राजवीर के लोग संजय के पास सोने का सिक्का देखकर पागल हो गए थे। "आख़िर तुमने ये किया कैसे? तुम्हें इसे चुराने में डर नहीं लगा? तुम पागल हो? तुम्हें राजवीर से डर नहीं लगता क्या?"
संजय पर चारों तरफ़ से सवालों की बौछार हो रही थी।
"सब हाथों की सफ़ाई है, बच्चा लोग। थोड़ी चालाकी, थोड़ी हिम्मत और थोड़ी क़िस्मत चाहिए बस और समझो काम हो गया।" संजय ने जवाब दिया।
"क्या बात है संजय, आज की पार्टी संजय की तरफ़ से दोस्तों!" ग्रुप में से किसी ने चिल्लाकर कहा।
"हाँ... हाँ, आज संजय सबको पिलाएगा। वैसे भी इस राजवीर के बच्चे ने इतने दिनों से हमें यहाँ जंगल में बैठा रखा है। मेरा तो गला ही सूखने लगा है अब," ग्रुप में से किसी और की आवाज़ आई।
"मैं बता रिया हूँ... सुबह जब तक अपने गले में सुरा के दो पेग नहीं जाते, तब तक अपने गले के सुर ही नहीं निकलते,"
ग्रुप में से किसी ने अपने ख़ास भोपाली अंदाज़ में कहा और सभी हँस पड़े।
अर्जुन की टीम, राजवीर से बहुत दूर जा चुकी थी। इधर, राजवीर के लोग कई दिनों से फ्री बैठे-बैठे बोर हो गए थे। जैसे ही संजय ने पार्टी का ऐलान किया, वे सब रात के अँधेरे में जंगल की ओर निकल पड़े।
हालाँकि उस सुनसान जंगल में दूर-दूर तक कोई गाँव नहीं था, लेकिन ग्रुप के कुछ लोगों ने पहले जंगल में एक जगह देसी मद्य बनते हुए देखा था।
"मैं बता रिया हूँ... अपने कान में अभी से गिलास खनक रिया है, मियाँ,"
उस भोपाली ने फिर कहा।
"मियाँ, जोश-जोश में ज़्यादा मत पीना, वरना कल राजवीर तुमको खनका देगा,"
किसी ने चुटकी ली और पूरा ग्रुप ठहाका मारकर हँस पड़ा।
"चुप हो जाओ... वह देखो, वहाँ आग जल रही है,"
अचानक ग्रुप में से एक आदमी ने सबको चुप रहने का इशारा किया।
"संजय, हमने पिछली बार कुछ लोगों को यही पर मद्य बनाते देखा था।" बलवीर ने कहा।
ग्रुप ने आग वाली जगह पर जाकर देखा। वहाँ देसी मद्य के बड़े-बड़े बर्तन रखे हुए थे। एक तरफ़ बड़ी भट्टी में बर्तन रखा था, जिसमें मद्य उबल रहा था, लेकिन वहाँ कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था।
"अजीब बात है! आग जल रही है, भट्टी में मद्य रखा है, लेकिन यहाँ कोई दिख नहीं रहा? लगता है हमें देखकर भाग गए होंगे।" संजय ने हैरानी में कहा।
बलवीर ने भी उसकी बैट का जवाब दिया कि
"ये तो और भी अच्छा हुआ न, मद्य के पैसे नहीं देने पड़ेंगे। मुफ़्त का चंदन, घिस मेरे नंदन!"
बस फिर क्या था, पूरा ग्रुप उस देसी मद्य पर टूट पड़ा। भोपाली आदमी एक के बाद एक पेग ख़त्म करता जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह पैदा भी ठेके पर हुआ होगा और बचपन से दूध की जगह मद्य पीता आया हो। तभी उसे अचानक ठसका लग गया।
"अरे भाई, आराम से! ज़्यादा हो गई क्या?" संजय ने कहा
"क्या बात कर रिये हो मियाँ, इतना तो अपना रोज़ का है। मैं बता रिया हूँ... मतलब तुम ये समझ लो कि..."
" एक बड़े शायर ने कहा है, दिन ढल गया तो रात काटने की आस में, सूरज नदी में डूब गया और हम गिलास में।’
सिपाही भोपाली के इस शेर पर पूरी महफ़िल झूम उठी। देशी मद्य का नशा उनके सिर चढ़कर बोल रहा था। वे नशे में इतने डूबे थे कि उठ भी नहीं पा रहे थे, लेकिन पीते ही जा रहे थे।
अचानक फुल स्पीड से एक पत्थर आया और मद्य का बर्तन चूर-चूर हो गया।
नशे में डूबे ये लोग कुछ समझ पाते, इससे पहले ही जंगली लोगों ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। मौत को सामने देखकर पूरे ग्रुप का नशा उतर गया। भागने की कोशिश में कुछ लोगों ने अपनी जान गँवा दी।
"क्यों मारना चाहते हो... ह... हमें?" संजय ने डरते हुए पूछा।
अचानक उन जंगली लोगों के पीछे से एक लड़की सामने आई। वह और कोई नहीं, राहुल की पत्नी स्नेहा थी। दूसरी तरफ़, विक्रम अब पूरी तरह ठीक हो चुका था।
अर्जुन: "हमारी टीम मुश्किल वक़्त में एकजुट रही और ये मेरे लिए गर्व की बात है। अब हम अपने सफ़र के अगले पड़ाव के लिए तैयार हैं। स्लैब में चाबी लगाने से हमें आगे का रास्ता और नए सुराग मिल सकते हैं, लेकिन हमें नहीं पता कि इसमें क्या छुपा है। यह ख़तरनाक भी हो सकता है।"
अर्जुन ने चमकते स्लैब में चाबी लगाई। चाबी लगते ही, उसमें लगा हीरा तेज़ चमकने लगा। स्लैब की रोशनी ने पूरे कमरे को रोशन कर दिया। रोशनी इतनी तेज़ थी कि सबकी आँखें बंद होने लगीं और सबको चक्कर आने लगे। अर्जुन के हाथ से स्लैब ज़मीन पर गिर गया।
स्लैब की रोशनी में आकृतियाँ बनने लगीं। सबकी आँखों के सामने दृश्य चमकने लगे। तीन मिनट के भीतर, हर किसी के साथ अलग-अलग घटनाएँ घटीं।
विक्रम को गंगा आरती के दृश्य दिखे। सम्राट को मंदिर की घंटियों की आवाज़ें सुनाई दीं। मीरा और अर्जुन ने एक प्राचीन शहर देखा, जिसके बीच एक विशाल मंदिर था।
आइशा को भी मंदिर दिखा, लेकिन वह एक अलग मंदिर था। इन दृश्यों के बाद, सबको दो चाबियाँ दिखीं—एक में हरा और दूसरी में नीला हीरा जड़ा हुआ था।
रोशनी बंद होते ही, सबने ख़ुद को गिरने से बचाने के लिए दीवारों, मेज़ और कुर्सियों का सहारा लिया। इतना सब होने के बाद अब कमरे में सिर्फ़ तेज़ साँसों की आवाज़ें गूंज रही थीं।कुछ देर बाद, अर्जुन ने ख़ामोशी तोड़ी।
अर्जुन: "ये अभी मेरे साथ क्या हुआ? क्या तुम लोगों ने भी वही देखा जो मैंने देखा?"
विक्रम: "हाँ मास्टर, मुझे भी चक्कर आए थे और मैंने कुछ विज़ुअल देखे।"
अर्जुन: "तुमने वह प्राचीन शहर देखा और वह मंदिर... शहर के बीच में।"
विक्रम: "मास्टर, पर मैंने तो ऐसा कुछ नहीं देखा। मुझे तो गंगा आरती दिखी।"
आइशा: "मास्टर, मैंने भी मंदिर देखा, लेकिन कोई शहर नहीं।"
अर्जुन: "क्या तुमने पहले कभी उस मंदिर को देखा है?"
आइशा: "हाँ, मैंने काशी विश्वनाथ का मंदिर देखा, जो बनारस में है।"
विक्रम: "मुझे भी गंगा आरती बनारस के घाट पर होती हुई दिखी।"
अर्जुन:"अजीब बात है... मुझे उज्जैन में बना महाकालेश्वर मंदिर दिखा। सम्राट, तुम्हें क्या दिखा?"
सम्राट:"मुझे मंदिर की घंटियों की आवाज़ सुनाई दी और मैंने दो चाबियाँ देखीं जिनमें अलग-अलग रंग के हीरे जड़े थे।"
पूरी टीम हैरान थी। सबने अलग-अलग चीज़ें देखी थीं, जो देश के अलग-अलग शहरों की थीं। लेकिन उन सभी के विज़ुअल में चाबियाँ समान थीं।
अब उनके सामने यह सवाल था—उन्हें बनारस जाना चाहिए या उज्जैन?
आइशा: "मास्टर, उज्जैन तो सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी थी। जब हमने सफ़र शुरू किया था, तब केरल में उस विद्वान ने हमें बताया था कि वह मंदिर सम्राट विक्रमादित्य ने बनवाया था। हो सकता है, हमें दोनों चाबियाँ उज्जैन में मिलें।"
विक्रम: "उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर न केवल धार्मिक, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। राजा विक्रमादित्य से जुड़ा इतिहास इसे छुपाने के लिए एकदम सही जगह बनाता है।"
अर्जुन: "हाँ, राजा विक्रमादित्य का सिंहासन भी हमें रास्ते में मिला था। हो सकता है, इस चाबी का रहस्य उनसे जुड़ा हो। लेकिन काशी के मंदिर को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।"
बहुत सोच-विचार के बाद, टीम ने निर्णय लिया कि वे दो समूहों में बंट जाएंगे।
पहली टीम! अर्जुन और मीरा उज्जैन जाएंगे।
दूसरी टीम! आइशा, सम्राट और विक्रम बनारस जाकर नए सुराग ढूँढेंगे।
टीम ने मठ छोड़ दिया और पहाड़ों से होते हुए दिल्ली की तरफ़ बढ़ गए। वहाँ से वे आगे की योजना बनाकर अपने-अपने शहरों की ओर निकलेंगे।
क्या टीम अर्जुन को आगे नए सुराग मिलेंगे या उनके अलग होने से उनकी मुश्किलें बढ़ेंगी? जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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