आज बिराना मोहल्ला दुल्हन की तरह सज़ा हुआ था। हालाँकि यह सज़ावट दिवाली की सज़ावट जैसी नहीं थी, क्योंकि जितना ज़्यादा लाइट्स लगतीं, टेंट वाले उतना ही ज़्यादा पैसा लेते थे। इसलिए कम ख़र्चे में जितना बेहतर हो सकता था, दशरथ ने टेंट वाले से वही करने की गुजारिश की थी। सड़क से घर तक दो-तीन ट्यूब लाइट्स और नए किस्म की चमकदार लाइट की लड़ियां लटक रही थीं। दशरथ चाहता था कि शादी में जितना कम ख़र्चे में हो सके, उतना अच्छा हो, लेकिन एक बार-बाराती के स्वागत की बात तय होने के बाद, उसके हाथ में कुछ भी नहीं था। जब उसने टेंट वाले से शामियाना लगाने के लिए कहा, तो टेंट वाले ने दशरथ को पुराने ज़माने की सोच छोड़ने के लिए राज़ी कर लिया। दिवाकर ने भी टेंट वाले से कहा था कि पंडाल बनने में कोई कमी ना रहे, क्योंकि बरसात का मौसम है। इसलिए यह ज़रूरी था कि वाटरप्रूफ पंडाल ही बनाया जाए। वाटरप्रूफ पंडाल बनाने के कारण दशरथ का दस हजार रुपये का ख़र्च और बढ़ गया।

दशरथ (मायूस होते हुए)- दिवाकर, बिना वाटरप्रूफ के भी तो पंडाल बन सकता है ना? आजकल तो बाराती भी ज़्यादा देर नहीं रुकते। दो-तीन घंटे का ही काम है। जैसे ही बाराती आएंगे, उन्हें जल्दी से खाना खिलाकर विदाई दे दी जाएगी। पाँच-दस लोग लड़के वालों की तरफ़ से तो बरामदे में बैठ सकते हैं, उनका इंतज़ाम भी कर लिया जाएगा। यह जो दस हजार रुपये हैं, उन्हें कहीं और इस्तेमाल कर लेंगे। अभी के लिए रहने देते हैं ना?

दिवाकर ने मोहल्ले में होने वाले पिछले कुछ शादियों का उदाहरण देते हुए दशरथ से कहा कि अगर बाराती के समय ही बारिश हो गई तो जग हँसाई हो जाएगी पूरे मोहल्ले की बदनामी हो जाएगी। लोग कहेंगे कि बिराना मोहल्ले के लोग बारातियों का स्वागत भी नहीं कर सकते। आख़िरी में दशरथ को वाटरप्रूफ पंडाल के लिए हाँ कहना पड़ा। दिवाकर के लिए शादी में होने वाले ख़र्च का बढ़ना फायदे का ही सौदा था। जितना ज़्यादा ख़र्च शादी में बढ़ता दशरथ को उतना ही ब्याजू पैसा या यानि कर्ज़ लेने पड़ता और दिवाकर को उसके बदले ब्याज मिलता। इसलिए दिवाकर हर उसे जगह पर पैसे ख़र्च करने के लिए दशरथ को मना रहा था जहाँ पर मना सकता था। चाहे वह टेंट हो या बारातियों के स्वागत के लिए नाश्ते के प्रबंध। या फिर एक नए रीति रिवाज में हल्दी करने का रस्म। शादी का दिन तय होने के समय ही दिवाकर ने शादी में फ़ोटोग्राफी और वीडियोग्राफी के लिए बात कर ली थी। दशरथ के लाख मना करने के बावजूद उसने स्टूडियो वालों को एडवांस दे दिया था। संस्कृति ने भी इस बात का बहुत विरोध किया था और बाकी बेटियों ने भी। बिना फ़ोटो और वीडियो के भी शादी हो सकती है लेकिन दिवाकर नहीं माना था। मोहल्ले में दोनों तरह के लोग थे एक जिन्होंने दिवाकर को मना किया था कि फ़ोटो और वीडियो की कोई ज़रूरत नहीं है और दूसरे वह भी थे जिन्होंने सपोर्ट किया था कि आजकल बिना फ़ोटो और वीडियो के शादी होना संभव नहीं है कम से कम कुछ तो रहना चाहिए याद रखने के लिए। शादी में दशरथ के कुछ रिश्तेदार भी आए थे। यह वही रिश्तेदार थे जो इतने सालों में कभी भी दशरथ का हाल-चाल पूछने तक नहीं आए थे, लेकिन शादी के नाम पर तीन दिन पहले ही घर पर दस्तक दे चुके थे और समय पर खाना-पानी अपने पास ही चाहते थे। संस्कृति सभी मेहमानों का ख़्याल रख रही थी, लेकिन उनके आपसी मनमुटाव को देखकर वह मन ही मन चिढ़ जाती थी। उसके नानी के घर से आए हुए लोगों की पापा के रिश्तेदारों से नहीं बनती थी। सभी अपने-अपने पक्ष के लोगों का ख़्याल रख रहे थे। कोई जल्दी से खाने के फिराक में रहता तो कोई जल्दी से तैयार होने के फिराक में। जैसे घर में कोई शीत युद्ध चल रहा हो। संस्कृति और दशरथ इस बात को बहुत अच्छे से समझ रहे थे, लेकिन शादी में इतने सारे काम थे कि उन दोनों ने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया। अभी बारातियों के आने में समय था, लेकिन लाउडस्पीकर पर कभी-कभी बेटियों की विदाई के गीत जब शुरू होते, तो दशरथ का कलेजा फट जाता। कानपुर स्टेशन पर साथ काम करने वाले कुली भी आ गए थे।

अचानक ही लाउडस्पीकर पर एक गीत बजने लगा।  

इस गाने के बजते ही मोहल्ले में हलवाई के पास खड़ा दशरथ अपनी बेटियों की विदाई के बारे में सोचकर काँपने लगा और रोने लगा। ठीक वैसे ही रोने की आवाज़ उसके घर से आने लगी। संस्कृति और उसकी तीनों बेटियाँ फूट-फूट कर रोने लगीं।

दशरथ रिश्तेदारों के लिए साड़ियां ले रहा था तब उसने तीनों बेटियों के लिए भी साड़ी ली थी लेकिन संस्कृति ने उसे साफ़-साफ़ मना कर दिया था कि उसके लिए कोई पैसे ख़र्च न किए जाएं उसका यूज़ किसी और काम के लिए कर लिया जाए। बहनों के कहने पर संस्कृति ने एक ब्लू सूट चुना था। शादी के लिए आए रिश्तेदारों ने भी तोहफ़े में कुछ साड़ियां लेकर आए थे उनमें से ही एक साड़ी संस्कृति ने अपने लिए चुन लिया था।

दशरथ (हड़बड़ाते हुए) - नरेश, देखो, सभी बारातियों ने खाना तो खा लिया ना? ऐसा तो नहीं कि कोई बाकी रह गया हो। जो भी ड्राइवर आए हैं, एक बार उन्हें भी पूछ लेना। कोई बाकी ना रह जाए। कुछ बाराती रास्ता भूल गए थे, वे लेट हो गए हैं, एक बार देख लो, उन्हें भी खाना खिला दो और देखना, उन्हें नाश्ता मिला या नहीं।

नरेश ने सभी बारातियों को खाना खिलाने का जिम्मा उठा लिया था और दिवाकर हर जगह जाकर सारे काम का ठीक से होना सुनिश्चित कर रहा था।

दशरथ (रोते हुए) - अनुराधा, अगर आज तुम जिंदा होती तो हम और भी धूमधाम से अपनी बेटियों की शादी कर सकते थे। देखो, कितनी जल्दी सभी बेटियाँ सयानी हो गईं, आज उनकी विदाई हो रही है। अगर तुम होती तो मुझे यह सब अकेले नहीं करना पड़ता। तुम तो अभी भगवान के पास ही हो ना, उनसे कहना कि हमारी बेटियों को हर वह सुख दे जो हम उन्हें दे नहीं पाए। उन्हें ख़ुश रखे।

बहुत ही धूमधाम से शादी हो गई और विदाई भी। विदाई के दिन पूरे बिराना मोहल्ले ने और रिश्तेदारों ने दशरथ को रोते हुए देखा। इससे पहले उन्होंने कभी भी दशरथ को ऐसा नहीं देखा था, उसे रोता देख बाकी लोग भी अपने आप को रोने से नहीं रोक पा रहे थे। वे आपस में बात कर रहे कि दशरथ ने एक पिता के साथ साथ माँ की ज़िम्मेदारी भी निभाया है। इन सबके बावजूद कुछ रिश्तेदार संस्कृति की शादी को लेकर परेशान थे। मौका मिलते ही वह दशरथ को संस्कृति की शादी के लिए कहने लगते थे। कुछ रिश्तेदार लड़कों के बारे में बताने लगते थे।

विदाई के बाद दशरथ का घर और साथ ही बिराना मोहल्ला कुछ दिनों के लिए वीरान पड़ गया था। सब कुछ सुना-सुना हो गया था। दशरथ के तीन कलेजे के टुकड़े इस घर से विदा हो चुके थे। संस्कृति की प्यारी बहनें विदा हो चुकी थीं। इस वक़्त घर काटने को दौड़ रहा था, लेकिन विदाई तो सिर्फ़ कल हुई थी और आज से ही एक-एक वक़्त उन दोनों के लिए गुजारना मुश्किल हो रहा था।

शादी के एक दिन बाद ही दशरथ फिर से काम करना शुरू कर चुका था। हर महीने उसे कर्ज़ चुकाना था, इसलिए उसने अपनी मेहनत दोगुनी कर दी थी। संस्कृति के लिए घर पर अकेले रहना मुश्किल होने लगा था, क्योंकि वह पहले ही सपनों को पूरा न कर पाने का बोझ लिए वह जी रही थी। छोटी बहनें थीं तो उसका दिल लगा रहता था। घर का काम ज़्यादा था तो उसमें उसका ध्यान भटकता रहता था, लेकिन अब सिर्फ़ दोनों के लिए उसे खाना बनाना पड़ता था। देखते ही देखते खाना पक जाता था, दशरथ स्टेशन चला जाता था और वह बस अकेले अपने घर पर बैठी रहती थी। बहनों को याद करती रहती थी, उनके साथ जिए हुए पल समेटे रहती थी।

वो जब भी पानी भरने के लिए बाहर जाती, सभी मोहल्ले वाले अब उसकी शादी की बात करते थे। आख़िर कब होगी उसकी शादी? संस्कृति के पास कोई जवाब नहीं था और न ही दशरथ के पास। पहले पूछे जाने पर दशरथ छोटी बेटियों का बहाना करके टाल देता था, लेकिन अब उसके पास भी कोई बहाना नहीं था। जब भी कोई संस्कृति की शादी के बारे में उससे पूछता, तो वह डर जाता था। न जाने उसके मन में क्या-क्या ख़्याल आने लगते थे। शादी के बाद से दशरथ और संस्कृति एक घर में तो रह रहे थे, लेकिन न जाने क्यों दोनों आपस में बात नहीं कर पा रहे थे। शायद दोनों को मालूम था कि अगर उनकी नज़रें मिलीं, तो यमुना, नंदिनी और दिव्या के लिए दिल में जो पीड़ा है, वह दोनों की आँखों से बाहर आने लगेगी। इसलिए दोनों सिर्फ़ अपने हिस्से का काम करते थे।

दशरथ दिनभर स्टेशन पर रहता था, इसलिए उसका ध्यान भटका रहता था, लेकिन वह भी जैसे ही घर पहुँचता था, न जाने किन-किन चिंताओं में खो जाता था। संस्कृति चौबीस घंटे अकेली रहती थी, अब अकेलापन उसे काटने लगा था। उसे लगने लगा था जैसे उसका सब कुछ छिन गया हो। वह अब रात को सोते समय बड़बड़ाने लगी थी।

संस्कृति (डरते हुए) - "पापा, पापा, पापा!"  

उसे डरावने सपने आने लगे थे। उसे लगता जैसे वह किसी रेलवे स्टेशन पर है और गुम हो गई है। क्या ये वाकई उसके बचपन के हादसे की यादें थीं या उसका खालीपन उसका दुश्मन बन चुका था? क्या संस्कृति खयालों के इस चक्रव्यूह से वाकई निकल पाएगी? 
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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