रेस के बाद सब अपने-अपने कमरे में थक कर जाकर सो गए। वहां राजघराना महल में शाम के वक्त हल्की-हल्की बारिश थम चुकी थी। खिड़कियों से बाहर मिट्टी की महक अंदर आ रही थी... जिसकी खूशबू सबके थके हुए शरीर को राहत दे रही थी।
मगर इन सबके बीच महल के अंदर एक चेहरा था, जो राहत नहीं बैचेनी से भरा हुआ था। ये चेहरा था — रिया का, जिसकी आंखें लगातार उस लाल चिट्ठी के एक-एक शब्द को घूर रही थीं।
उसकी उंगलियों में चिट्ठी काँप रही थी और होंठ बुदबुदा रहे थे — “कहीं ये वही... नहीं... ऐसा कैसे हो सकता है?”
चिट्ठी की लाइनें बार-बार दिमाग में गूंज रही थीं….“तुम्हारे होने से किसी का अतीत उजागर होगा... और ये राजघराना महल चारों ओर शर्म से झुक जाएगा... हाहाहा।”
तभी रिया उस चिट्ठी को उठाकर सीधे अपने और गजेन्द्र के कमरे की तरफ भागती है, क्योंकि इस बार वो गजेन्द्र को किसी गलतफहमी का शिकार नहीं होने देना चाहती। उसके मन में पिछली बार जो हुआ उसका हर पल किसी बुरे सपने की तरह बैठा हुआ था। ऐसे में जैसे ही वो कमरे के दरवाजे पर पहुंचती है, झटके से उसे खोलती है।
तेज खुलते दरवाजे की आवाज सुन गजेन्द्र चौक जाता है। दरअसल गजेन्द्र इस वक्त आइने के सामने खड़ा अपनी जैकेट उतार रहा था कि तभी पीछे से आवाज आई — “गजेन्द्र…”
वो पलटा, देखा रिया खड़ी थी, आँखों में घबराहट और हाथ में वो चिट्ठी।
गजेन्द्र धीरे से मुस्कुराया और पूछा — “इतनी परेशान क्यों हो रिया? सब ठीक तो है ना बेबी...?”
रिया ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने वो लाल चिट्ठी उसकी तरफ बढ़ाई और बोली — “ये मंदिर में मिली थी… और इसे पढ़कर मेरे अंदर फिर से कुछ टूट गया है। मैं नहीं चाहती कि कुछ भी तुमसे छुपे, गजेन्द्र… इसलिए आ गई हूं…”
गजेन्द्र ने चिट्ठी हाथ में ली, पर पढ़ने से पहले रिया ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“रुको… मैं तुम्हें पहले ही बता दूं गजेन्द्र… कि मेरे अतीत में तुम्हारे आने से पहले बस एक ही चेहरा था और वो विराज था, जिसके साथ मेरी सगाई हुई और फिर टूट गई। इन सबके बारे में मैंने तुम्हें सब पहले ही बता दिया है। सब कुछ…। कभी कोई गलती की, कोई रिश्ता अधूरा छोड़ा, या कोई साया पीछा करता रहा। तुम्हें सब बता दिया था मैंने। मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे मन में भी कोई शक की जगह बचे। क्योंकि तुम मेरे लिए सिर्फ पति नहीं, मेरे नये जीवन की शुरुआत हो। मैं दोबारा टूटना नहीं चाहती।”
इतना कहते-कहते रिया की आंखें भर आईं। गजेन्द्र ने उसकी आँखों में देखा, उसके आंसू अपनी हथेलियों से पोंछे और धीरे से बोला — “रिया... तुम ये सोच भी कैसे सकती हो कि कोई चिट्ठी हमारी कहानी को तोड़ देगी? हमारे प्यार को खत्म कर देगी?”
ये सुनते ही रिया के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ जाती है, लेकिन उस लाल चिट्ठी में लिखी बातें अभी भी उसके अंदर डर के माहौल को जिंदा रखती है। कि तभी गजेन्द्र कहता है— “लेकिन अब जब इतनी चिंता है… तो चलो, इसे खोल ही लेते हैं। देखते हैं, कौन है जो हमारे घर को तोड़ना चाहता है, जरा मैं भी तो देखूं...।”
गजेन्द्र चिट्ठी पढ़ता है। चिट्ठी के शब्दों के साथ गजेन्द्र की आंखें सिकुड़ती हैं, और चिट्ठी के अंत को पढ़ते हुए वो जोर-जोर के ठहाके मारकर हंसने लगता है। दरअसल उसने चिट्ठी की लिखावट पर गौर किया, फिर एक सेकंड रुका… और उसके होठों से एक शब्द फिसला — “उफ़्फ… ये…”
रिया की सांसें तेज़ हो गईं। उसने पूछा — “क्या हुआ? बोलो ना गजेन्द्र…”
गजेन्द्र ने गहरी सांस ली, मुस्कुराते हुए चिट्ठी उसे थमाई और ठहाके लगाते हुए बोला— “अरे पगली, शांत हो जाओ मेरी भोली रिया… ये सब तुम्हारे देवर वीर की शरारत है। वो बस तुम्हें छेड़ रहा है।”
रिया हक्की-बक्की रह गई और चिल्लाकर बोलीं — “क्या?!”
गजेन्द्र हँस पड़ा और बोला — “ये उसकी वही घटिया हैंडराइटिंग है, जो मैंने उसकी बाकी चिट्ठियों में भी पढ़ी है। उस पर उसका ‘हाहाहा’ लिखने का तरीका, और ये जो ‘नाम’ और ‘शर्म’ वाली लाइन है — वो हमेशा अपनी नाटकीय चिट्ठियों में यही लाइन डालता था।”
इतना कहते हुए गजेन्द्र ने वो चिट्ठी हवा में लहराई और बोला— “और पता है? मैं शर्त लगा सकता हूं कि इसका अंत में ‘वीर सिंह राठौर, गुप्त रहस्य लेखक’ लिखा होगा। बस देखो नीचे कोने में...”
रिया ने चिट्ठी पलटी और वहां एक छोटा सा स्केच था, एक तलवार पकड़े सुपरहीरो की तरह बना वीर का ही कार्टून चेहरा।
गजेन्द्र हँसते हुए आगे बोला— “इससे बड़ा बचपना तो कोई चार साल का भी नहीं कर सकता। और तुम डर गईं इससे? रिया!!”
रिया अब थोड़ा शर्मिंदा सी हो गई, लेकिन हँसी रोक नहीं पाई और बोलीं— “मतलब... मैं सच में डर गई थी, गजेन्द्र! मुझे लगा फिर से कुछ पीछे से लौट आया है…”
गजेन्द्र ने उसका हाथ थामा और बहुत ही नर्म स्वर में कहा — “रिया… अब जो कुछ लौटेगा, वो सिर्फ खुशियां होंगी। तुम मेरा आज हो, और मेरा कल भी। जो अतीत था — वो किसी और का सपना था, हमारा नहीं।”
इसके बाद दोनों कुछ देर यूं ही एक-दूसरे को देखते हैं, जैसे समय वहीं थम गया हो। तभी उनके बैकग्राउंड में वीर की आवाज़ गूंजती है, जो हँसते हुए आता है और कहता है— “अरे वाह! तुमने तो एक ही चिट्ठी से पूरा सस्पेंस सीजन बना दिया!! रिया भाभी... सच में, इतनी सी बात पर डर गईं आप?”
वीर हँसते हुए अंदर आता है, गजेन्द्र उसे देख मुस्कुराता है और फिर कहता है— “तुझे तो मैं बताता हूं… अब अगले मेले में तेरे नाम का स्टेज ड्रामा बनाऊंगा — ‘रहस्यमयी चिट्ठी और मासूम भाभी’।”
तीनों की हँसी गूंजती है, महल के गलियारों में बच्चें भी इस तमाशे के दर्शक बन जाते है। लेकिन जैसे ही रिया उस चिट्ठी को फाड़ने जाती है… अंदर से एक दूसरा कागज़ गिरता है। सचमुच का एक टुकड़ा... जिसमें किसी पुराने राजघराना सदस्य की तस्वीर होती है।
उसकी पीठ पर लिखा होता है — “तलाशी अभी अधूरी है… चिट्ठी तो मज़ाक थी, पर ये नहीं।”
रिया और गजेन्द्र एक-दूसरे की तरफ देखते हैं। अब ये खेल शायद वीर की शरारत नहीं, किसी और का सच है।
झट से रिया ने उस कागज को उठाया और पलट कर देखा। उस कागज़ को उठाते ही सबकी हँसी थम गई। दरअसल वो एक पुरानी, हल्की पीली पड़ चुकी तस्वीर थी। उस तस्वीर में एक शख्स काफी धुंधला नजर आ रहा था, वो राजघराना परिवार का कोई पुराना सदस्य ही लग रहा था, शायद वो मुक्तेश्वर के पिता की तस्वीर थी, यानि गजेन्द्र और वीर के दादा की। रौबदार आँखें, लेकिन पीठ पर कुछ लिखा था।
रिया धीरे-धीरे पढ़ती है, “कहानी अभी अधूरी है… चिट्ठी तो मज़ाक थी, पर ये नहीं।”
गजेन्द्र तस्वीर को लेकर गौर से देखता है। उसके माथे पर अब गंभीरता उतर आई है। वीर भी चुप है….सारा मज़ाक, एक पल में सच्चाई की दस्तक से छंट गया।
गजेन्द्र धीमी आवाज में कहता है — “ये इंसान... ये तो… बाबा जी की बहुत पुरानी तस्वीर है। अब इसमें कौन सा रहस्य है। ना जाने इस महल के कोने-कोने में दबे राजों की कहानी कब खत्म होगी। कहीं इस वंश का एक ऐसा वारिस तो सामने नहीं आने वाला। सच में वीर और रिया मैं इस महल के कोने-कोने में दफन राज़ के बाहर आने से थक गया हूं।”
रिया पूछती है — “मतलब... क्या ये वसीयत की कोई कड़ी है?”
वीर धीरे से सिर हिलाता है और कहता है — “हां भाभी… मुझे लगता है ये कोई मज़ाक नहीं। शायद ये भी दादा की ही लिखी कोई वसीयत थी... जिसे आज मंदिर में किसी बच्चे ने उठाकर मेरे चिट्ठी वाले लिफाफे में जरूरी कागज समझ कर डाल दिया होगा।”
गजेन्द्र, वीर और रिया अभी कुछ नहीं करते और बस उसे पढ़कर फाड़ के फेंक देते है और शांति से सब जाकर अपने-अपने कमरे में सो जाते हैं।
दूसरी ओर जब महल के अंदर रात के अंधेरे में, जब पूरा राजघराना सो चुका था, तब मुक्तेश्वर सिंह अकेले महल के गलियारे में चलते हुए, धीमे-धीमे पुराने दरवाज़ों को पार कर रहा था। वो हर कमरे में जाता, झांकता... और अतीत की यादों को कुरेदता है और खुद से बातें करते हुए कहता है।
अब इस हवेली की फिजा में वो पुरानी सिसकियाँ नहीं है। जहाँ कभी दीवारों ने आँसू देखे थे, अब वहाँ बच्चों की हँसी गूंजती थी। आज कोई इस राजघराना महल के किसी कोने में रो नहीं रहा... सब खुश है।
मुक्तेश्वर ये ही बड़बड़ाता हुआ एक कमरे के बाहर रुकता हैं... इस दौरान उसके हाथ में एक तस्वीर थी, ये तस्वीर थी जानकी देवी की... और दूसरे हाथ में वही पुरानी तस्वीर, जो रिया को मिली थी... ये थी मुक्तेश्वर की अपनी मां की तस्वीर…
वो दोनों तस्वीरें लेकर महल के मुख्य पूजा कक्ष में अंदर जाता हैं। जहां उसने कुछ दिन पहले दो कील लगाई थी। वहा दीवार पर पहले से उसने उन तस्वीरों को लगाने के लिए उस जगह की सफाई करवा ली थी। ऐसे में उसने पहली कील पर अपनी मां की तस्वीर टांगी और दूसरी पर अपनी मृत पत्नी जानकी देवी की तस्वीर लगाई।
फिर धीमे-धीमे, गहरी सांस लेते हुए मुक्तेश्वर ने मुस्कुरा कर खुद से कहा “अब इस घर में दो रानियाँ हैं…एक जिसने मुझे जन्म दिया, और एक जिसने मुझे इंसान बनाया।”
मुक्तेश्वर की इस लाइन के साथ ही सूरज की रोशनी खिड़की से मंदिर के अंदर दस्तक देती है। जिससे पूरा राजघराना महल एकदम जगमगा उठता है। इसी के साथ सुबह के पक्षियों की आवाज के साथ-साथ महल के हर कोने में बालकनी से आंगन तक बच्चों की आवाज और हंसी गूंजने लगती है।
किसी कोने मे गजेन्द्र बच्चों को घुड़सवारी सिखा रहा था, तो दूसरे कोने में वीर बच्चों का पढ़ा रहा था। वहीं रिया भी बच्चों को योगा की क्लास दे रही थी... और रेनू सारी लड़कियों के बाल सवांर रही थी।
मुक्तेश्वर और विराज मिलकर पुराने अस्तबल को बच्चों की लाइब्रेरी में बदलवा रहे हैं। कुद देर बाद गजेन्द्र और रिया एक साथ बगीचे में बैठकर आने वाली पीढ़ी के लिए योजनाएं बना रहे थे। ठीक इसी समय महल के ऊपर उड़ती एक पतंग पर लिखा था।
"सिर्फ नाम नहीं, अब ये घर जिम्मेदारी भी है। "राजघराना" आज समाप्त होता है एक वादे और बच्चों के बढ़ते खुशहाल एक नए भविष्य के साथ... एक नये अध्याय की ओर...। अब कभी कोई वीर, कोई रेनू, अकेली नहीं होगी। क्योंकि इस बार राजघराना सिर्फ दीवारों में नहीं, दिलों में बना है। जिसका आकार बहुत बड़ा है, इस राजघराना में हर वो बच्चा समा सकता है, जिसे उसके अपनों ने छोड़ दिया है, क्योंकि ये राजघराना महल है...।”
"राजघराना" अब अमर हो गया है।”
अलविदा... एक नई शुरुआत के साथ...। एक खुशनुमा अंत के साथ....।
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