अपर्णा निवास में मातम का माहौल था। हॉल में पड़े सोफे पर अपर्णा गुम सुम सी बैठी हुई थी। उनकी आंखों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उनमें आँसू सूख गए हो। उनके पास बैठी उनकी पड़ोसन सरला, बहुत कोशिश कर रही थी कि अपर्णा के आँसू निकल आए और उनका दिल हल्का हो जाये, लेकिन वह तो अपनी पलकों को झपक तक नहीं रही थीं। थोड़ी दूरी पर सुषमा ने फ़ोन पर बात करते हुए कहा, “वह अब हमारे बीच नहीं रहे, हमें छोड़ कर चले गए हैं। आप होते तो…”

“तो” शब्द के बाद सुषमा इस तरह से ख़ामोश हो गयी थी जैसे फ़ोन के दूसरी तरफ से उसकी बात को बीच में ही रोक दिया गया हो। उसके चेहरे पर आने वाले भाव से साफ़ पता चल रहा था कि फ़ोन पर उससे बड़े ही सख्त लहज़े में बात की गयी थी। उस समय उसके मुँह से सिर्फ “हाँ” और “जी” जैसे शब्द ही निकल रहे थे। उसने अपनी बात को रखते हुए कहा, “”सब लोग आपके बारे में पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूँगी। इस अंतिम समय में आपका रहना बहुत ज़रूरी है।"

सुषमा ने अपने दिल की बात को ज़बान पर तो ला दिया था मगर उसके माथे पर जो शिकन थी, उसे देख कर यही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि उसकी बात को सिरे से नकार दिया गया है।

सुषमा ने हिम्मत जुटाकर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “काम तो ज़िंदगी भर होता रहेगा मगर आज, इस मुश्किल घड़ी में आपका रहना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने आपको इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए अपना पूरा जीवन त्याग दिया। आज जब आपको यहाँ  होना चाहिए, तो आप इंकार कर रहे हो।”

यह कहने के बाद जिस तरह के भाव सुषमा के चेहरे पर आये थे, उसे देख कर साफ़ लग रहा था कि फ़ोन के दूसरी तरफ बात करने वाला थोड़ा नाराज़ हो गया है। उसकी नाराज़गी से सुषमा को कोई फर्क नहीं पड़ा, उसने अपने आप को शांत किया और एक लंबी सांस लेने के बाद बड़े ही नरम लहजे में कहा, “कम से कम दीदी के बारे में तो सोचो, दादा के जाने के बाद वह एक दम अकेली हो गई है।”

सुषमा की फ़ोन पर होने वाली यह आखिरी बात थी। उसके बाद सुषमा को सिर्फ कॉल कटने के बाद जो बीप की आवाज़ आती है, वही सुनाई दी। जिस तरह फ़ोन के रिसीवर को अपने हाथ में लिए उसकी आँखों से आँसू निकल रहे थे, उसे देख कर किसी का भी दिल पसीज जाता। सुषमा ने थोड़ी देर बाद रिसीवर को रख दिया और पलट कर अपर्णा की तरफ़ देखा तो उसके रोने की आवाज़ में सिसकियाँ भी शामिल हो गई थी।

सुषमा ने अपने आपको संभाला और हाथों से आंसुओ को पोंछते हुए खुद से कहा, ‘अगर तू ही इस तरह टूट जाएगी तो दीदी का क्या होगा? तुझे अपने आपको संभालना होगा ताकि दीदी को हिम्मत मिले।’

अपने को समझा, सुषमा अपर्णा के पास जाकर बैठ गई। अपर्णा ने सुषमा की तरफ़ देखा, मानो उसके कुछ कहने का इंतज़ार कर रही थी। सुषमा के अंदर हिम्मत नहीं थी कि बात को साफ़ साफ़ कहती, बस सर को ना में हिला दिया। अपर्णा और टूट गयी। सुषमा की समझ में भी नहीं आ रहा था कि किस तरह वह अपर्णा को हिम्मत दे, किस तरह उसे तसल्ली दे। उसने अपने एक हाथ को अपर्णा के हाथ पर रखा और कहा, “दीदी अब हमें दादा के आखिरी दर्शन के लिए हॉस्पिटल जाना चाहिए।” 

अपनी बात को कहने के साथ ही सुषमा की आँखों से आँसू  बहने लगे। उसके साथ ही पास बैठी सरला भी रोने लगी। दोनों के रोने के बावजूद, अपर्णा की आँखों से एक बूंद आँसू   नहीं निकला। अचानक अपर्णा खड़ी हुई और धीमे धीमे कदमों से चलने लगी। 

 

उन दोनों की नज़रें अपर्णा पर ही थी। सरला ने उन्हें रोकने के लिए अपने हाथ को आगे भी बढ़ाया मगर वह बेसुध सी चली जा रही थी। अपर्णा हॉल के सामने वाली दीवार के पास जाकर रुक गई, जिस पर उसके पति और बेटे की एक तस्वीर टंगी थी। उधर सरला और सुषमा भी अपनी जगह से खड़ी हुई और धीरे धीरे क़दमों से उसके पीछे जाकर खड़ी हो गई। अपर्णा एकटक उस तस्वीर को देख रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे वह अपने पति से किसी की शिकायत करने के लिए आई हो। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाती, पीछे से आवाज़ आई।

सुषमा: (दुख के साथ) दीदी, दीदी।

सुषमा की आवाज़ ने अपर्णा को अतीत से वर्तमान में ला दिया था। आज भी उसके चेहरे पर वैसा ही दुख नज़र आ रहा था, जैसे चार साल पहले था। उसने पीछे मुड़ कर सुषमा की तरफ़ देखा तो इस बार उनकी आंखों में आँसू थे। इससे पहले सुषमा अपनी बात को रखती, अपर्णा ने दर्द भरी आवाज़ में कहा, “वह अपने काम की वजह से नहीं आ पाएगा, यही कहना चाहती हो ना सुषमा?”

अपर्णा की बात को सुन कर सुषमा ने अपने सर को हां में हिला दिया। दोनों इस समय अमेरिका में रह रहे अपर्णा के बेटे राहुल के बारे में बात कर रही थी। सुषमा ने चार साल पहले कोशिश की थी कि राहुल अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए आ जाए मगर वह नहीं आया था, आज भी उसे उम्मीद कम ही लग रही थी। उसने अपने कदमों को अपर्णा की तरफ़ बढ़ाया और कहा, “पंडित जी आ गए है, थोड़ी देर में पूजा शुरू हो जाएगी।”

 

सुषमा अपनी बात को कह कर वहाँ से चली गई। इन चार सालों में बहुत कुछ बदल गया था। जो घर कुछ सालों पहले तक सुरेंद्र जैन की आवाज़ से गूंजता था, वहाँ आज ख़ामोशी सी छाई हुई थी। सुषमा के जाने के बाद अपर्णा फिर से दीवार पर लगी तस्वीर को देख रही थी। हॉल की ख़ामोशी ने शायद उनके दिल के दर्द को और ज़्यादा बढ़ा दिया था। अपर्णा ने धीमी, दर्द भरी आवाज़ में खुद से बात करते हुए कहा, “आज मैंने आपकी पसंद की साड़ी पहनी है, आपको लाइट ग्रे रंग की साड़ी बहुत पसंद थी ना।”

 

अपर्णा ने अपनी बात को कहते हुए नज़रों को साड़ी की तरफ़ झुका लिया था। उसने साड़ी पर उंगलियां फेरते हुए, हल्की सी मुस्कान दी। साड़ी छूने के अंदाज़ से पता चल रहा था कि वह साड़ी अपर्णा के लिए बहुत ही खास थी। 

 

एक बार उसने अपने पति सुरेंद्र से कश्मीर जाने की ज़िद की थी, लेकिन हालात और पैसों की तंगी ने सुरेंद्र को इजाज़त ही नहीं दी कि वह उसे कश्मीर घुमाने ले जा सके। अपर्णा की नाराज़गी दूर करने के लिए सुरेन्द्र ने उसे यह कश्मीरी साड़ी उपहार के रूप में खरीद कर दी थी, वही याद करते हुए अपर्णा ने खुद से कहा, ‘तुम्हारे इस उपहार को मैंने आज तक संभाल कर रखा हुआ है। जब भी मुझे तुम्हारी याद आती है, मैं इस साड़ी को पहन कर पुरानी यादों को ताज़ा कर लेती हूं।’

 

पुरानी बात को याद करते हुए उनकी आंखों में एक अलग ही चमक दिखाई दे रही थी। उनकी बातों को सुन कर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी तस्वीर के सामने नहीं बल्कि अपने पति के सामने खड़ी होकर बात कर रही हो। थोड़ा सा अतीत के पन्नों को झांक कर देखेंगे तो हमें अपर्णा की कहानी का पता चलेगा।

 

रुड़की से तकरीबन पांच-छ: किलोमीटर दूर एक बहुत छोटा और प्यारा सा गांव है, आसफ नगर। सुरेंद्र जैन, अपनी पत्नी अपर्णा जैन के साथ उस समय यहाँ आए थे जब चंद ही घर बने हुए थे। आसफ नगर में आकर बसने के उनके दो मकसद थे, एक तो वहाँ  उत्तम चीनी मिल में उन्हें काम मिल गया था और दूसरा मकसद उनके बेटे से जुड़ा हुआ था।

सुरेंद्र ने आसफ नगर में एक ज़मीन का टुकड़ा खरीद कर अपने घर को बड़े ही प्यार से बनवाया था। उनका मानना था कि एक घर को बनाने में जितना हाथ एक पुरुष का होता है, उतना ही योगदान औरत का भी होता है, इसीलिए घर का नाम अपने बजाए, अपर्णा के नाम पर रखा था। उनकी इसी बात को याद करते हुए बड़ी ही मायूसी के साथ अपर्णा ने कहा, “आपके बिना यह ज़िंदगी अधूरी सी लगती है, कितने प्यार से आपने इस घर को बनवाया था, और आज…”

जैसे ही अपर्णा की ज़बान पर “आज” शब्द आया, वह ख़ामोश हो गईं, उनका दिल भर आया। उन्हें आज अपने पति की बहुत ज़्यादा याद आ रही थी। तभी थोड़ी दूरी पर रखे फ़ोन की घंटी बजती है।

अपने आँसू  पोंछते हुए अपर्णा टेलीफोन के पास गयीं और फोन के रिसीवर को उठा कर “हेलो” कहा। इसके बाद जो भी आवाज़ आयी, वह फ़ोन के दूसरी तरफ़ से ही थी। जिस तरह के भाव अपर्णा के चेहरे पर आ रहे थे, उससे साफ पता चल रहा था कि जो बात हो रही थी, उससे वह खुश नहीं थी। फिर उन्होंने कहा, “ठीक है, मैं मैनेज कर लूंगी, बस तुम अपना और बच्चों का ख्याल रखना।”

इतनी सी बात कह कर अपर्णा ने फोन का रिसीवर रख दिया और उदास हो कर वापस अपने पति की तस्वीर के सामने जाकर खड़ी हो गयीं। वही हुआ, जिसका अंदेशा था, आज भी उनका बेटा राहुल अपने पिता के श्राद्ध पर नहीं आ रहा था। एक तरफ, जहाँ अपर्णा के घर में सन्नाटा पसरा था, वहीं उसी मोहल्ले में एक घर ऐसा भी था, जहां सुबह सुबह शायद महाभारत छिड़ने वाली थी। २८ साल का नौजवान रोहन अपनी पत्नी प्रिया के साथ वहाँ रहता था। 

जैसा कि अकसर घरों में सुबह का माहौल होता है, किसी को ऑफिस जाने की जल्दी, बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी, इसी तरह का कुछ नज़ारा उनके घर पर भी देखने को मिल रहा था। रोहन जैसे ही बाथरूम से नहा कर बाहर निकला तो सामने अपने कपड़ों  को गुचुड़ मुचुड़ पड़े देख कर चिढ़ गया। गुस्से में आते हुए रोहन ने प्रिया से कहा, “यह क्या प्रिया, मैंने तुम्हें रात में ही बता दिया था कि कल मेरा शुगर मिल में पहला दिन है, अब अगर मैं पहले दिन ही लेट हो गया तो बॉस के सामने मेरा क्या इम्प्रेशन पड़ेगा।”

ऐसा नहीं था कि प्रिया को रोहन की बात याद नहीं थी। वह जानती थी कि रोहन के लिए पहले दिन टाइम पर पहुंचना कितना ज़रूरी था। रात में अगर बिजली नहीं गई होती तो शायद यह नौबत ही नहीं आती। अभी भी प्रिया ने यही सोचा था कि 8 बजे बिजली आने से पहले वह रोहन के लिए नाश्ता बनाकर, जल्दी से कपड़ों को प्रेस कर देगी लेकिन इस समय अगर प्रिया जवाब देती तो बेवजह की बहस शुरू हो सकती थी। उसने बस इतना ही कहा, “रोहन तुम जितनी देर में नाश्ता करोगे, मैं तुम्हारे कपड़ों पर प्रेस कर दूंगी।”

प्रिया की बात सुन कर रोहन को गुस्सा तो आ रहा था मगर यह समय गुस्सा करने का नहीं,  बल्कि तैयार होकर समय से काम पर जाने का था। जितना समय उसे नाश्ता करने में लगा, उतना ही समय प्रिया के कपड़ों पर प्रेस करने में लगा। 

प्रिया:  यह लीजिए आपके कपड़े, हो गए ना प्रेस…  आप भी ना, बेवजह गुस्सा हो जाते है।

मुस्कुराते हुए रोहन ने अपने हाथ से प्रिया के गालों को छुआ, प्रिया ने भी उसके हाथों की तपिश को महसूस किया और खुश हो गई। रोहन ने प्रिया के हाथ से कपड़े लिए और तैयार हो गया। रोहन उसी के साथ प्रिया ने कमरे में लगी घड़ी की तरफ देखा और कहा, “देखो रोहन, अभी नौ बजने में दस मिनट बाकी है।”

प्रिया के कहने पर रोहन ने भी घड़ी की तरफ़ देखा, सच में नौ बजने में अभी दस मिनट बाकी थे। रोहन ने अपने हाथ पर बंधी घड़ी में देखा तो समझ गया कि प्रिया ने दीवार घड़ी को दस मिनट आगे कर रखा है। इससे पहले की वह प्रिया की समझदारी की तारीफ करता, दरवाज़े की घंटी बजी और फिर लगातार बजती ही रही। चौंक कर दोनों एक दूसरे को देखा और रोहन जल्दी से दरवाजे की तरफ बढ़ा ।  

दूसरी तरफ़ अपर्णा अपने पति की तस्वीर के सामने खड़ी पुरानी यादों में खो गई थी, उन्होंने अपने पति सुरेंद्र के साथ अपनी ज़िंदगी के बड़े ही सुंदर पलों को गुज़ारा था। दोनों ने साथ में ज़िंदगी के हर रंग को देखा था और हर सुख दुख में साथ निभाया था। कई बार मुश्किल हालात भी आए लेकिन वह टूटी नहीं, बल्कि अपने आप को और ज़्यादा मज़बूती से खड़ा किया। कई बार अपर्णा की यही मज़बूती सुरेंद्र के लिए मील का पत्थर साबित हुई। धीमे स्वर में अपर्णा ने खुद से कहा, ‘हो सकता है कुछ काम पड़ गया हो, बस इसलिए नहीं आना हुआ होगा।’ 

उनके चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था कि वह थोड़ा निराश है। अपनी बात को कहते हुए अपर्णा अपने पति की तस्वीर के और करीब चली गई। उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे वह आज अपने दिल की सारी बात अपने पति से कह देगी। 

तभी अचानक पीछे से आवाज़ आई। 

किसकी आवाज आई थी पीछे से?

क्या राहुल मना करने के बावजूद आ गया था? 

उधर रोहन के घर कौन दरवाजे की घंटी लगातार बजा रहा था? जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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