दशरथ सुबह से स्टेशन पर था, लेकिन अभी तक एक भी पैसेंजर नहीं मिला था। थोड़ी देर पहले पाँच नंबर प्लेटफॉर्म पर एक ट्रेन आई थी, जिसके लिए बाकी कुली उस प्लेटफॉर्म पर गए थे। दशरथ एक नंबर प्लेटफॉर्म पर ही रुका था। दिल्ली से वाराणसी जाने वाली ट्रेन रुकी थी और पैसेंजर्स के पास बहुत सारा सामान था। दशरथ ने उनके पास पहुँचकर सामान उठाते हुए अपनी बात रखी।
दशरथ(उत्साह के साथ) -आपके पास तो बहुत सारा सामान है, मुझ अकेले से तो नहीं होगा। आप कहें तो साथियों को बुला दूं।
वह पैसेंजर बहुत ही हट्टा-कट्टा था, लेकिन उसके पास सामान इतना ज़्यादा था कि वह अकेले एक कुली के सहारे भी सामान को नहीं उठा सकता था। कुछ देर तक वह इधर-उधर ताकता रहा, ऐसा लग रहा था मानों वह किसी का इंतज़ार कर रहा हो।
पैसेंजर(मना करते हुए, प्यार से ) - अरे! नहीं चाचा, आप रहने दीजिए। आप बिल्कुल परेशान मत होइए, हमारे कुछ साथी आते ही होंगे।
दशरथ(अनुरोध करते हुए) - सामान इतना ज़्यादा है, बाकी साथी के साथ हम भी उठा लेंगे। आप मना मत कीजिए, सुबह से बोहनी नहीं हुई है।
वह पैसेंजर अब तक अपने साथियों के आने का इंतज़ार कर रहा था, बार-बार किसी को कॉल भी लगा रहा था।
पैसेंजर (झुंझलाते हुए) - इन सभी को समझ क्यों नहीं आता! पहले से ही बता रखा था कि ट्रेन की टाइमिंग शाम चार बजे की है, उसके बावजूद ये लोग अब तक नहीं पहुँचे और ऊपर से फ़ोन तक नहीं उठा रहे।
कुछ देर तक और फ़ोन पर किसी को कॉल करने की कोशिश करने के बाद, वह पैसेंजर दशरथ की ओर मुड़ा। अपने गुस्से पर काबू करते हुए, उसने मुस्कुराते हुए दशरथ से कहा।
पैसेंजर(मुस्कुराते हुए) - ठीक है चाचा, आप और भी साथियों को बुला लीजिए। लगता है मेरे साथ ही कहीं बिजी हो गए हैं, उन्हें आने में शायद देर लगेगी। आप बुला लीजिए।
दशरथ (ख़ुशी में चिल्लाते हुए) - नरेश, इधर आओ और बाकी साथियों को भी बुला लो।
नरेश अभी-अभी दूसरे प्लेटफ़ॉर्म से आया था और बाकी साथी भी इस प्लेटफ़ॉर्म पर बिज़ी थे। देखते ही देखते तीन और कुली आ गए। एक-एक करके सभी ने सामान को स्टेशन से बाहर ऑटो के पास पहुँचा दिया। पैसेंजर ने सभी को उनके दाम से ज़्यादा पैसे दिए।
दशरथ (हैरानी में) - लेकिन आपने ज़्यादा पैसे दे दिए, यह तो सौ रुपए ज़्यादा हैं।
पैसेंजर ने दशरथ के साथ-साथ बाकी तीन कुलियों को भी सौ रुपए ज़्यादा दिए थे। बाकी कुली पैसे पाकर ख़ुश थे, लेकिन जैसे ही दशरथ ने यह बात कही, सभी उसकी तरफ़ देखने लगे और मन ही मन सोचने लगे, आख़िर इसे किस बात कि परेशानी है? अगर घर में लक्ष्मी आ रही है, तो उसे मना नहीं करते।
पैसेंजर(ख़ुशी से) - आप फिक्र न करें, मुझे मालूम है कि मैंने आप सभी को सौ रुपए ज़्यादा दिए हैं, लेकिन आप उन्हें सौ रुपए ज़्यादा नहीं, मेरी तरफ़ से मेरा प्यार समझें। आज मैं सालों बाद अपने शहर लौटा हूँ। इस शहर का मुझ पर भी तो कोई हक़ बनता है और वही हक़ आप सभी का इस सौ रुपए पर भी है।
काफ़ी समय बाद किसी पैसेंजर ने दशरथ और उनके साथियों को बिना माँगे ही इतने पैसे दिए थे और वह भी इतने प्यार से। उसे याद आया कि इससे पहले आख़िरी बार जब बेटियों की शादी का समय था, तभी एक पैसेंजर जो बहुत सारी लड़कियों के साथ स्टेशन पर आया था, उसने भी इसी तरीके से कुछ पैसे ज़्यादा दिए थे।
दशरथ(ख़ुशी में) -अगर ऐसे ही पैसेंजर हर दिन एक-दो मिल जाएं, तो समझो जीवन सफल हो जाएगा, घर की हालत तो यूं चुटकियों में सुधर जाएगी।
नरेश के साथ बाकी कुली भी दशरथ की बात पर हामी भरते हुए अगली ट्रेन के आने का इंतज़ार करने लगे। साथ ही इसी तरीके के पैसेंजर का भी। मगर सबको यह बात पता थी कि हजारों में कोई एक ऐसा इंसान होता है जो पैसे ज़्यादा देता है, लेकिन उस पैसों में प्यार भी होता है। एक सम्मान भी होता है। ट्रेन के अनाउंसमेंट होते ही सभी दूसरे प्लेटफ़ॉर्म की तरफ़ भाग पड़े।
जब यमुना, नंदिनी और दिव्या घर पर थीं, तब संस्कृति कुछ न कुछ उनके लिए सोचती रहती थी। कभी कुछ कपड़े सिलने होते, कभी कुछ खाने को बनाती थी, लेकिन उन तीनों के जाने के बाद घर इतना खाली लगने लगा कि वह कभी-कभी खाना खाना भी भूल जाती थी। घर में कोई बात करने वाला नहीं था और बाहर निकलना भी मुश्किल था।
संस्कृति(मन ही मन) - घर से बाहर निकलो, तो मोहल्ले का हर इंसान बस मेरी शादी के सवाल करता है, कब होगी मेरी शादी? आख़िरकार पापा ने मेरी शादी छोटी बहनों से पहले क्यों नहीं की? पापा ने तो बाकी बेटियों से ज़्यादा मुझे प्रेम किया है, लेकिन उनके इस फैसले पर यह सवाल क्यों उठ रहा है? क्या सच में कोई बात है जो मुझे नहीं मालूम, जो पिताजी मुझे बताना नहीं चाहते और अंदर ही अंदर दबाए जा रहे हैं?
उसने जिन पन्नों पर अपने सपने लिखे थे, वो तो अब जल चुके थे। घर में जो कागज़ बचे थे, उन पर फिर से वह कुछ लिखने की कोशिश करती, लेकिन कुछ भी लिख नहीं पाती थी। बिना लिखे ही वह कागज़ टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे। डुग्गू कभी-कभी दोपहर में खेलते-खेलते संस्कृति के पास आ जाता था और वहीं बरामदे पर दिन भर खेलता रहता था। हालाँकि संस्कृति ने कभी किसी बच्चे को डांट नहीं लगाई। उसे बच्चे पसंद थे और इस समय डुग्गू को खेलते देखना उसको थोड़ी देर ही सही, लेकिन बड़ा सुकून देता था। डुग्गू न जाने कैसे-कैसे बचकाने सवाल संस्कृति से किया करता था और संस्कृति कभी-कभी अपने ख़्यालों से बाहर निकलकर उसके सवालों का जवाब ढूंढ़ने लगती थी। कभी-कभी बरामदे पर लगी अपनी माँ की तस्वीर से बातें करती और अपनी माँ से ढेरों सवाल करती।
संस्कृति (हैरानी में) -माँ! तुम्हें क्या लगता है? क्या पापा मुझसे प्यार नहीं करते? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। वह तो मुझे बहुत प्यार करते हैं, फिर उन्होंने मेरी शादी क्यों नहीं कराई? मैं तो अब पढ़ा भी नहीं पा रही और अगर कोई काम करना चाहती हूँ तो पिताजी वह भी नहीं करने देते। अब आप ही बताओ, मैं क्या करूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप दोनों को बेटा चाहिए था और मैं आ गई। कितना अच्छा होता न कि मैं लड़की की जगह लड़का होती। इस वक़्त कहीं कोई अच्छी सी नौकरी करके पापा की मदद कर रही होती, बहनों की शादी में हुआ कर्ज़ चुका रही होती। आप पापा से कहो न, वह मुझे कोई काम करने दे। कब तक अकेले ही इस परिवार की सारी जिम्मेदारियां उठाते रहेंगे, दिन-रात मेहनत करते रहेंगे। अब तो उनकी उम्र भी हो गई, शरीर भी साथ नहीं देता, फिर भी अपनी ज़िद पर अड़े रहते हैं। आजकल देखो, लडकियाँ क्या से क्या कर रही हैं, लेकिन क्या डर है, मेरे काम करने से? जब भी कोई काम करने की बात करती हूँ तो गुस्सा करने लगते हैं। पहले तो ऐसा नहीं करते थे। उन्होंने तो मुझे पढ़ाना ही शुरू किया था ताकि मैं पढ़-लिखकर कुछ बन सकूं, लेकिन अब मुझे वह कुछ करने क्यों नहीं देते? ऊपर से यह बिराना मोहल्ले के पड़ोसी, जब देखो, तब इनको मेरी ही शादी की पड़ी है। पानी लाने का मौका मिले तो शादी की बात, राशन लेने जाओ तो दुकान पर मिलो तो शादी की बात, चुपचाप अपना काम करो तो शादी की बात, किसी से बात करने का मन न हो तब भी शादी की बात। कभी किसी ने मुझसे पूछा ही नहीं कि मेरे सपने क्या हैं, मुझे क्या करना है, मुझे कैसे जीना है? अब तो पापा भी नहीं पूछते कि मुझे क्या पसंद है, मुझे क्या करना है, कैसी हूँ मैं? अब हम आपस में बात भी कम करते हैं। तुम ही बताओ, मैं क्या करूँ? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता, आप ही पापा को समझाओ।
संस्कृति अपनी माँ की तस्वीर से ऐसी बातें कर रही थी, जैसे वह उसके सामने बैठी हो और हर एक बात को सुन रही हो और उसके पिता के घर आने पर उससे बात भी करने वाली हो। संस्कृति को बात करते समय यह ध्यान नहीं रहा कि डुग्गू फिर से आकर उसके पास बैठ गया था और उसे तस्वीर से बातें करते हुए सुन रहा था और हर चीज़ को समझने की कोशिश कर रहा था। यह बात उसके समझ से ऊपर थी, इसलिए वह बस संस्कृति के तस्वीर से बात करने की बात को देखता रहा।
कुछ दिन बाद एक दोपहर, डुग्गू अपनी किताबें लेकर संस्कृति के पास आया और ठीक वैसे ही बातें करने लगा जैसे संस्कृति अपनी माँ से करती थी। उस किताब में गुड़िया की तस्वीर बनी थी और वह उससे बातें करना चाहता था। संस्कृति यह देखकर हँस पड़ी।
संस्कृति (दुलारते हुए) - डुग्गू, तुम यह क्या कर रहे हो, यह गुड़िया थोड़े न बात करेंगी तुमसे।
यह सुनकर डुग्गू थोड़ा सा नाराज़ हुआ। उसने नाराज़गी जाहिर करते हुए संस्कृति से कहा कि जब वह अपनी माँ से बात कर सकती हैं, तो यह डॉल से क्यों बात नहीं कर सकता?
यह बात सुनकर संस्कृति को एकाएक समझ आया कि डुग्गू किस तरह उसे देख-देख कर चीज़ें सीख रहा है। उसे डुग्गू का उसी के तरह कागज़ के टुकड़े-टुकड़े करने की बात याद आई और आज अपनी किताब से बात करने की बात भी समझ आई। यह समझते ही वह काँप गई। उसने जल्दी डुग्गू से कहा, ‘’(घबराते हुए) - डुग्गू, तुम किताबों से बात नहीं कर सकते, तुम यह सब भूल जाओ। तुम अभी अपने घर जाओ और पढ़ाई-लिखाई करो।''
जैसे-तैसे करके संस्कृति ने डुग्गू को अपने घर भेज दिया और दरवाज़ा बंद कर लिया और सिर पकड़ कर वही बरामदे में बैठ गई। उसे बेचैनी होने लगी, इस समय वह अपनी माँ की तस्वीर से भी बात नहीं कर पा रही थी। उसे महसूस हो रहा था जैसे उसे किसी से बात करनी है, कोई उसके पास हो। घर में कोई नहीं था, उसे लगा जैसे उसका दम घुट रहा है। उसकी बेचैनी बढ़ने के साथ-साथ उसकी साँसों की रफ्तार भी तेज़ हो गई। वह मदद के लिए भी किसी को पुकार नहीं सकती थी, इसलिए वह अकेले वहीं पर लेट गई।
संस्कृति (बेचैनी में) -मैं हूँ ही कौन…मैं जी क्यों रही हूँ? क्या मेरा जीना, मेरे पापा को वाकई और भी ज़्यादा परेशान करने लगा है? ये गरीबी, ये मजबूरी आख़िर कब तक चलेगी…क्या मैं वाकई जीने की हक़दार हूँ भी या बस यूं ही जिए जा रही हूँ…
ऐसे ही उल्टे-सीधे सैकड़ों सवाल संस्कृति के ज़हन में कौंध रहे थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि ख़ुद को खत्म करने का खयाल संस्कृति से उसकी ज़िंदगी छीन लेगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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