काफ़ी देर तक दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ होती रही, घर के अंदर संस्कृति बेहोश पड़ी थी। काफ़ी देर बाद उसे होश आया। वह जैसे-तैसे उठकर दरवाज़ा खोलने गई। सामने दशरथ खड़ा था।

दशरथ (घबराते हुए) - तुम्हें क्या हुआ, संस्कृति? यह कैसी हालत बना रखी है?

संस्कृति के बाल बिखरे हुए थे। दरवाज़ा खोलते ही वह दशरथ के सामने गिर पड़ी। वह पहले ही बहुत कमज़ोर हो चुकी थी। दशरथ ने भी संस्कृति पर ध्यान नहीं दिया था और न ही उसने ख़ुद पर। न जाने कितने दिनों से वह सो नहीं पाई थी। अगर यमुना या बाकी बहनें घर पर होतीं, तो शायद यह देख पातीं कि उनकी बहन दिन-रात किसी चिंता में डूबी रहती है। खाना-पीना भी उसने लगभग छोड़ दिया था। दशरथ ने तुरंत ही संस्कृति को संभाला और बरामदे में पड़ी खाट पर लिटा दिया। जल्दी से रसोई से पानी लाया और उसके चेहरे पर छिड़का, लेकिन संस्कृति को होश नहीं आया, दशरथ बहुत घबरा गया। उसे समझ नहीं आया कि क्या करे। दिवाकर ने दशरथ को दरवाज़ा पीटते हुए देखा था, लेकिन अपने किसी काम में बिजी होने के कारण पहले नहीं आया। जैसे ही उसने दशरथ की घबराई हुई आवाज़ सुनी, वह दौड़ता हुआ आ गया। खाट पर संस्कृति को बेहोश पड़ा देखा तो वह भी घबरा गया। उसने तुरंत दशरथ से कहा कि वे उसे अस्पताल ले चलें।

दशरथ (घबराते हुए) - अस्पताल तो दूर है, हमें कोई रिक्शा करना होगा।

दिवाकर ने स्थिति को समझते हुए कहा कि वह अपनी बाइक ले आता है, क्योंकि उसे पता था कि दशरथ के पास इतने पैसे नहीं होंगे कि वह रिक्शा वाले को दे सके। कभी-कभी दिवाकर दूसरों की मदद के लिए खड़ा हो जाता था, भले ही वह अक्सर अपना स्वार्थ पहले देखता था। इस बार वह तुरंत अपनी बाइक ले आया और साथ में मोहल्ले की एक लड़की को भी, जो संस्कृति से काफ़ी छोटी थी।

दिवाकर बाइक चला रहा था और वह छोटी बच्ची बीच में बैठकर संस्कृति को संभाले हुए थी। वे अस्पताल की ओर जा रहे थे। मोहल्ले के कुछ और लोग भी दशरथ के पास आ गए थे और पूरी बात पता चल चुकी थी। उनमें से एक व्यक्ति ने अपनी बाइक निकाली और दशरथ को पीछे बिठा लिया।

दशरथ (मन ही मन, डरते हुए ) - हे भगवान, यह कैसी परीक्षा ले रहे हो? कितनी मुश्किलों से एक-एक करके मेहनत करके सारी परेशानियों को खत्म करने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन तुम हो कि एक के बाद एक दुःख हमारे हिस्से में लिखते जा रहे हो। आख़िर हमने क्या पाप किया है? यह मेरी संस्कृति को क्या हो गया है? जल्दी से उसे ठीक कर दो। अगर भूल से मुझसे कोई ग़लती हुई हो, तो उसकी सज़ा मेरी बेटी को मत दो। उसे माफ़ कर दो, उसे ठीक कर दो। आख़िर वही तो मेरे जीने का सहारा है।

दिवाकर बहुत आराम से बाइक चला रहा था। दशरथ उनसे पहले ही अस्पताल पहुँच चुका था और इलाज़ की पर्ची बनवा ली थी। संस्कृति को तुरंत अस्पताल में भर्ती कर लिया गया और उसका इलाज़ शुरू हो गया। एक-दो घंटे में संस्कृति को होश आया। दशरथ ने डॉक्टर से पूछा...

दशरथ (हैरानी में) - डॉक्टर साहब, क्या हुआ है मेरी बेटी को? वह ठीक तो हो जाएगी ना?

यह सवाल पूछते हुए दशरथ के मन में एक बेचैनी-सी उठने लगी। सालों पहले उसने अपनी पत्नी के बारे में ठीक यही सवाल किया था। डॉक्टर ने उसे डाँटते हुए कहा कि ऐसा लगता है वह कई दिनों से ठीक से खा-पी नहीं रही है, जिसकी वज़ह से वह बेहद कमज़ोर हो गई है। साथ ही, ऐसा भी लगता है कि उसे कई रातों से नींद नहीं आई है और किसी बात की गहरी चिंता उसे परेशान कर रही है। अगर इलाज़ के बाद वह सही से खाना खाएगी और समय पर सोएगी, तो उसकी यह हालत सुधर जाएगी। ध्यान रखना कि उसे किसी भी प्रकार की और चिंता या परेशानी न दी जाए, वरना बाद में संभालना मुश्किल हो जाएगा।

डॉक्टर की बात सुनकर दशरथ को गहरी शर्मिंदगी महसूस हुई। उसने पूरे जीवन मेहनत करके अपनी बेटियों को अच्छी तरह से पाला-पोसा था, लेकिन आज डॉक्टर की बातों से उसे यह जानकर हैरानी हुई कि उसके और संस्कृति एक ही घर में रहते हुए भी उसे यह पता नहीं चला कि उसकी बेटी ठीक से खाना-पीना छोड़ चुकी है और कई रातों से सोई नहीं है।

हालांकि डॉक्टर की बात सुनकर दशरथ को थोड़ी राहत भी मिली कि संस्कृति ठीक हो जाएगी और उसे कोई गंभीर बीमारी नहीं है। दिवाकर ने भी भगवान का धन्यवाद किया। डॉक्टर ने दो हफ़्ते तक चलने वाली कुछ दवाइयां लिखी थीं, जिन्हें ख़रीदकर दशरथ,  दिवाकर और वह छोटी बच्ची संस्कृति को लेकर घर लौट रहे थे।

संस्कृति को जब होश आया तो उसे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। वह अपने पिता से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। वह नहीं चाहती थी कि उसके कारण उसके पिता परेशान हों, लेकिन आज जो हुआ, वह उसके बस में नहीं था। उसे यह भी नहीं पता था कि वह इतनी कमज़ोर हो जाएगी कि बेहोश हो जाएगी।

घर पहुँचकर दशरथ ने संस्कृति को आराम करने के लिए कहा और ख़ुद ही खाना बनाने की तैयारी करने लग गया। बीच-बीच में आकर वह संस्कृति को देख रहा था। डॉक्टर ने दाल या दलिया जैसा हल्का खाना खिलाने की सलाह दी थी, इसलिए वह दलिया बना रहा था।

संस्कृति की हालत अब भी बहुत ख़राब थी। उसने अपने पिता को खाना बनाते हुए देख सोचने लगी।

संस्कृति (मन ही मन) - पापा, मैंने आपको बहुत दुःख दिए हैं। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण आपको और कोई भी तकलीफ़ हो। मैं आपको ऐसी हालत में परेशान नहीं देख सकती। मैं कोई भी वज़ह नहीं बनना चाहती जिससे आप ज़रा-सा भी दुःखी हों। मुझे माफ़ कर दीजिए। मुझे नहीं पता था कि मैं आपको और भी ज़्यादा परेशान कर दूंगी।

संस्कृति की आँखों में देखते-देखते आँसूं आ गए। वह लाख कोशिश कर रही थी, लेकिन चाहने के बावजूद भी उसकी आँखों से आँसूं बह निकले। दशरथ दलिया बना चुके थे। वह दलिया लेकर जैसे ही संस्कृति के पास आए, तो उसे रोते हुए देखा।

दशरथ (समझाते हुए) - अरे! पगली, तू रो क्यों रही है? डॉक्टर साहब ने कहा है कि तुझे कुछ भी नहीं हुआ है। बस ठीक से खाना खाना है और अच्छी तरह सोना है। ये ले, दलिया खा। वैसे भी तेरी माँ कहा करती थी कि दलिया में जादू होता है, अच्छे-अच्छे रोग ठीक कर देता है और तुझे हुआ भी क्या है? बस बाकी सारी चिंता छोड़कर आराम कर, तू।

पिता के समझाने के बावजूद भी संस्कृति के मन में कहीं न कहीं कुछ कचोटता रहा। उसकी बेचैनी कम नहीं हो रही थी। उसे समझ में आ रहा था कि दशरथ उसका मन रखने के लिए अच्छे से बात कर रहे हैं, लेकिन वह जानती थी कि उसके पिता भी अंदर ही अंदर बहुत दुःखी हैं। उसने अपने पिता को कोई जवाब नहीं दिया, बस चुपचाप दलिया खाती रही, लेकिन उसकी आँखों से आँसूं बहते रहे। दशरथ उसकी आँखों के आँसूं पोंछता रहा और मन ही मन सोचता जा रहा था…

दशरथ (मन ही मन, अफ़सोस करते हुए) - मुझे माफ़ कर दे, संस्कृति। मैंने तुम्हारी तीनों बहनों की शादी तुमसे पहले कर दी। मुझे मालूम है, तुम्हारे मन में बहुत से सवाल होंगे कि तुम्हारे बाप ने ऐसा क्यों किया। इस बेचारे बाप को माफ़ कर देना। तुम जानती हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ।  मैंने कुछ सोच-समझकर ही तुम्हारी शादी तुम्हारी बहनों से पहले नहीं की। मुझे माफ़ कर देना।

उस रात दशरथ संस्कृति के पास ही सोया। वह बार-बार उठकर रात में संस्कृति को देखता रहा। अपनी बेटी को इस हालत में देखकर उसका भी मन फूट-फूटकर रोने को हो रहा था, मगर इस समय उसे हिम्मत रखनी थी। इसलिए उसने ख़ुद को मजबूत बनाए रखा।

 

संस्कृति को दवाइयों के कारण उस रात नींद आ गई। अगली सुबह भी थोड़ी थकान भरी थी। दशरथ ने ख़ुद ही सारा खाना बनाया और संस्कृति को आराम करने के लिए कहा। ये उसकी मजबूरी थी कि उसे काम करने के लिए स्टेशन भी जाना था। अगर वह कमाई नहीं करता, तो घर के लिए राशन नहीं ला पाता। वैसे भी, कल अस्पताल में कुछ पैसे ख़र्च हो चुके थे।

दशरथ (समझाते हुए) - देखो, मैंने खाना बना दिया है। तुम समय से खा लेना और बिल्कुल भी किसी बात की चिंता मत करना। अगर तुम्हारा मन नहीं लगे, तो आस-पास घूम लेना या दिवाकर के घर डुग्गू के साथ रह लेना बसा किसी भी बात की चिंता मत करना।

संस्कृति दशरथ की हर बात पर सिर हिलाकर हामी भरती रही। दशरथ के जाने के बाद, संस्कृति बहुत सारे ख़्यालों में खो गई। उसे अपने पिता का चेहरा बार-बार याद आने लगा और वह सोचने लगी कि उसके पिता कितने मजबूर हैं। उसके मन में यह बात भी घर करने लगी कि उसके पिता की मजबूरी का कारण वह ख़ुद है।

पिता के समझाने के बावजूद, संस्कृति की न तो खाने की इच्छा थी और न ही उसे भूख लग रही थी। दवाइयां उसके सामने रखी थीं, लेकिन उसने उन्हें नहीं खाया। वह किचन से थोड़ा पानी लाई और फिर बरामदे में बैठकर न जाने क्या-क्या सोचने लगी।

बिराना मोहल्ले के बहुत से लोग अपने-अपने काम पर जा रहे थे, जिससे बाहर काफ़ी शोर हो रहा था। सड़क से गुज़रती गाड़ियों की आवाज़ भी घर तक पहुँच रही थी। घर के अंदर एक सन्नाटा था, जिसकी गूंज संस्कृति को बेचैन कर रही थी।

बार-बार उसके सामने उसके पिता का मजबूर चेहरा आता रहा। वह फिर से अपनी माँ की फ़ोटो देखने लगी और बुदबुदाने लगी-

संस्कृति (बुदबुदाते हुए) - माँ, देखो ना, मैंने कल पापा की परेशानी और बढ़ा दी। मैं बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि मेरे कारण पापा परेशान हों। मुझे बहुत बेचैनी हो रही है। बहुत डर लग रहा है। मुझे आपके पास आना है। मुझे यहाँ रहकर पापा की परेशानियों को और नहीं बढ़ाना है।

संस्कृति थोड़ी देर चुप रही। उसने गहरी साँस ली और फिर से बुदबुदाना शुरू किया।

संस्कृति (झुंझलाते हुए) - माँ, मुझे मत रोको, मुझे आपके पास आना है। मुझे और परेशानी नहीं बढ़ानी पापा की, मुझे मत रोको।

वह बार-बार मुझे मत रोको मुझे मत रखो ही दोहराती रही। अगले ही पल वह बरामदे में इधर से उधर तेज़ी से चलने लगी। बीच-बीच में रुक कर अपनी माँ से कुछ कहती। डॉक्टर का दिया हुआ दवा उसने नहीं खाया था। किचन में खाना पड़ा हुआ था मगर उसकी तरफ़ उसने ज़रा-सा भी ध्यान नहीं दिया।

अगले ही पल वह पूरे घर में कुछ ढूंढने लगी। फिर से माँ की तस्वीर के सामने आकर उसने वही बात दोहराई

संस्कृति (झुंझलाते हुए) - माँ, मुझे मत रोको मुझे अपने पास आने दो।

क्या संस्कृति अपनी बेचैनियों से अपने हालत से बाहर निकल पाएगी? क्या कोई इस दलदल से निकलने में उसकी मदद कर पायेगा?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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