अपने माता पिता के साथ पहेली बार ट्रेन का सफ़र कर रहा था, 7 साल का आरु।  बेहद एक्ससाइटेड आरु, अपनी मासूम-सी, बड़ी-बड़ी आँखों से पूरा रेलवे स्टेशन देखने की कोशिश कर रहा था। चार पहियों वाले ट्राली बैग उसने पहली बार देखे थे। वह हैरान था और होता भी क्यों नहीं? आख़िर वह मध्य प्रदेश में बसे अपने छोटे से गाँव सीहोर के रेलवे स्टेशन पर पहली बार जो पंहुचा था। माँ गृहणी थी और पिता नमकीन के कारखाने में काम करते थे। पिछले 3 साल से, पैसे जोड़-जोड़ कर, वैष्णो देवी जाने का प्लान बनाया था।   रेल गाड़ी के प्लेटफार्म पर लगते ही, तीनों, स्लीपर क्लास में सीट पकड़ के बैठ गए। आरु बहुत खुश था और लगातार अपनी उत्सुक आवाज़ में अपने माता पिता से सवाल पूछे जा रहा था-

आरु-माँ, क्या ये सब हमारे साथ ट्रेन में सफ़र करेंगे? क्या ये भी वही जाएंगे जहाँ हम जा रहे हैं? पापा, हम कब तक पहुँच जाएंगे?

उसके माता पिता ने, बड़े ही इत्मीनान से, उसके सारे सवालों का जवाब दिया। अब ट्रेन ने अपनी आखरी सिटी मारी, जिसे सुनते ही आरु के पास एक काला कुत्ता आकार ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा।  ये पहली बार नहीं था कि आरु के पास कोई जानवर आया हो।  जब भी उसके साथ कोई अनहोनी होने वाली होती थी, तो अक्सर उसके पास जानवर चेतावनी देने आ जाया करते थे। शायद ये भी किसी प्रकार की चेतावनी थी। बोगी में बैठे बाक़ी पैसेनजेरों ने उस काले कुत्ते को बहार भगाया और फिर ट्रेन चल पड़ी। आरु, कभी ट्रेन में मिलने वाली भेल खाता, तो कभी पापा से पॉपकॉर्न खाने की ज़िद्द करता।  शाम को उसकी माँ ने, घर से पैक की हुई पूरी और अचार खिलाकर, आरु को सुलाया दिया।  

रात के, तक़रीबन, 3 से 4 बजे के बीच, आरु की नींद खुली। उसकी आँखों पर एक झिलमिलाती रोशनी पड़ रही थी। उसने अपने ऊपर से, माँ का हाथ हटाया और रुकी हुई ट्रेन से उतर गया। ट्रेन से उतरते ही, उसको एक खाने का स्टॉल दिखा, जहाँ तरह-तरह के नमकीन और चिप्स, अलग-अलग रंगो के पैकेट्स में पैक थे। वह स्टॉल और पैकेट्स देखने में इतना मशग़ूल था कि कब स्टेशन से ट्रेन चल पड़ी, उसे पता ही नहीं चला! आरु रोता हुआ ट्रेन के पीछे चिल्लाते हुए भागने लगा-माँ! पापा! मुझे छोड़ के मत जाओ। उसके नन्हें पैर, ट्रेन की बढ़ती रफ़्तार को कॉम्पिटिशन नहीं दे पाए। कुछ ही मिनटों में, ट्रेन रात के अँधेरे में ओझल हो गयी। आरु, प्लेटफॉर्म के एक अँधेरे कोने में खड़ा, सुबक-सुबक कर रो रहा था कि तभी एक 45 साल का आदमी, जिसका नाम राजन था, उसके पास आया। आरु जिस स्टेशन पर छूट गया था, वह था दिल्ली। राजन ने बड़े ही प्यार से आरु से पूछा-

राजन–अरे बच्चे, रो क्यों रहे हो?

आरु-मेरी ट्रेन छूट गई..., मुझे मेरी माँ और पापा के पास जाना है।  

राजन–परेशान मत हो बच्चे, मैं तेरी मदद करूंगा। चल, आ मेरे साथ।

आरु-आप मुझे, मेरे माँ और पापा के पास ले चलोगे?  

राजन–हाँ! हाँ! मैं तुझे अपनी गाड़ी में तेरे घर ले जाऊंगा। चल, आजा मेरे साथ।

राजन ने आरु की ओर, मदद का हाथ तो बढ़ाया था, पर ज़रूरी नहीं कि जो हाथ मदद के नाम पर बड़े, वह मदद के लिए ही हो। अब आरु के सामने दुनिया का जो क्रूर पहलू आने वाला था, उससे उसकी ज़िंदगी बदलने वाली थी।  आरु, राजन की बातों में आ गया और उसके साथ चलने को तैयार हो गया। राजन ने आरु को भर पेट खाना खिलाया और उसके बाद उसे एक ऐसे कमरे में ले गया, जहाँ आरु जैसे कई और भी बच्चे थे।  

बच्चों के मायूस चेहरे बता रहे थे कि समय ने उनकी ज़िंदगियों को बहुत घाव दिए हैं। प्यार से बात करने वाले राजन के तेवर, अचानक बदल गए। उसने आरु को कमरे में धक्का देते हुए गुस्से से कहा,

राजन– चल अंदर जा। चुप-चाप सो जा। कल भीख मांगने जाना है।

आरु-भीख? अंकल आप तो मुझे, मेरे माँ और पापा के पास लेकर जाने वाले थे?

राजन– ये देख! ये सब अपने माँ-बाप के पास ही जाना चाहते थे, पर अब, मेरे लिए काम करते हैं। अगर तू ज़्यादा चिल्लाया तो माँ-बाप की जगह, तुझे भगवान के पास पहुँचा दूंगा! चुप-चाप सो जा और कल से काम पर लग जा।  और हाँ, भागने की सोचना भी मत! मेरी गैंग के आदमी हर तरफ़ हैं, समझा।

समय बहुत बलवान होता है। जब ये करवट लेता है, तो ज़िन्दगी की खुशियों का पहिया थम जाता है। आज आरु की खुशियाँ भी कहीं गुम हो चुकीं थीं।  जो कभी माँ के आंचल में सोता था, वह आज अकेला, इन बेबस बच्चों की भीड़ का हिस्सा था। सब बच्चे सो चुके थे। पर आरु, सिसकियाँ लेता हुआ अपनी माँ को याद कर रहा था।

एक टूटी हुई खिड़की से, बाहर सड़क पर लगी लाइट कि हलकी-सी रोशनी कमरे में आ रही थी। सीलन और पपड़ियों से भरी ये दीवारें, आरु जैसे कई बच्चों पर हो रहे अत्याचारों की गवाही दे रही थी। पर इन चार दीवारों के बीच में अब एक ऐसा बच्चा आ चुका था, जो बाक़ी बच्चों की तरह, डर के क़ैद नहीं रहने वाला था। सुबह होते ही राजन, आरु को दिल्ली की ट्रैफ़िक से भरी सड़कों पर भीख मंगवाने के लिए ले गया। आधा दिन उसका लाल बत्ती पर खड़ी कारों के शीशे खट-खटा कर भीख़ मांगने में निकला।  7 साल के आरु को अभी इन सब चीजों की आदत नहीं थी।  वो थक के एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसके साथ था उसका नया दोस्त, शेरू। तभी वहाँ राजन आ जाता है-

राजन–ओये, पेड़ के नीचे क्या कर रहा है? चल, जा! बत्ती लाल हो गई है, पैसे मांग!

राजन ने बेरहमी से आरु को बालों से पकड़ कर, भीख मांगने के लिए, सिग्नल कि ओर धकेल। आरु अपने आंसू पोंछते हुए, फिर से  भीख मांगने चला गया। उसके साथ बैठा शेरू भी पीछे-पीछे पूंछ हिलाते हुए, चल दिया।  

जिन कोमल हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं,  उन हाथों में कटोरा लिए आरु, लोगों की दया पर अपना जीवन चला रहा था।

हर रात वह काम के बाद फिर सुनसान सड़क के पास बने टूटे से कमरे में जाता और सब बच्चों के बीच अपनी जगह बनाकर सो जाता। उस कमरे में इतनी जगह भी नहीं थी कि कोई करवट ले सके।  राजन के अत्याचार से कई बार तो आरु को रात में रोटी की जगह मार खाकर सोना पड़ता था। पर कुछ तो अलग था इस बच्चे में-इसका मन हार मानने को तैयार ही नहीं था। आरु अक्सर यहाँ से भागने का प्लान बनाता। वह बस सही मौके की तलाश में था। यही कारण है कि वह आज भी चैन से सो नहीं पा रहा था। तभी एक बच्चे ने उससे कहा, "आरु पूरा दिन भीख मांगते-मांगते तू थका नहीं है क्या? देख सब सो गए, बस तू ही जाग रहा है?"

आरु-नहीं मुझे नींद नहीं आ रही और मैं बिलकुल नहीं थका हूँ, तू सो जा।

ये कहकर आरु, उस छोटे से टूटे फूटे कमरे से बहार निकला और दूर जाकर, सुनसान सड़क के किनारे बैठ गया। अपने माँ-पापा को याद करते हुए जैसे ही उसकी आँखों में आंसू आये, उसी समय कुछ जानवर और पक्षी उसके पास आ गए।  ऐसा लग रहा था मानों सब आरु को कह रहें हो कि वह अकेला नहीं है।  आरु इन्हें देख कर हैरान नहीं हुआ क्योंकि ये घटना उसके साथ कई बार हो चुकी थी।  जब उसकी मासूम आखें, नींद से भारी होने लगे, तब आरु कमरे में वापस आ गया और बाक़ी बच्चों के बीच, अपने लिए एक छोटी-सी जगह बनाकर, सो गया।  

राजन–ओये! चलो उठो, दिन चढ़ गया है। अभी तक सो रहे हो! जल्दी निकलो सबके सब!

रोज़ सुबह, बच्चों का दिन, राजन कि डरावनी आवाज़ से शुरू होती थी। पिछली रात को आरु देर से सोया था। इसलिए जब राजन के चिल्लाने पर सब उठ गए, आरु तब भी सोता रहा। राजन ने आरु को ज़ोर से चांटा लगाते हुए कहा,

राजन–अबे तू बड़ा महाराज बना लेटा है...... चल उठ! निकल बहार!   

राजन का थप्पड़ इतना ज़ोरदार था कि आरु का कान सुन्न पड़ गया था। डर के मारे, आँखों में आंसू लिए, आरु बस ये अंदाज़ा लगा पाया कि राजन ज़रूर उसे बहार निकलने को कह रहा है।  जिन गालों को कभी माँ बाप बड़े ही प्यार से सहलाते थे, आज इन पर राजन के अत्याचार के निशान छप गए थे।  

जिस आरु को उसकी माँ अपने हाथों से खाना खिलाती थी, अब उसका नाश्ता लोगों की दया पर निर्भर करता था। वह रोज़ खाने का सामान बेचने वाली दुकानों पर अपनी क़िस्मत आज़माता और किसी ना किसी की दया से उसका नाश्ता हो जाता।   भर पेट खाना तो बस अब सपनों में ही होता था, पर आरु को विश्वास था कि एक दिन, वह राजन और उसके गुंडों के चंगुल से बाहर ज़रूर निकलेगा।  

दिनभर की भीख मांगी हुई कमाई राजन को देने के बाद, सब बच्चे जैसे-तैसे सो जाया करते थे। तब मन में बेचैनी लिए, आरु, देर रात अपने कमरे से बहार निकलकर सुनसान सड़क के किनारे बैठ जाया करता था। एक रात, सड़क पर लगीं लाइटस कुछ इस तरह टिमटिमाईं, जैसे वह आरु को कोई रास्ता बता रहीं हों। ये आने वाले चमत्कार का संकेत था। उसे एक बुढ़िया दिखी जिसके हाथों में एक घुंघरू बंधी लाठी थी, जो फुसफुसाते हुए कह रही थी-"पुराने पेड़ की खोल में जब पड़ेगा काला साया, तब खुलेगा एक नया दरवाज़ा"।

आरु ने अपने शरीर में एक सकारात्मक ऊर्जा महसूस की और एक गहरी सांस लेते हुए राजन की क़ैद से  भागने का मन बनाया।  अपने नन्हें क़दमों से जितना तेज़ दौड़ सकता था, आरु दौड़ा। पर उसके क़दमों से ज़्यादा तेज़ उसकी खराब क़िस्मत थी। रात में, बाइक पर आवारा गर्दी कर रहे राजन के कुछ गुंडे, आरु को देख लेते हैं। वह आरु को पकड़ कर सीधा उसी टूटे हुए कमरे में ले जाते हैं और वहाँ से राजन को कॉल लगा कर सारी बात बताते है।  

राजन–अरे यार! इस लड़के ने बहुत परेशान करके रखा हुआ है। अभी बताता हूँ इसे ......

फोन पर राजन की गुस्से भरी आवाज़ सभी बच्चों ने सुनी। डर के मारे, उन सबकी नींद गायब हो चुकी थी। पर सिर्फ़ एक आरु ही था, जो डरा नहीं। वह कहते हैं ना "किसी को इतना मत डराओ कि उसका डर ही ख़त्म हो जाए"। आरु का बेखौफ़ चेहरा देखकर राजन के गुंडे भी हैरान थे!

राजन–कहाँ है वो?

राजन ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा और उसके गुंडों ने आरु की ओर इशारा किया। राजन ने अपने दिन का सारा गुस्सा आरु पर उतारना शुरू कर दिया। आरु की आँखें आज आंसुओं से नहीं बल्कि गुस्से से लाल थी।  राजन की मार खाने के बाद भी आरु के चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान थी, जिसे देख कर राजन भी हैरान था।  

राजन–इतनी मार खा चुका है, फिर भी कोई असर नहीं हो रहा तुझपे?  

अपना आपा खो चुके राजन को उसके गुंडों ने रोकते हुए कहा, "अरे उस्ताद, इतनी पिटाई मत करो कि कल को भीख मांगने ना जा सके।" ये बात सुनते ही राजन शांत हो गया। वह कहते हैं ना "पैसे की भूख में अँधा हुआ इंसान कुछ भी कर सकता है।" राजन भी उन्हीं इंसानों में से एक था, जिसके जीवन में दया शब्द था ही नहीं। वह किसी का दर्द नहीं समझता। वह समझता था तो बस पैसों की भाषा।  

राजन–ठीक है। आज इसे छोड़ रहा हूँ, पर इसे सज़ा तो ज़रूर मिलेगी।

राजन ने आरु को ऐसी सज़ा सुनाई,  जिसे सुनकर उस कमरे के सभी बच्चों की नसों में मानो खून की जगह डर दौड़ने लगा  

क्या आरु, राजन की इस सज़ा से बच के भागने में कामयाब हो पायेगा?  

क्या वह उस पहेली को सुलझा पायेगा जो बुढ़िया बड़बड़ा रही थी-"पुराने पेड़ कि खोल में जब पड़ेगा काला साया, तो खुलेगा एक नया दरवाज़ा" ?  

यह जाने अगले चैप्टर में।

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