संस्कृति अचानक ही रोने लगी। उसे बहुत बेचैनी हो रही थी। एक पल के लिए उसे लगता कि वह कुछ ऐसा करे कि अपने पिता की सारी परेशानियों को दूर कर दे दूसरे ही पल उसे ख़ुद से डर लगने लगता। वह थोड़ी देर पहले अपनी माँ से माफ़ी माँग रही थी। उसके मन में न जाने कितने ख़्याल चल रहे थे कितने ही बातें उमड़ रही थी।

कुछ देर रोने के बाद। उसने खाना खाया, दवाई ली और फिर खाट पर लेट गई। दवाई खाते ही थोड़ी देर बाद उसे नींद आ गई। घर से निकलने के बाद दशरथ के मन में संस्कृति के लिए बहुत तरह के ख़्याल आ रहे थे।

दशरथ (मन ही मन) - इस समय मुझे अपनी बेटी के पास होना चाहिए था लेकिन मैं कितना मजबूर हूँ कि आज भी मुझे उसे छोड़कर पैसे कमाने के लिए आना पड़ा। क्या हम मजदूर का जीवन यही है। जिनके लिए हम पैसे कमाते हैं उन्हें ही छोड़कर हमें पैसे कमाना पड़ता है। काश एक-दो दिन बिना काम किए हुए भी हम अपने घर परिवार के पास रह पाते।

स्टेशन पहुँचते ही दशरथ को एक पैसेंजर मिल गया और उसकी बोहनी हो गई। पैसे मिलने से उसके चेहरे पर थोड़ी-सी ख़ुशी तो आई लेकिन अपनी बेटी के लिए उसकी चिंता उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रही थी। अगली ट्रेन आने तक वह वैसे ही उदास बैठा रहा।

दशरथ ने उसके चेहरे की परेशानी पढ़ते हुए उसे समझाया और पूरी बात जानी। सारी बात सुनने के बाद नरेश ने उसे संस्कृति की शादी करने के बारे में पूछा। यह सुनकर न जाने क्यों फिर से दशरथ की जो परेशानी थी वह गुस्से में बदल गई उसने पहले की तरह ही झुंझलाते हुए नरेश से कहा

दशरथ (झुंझलाते हुए) - एक तो मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है कि संस्कृति की शादी के बारे में तुम चिंता मत किया करो उसकी बात मत किया करो और दूसरी बात यह है कि इस समय उसकी तबियत ख़राब है वह बीमार पड़ी है और तुम कह रहे हो कि इन सारी समस्याओं का हाल सिर्फ़ उसकी शादी है। तुम्हें समझ में आ रहा है तुम क्या कह रहे हो। मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि समाज क्या सोचता है। उसकी शादी सही समय पर ही होगी जब भगवान चाहेंगे तब उसकी शादी होगी जैसे बाकी तीनों बहनों की शादी हुई है उसकी भी शादी हो जाएगी।

नरेश ने भी जवाब में बहुत सारी बातें कही, उसने संस्कृति के काम को लेकर भी बातें कहीं कि कम से कम उसे कहीं काम करने दे ताकि उसका मन लग रहे। बाकी बहनों की शादी के बाद वह घर पर अकेले ही है इसकी वज़ह से ही उसकी तबियत ख़राब हो रही है।

नरेश हमेशा से समझना चाहता था कि दशरथ की परेशानी क्या है? वह अपनी बेटी की शादी का नाम सुनते ही इतना गुस्सा क्यों करने लगता है? उसने मज़ाक में भी कह दिया था कि संस्कृति तुम्हारी बेटी है भी या नहीं वरना कोई पिता इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है कि अपनी बेटी की शादी का नाम सुनते ही गुस्सा हो जाए। उसे कहीं काम न करने दे। पढ़ाई तो कब की बंद हो चुकी है।

थोड़ी देर बाद दशरथ ने नरेश से ख़ुद ही कहा, ‘’(अफ़सोस करते हुए) - मैं सोच रहा हूँ कुछ दिनों के लिए नंदिनी या दिव्या को घर बुला लूं। जब तक संस्कृति की तबियत ठीक ना हो जाए। आज शाम को घर लौट कर दिवाकर से कहूँगा कि वह दिव्या और नंदिनी के घर वालों से बात करा दे।''

कुछ साल पहले दशरथ के पास एक कीपैड मोबाइल हुआ करता था लेकिन जब से वह ख़राब हुआ तब से उसने कोई दूसरा मोबाइल नहीं लिया था इस बात को भी गुज़रे बहुत साल हो गए थे। बेटियां समझदार थी इसलिए कभी अपने पिता को घर की ज़रूरत के अलावा मोबाइल ख़रीदने के लिए नहीं कहा था। बेटियां ससुराल से दिवाकर के यहाँ ही फ़ोन करती थी और कभी-कभी दिवाकर उनकी बात दशरथ और संस्कृति से करा दिया करता था। नरेश ने जब दशरथ की बात सुनी तब उसने कहा कि यह ठीक रहेगा। कोई एक बहन साथ रहेगी तो उसे अकेला-सा नहीं लगेगा। वैसे भी दिव्या और नंदिनी के इम्तिहान नजदीक आ रहे हैं। उसके लिए भी उन्हें घर आना ही पड़ेगा। अच्छा होगा पहले ही घर आ जाए।

शाम को जब दशरथ वापस आया तब दिवाकर ने तुरंत ही आकर उसे मोबाइल थमा दिया मोबाइल की दूसरी तरफ़ दिव्या के ससुर थे। दिवाकर ने कल रात हुई संस्कृति के साथ की सारी घटना के बारे में दिव्या के ससुराल वालों को बता दिया था। उसके ससुर ने दशरथ से बात की और पूरी घटना की जानकारी ली। वे दिव्या को वापस भेजने के लिए मान गए लेकिन घर के कुछ काम थे इसलिए एक हफ़्ते बाद आने के लिए राज़ी हुए। दशरथ उनकी बात सुनकर बस हामी भरता रहा। उसके समधी ने उसका बहुत हौसला बढ़ाया और उनसे कहा कि किसी बात की कोई फिक्र ना करें अगर कुछ ज़रूरत पड़े तो उनसे बेझिझक खुलकर बात करें। दशरथ में अभी भी पुराने ख़्यालात के विचार थे जो अपनी बेटियों के ससुराल से कुछ भी मदद नहीं लेते हैं, लेकिन उनके समधी ने उन्हें बहुत समझाया था कि मुश्किल के समय में अगर अपने काम नहीं आएंगे तो कौन काम आएगा। इसलिए वह ऐसा ना सोचे कि अपनी बेटियों के ससुराल से मदद कैसे लें।

फ़ोन रखने के बाद दिवाकर ने भी दशरथ को समझाया कि उसके समधी सही कह रहे थे, अगर किसी प्रकार की कोई ज़रूरत पड़ेगी तो उनसे मदद ले सकते हैं और अगर अचानक से कोई बात होती है तो वह दिवाकर को भी बता सकता है, दिवाकर तो उसके साथ हमेशा खड़ा ही है।

दवा के असर से संस्कृति दिनभर सोती रही। अपने पिता के वापस आने से कुछ ही देर पहले वह जगी थी, उसे अभी भी बहुत थकान महसूस हो रही थी। वह हिम्मत करके घर के बाकी काम करने जा ही रही थी तब तक दशरथ घर पहुँच गया।

दशरथ (प्यार से रोकते हुए) - संस्कृति तुम आराम करो तुम्हें कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है। पहले ठीक हो जाओ, उसके बाद तो पूरा घर संभालना ही है। अभी थोड़ी देर पहले ही दिव्या के ससुर से बात हो गई है। वह कह रहे थे कि एक हफ़्ते बाद वह दिव्या को यहाँ भेज देंगे, तुम्हारी थोड़ी मदद हो जाएगी और उसकी दसवीं की परीक्षा भी पास है, तो थोड़ी उसकी भी मदद हो जाएगी। नंदनी को आने में थोड़ा वक़्त लगेगा वह परीक्षा से कुछ ही दिन पहले ही आ पाएगी।

संस्कृत (अफ़सोस करते हुए) - पापा, उन्हें परेशान करने की क्या ज़रूरत थी? मैं ठीक हो जाऊंगी मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण और भी कोई परेशान हो। बहनों के ससुराल वाले क्या सोचेंगे?

दशरथ (समझाते हुए) - चाहता तो मैं भी नहीं था कि मैं बेटियों के ससुराल वालों को परेशान करूँ, लेकिन दिवाकर ने शायद पहले ही सब कुछ बता दिया था, तो मुझे सच बोलना पड़ा। उन्होंने भी ज़िद की है तो मैं उनके सामने कुछ नहीं कहा पाया। अब उन लोगों की बात भी तो रखनी पड़ेगी। बहुत ही अच्छे मालूम पड़ते हैं वे लोग। तुम फिकर मत करो अब तो वह भी हमारा ही परिवार है।

दशरथ के समझाने के बावजूद संस्कृति के मन में एक और बात घर कर गई।

संस्कृति (मन ही मन) - अब तक तो मुझे लगता था कि अपने पिता की परेशानियों का कारण हूँ मैं। मैं तो अब अपनी बहनों के जीवन में भी परेशानी बनी जा रही हूँ। मेरे कारण अब उन लोगों को भी तकलीफ़ उठानी पड़ेगी। अगर उन लोगों के ससुराल वाले ना समझे तो उम्र भर मुझे लेकर ताना देंगे। सभी की परेशानियों का जड़ सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं हूँ।  

उसे सोच में डूबा देखकर दशरथ ने फिर से कहा

दशरथ (समझाते हुए) - तू फिर से किस चिंता में डूब गई, तुझे कहा ना मैंने, किसी बात की फिक्र नहीं करनी बस अपनी तबियत ठीक करनी है। अगर तेरे मन में कोई बात है तो मुझे बताओ।

 

संस्कृति (मना करते हुए) - नहीं पापा मैं कुछ भी नहीं सोच रही, मैं तो बस यह सोच रही थी कि नंदिनी और दिव्या आ जाएगी तो थोड़ा ध्यान बंट जाएगा, अभी तो बहुत अकेला-अकेला लगता है, इस घर में ऐसा लगता है कि सारी ख़ुशियां उन लोगों के साथ चली गईं, वैसे भी बहनें ही तो थी मेरी ख़ुशियां।

दशरथ (थोड़ा मुस्कुराते हुए) - बात तो तुम ठीक ही कह रही हो, वह तीनों थी तो घर लौट कर ऐसा लगता था जैसे जिंदगी में कोई परेशानी ही नहीं है। सच कहो तो उनके बिना यह घर सूना-सूना लगता है।

यह कहते-कहते दशरथ भी भावुक हो गया। संस्कृति पहले से ही बहुत सारी बातों को एक बोझ की तरह मन में छुपाए थी।

रात को खाना खाने के बाद दशरथ ने ख़ुद से ही संस्कृति को दवाइयां दी। वह दवा नहीं खाना चाहती थी, लेकिन अपने पिता को मना नहीं कर सकती थी। दवा खाने के कुछ ही देर बाद उसे नींद आ गई। जितनी देर वह जग सकती थी उतनी देर वह बहुत-सी बातें सोचती रही।

दशरथ (मन ही मन, प्रार्थना करते हुए) - हे भगवान! संस्कृति को जल्दी से ठीक कर दो। हमारी और इम्तिहान मत लो। मैं अपनी बेटी को इस हालत में नहीं देख सकता।

रात को कुत्ते सड़कों पर भौंक रहे थे, झींगरों की आवाज़ आनी शुरू हो गई थी। दशरथ ने दरवाज़ा बंद कर दिया। उसे लगा कि संस्कृति सो गई है तब वह वापस आकर खाट पर लेट गया। कुछ दिनों बाद ही उसे कर्ज़ के पैसे लौटाने थे। संस्कृति के इलाज़ में वह थोड़े से पैसे ख़र्च हो चुके थे। वह थोड़ी देर उन पैसों के जुगाड़ के बारे में सोचता रहा, लेकिन उसके पास मेहनत करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। इसलिए वह यह सोचकर सो गया कि कल और मेहनत करेगा ।

सोने से ठीक पहले संस्कृति ने अपने पिता को देखा और उसके आँखों में आँसूं आ गए।

संस्कृति (रोते हुए मन ही मन) - बस…बहुत हुआ, अब मुझे नहीं और नहीं जीना। अब मैं और किसी की परेशानी का कारण नहीं बन सकती…। मैंने फ़ैसला कर लिया है….

ये फ़ैसला आख़िर था क्या…क्या संस्कृति सोच चुकी थी कि अब वह अपनी ज़िंदगी खत्म करके अपने पिता पर से दुःखों का बोझ हटा देगी, क्या संस्कृति की ख़ुदकुशी के साथ ही उसकी कहानी का अंत हो जाएगा?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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