महल के अंदर इस वक्त सब अपने-अपने कमरों में सो रहे थे। हर कोई रेनू और विराज की शादी की थकान में चूर बेहोश था। वहीं महल के बाहर घने बादलों से ढकी दोपहर में, महल के पीछे पुराने बगीचे के छोर पर एक कब्र के पास एक लड़का खामोश खड़ा बस उस कब्र को निहारे जा रहा था।

ये कब्र थी जानकी देवी यानी मुक्तेश्वर की पत्नी की और सामने खड़ा वो लड़का कोई ओर नहीं गजेन्द्र था। मौसम बड़ा सुहाना था... हर तरफ हरियाली थी, लेकिन इस एक जगह का सन्नाटा अलग था... जैसे यहां वक्त ठहर गया हो। 

गजेन्द्र चुपचाप आया, अपने सफेद कुर्ते को झाड़ते हुए अपनी मां की कब्र के बगल में नीचे जमीन पर बैठ गया। कब्र के सामने घुटनों के बल झुककर उसने एक पुरानी चिट्ठी जेब से निकाली — मुड़ी-तुड़ी, लेकिन संभाल कर रखी गई थी।

उसने आंखें बंद की, एक लंबी सांस ली और बुदबुदाते हुए बोला— “मां, आज बहुत कुछ कहने आया हूँ...”

इतना कहते के साथ उसने अपने कांपते हुए हाथों से वो चिट्ठी खोली। ये चिट्ठी वीर ने उसे महीने भर पहले दी थी, जब सबकुछ उलझा हुआ था। वीर ने इसे किसी को दिया नहीं था, बस अपनी मृत मां को याद करते हुए अपने दर्द को शब्दों के साथ एक पन्ने पर उतारा था।

“जब वक्त हो मां मेरे कमरे में आना और मेरी इस चिट्ठी को धीमे से खोलकर पढ़ लेना। मैं जानता हूं तुम इस दुनिया में नहीं हो, पर मैं किसी एक पल में महसूस करना चाहता हूं मां...”

गजेन्द्र ने बाहर लिखी इस लाइन को पढ़ने के बाद अंदर लिखे शब्दों को पढ़ना शुरू किया। वीर की लिखावट में एक सादगी थी, जैसे हर लफ्ज़ दिल से निकला हो।

"मां,

तू कहती थी ना कि नाम सबसे बड़ी दौलत होती है? तो हम दोनों भाई कोशिश कर रहे हैं कि उस नाम को बोझ नहीं, वरदान बनाएं। हम गलतियां करते हैं मां, बहुत सी। पर हम तेरे बेटे हैं — इसलिए हर बार लड़खड़ाकर भी खड़े होते हैं। गजेन्द्र आज भी कभी-कभी चिल्ला देता है, लेकिन उसके दिल में अब नफरत नहीं, लोगों के लिए सिर्फ प्यार है। हां गुस्सा उसका अभी भी गर्म मिजाज़ है, पर अब वो ज्यादा शांत रहता है। और मैं... मैं अब समझ गया हूं कि प्यार सिर्फ पाने का नाम नहीं, निभाने का भी होता है। और रिश्तें सिर्फ बोझ और दर्द नहीं देते... वो सुकून देते है।

मां, तेरे दो बेटे ठीक है, हां परफेक्ट नहीं है, पर तेरे ही जैसे... जिद्दी, सच्चे और अपने से है। मैं चाहता हूं तू बस हमारी जिंदगी के हर पड़ाव पर हमारे साथ रहना। आपना हाथ अपने दोनों बेटों के सर पर हमेशा बनाये रखना मां। मैंने तुझे देखा तो नहीं, पर तेरी तस्वीरें बताती है, तू आज भी बहुत खूबसूरत होगी... वैसी ही रहना मां।

तेरा वीर"

गजेन्द्र चुपचाप चिट्ठी मोड़ता है और अपनी मां की कब्र पर रख देता है। उसकी आंखें भीग चुकी थीं। 

वो वहां से जाते जाते कहता है— “तेरे दोनों बेटे ठीक निकले है मां...। तूने मरते वक्त अपनी आखरी इच्छा में ये ही कहा था ना, कि राजघराना के लोगों की सोच और नियत की परछाई तेरे बच्चों पर ना पड़े... तो देख मां, तेरे दोनों बेटों ने मिलकर पूरे राजघराना महल का दिल बदल डाला। सबको प्यार करना सिखा दिया। जैसा वीर ने चिट्ठी में कहा कि हम दोनों परफेक्ट तो नहीं, पर तेरे ही जैसे है। नाम की कीमत अब समझ में आई है मां। तूने सिर्फ हमें जन्म नहीं दिया... राजघराना को बदलने की जिम्मेदारी भी दी थी, देख हमने तेरा सपना पूरा कर दिखाया मां...अब तो तू दूर आसमान में खुश है ना?"

इतना कह गजेन्द्र अपने हाथों से कब्र की मिट्टी को छूता है, जैसे मां के माथे को सहला रहा हो। फिर उसने अपनी बुआ रेनू का भी जिक्र किया, जिनका नाम लेते ही गजेन्द्र के चेहरे पर एक खिलखिलाती मुस्कुराहट दौड़ गई।

“...रेनू बुआ जी ने हमें वो आईना दिखाया जो हम सबने नजरअंदाज किया था। वो अब राठौर खानदान की बहू नहीं, इस घर की उम्मीद है।”

हवा में अब हलकी ठंडक थी। पेड़ की शाखाएं झुककर जैसे गजेन्द्र और उसकी मां के बीच की बातें सुन रही थी। कब्र के पास रखा छोटा सा दिया जो गजेन्द्र ने जलाया था अभी भी सधा हुआ जल रहा था, जैसे मां ने सुन लिया हो।

वो उठा, और मुड़ने ही वाला था कि उसे पीछे से वीर की आवाज़ सुनाई दी — "अच्छा तो तू यहां है, अकेले मां से मिलने आ गया... और वो भी मेरी लिखी चिट्ठी लेकर…।”

गजेन्द्र मुस्कुराया, बिना मुड़े बोला — “हम दोनों एक ही मां के बेटे है वीर, तूने लिखी... और मैंने मां को पढ़कर सुना दी। एक ही तो बात है, हाहाहा।”

वीर पास आया, दोनों भाई एक-दूसरे की आंखों में देखकर हल्के से सिर हिलाते हैं। और फिर अपनी मां की कब्र के आगे एक दूसरे के गले से लिपट जाते हैं।

तभी वीर ने कब्र के पास बैठते हुए कहा — “इस घर की असली लड़ाई मां को इंसाफ दिलाने की ही थी गजेन्द्र, जो अब खत्म हुई। चल घर चलते है रिया भी तुझे पापा के साथ कब से ढूंढ रही है…चल घर चल।”

गजेन्द्र की आंखों की चमक बदल गई। वो उठा और मुस्कुराता हुए बोला — "रिया अब अकेली नहीं है भाई। घर में कितने सारे लोग है, और मैं तो बस मां से दो घड़ी बात करने आया था। 

वीर धीरे से बोला — “अच्छा, अच्छा ठीक है... पर चल अब घर चल। और हम दोनों अब मां के नाम और सपने को अच्छे से समझ चुके हैं। तो तू मां को यहां सुकून से सोने दें।”

इतना कह वीर और गजेन्द्र दोनों भाइयों ने एक-दूसरे का हाथ थामा और वापस राजघराना महल की ओर चल पड़े। दोनों जुड़वा भाइयों के चेहरे पर सुकून और खुशी लहलहाती दिख रही थी। दूसरी ओर मौसम भी बड़ा सुहाना था। गगन में हल्का गरजन हो रहा था, यानि बारिश होने वाली थी।

दोनों भाइयों ने जैसे ही बादलों का गरजना सुना, एक-दूसरे की तरफ देखा और बोलें— एक-दूसरे से अलग होकर जो खूबसूरत बचपन एक साथ नहीं बिता पाये, क्यों उन पलों को याद करें। चलों दोनों इस झमझमाती बारिश में झूमते है, गातें है, नाचते है भाई...।

इसके बाद दोनों भाइयों ने एक-दूसरे का हाथ थामा और दो 10-12 साल के लड़कों की तरह बारिश के पानी में नहाने-छपाके मारने लगे। दोनों ने करीब 5 से 6 घंटों तक बारिश में मस्ती की और फिर राजघराना महल पहुंचे। जहां उनकी और उनके कीचड़ में सने कपड़ों की हालत देख रिया ने चिल्लाकर कहा— "अभी घर साफ़ किया था, ये क्या हालत बना रखी है...सब कुछ कीचड़ में कर दिया। चलो जाओ कमरे में, बहुत देर हो चुकी है। "

सुबह की पहली किरण जब महल की खिड़कियों पर पड़ी, तो लगा जैसे हर एक ईंट चमक रही हो। शादी की थकान अब बच्चों की किलकारियों में खो चुकी थी।

आज गांव में एक छोटा सा उत्सव कार्यक्रम था, जिसका नाम था- “बाल घुड़दौड़ मेला”। इस कार्यक्रम में कोई प्रतियोगिता नहीं थी, कोई इनाम नहीं, बस बच्चों की खुशी और परंपरा की एक मीठी याद बनाने के लिए एक खास तरह का सेलिब्रेशन रखा गया था।

ये कार्यक्रम महल के पुराने अस्तबल में रखा गया था, इसलिए आज वहां चहल-पहल बहुत ज्यादा थी। बच्चों को छोटे-छोटे सेफ्टी सूट्स पहनाये जा रहे थे, इसके बाद उन्हें घोड़े पर भी बैठाया गया।

रेनू ने खुद कुछ लड़कियों को सजाया, और रिया उनके माथे पर टीका लगा रही थी। वहीं दूसरी ओर मैदान के बाई तरफ, एक सजे-धजे भूरे रंग के घोड़े के पास गजेन्द्र खड़ा था। सफेद कुर्ते के ऊपर हल्का आसमानी जैकेट, माथे पर बंधा रेशमी साफा और चेहरे पर वो एक प्यारी सी शांत मुस्कान, जैसी वो हमेशा घुड़सवारी के दौरान चेहरे पर रखता था। घुड़सवारी उसके शरीर के हर अंग को खिला देती थी। बचपन से उस हादसे तक उसने अपनी हर रेस में पहली ट्राफी जीती थी। वहीं आज एक बार फिर गजेन्द्र को उसके पुराने अवतार में देख उसके पिता मुक्तेश्नर भी लगातार मुस्करा रहे थे।

गजेन्द्र आज चार साल बाद अपने घोड़े की अभी लगाम कस ही रहा था कि पीछे से एक बूढ़ा हाथ उसके कंधे पर आकर टिका — “लगाम कसनी आ गई तुझे, लेकिन दिल संभालना अभी भी सीखना बाकी है।”

गजेन्द्र ने मुड़कर देखा तो उसके पिता मुक्तेश्वर खड़े थे, जो बस उसे छेड़ रहे थे। उनकी आंखों में नमी थी... लेकिन मुस्कान की खिलखिलाट में वो छिप रही थी। 

ऐसे में उन्होंने बेटे के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा— “जब तू छोटा था, तब मैं तुझे जबरदस्ती घोड़े पर बैठा देता था, और तू रोते-रोते भाग जाता था... अब देख, सब बच्चों को तू ही सिखा रहा है।”

गजेन्द्र हल्के से मुस्कुराया और बोला — “आप आज भी यही कर रहे है पापा...देखिये मुझे घोड़े पर बैठाने ही तो आप यहां आये है। बस अब वो डर नहीं है मेरे अंदर, क्योंकि अब आप पर मेरा भरोसा भगवान से भी ज्यादा है।”

मुक्तेश्वर ने सिर हिलाया। उनके चेहरे पर आज गर्व की वो झलक थी, जो शायद कभी छुपी रह गई थी। दूसरी तरफ सीटी की आवाज के साथ बच्चों की दौड़ शुरू हो चुकी थी — कोई पीछे, कोई आगे... लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। मैदान सिर्फ हंसी से गूंज रहा था। तालियां, सीटी और ढोल की आवाजें सबकी धड़कनों के साथ मिल चुकी थीं।

और तभी, गांव के बुजुर्ग मुखिया ने माइक पर अनाउंस किया — “आज की दौड़ में कोई विजेता नहीं... लेकिन एक आखिरी घुड़सवारी जरूर बाकी है — एक बेटे की जो कभी खुद इसी मिट्टी पर दौड़ना सीखा था... और आज अपने बचपन वो दोहराने जा रहा है।”

माइक पर गूंजती उस आवाज के साथ सबकी निगाहे गजेन्द्र की ओर मुड़ीं। उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी — वो सीधा घोड़े पर चढ़ा, और धीरे-धीरे मैदान में घुसा।

भीड़ में विराज ने रेनू का हाथ पकड़ लिया। दूसरी और रिया ने मुक्तेश्वर की कोहनी पकड़ते हुए कहा — “देखो पापा, कितना शांत और अलग लग रहा है गजेन्द्र आज। चार साल बाद उसे घोड़े पर बैठा देख... मेरा रोम-रोम खिल उठा है। पापा आज देखना गांव की सारी लड़कियां मेरे गजेन्द्र को देख उस पर मर मिटेंगी। हाय... कितना हैंडसम है मेरा पति...।”

अपनी बहू रिया की बातें सुन मुक्तेश्वर खिलखिला कर हंसा... लेकिन थोड़ी ही देर में फिर से उसकी आंखें थोड़ी और भीग गईं। गजेन्द्र को चार सालों बाद घुड़सवारी की रेस में दौड़ता देख, मानों जैसे उसका कोई सपना पूरा हो रहा था।

“आज पहली बार वो दौड़ नहीं रहा... वो उड़ रहा है और आज उसके साथ मेरा मन भी खुशी से दौड़ लगा रहा है।”

घोड़ा अब पूरे मैदान का एक आखिरी चक्कर लगा रहा था। गजेन्द्र की आंखें बंद थीं, हवा उसके चेहरे को छू रही थी, और उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी मां उसकी पीठ पर हाथ रखकर कह रही हो — "दौड़ बेटा... क्योंकि तू अब इस जमीन और इस राजघराना महल से डरता नहीं है। मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है।”

आखिरी मोड़ पर घोड़े ने हल्की छलांग ली, और गजेन्द्र ने एक हाथ हवा में उठाकर लोगों को सलाम किया।

भीड़ तालियों से गूंज उठी... और जैसे ही वो मैदान के अंत तक पहुंचा, मुक्तेश्वर आगे बढ़ा... उसने आज फिर से वही किया जो वो बरसों पहले किया करता था — दोनों हाथ हवा में फैलाकर बेटे को गले लगा लिया।

“मुझे माफ कर बेटा... तू कभी नाम के पीछे नहीं भागा, तू तो हमेशा रिश्ते के लिए दौड़ता रहा। तू मेरा बेटा है, मुक्तेश्वर सिंह की औलाद गजेन्द्र सिंह... मुझे तुझ पर गर्व है।”

गजेन्द्र ने सिर उनके कंधे पर रखा और धीमी-धीमी आवाज में बोला — “अब कोई माफ़ी नहीं पापा... अब सिर्फ सफर है। साथ में हम एकसाथ मिलकर इस राजघराना को सजाएंगे भी और इन बच्चों का भविष्य चमकाएंगे भी। अब इस दुनिया में कोई वीर और कोई रेनू अनाथ नहीं होंगें।”

गजेन्द्र रेस उत्सव कार्यक्रम खत्म होने के बाद बच्चों के साथ वापस राजघराना महल के दरवाजे की तरफ आता है, जहां घर के अंदर से भागती हुई रिया मंदिर की पूजा की थाली हाथ में लेते हुए आती है और गजेन्द्र की आरती करती है। ये नजारा बेहद खूबसूरत था। 

राजघराना महल में इन दिनों एक के बाद एक खुशियों की खिलखिलाहट गूंज रही थी। रिया गजेन्द्र की आरती और उसकी नजर उतारने के बाद वापस मंदर में थाली रखने जाती है, जहां उसे एक लाल रंग की चिट्ठी रखी मिलती है। रिया फटाक से उसे उठा कर पढ़ने लगती है— “तुम्हारे होने से किसी का अतीत उजागर होगा... और ये राजघराना महल के ये चारों और रोशन होता नाम... फिर शर्म से झुक जाएगा...हाहाहा।”

चिट्ठी में लिखी बात पढ़ते ही रिया की आंखें चौड़ी हो जाती हैं, वो घबरा जाती है।

 

आखिर किसने लिखी थी ये चिट्ठी? कौन है जो महल की खुशियों में डालने आ रहा है खलल... ? 

कहीं लौट तो नहीं रहा रिया का कोई पुराना अतीत, जो खत्म कर सकता है रिया और गजेन्द्र के रिश्ते को?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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