”

              ध्रुवी की पलकें झपकीं। कुछ बोला नहीं, बस हल्के से सिर झुका लिया। अर्जुन ने उसकी उंगलियाँ देखीं — नाखूनों में गहरी लकीरें, जैसे उसने खुद को ही पकड़ने की कोशिश की हो।

"आपको खुद से इतनी लड़ाई नहीं करनी चाहिए ध्रुवी..."..... उसने धीरे से अपराधबोध भरे भाव से कहा।

"अगर खुद से न लड़ूँ तो और किससे लड़ूँ?"..... ध्रुवी की आवाज़ थरथराई।..... “जिस आईने में देखती हूँ, वहाँ अब मैं ही नहीं होती...”

                 अर्जुन कुछ देर खामोश रहा। फिर उसने धीरे से अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाया — छूने के लिए नहीं, बस इतना कि वह महसूस कर सके कि कोई है, कि वो अकेली नहीं है।

"हमने कोशिश की आपको वक्त देने कर समझने की..."..... पर शायद, समझने से ज़्यादा ज़रूरी है आपके साथ बैठना — उस वक़्त जब आप सबसे ज़्यादा अकेली हैं..... आप बहुत मज़बूत हैं ध्रुवी।"

ध्रुवी का कंधा काँपा..... “सब कहते हैं कि मैं मज़बूत हूँ... पर क्या कोई देख सकता है कि अंदर क्या टूटा है ?”

अर्जुन उसकी ओर झुका, पर उसे छुआ नहीं। बस वहीं, उसकी आँखों के पास बैठा रहा — जैसे उसकी टूटन को अपनी मौन उपस्थिति से बाँधने की कोशिश कर रहा हो।

“आपको कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं ध्रुवी... आज नहीं... कल भी नहीं... कभी भी नहीं..... हम सिर्फ यहीं रहेंगे..... तब तक जब तक आप फिर से खुद से मिलना न चाहो।”

                    ध्रुवी की आँखों से एक आँसू गिरा — एक अकेला मोती, जो बहुत देर से भीतर अटका था।

“अगर मैं फिर कभी खुद से न मिल सकी तो?”

"तो फिर तब हम आपको ढूँढ लेंगे," अर्जुन की आवाज़ काँपी..... पर उसमें एक गहराई थी।..... "जहाँ कहीं भी आप होंगी..... बिखरी हुई, थकी हुई या ख़ामोश — हम वहीं खड़े मिलेंगे".....!

                ध्रुवी ने एक पल उसकी ओर देखा। शायद पहली बार — अर्जुन को सच में देखा। और फिर, उसने चुपचाप अपना सिर उसकी गोद में रख दिया। कोई बड़ा इज़हार नहीं, कोई आंसुओं की बाढ़ नहीं — बस एक थका हुआ सिर और एक मौन सहारा।

बाहर हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। और उस कमरे में — पहली बार, कोई आवाज़ नहीं थी... सिवाय दिलों की धड़कनों के।

               रात गहराती जा रही थी। महल की दीवारों पर चाँद की रोशनी ठहर-ठहर कर गिर रही थी। ध्रुवी उस पलंग पर बैठी थी, जहाँ से अब तक न जाने कितनी यादें रिसती जा रही थीं — पर कोई भी उसकी नहीं थी।

वह सोचती रही — क्या सच में आर्यन झूठ था?..... या ये सब एक बहुत बारीकी से बुनी गई कहानी थी?

उसी सोच में उसकी आँखें कब मूंद गईं, पता ही नहीं चला…

 

(अगली सुबह…).....!

                ध्रुवी देर तक अपने कमरे से नहीं निकली। पिछली रात की घटनाओं की थकान अभी तक उसकी नसों में दौड़ रही थी। बाहर धूप खिली थी, लेकिन उसकी आँखों में अब भी धुंध थी।

उसने खिड़की खोली… हल्की ठंडी हवा का झोंका अंदर आया, बाल बिखर गए।

वो बालकनी की ओर गई… और वहाँ — फर्श पर रखा एक सफेद गुलाब।

वो ठिठकी।

साँस रुक गई एक पल को।

गुलाब के साथ कोई चिट्ठी नहीं थी, कोई पैग़ाम नहीं।

बस… एक गुलाब।

साफ़, सीधा, शांत।

ध्रुवी ने झुककर उसे उठाया। उसकी उंगलियों में काँपन थी।

वो गुलाब उसने नाक के पास लाया, जैसे कोई भूली हुई याद को फिर से महसूस करना चाह रही हो।

और तभी, अंदर से कोई आवाज़ आई —

“ये कब रखा गया? कौन आया?”

वो कमरे की ओर घूमी, फिर बालकनी के कोने में देखा — वहाँ ज़मीन पर हल्के से जूते के निशान थे… मिट्टी में धँसे हुए।

"अर्जुन…" उसके ज़हन में सिर्फ एक नाम गूंजा।

लेकिन फिर दूसरा सवाल उठा —

“क्यों?”

क्यों अर्जुन, जिसने मेरा सब कुछ छीन लिया… अब ख़ामोशी से मेरा दरवाज़ा खटखटा रहा है?

गुलाब अब फूल नहीं, एक पहेली बन चुका था।

उसी वक़्त, महल के नीचे के लॉन में अर्जुन एक किताब पढ़ता दिखा — लेकिन जैसे वो जानबूझकर उसी दिशा में बैठा था, जहाँ से बालकनी दिखाई दे।

ध्रुवी ने ऊपर से उसे देखा —

किताब के कवर पर लिखा था: “अधूरे रिश्ते”

               वो पल भर के लिए उसके चेहरे को देखती रही — और अर्जुन ने सिर नहीं उठाया। वो नाटक नहीं कर रहा था देखने का… बल्कि नाटक कर रहा था न देखने का।

                गुलाब उसकी उंगलियों में काँप रहा था — जैसे रिश्ता नहीं, कोई चाल पकड़ में आने वाली हो।

 

***************************************

 

ध्रुवी नहा कर बाहर आई, तो कमरे में कजरी नाश्ते की ट्रॉली के साथ मौजूद थी। उसने आदतन सिर झुका कर अदब से ध्रुवी का अभिवादन किया — पर उसकी आंखों में एक हलकी चिंता झलक रही थी।

कजरी ने कुछ पल की चुप्पी तोड़ते हुए पूछा,

“महारानी-सा, हुकुम सा ने बताया है कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है। इसीलिए आप कल रात से अपने कमरे से बाहर भी नहीं आईं। अब आपकी तबीयत कैसी है?”

ध्रुवी ने हल्की सी सांस भरते हुए जवाब दिया,

“हम ठीक हैं, कजरी।”

उसकी आवाज में थकावट और भावहीनता थी, जैसे शरीर से ज़्यादा आत्मा थकी हो।

कजरी ने थोड़ा आगे बढ़ते हुए सहजता से कहा,

“अगर आप कहें तो मैं आपके लिए नाश्ता परोस दूं?”

ध्रुवी ने ना में गर्दन हिलाते हुए कहा,

“नहीं… हमें भूख नहीं है। बस… हम थोड़ा आराम करना चाहते हैं।”

उसके लहजे में ठहराव था, जैसे हर शब्द सोच-समझकर बाहर आ रहा हो।

“अरे! ऐसे कैसे भूख नहीं है?” — पीछे से एक परिचित, ममता भरी आवाज गूंजी।

ध्रुवी ने पलटकर देखा, तो दाई मां खड़ी थीं। उनके साथ एकादशी हाथ में थाल लिए कमरे में दाखिल हो रही थी।

दाई मां ने आते ही थोड़ी झुंझलाहट, थोड़े स्नेह से कहा,

“मिष्टी ! कैसी हैं आप? और जब तबीयत ठीक नहीं थी तो आपने रात में ही हमें क्यों नहीं बताया?”

ध्रुवी ने सिर झुका लिया। मन के भीतर बहुत कुछ था, पर ज़ुबां पर कम। उसने सिर्फ इतना कहा,

“दाई मां, फिक्र की कोई बात नहीं है… बस थोड़ा ऐसे ही… मन ठीक नहीं था।”

दाई मां उसके करीब आईं, उसके चेहरे को गौर से देखा और एक गहरी सांस लेते हुए बोलीं,

“ऐसे ही नहीं था, ध्रुवी। ऐसे ही नहीं है। ज़रूर कल की पूजा में आपको किसी की नज़र लग गई है। इतने लोग थे… कोई न कोई तो मन से साफ नहीं था। आइए, हम अभी आपकी नज़र उतार देते हैं। देखना, आप जल्दी ठीक हो जाएंगी।”

ध्रुवी ने अपनी आंखों की कोरों में आई नमी को तुरंत पलकों की ओट में छुपा लिया। आवाज भी भीगी थी, पर उसने मुस्कुराते हुए कहा,

“काश… कि ऐसा ही हो दाई मां।”

दाई मां ने थाल को एक ओर रखते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा,

“बिलकुल ऐसा ही होगा। आपकी तबीयत भी ठीक होगी, और मन भी। देखिएगा, सब अच्छा होगा। बहुत जल्दी।”

ध्रुवी बस हौले से मुस्कुरा दी। पर वह मुस्कान… उसके भीतर की उदासी, उस भारीपन को नहीं छुपा सकी, जो उसकी आंखों में कहीं गहराई से उतर चुका था।

इसके बाद दाई मां ने पूरे स्नेह से ध्रुवी की नज़र उतारी। चुपचाप कुछ देर उसके पास बैठीं। सिर पर फिर से स्नेह से हाथ फेरा और धीमे स्वर में कहा,

“आराम कीजिए… हम बाहर ही हैं।”

फिर वह वहां से चली गईं।

कमरे में अब फिर से वही सन्नाटा था — पर इस बार वो सन्नाटा ध्रुवी के भीतर भी गूंज रहा था।

***************************************

           ध्रुवी खिड़की के पास बैठी थी — नज़रें सामने दूर पहाड़ों की धुंध पर टिकी थीं, पर भीतर वो कहीं और थी। अपनी ही परतों में, अपनी ही उलझनों में।

               उसने हल्के से चादर को अपने कंधों तक खींच लिया। कमरे में गुलाबी धूप तैर रही थी, लेकिन ध्रुवी के भीतर अब भी सर्द हवाएं चल रही थीं।

दरवाज़े पर एक धीमी-सी दस्तक हुई।

टिक-टक… टिक-टक…

जैसे किसी ने वक्त को कड़ी से छेड़ा हो।

कोई जवाब नहीं आया। दस्तक दोबारा हुई, इस बार थोड़ी धीमी, थोड़ी झिझकती। फिर दरवाज़ा धीरे से खुला। और अर्जुन अंदर आया — बेहद धीमे क़दमों से, जैसे ज़मीन पर उसके पांव नहीं, कोई पछतावे की सिसकी हो।

"ध्रुवी"..... अर्जुन ने मद्धम लहज़े से कहा.....।

           ध्रुवी की नज़रें खिड़की से नहीं हटीं। उसने न दरवाज़े की ओर देखा, न कोई प्रतिक्रिया दी। बस अपनी जगह उसी स्थिरता से बैठी रही। अर्जुन ने दरवाज़ा पीछे से बंद किया। कुछ क्षण वह वहीं खड़ा रहा। फिर बिना कोई शब्द बोले, धीरे-धीरे उसके पास आया।

"कजरी ने बताया… कि आपने खाना नहीं खाया," उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी।

ध्रुवी चुप रही।

“दाई मां को भी फ़िक्र हो रही थी। और… हमें भी।”

                 ध्रुवी की आंखें वहीँ थीं, जहाँ बाहर एक परिंदा उड़ता दिख रहा था।

"हम जानते हैं..... हमारे कुछ कहने या यहां आने का अभी शायद कोई मतलब नहीं। लेकिन फिर भी…" अर्जुन की आवाज़ भारी थी, “हम बस यहीं चाहेगें कि आप खुद को और तकलीफ़ें ना दें।”

              ध्रुवी के होंठ थरथराए — उसने कहा नहीं, पर जैसे बहुत कुछ बोल जाना चाहती थी। कुछ पलों की चुप्पी के बाद अर्जुन ने अपनी जगह से एक कुर्सी खींची और दरवाज़े से थोड़ी दूरी पर बैठ गया — न ज़्यादा पास, न पूरी तरह दूर।

"आपसे बात करना चाहते थे… लेकिन ये नहीं जानते कि कहें क्या," उसने स्वीकारा।

                ध्रुवी ने धीरे से पलके झपकाईं — मानो उस धैर्य पर आश्चर्य हो रहा हो, जो अब तक बचा हुआ था।

"अगर आप चाहें..... तो हम बस बैठे रहेंगे। बिना कुछ कहे," अर्जुन ने कहा।

पहली बार, ध्रुवी की आंखें उसकी ओर मुड़ीं। थकी हुई, पर खाली नहीं थीं। उन आँखों में चोट थी, पर सवाल भी। आग थी, पर राख भी।

"बैठने से क्या होगा?" उसका स्वर शांत था, लेकिन तीखा।

"शायद कुछ नहीं। शायद सिर्फ़ यही कि आप जानें…..... कि हम भाग नहीं रहे," अर्जुन ने सीधा ध्रुवी की आंखों में देखा।

"आप भाग चुके हैं," उसने जवाब दिया। “उसी दिन… जब आपने मेरी दुनिया को उस एक झूठ से खंडहर कर दिया था।”

अर्जुन के पास कोई तर्क नहीं था।

“आपका सच…... मेरे झूठ से कहीं ज़्यादा क्रूर था।”

ध्रुवी की आंखें नम हो गईं। “और अब आप यहां बैठकर क्या दया दिखाना चाहते हो? क्या माफी मांगना चाहते हो?”

“अगर आप चाहें तो…”

"मैं कुछ नहीं चाहती," उसने कठोरता से अर्जुन की बात को बीच में ही काटते हुए कहा।

                 एक लंबा सन्नाटा फिर फैल गया। अर्जुन बस बैठा रहा। बिना शब्द के, बिना हरकत के। और ध्रुवी, एक बार फिर खिड़की की ओर मुड़ गई। कमरे में समय जैसे ठहर गया था।

फिर कुछ देर बाद, ध्रुवी ने धीमे से कहा —

“क्या आपने कभी सोचा है कि जब किसी का भरोसा टूटता है… तो वो सिर्फ़ किसी पर गुस्सा नहीं करता, वो खुद से भी नफ़रत करने लगता है?”

                  पहली बार अर्जुन की आंखें भर आईं, लेकिन उसने पलकें झुकाए रखीं।

“मुझे लगता है… मैं अब वो नहीं रही जो कभी थी। और ये सिर्फ़ तुम्हारी वजह से नहीं है…... ये उस सारे विश्वास की वजह से है जो मैंने सबसे किया।”

"हम जानते हैं..... समझ सकते हैं" अर्जुन फुसफुसाया। “आख़िर हमने भी बहुत कुछ खोया है…..... शायद खुद को भी।”

"खोया नहीं," ध्रुवी ने कहा, “तुमने चुना था। झूठ, चाल, साज़िश — सब कुछ तुम्हारे चुने हुए मोहरे थे। अब जब बाज़ी पलटी है, तो तुम पछताने नहीं… डरने लगे हो।”

"डरता हूँ," अर्जुन ने स्वीकार किया। “ शायद फ़िर से खो देने से।”

                अर्जुन ने गहराई से ध्रुवी की आंखों में देखते हुए कहा..... ध्रुवी की आंखों में कुछ चमका — कुछ ऐसा जो प्यार नहीं था, पर पूरी नफ़रत भी नहीं।

"तो डरते रहो," उसने कहा।

              ध्रुवी धीरे से उठी और दरवाज़े की ओर बढ़ी। अर्जुन ने एकाएक उसे टोका.…अर्जुन की बात सुनकर ध्रुवी के बढ़ते क़दम फ़ौरन ही अपनी जगह ठिठक गए.....।

 

 

(ऐसा क्या कहा अर्जुन ने ध्रुवी से की उसके कदम ठिठक गए?…..कहानी में आगे क्या हुआ जानने के लिए पढ़ते रहिए शतरंज: बाज़ी इश्क़ की!)

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