एक सुनसान से स्टेशन पर खड़ी ट्रेन के एक डिब्बे के गेट पर एक लड़का खड़ा है। उसके हाथ में एक माइक और छोटा सा स्पीकर है। वो बोलना शुरू करता है ‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें, गाड़ी संख्या 19 मौजूदा स्टेशन से चल कर अनंतकाल तक इसी स्टेशन के चक्कर काटने जा रही है। यात्रियों से अनुरोध है, इस गाड़ी में कोई ना चढ़े। जो भी यात्री इस गाड़ी में सवार हैं वो मुझे अकेला छोड़ यहीं उतर जाएं।” जिसके बाद उस गाड़ी में सवार कुछ लोग एक एक कर के उतरने लगते हैं। ट्रेन ख़ाली हो गई। लड़का बार बार यही घोषणा करता रहा। फिर ट्रेन चलने लगी और एक लड़की ने ट्रेन पर चढ़ने के लिए लड़के की तरफ़ हाथ बढ़ाया लेकिन लड़के ने अपना हाथ खींच लिया। 

वो ट्रेन उसी स्टेशन के गोल चक्कर लगाती रही। लड़का देखता रहा बाक़ी यात्री वहीं खड़े थे लेकिन हर चक्कर के साथ एक एक यात्री स्टेशन से कम होता गया। सबसे पहले उस लड़की ने स्टेशन छोड़ा, फिर बाक़ी भी चले गए। अब उस स्टेशन पर सिर्फ़ वो ट्रेन थी और वो बच्चा। बच्चा बिना रुके बार बार यही दोहराता रहा, यात्रीगण कृपया ध्यान दें। ट्रेन एक के बाद एक चक्कर लगाती रही और लड़का दोहराता रहा, यात्रीगण कृपया ध्यान दें। 

हमेशा की तरह यही दोहराते हुए मनोज देसाई की नींद खुली। पंखे की तेज़ हवा और गुनगुने से मौसम में भी मनोज पसीने से भीगे हुए थे। आंख खुली तो ना ट्रेन थी, ना स्टेशन, ना कोई यात्री और ना ट्रेन के इंजन का शोर, थी तो बस अलार्म की आवाज़, एक कमरा जिसमें मतलब भर की चीज़ों के अलावा और कुछ भी नहीं था। खूँटी पर लटकी प्रेस की हुई पेंट शर्ट मनोज को आवाज़ दे रही थीं। यही ड्रेस तो उसकी सच्ची साथी थी। 60 साल के इस जीवन में 41 साल इसी ड्रेस के साथ तो कटे थे। 

पसीने से भीगा हुआ 60 साल का ये शख्स जो इस समय खूँटी से लटकी अपनी ड्रेस को घूरे जा रहा था, उसका नाम है मनोज देसाई। आमतौर पर एक इंसान की पहचान उसके चेहरे से होती है। लोग नाम भूल जाते हैं मगर चेहरे याद रहते हैं। मनोज वो शख्स हैं जिनका चेहरा नहीं उनकी आवाज़ उनकी पहचान है। सही मायनों में मनोज एक आवाज़ का नाम ही है। वो आवाज़ जिसे हजारों लोग हर दिन सुनते हैं, उस आवाज़ के कहे मुताबिक़ चलते हैं। एक तरह से वो उस आवाज़ के ग़ुलाम हैं। वो आवाज़ जिस यात्री को जिस ट्रेन में चढ़ने के लिए कहती है वो यात्री उसी ट्रेन के पीछे भागता है लेकिन यही आवाज़ जब चेहरा बन कर भीड़ के सामने आती है तो वो चेहरा उसी भीड़ में कहीं खो जाता है। कोई उसे पहचान नहीं पाता। 

मनोज की पूरी ज़िंदगी इसी आवाज़ के पीछे छुपे हुए बीत गई, ये आवाज़ आगे बढ़ती रही बाक़ी सब पीछे छूट गया लेकिन मनोज को इसका भी अफ़सोस नहीं। उसके लिए ये सिर्फ़ एक आवाज़ नहीं बल्कि उसकी साधना है। जैसे एक साधक अपनी साधना के लिए अपनी हर प्यारी चीज़ छोड़ कर भी दुखी नहीं होता वैसे ही मनोज भी अपनी इस आवाज़ से कभी दुखी नहीं हुआ लेकिन क्या हो जब एक साधक से उसकी साधना करने का हक ही छीन लिया जाये? उसे कहा जाये कि अब तुम साधना नहीं कर सकते। क्या होगा उस साधक का? उसने तो अपनी साधना के लिए अपना सबकुछ त्याग दिया। अब वो बिना साधना के क्या कर सकता है, उसे तो बस यही आता है। 

रेलवे अनाउंसर के तौर पर मनोज 41 सालों से लोगों को बता रहा था कि उनकी ट्रेन किस प्लेटफॉर्म पर आएगी। कौन सी ट्रेन कहाँ से चल कर आ रही है, अब कहाँ जाएगी। उसके लिए ये काम सबकुछ था, उसे इसके अलावा कुछ आता भी कहां था लेकिन अब उनसे कहा जा रहा था कि वो रिटायर हो रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि रिटायर तो इंसान काम से होता है ना मगर ये तो उनका कर्म बन गया था, अपने कर्म को छोड़ भला वो क्या करेंगे। 

जबसे मनोज ने अपने रिटायरमेंट की खबर सुनी है तबसे उनके लिए एक एक दिन भारी होने लगा है। काम करते हुए वो रोज सोचते हैं कि काश आज शाम ना हो, काश उन्हें ये काम छोड़ कर कभी घर ही ना लौटना पड़े। आते जाते उनके colleagues उन्हें रिटायरमेंट की बधाई देते हैं। हर इंसान तो यही चाहता है ना कि इतने साल काम करने के बाद अब उसे आराम चाहिए लेकिन बधाई देने वालों को क्या पता कि मनोज यहाँ से नहीं जाना चाहते। बधाई के बदले में मुस्कुरा कर हुए थैंक्स कहते हुए उन्हें हर बार लगता है जैसे वो एक पाप कर रहे हों, जैसे उनकी ये मुस्कुराहट उनकी आत्मा के ख़िलाफ़ जा रही हो। 

उनकी डेस्क के बगल में बैठने वाले गुप्ता जी ने आज उन्हें बताया कि कल गंगा एक्सप्रेस के 41 साल पूरे होने वाले हैं। उन्होंने याद करते हुए कहा कि जब मनोज ने ऑफ़िस ज्वाइन किया था उससे एक महीना पहले ही तो ये ट्रेन शुरू हुई थी। मनोज को एक झटका सा लगा। उन्होंने इस काम में अपनी ज़िंदगी के इतने साल लगा दिए? उन्हें याद भी नहीं कि इतने सालों में उन्होंने क्या क्या खो दिया। ले दे कर ये काम तो बचा था जिसमें उनका थोड़ा बहुत मन लगता था लेकिन अब ये काम भी छूट रहा है। गंगा सुपरफास्ट के बारे में सोचते हुए वो सोचते हैं कि काश वो भी एक मशीन होते, उनके भी काम के साल नहीं गिने जाते, उन्हें तभी हटाया जाता जब उनकी सांसे रुक जातीं। ऐसी ही बातें सोचते हुए तो उनके दिन बीत रहे थे। मनोज जी तो इस काम में ख़ुद को इतना डुबा चुके थे कि अब उनके बोलने की टोन भी ऐसी ही हो गई है जैसे वो अनाउंसमेंट कर रहे हों। लोग उन्हें अजीब समझते हैं। उनके बारे में तरह तरह की बातें करते हैं। 

उनके साथ काम करने वाले नए लड़के सामने से उन्हें सिर झुका कर सलाम करते हैं लेकिन पीठ पीछे उसकी ज़िंदगी को एक पहेली की तरह खंगालने की कोशिश में लगे रहते हैं। आज जब कैंटीन में मनोज लंच कर रहे थे तो उन्होंने कुछ नए कर्मचारियों को उनके बारे में फुसफुसाते सुन लिया था। एक ने कहा कि वो लोग छुट्टियों के लिए बेताब रहते हैं लेकिन मनोज सर अब हमेशा के लिए छुट्टी पर जा रहे हैं तब भी उनके चेहरे पर कोई ख़ुशी नहीं है। सबका मानना था की उन्हें रिटायरमेंट पर इतना पैसा मिलेगा कि उनकी बची हुई ज़िंदगी ऐश मौज में कट सकती है। 

दूसरे ने कहा लंबी छुट्टी तो दूर की बात है, किसी ने उन्हें आम दिनों में भी छुट्टी लेते नहीं देखा। कहते हैं वो बुखार से तपते हुए भी काम करने आए हैं। दवा खा खा कर उन्होंने काम किया है। तभी उनमें से एक लड़के ने सबसे कहा कि वो लोग छुट्टी लेते हैं मौज मस्ती के लिए, अपने परिवार के लिए, त्योहारों और functions के लिए लेकिन जिसके पास ये सब है ही नहीं वो भला किसके लिए छुट्टी लेगा? उसने आगे कहा कि जिसके पास घर कहने को ईंटों की एक इमारत भर हो वो किसके साथ समय बिताने के लिए छुट्टी लेगा? उनके लिए तो ये रिटायरमेंट ही एक तरह की सज़ा बन रही होगी। 

मनोज ने ये सब सुना था, उन्हें लगा ये लड़के उसके बारे में क्या बकवास कर रहे हैं! उन्हें गुस्सा भी आया लेकिन फिर उनके ही अंदर से आवाज़ आई कि इसमें ग़लत क्या है? उसने ही इस नौकरी को अपना पूरा जीवन समर्पित करने का फैसला किया था ना। आज अगर उसका भी एक परिवार होता तो वो अपने रिटायरमेंट को लेकर इतना दुखी नहीं बल्कि खुश होता। अपनी फैमिली के साथ टाइम बिताने के अलग अलग तरीक़े खोजता, प्लान्स बनाता मगर आज वो दुखी है क्योंकि उसे पता है अपने घर में अकेले पड़े पड़े वो पागल हो जाएगा। 

उसने तो इस काम की दीवानगी में एक आधा दोस्त भी नहीं बनाया जिसके पास जाकर वो बैठ सके। अपने दुख सुख बांट सके। जिस उम्र में उसे दोस्त बनाने चाहिए थे उस उम्र में वो उन लोगों को कोसता था जो काम से छुट्टी लेकर दोस्तों के साथ मस्ती के लिए कहीं घूमने जाते हैं। उन्हें ये सब समय की बर्बादी लगती थी। उन्हें तो अब भी ये अहसास नहीं कि इंसान कमाते ही इसीलिए है कि काम से थोड़ा वक्त निकाल कर वो ज़िंदगी जी सके।

आज का दिन कट गया था, अब महीने से भी कम दिन बच्चे थे उनकी रिटायरमेंट में। शाम को ऑफ़िस से निकलते हुए उनके कदम ऐसे भारी हो रहे थे जैसे शादी की तारीख़ निकालने के बाद किसी लड़की के हो जाते हैं जिसे लगता है कि अब उसे अपने बाबुल का घर छोड़ना पड़ेगा। दुल्हन की तरह ही तो मनोज भी अपने रिटायरमेंट के दिन गिन रहे थे। 

दिमाग़ में इन्हीं बातों को गोल गोल घुमाते हुए मनोज क्वाटर में पहुंच गए थे। ये घर जैसा भी था जितना भी सजा था सब मनोज ने अपने हाथों से किया था। दीवार पर लगी एक एक कील, छोटी सी बालकनी में लगे ये नन्हें पौधे, जिनसे बातें करते हुए कई रात बीत जाया करती थी, ये सब भी तो छूट जाएगा क्योंकि रिटायर होते ही उन्हें ये क्वाटर भी तो ख़ाली करना होगा। ये सब सोचते हुए मनोज बच्चे की तरह फूट फूट कर रो पड़े। 

काफ़ी देर तक रोने के बाद मनोज सोचते हैं कि उनके पास अपने काम के बस 29 दिन ही बाक़ी हैं, इसमें भी कई छुट्टियाँ आयेंगी। वो अपने काम के इन चंद दिनों को ऐसे बंद कमरे में रो कर नहीं बिता सकते। उन्हें हर रोज़ उसी आत्मविश्वास और जोश के साथ ऑफ़िस जाना होगा जिस जोश के साथ उन्होंने इतने साल तक अपना काम किया अगर उन्होंने इन दिनों को सोचते और रोते हुए बिता दिया तो ये उनके लिए ज़िंदगी भर का अफ़सोस बन जाएगा। उन्हें ख़ुद से वादा करना होगा कि उनके आसपास भले ही उनके रिटायरमेंट की कितनी भी बातें होती रहें लेकिन वो उनपर ध्यान नहीं देंगे। उनका ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ काम पर ही होगा। वो इन बचे हुए दिनों में भी उसी जोश से काम करेंगे जिस जोश से उन्होंने इस काम की शुरुआत की थी। 

ख़ुद को इसी तरह हिम्मत देते हुए मनोज अपनी आज की ड्रेस को धोते हैं और नई ड्रेस को प्रेस करते हैं। वो पहले की तरह ही अपने नन्हें प्लांट्स से बातें करते हुए उनमें पानी डाल रहे हैं। बड़े उमंग से वो आज अपने लिए अपना पसंदीदा खाना भी बनाते हैं। खाना खाने के बाद वो सोने के लिए हमेशा की तरह टाइम से ही बिस्तर पर चले जाते हैं। काफ़ी देर तक पंखे को निहारने के बाद जा कर उनकी आँख लगती है। वो नींद में खो जाते हैं लेकिन नींद आते ही फिर वही स्टेशन, वही यात्री, वही अनाउंसमेंट और वही बच्चा। हर रोज़ की तरह वही सपना उन्हें सता रहा है। 

क्या मनोज अपनी हिम्मत बनाए रखेंगे? या ये सपना फिर से उन्हें तोड़ देगा?  

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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