इस शहर का नाम कोई नहीं जानता था। क्योंकि ये वो जगह नहीं थी जो मैप में मिल जाए या ट्रेंडिंग लोकेशन हो। यहाँ ना कोई म्यूज़ियम, ना स्मारक और ना ही कोई साइन था। बस कुछ गलियाँ थीं। जिसमें से कुछ सूनी थी तो कुछ भरी हुईं थीं। लेकिन यहां एक ऐसी गली थी जहाँ हर कोई एक बार चुप रहने आता था।

उस गली के कोने में एक पुराना पत्थर रखा था। जो हल्का घिसा हुआ, कुछ उखड़ा-सा लेकिन अपने आप में ठहरा हुआ था।

वहां अक्सर कोई बैठा करता था। आज उस पत्थर पर कोई नहीं था। लेकिन उसके आसपास तीन-चार बच्चे खेल रहे थे, साइकिल घुमा रहे थे और उनकी हँसी गूंज रही थी।

उनमें से एक लड़का जो 11 साल का था। जिसका नाम शायद किसी को ठीक से याद नहीं था पर उस लड़के की आँखों में कोई शोर नहीं था। बस धीरे-धीरे, चुपचाप एक बात चल रही थी।

उसने बाकी बच्चों से हटकर उस पत्थर को देखा और फिर वहाँ जाकर बैठ गया। उसने यह सब बिना वजह, बिना प्लान के किया था। बस जैसे किसी ने अंदर से कहा हो कि “बस यहीं बैठ जा।”

उसने कुछ नहीं कहा। उसने कुछ मांगा नहीं। उसने मोबाइल भी नहीं निकाला। बस चुपचाप अपने दोनों हाथ घुटनों पर रखकर आसमान की तरफ देखा। वो उस वक़्त कुछ सोच नहीं रहा था पर बहुत कुछ महसूस कर रहा था।

पास ही एक बूढ़ी औरत बैठी थी। जो हर शाम वहीं आकर सूई से ऊन बुनती थी। वो उस लड़के को देखती रही और थोड़ी देर बाद उसने पूछा– “बोलोगे कुछ?”

लड़के ने धीरे से सिर हिलाया और कहा– “नहीं, मुझे बस यहाँ रहना है थोड़ी देर।”

वह औरत हल्की मुस्कुराई और उसने ऊन की सिलाई दो फंदे आगे बढ़ाई और कहा– “कभी-कभी कुछ कहने से ज़्यादा बस ‘कहीं होना’ बहुत बड़ी बात होती है।”

लड़का अब धीरे-धीरे पत्थर पर पीछे टिककर बैठ गया। उसकी नज़र अब न सामने, न आसमान में, न खुद के हाथों पर कहीं नहीं थीं। वो तो बस बिना किसी डर, बिना किसी शोर के अपने अंदर झाँक रहा था।

शहर की बाकी गलियों में अब भी हलचल थी। लेकिन इस कोने में एक अजीब-सी शांति थी। जैसे कुछ बहुत गहरा हो रहा हो।तभी एक बच्चा भागता हुआ आया। यह वही बच्चा था जो थोड़ी देर पहले साइकिल घुमा रहा था।

उसने पूछा– “तू यहाँ क्यों बैठा है?”

पहला लड़का चुप रहा फिर थोड़ी देर बाद बोला– “पता नहीं पर अच्छा लग रहा है।”

दूसरे बच्चे ने भी पत्थर के बगल में ज़मीन पर बैठने की जगह बना ली।

दो मिनट तक कोई आवाज़ नहीं आई फिर उस बच्चे ने कहा– “मुझे डर लगता है जब पापा ज़्यादा चुप हो जाते हैं। मैं कुछ नहीं कह पाता हूँ। बस लगता है मेरी ही कुछ गलती है।”

पहला लड़का कुछ नहीं बोला पर उसकी नजरों से साफ़ समझ आ रहा था जैसे कह रहा हों–

“तू अकेला नहीं है।”

अब वहाँ एक पत्थर पर कुल तीन लोग थे– दो बच्चे, एक बुज़ुर्ग और एक औरत।

उसका कोई बड़ा नाम नहीं, कोई आइडेंटिटी नहीं थी। पर जो बना रहा था वो एक नई भाषा थी जहाँ कहना ज़रूरी नहीं था बस मौजूद होना ही काफी था।

शाम और गहरी हुई। बूढ़ी औरत उठी और उसने जाते-जाते पत्थर पर एक काग़ज़ रखा। उस पर लिखा था–

"मैं निया नहीं थी पर कभी-कभी लगा कि मैं किसी की चुप्पी को सुन पा रही हूँ। शायद अब उसकी बोलने की बारी है।”

लड़का उस काग़ज़ को नहीं पढ़ सका। उसने उसे वहीं रहने दिया। यह ऐसे था जैसे हवा का कोई झोका आता है और हम उसे देख कर कुछ महसूस तो करते हैं पर पकड़ते नहीं हैं। धीरे-धीरे पत्थर के चारों ओर लोग बैठने लगे थे। अब उनकी कोई गिनती नहीं थी कोई रजिस्ट्रेशन नहीं था। बस अलग-अलग उम्र, सोच और चेहरे के लोग थे।

हर कोई वहाँ कुछ लेने नहीं बस कुछ छोड़ने आया था। वो लड़का पूरे वक्त वहीं बैठा रहा और अब भी वहीं बैठा था। वो अब भी चुप और स्टेबल था। लेकिन अब वो अकेला नहीं था। तभी किसी ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।

वहां एक 16 साल की लड़की थी। जिसने पूछा– “तू यहाँ हर दिन बैठता है क्या?”

लड़का इतने समय में पहली बार मुस्कराया और बोला– “पता नहीं पर शायद हाँ क्योंकि हर दिन लगता है अब भी कोई और है जिसे बस थोड़ी जगह चाहिए।”

लड़की ने पूछा– “क्या तू कोई खास है?”

लड़का थोड़ा सोचकर बोला– “नहीं, पर शायद मैं वो हूँ जो किसी और की ‘खास’ बात को चुपचाप देख सकता है।”

अब रात हो चुकी थी। लोग धीरे-धीरे उठकर अपने घर जाने लगे थे। बच्चे फिर खेल में लग गए थे। वो बूढ़ी औरत भी जा चुकी थी। वह काग़ज़ अब भी पत्थर पर पड़ा था। लेकिन वो लड़का अब भी वहीं बैठा था। अब उसने धीरे-से अपने हाथ जोड़ लिए किसी प्रार्थना के लिए नहीं बल्कि किसी को जगह देने के लिए।

उसने पत्थर पर एक चाकू से छोटी-सी लाइन खींची और बस एक बात लिखी– “मैं आख़िरी सुनने वाला नहीं हूँ। मैं बस वो पहला हूँ जिसने दोबारा बैठना शुरू किया है।”

अगली सुबह, सूरज हल्का-सा चढ़ रहा था। गली में अब पहले से थोड़ा ज़्यादा लोग थे। कुछ जान-बूझकर आए थे और कुछ यूँ ही निकलते हुए ठहर गए थे पर सबका मकसद एक जैसा नहीं था।

कुछ सिर्फ़ देखने आए थे कि ये पत्थर है क्या है। कुछ इसलिए कि कल किसी ने बताया था कि "वहाँ कुछ अलग सा हो रहा है।" पर जब वो पास पहुँचे तो वहाँ कोई कार्यक्रम नहीं, कोई होर्डिंग नहीं, कोई 'स्पीकर' नहीं था। बस वो लड़का अब भी चुपचाप बैठा हुआ था। तभी वहां एक औरत आई जिसकी उम्र तीस के आस-पास की रही होगी। उसके हाथ में सब्ज़ियों से भरा झोला था। वो वहां रुकी, पत्थर के पास ज़मीन पर बैठी और लड़के से कुछ नहीं पूछा बस खुद से बोली–

“कल मैंने अपनी बेटी से तेज़ आवाज़ में बात की थी। उसकी आँखें कुछ कह रही थीं पर मैं सुन नहीं पाई शायद आज मैं खुद को थोड़ा सुन लूँ।”

एक लड़का आया जो पहली बार स्कूल से भागा था। वो बोला– “मुझे मैथ्स नहीं समझा आ रहा था और मैं सबके सामने रो दिया था। अब टीचर ने कहा है कि मैं कमजोर हूँ। मुझे लगता है कि मैं रोया इसलिए क्योंकि कोई मुझे देख नहीं रहा था। मुझे बस वो नंबर देख रहे थे।”

एक छोटा बच्चा, जो बोल नहीं पाता था वो अपनी स्लेट लेकर आया। उसने बस एक स्माइली बनाया और पत्थर के पास रख दिया। किसी ने कुछ पूछा नहीं और किसी ने समझाने की कोशिश भी नहीं की थी। बस उसकी तरफ देखा और सर हिला दिया जैसे कहना हो–

“ये भी काफी है।”

धीरे-धीरे लोग पत्थर के चारों ओर बैठने लगे। उसमें से किसी ने कहा– “क्या हम सब बैठ सकते हैं?”

लड़के ने सिर हिलाया– "हाँ, पर यहाँ बोलना ज़रूरी नहीं है सुनना भी ज़रूरी नहीं है। यहाँ बस होना ही काफी है।”

फिर वहां पर किसी ने एक पुराना गिटार लाकर पत्थर के पास रखा और कहा– "मैं नहीं गाऊँगा लेकिन कोई चाहे तो गा सकता है।”

अब एक बूढ़ा आदमी बोला– “मैंने कुछ साल पहले निया की कहानी सुनी थी। मुझे ठीक से तो याद नहीं कि कहानी क्या थी पर इतना समझ आया था कि अगर कोई तुम्हें बिना रोके सुन ले तो तुम्हारे अंदर कुछ हल्का हो जाता है।”

शहर में पहली बार लोगों ने देखा कि यहां कुर्सियाँ नहीं हैं पर किसी को खड़े नहीं रहना पड़ता है। कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन कोई हड़बड़ी भी नहीं है।

कोई नाम नहीं पुकारा जा रहा है पर सब महसूस कर रहे हैं कि शायद आज उन्हें अपनी जगह मिल गई है। लड़के ने कोई डायरी नहीं खोली। वॉल पर कोई कोट नहीं लिखा।

बस पत्थर के नीचे कल वाली लाइन फिर से देखी–

"मैं आख़िरी सुनने वाला नहीं हूँ। मैं बस वो पहला हूँ जिसने दोबारा बैठना शुरू किया है।”

फिर वो पहली बार उठा और सबने उसकी ओर देखा, पर वो कुछ कहने नहीं उठा था। उसने बस एक बच्ची की तरफ इशारा किया जो चुपचाप दूर से यह सब देख रही थी।

उसे देखकर लड़का मुस्कराया और बोला– “अब तुम बैठोगी?”

बच्ची डरते-डरते आगे बढ़ी और उस पत्थर की ओर देखने लगी। उसने बैठने से पहले पूछा– “अगर मैं कुछ नहीं कह पाई तो?”

लड़के ने कहा– “तो वो भी ठीक है क्योंकि यहाँ कोई तुम्हें पूरा करने नहीं बैठा है। यहाँ सब खुद भी अधूरे हैं।”

यह सुनकर बच्ची वहां बैठ गई। उसके बाद फिर कोई और बैठा, फिर कोई और बैठा। किसी ने भी यह सब कहीं लिखा नहीं, रिकॉर्ड नहीं किया था। यहां किसी ने किसी की बात को काटा भी नहीं। यहां बस एक गोल घेरा बनने लगा था। जहाँ कोई खुद को छोटा नहीं समझ रहा था और ना ही किसी को बड़ा बना रहा था।

यह सब होता देखकर शहर के लोग कहने लगे– “ये गली अब अलग है।”

किसी ने इसका नाम नहीं रखा था। पर धीरे-धीरे लोग कहने लगे थे कि– "चलो उस पत्थर के पास चलते हैं जहाँ कोई कुछ कहे या न कहे पर वहाँ से कुछ लेके ज़रूर लौटता है।”

अब शाम के पाँच बज रहे थे। धूप भी हल्की हो चुकी थी और “वो पत्थर” हल्की गरमी छोड़ रहा था। गली में अब रोज़ की तरह कुछ लोग थे। जिसमें से कुछ अपने आप आए, कुछ किसी से सुनकर और कुछ बस चलते-चलते रुक गए थे। बच्चे अब जानने लगे थे कि इस जगह पर शोर नहीं होता है पर फिर भी कोई खाली नहीं लौटता है। वो लड़का जो अब वहाँ रोज़ बैठने लगा था वो आज थोड़ा दूर खड़ा था। वो अब भी वही था। वही आँखें, वही शांत चेहरा, वही “मैं कुछ नहीं बनना चाहता” वाली स्टेबिलिटी लेकिन आज वो बैठा नहीं वो बस देख रहा था कि अब उस पत्थर पर कोई और बैठा है। जो आज उस पत्थर पर बैठा था वो एक 10 साल की लड़की थी। जो दो दिन पहले वहां पहली बार आई थी। उसने पहली बार वहाँ आकर कुछ नहीं कहा था। पर आज वो वहां बैठी थी और उसके पास एक छोटा सा काग़ज़ था। उसने धीरे से उसे पत्थर के नीचे रख दिया। किसी ने उससे पूछा नहीं कि क्या लिखा था। किसी ने वो कागज़ माँगा भी नहीं था। लेकिन सब जानते थे कि वो भी अब उस परंपरा का हिस्सा बन गई थी जो किसी का नाम या चेहरा नहीं माँगती थी।

लड़का अब थोड़ा और पीछे हो गया। वो अब गली के बिल्कुल आख़िरी कोने में खड़ा था। वहाँ से सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा था। तभी उसे एहसास हुआ कि– “अब वहाँ मेरी ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब वो जगह ख़ुद लोगों की बन चुकी है।”

किसी ने उसे देखा नहीं, कोई तालियाँ नहीं बजीं थीं। उस पर कोई “फाउंडिंग लिसनर” का टैग नहीं लगा था। वो तो एक आम इंसान था जिसने बस किसी दिन चुपचाप बैठना शुरू किया था. अब वो पीछे वाले रास्ते से निकल गया। जहाँ पुराने कपड़े सूख रहे थे। दीवारों पर बच्चों की पेंसिल से बनी पेंटिंग्स थीं। वो रास्ता छोटा था पर उसमें हल्कापन था जैसे कोई बोझ उतर रहा हो।

रास्ते में उसे 6-7 साल का एक लड़का मिला, उसने पूछा– “आप वहाँ क्यों नहीं बैठे?”

लड़का मुस्कराया और बोला– “अब कोई और बैठा है ना।”

बच्चे ने मासूमियत से पूछा– “तो क्या वो आपकी जगह ले रहा है?”

यह सुनकर लड़का रुक गया और फिर धीरे से बोला– “नहीं, वो अपनी जगह बना रहा है और मैं उसे उतनी ही आज़ादी देना चाहता हूँ जितनी कभी मुझे मिली थी।”

यह कहकर वो आगे बढ़ गया। थोड़ी देर बाद, गली के एक पुराने खंभे के पास रुककर उसने अपनी जेब से एक छोटा सा काग़ज़ निकाला और उस पर लिखा– "अगर कभी लगे कि तुम्हारी बात कहीं नहीं पहुँची है तो उस पत्थर के पास बैठ जाना। शायद कोई वहाँ न हो पर फिर भी तुम अकेले नहीं रहोगे।”

यह लिखकर उसने बिना किसी साइन के वो काग़ज़ एक पत्थर से खंभे के नीचे दबा दिया। अब वो शहर से बाहर की ओर जाने लगा। उसके पास अब कोई मकसद नहीं था। उसे कोई नई गली नहीं ढूँढनी थी। बस कहीं भी जाना था लेकिन ऐसी जगह जहाँ कोई शायद पहली बार खुद से कुछ पूछे और खुद ही सुन ले।

उस गली में अब अजनबी लोग भी आने लगे थे। कोई नहीं जानता था कि इसकी शुरुआत किसने की थी। कोई भी वहां उस लड़के का नाम नहीं जानता था। निया का नाम भी अब कहानियों में बहुत कम रह गया था। पर उस पत्थर के पास लोग अब भी बैठते थे, बोलते थे या कभी–कभी नहीं भी बोलते थे।

कभी-कभी तो कोई बस चॉक से कुछ लिख जाता– “मैं यहाँ था।”

कभी कोई गिटार तो कभी कोई कॉफी का कप रख जाता था। कभी कोई डॉक्टर अपना कोट उतारकर वहाँ एक घंटे चुपचाप बैठ जाता था।

कोई बच्चा स्कूल से आकर रोज़ स्लेट लेकर बैठता और बस ‘आज का सवाल’ लिखता– “क्या मुझे बदलना है या मैं जैसा हूँ वो ठीक है?”

इस पूरी दुनिया में जहाँ अब भी आवाज़ों की भीड़ थी, नेटवर्क थे, ट्रेंड्स थे, बहसें थीं। वहीं एक गली ऐसी भी थी जहाँ कोई यह भी नहीं पूछता था कि “तुम कौन हो?” बस वो बैठने की जगह थी जहाँ खुद को सुनने की इजाज़त मिलती थी। और वो लड़का? वो कहीं और चला गया था। शायद किसी पहाड़ी गांव में या किसी नदी किनारे खड़ी बस में बैठा उस बच्चे देख रहा हो, जो बच्चा चुपचाप, बिना सवाल, बिना डर के बाहर देख रहा है। क्योंकि अब उसे पता था कि वो आख़िरी लिसनर नहीं था। वो तो बस एक पहला था। एक नई शुरुआत से ठीक पहले जो होता है वो वहीं था।

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