डॉक्टर ने दशरथ से कहा था कि कुछ दिन बाद चेकअप के लिए संस्कृति को अस्पताल लेकर आए। संस्कृति की दवाई खत्म हो चुकी थी। दिव्या अगले दो दिनों में आने वाली थी, लेकिन घर का अकेलापन संस्कृति को हर समय काट रहा था। वह घर जो उसके लिए जीने की वज़ह थी, वही घर उसे काटने लगा था। उस घर में रहते हुए उसका अकेलापन और बढ़ रहा था।

संस्कृति जब थोड़ी ठीक हुई, तो उसने घर का काम-काज करना चाहा, लेकिन उसके पिता ने साफ-साफ कह दिया कि वह कोई भी काम न करे। वह हर बार बस यही दोहराते कि वह आराम करे और मन में चले रही सारी चिंता छोड़ दे। संस्कृति अपने पिता को घर का काम करते और कमाने के लिए इतनी मेहनत करते नहीं देख सकती थी। अपने पिता की ज़िद के आगे वह भी मजबूर थी और यही मजबूरी उसे अंदर ही अंदर खाने लगी थी। हर समय संस्कृति को यही बात अंदर ही अंदर कचोट रही थी कि न तो वह अपने घर के हालात ठीक कर पा रही है और न ही वो किसी भी तरह से अपने पिता की मदद कर पा रही थी।

मोहल्ले के लोग भी दशरथ की हालत देखकर उसकी हर तरह से मदद करने लगे थे। सुबह-सुबह दशरथ जैसे ही घर के लिए पानी भरने मोहल्ले के हैंडपंप पर जाता, लोग ख़ुद ही उसका बर्तन-बाल्टी पहले भर कर दे देते थे। अब तो ख़ुद बिसुंदरी चाची भी पहले दशरथ के बर्तनों में पानी भर देती थी। घर के बाकी काम निपटा कर दशरथ स्टेशन जाने के लिए तैयार था, जाते-जाते उसने संस्कृति से कहा, ‘’संस्कृति, आज मैं स्टेशन से थोड़ा जल्दी वापस आ जाऊंगा। डॉक्टर ने दोबारा बुलाया है तुम्हारी जाँच करने के लिए, ठीक है ना, तुम तैयार रहना।

 

अपने पिता का परेशान होता देख संस्कृति ने दशरथ से कहा कि वो बिल्कुल ठीक है, अस्पताल जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसने कहा कि अब तो वो भरपूर नींद भी ले रही है, इसलिए दशरथ को चिंता करने की कोई ज़रुरत नहीं है। बल्कि वो आराम से स्टेशन जाकर पूरा दिल लगाकर काम कर सकते हैं और रात को आराम से वापस आ सकते हैं।  

 

दशरथ (डाँटते हुए) - संस्कृति तुम एकदम चुप रहो और मेरी बात सुनो। मैंने तुमसे कहा ना, शाम को तैयार रहना अस्पताल चलेंगे। तुम कह रही हो ठीक हो गई हो, ज़रा एक बार अपनी हालत तो देखो।

 

संस्कृति (मायूस होते हुए) - पापा! मैं आपकी बात समझ रही हूँ, लेकिन हमें कर्ज़दारों को भी तो पैसे लौटाने हैं, अगर सारा पैसा मेरी दवाई में ही लग जाएगा तो हम उन्हें क्या लौटाएँगे। मैं नहीं चाहती कि वह मेरे कारण आपकी बेइज़्ज़ती करें या आपके ईमान पर कोई सवाल करें।

 

दशरथ (गुस्से में) - मैं तुमसे कहा ना तुम तैयार रहना। रही बात कर्ज़ लौटाने की, तो वह मैं लौटा दूंगा, तुम इसकी चिंता मत करो, मैंने कितनी बार कहा है तुम बस अपना ख़्याल रखो। मैं अभी मर नहीं गया हूँ।  

 

आज से पहले संस्कृति ने अपने पिता को इतने गुस्से में नहीं देखा था। वह चुपचाप अपने पिता की बात सुनती रही और फिर शाम को तैयार रहने के लिए हामी भर दी।

 

स्टेशन पहुँचकर दशरथ ने काम शुरू किया। जिन-जिन पैसेंजर को कुली की ज़रूरत पड़ती थी, वह तेज़ी से उनकी तरफ़ दौड़ जाता था। आज से उसे दुगनी-तिगुनी मेहनत करनी थी, ताकि वह ठीक समय पर अपने कर्ज़दारों को पैसे लौटा सकें और साथ ही अपनी बेटी का इलाज़ कर सके। शाम होने से पहले, उसे कम से कम इतने पैसे तो चाहिए ही थे कि वो अपनी बेटी के इलाज़ के लिए डॉक्टर को फीस दे सके ।

 

बाकी कुलियों ने दशरथ को जब तेज़ी से काम करते हुए देखा तो हैरान हुए। दोपहर के समय जब दो ट्रेनों के बीच एक लंबा अंतराल था, सभी कुली साथ में बैठे हुए थे। तब नरेश ने दशरथ से पूछा था कि वह इतनी इतनी जल्दी-जल्दी काम क्यों कर रहा है, हालाँकि उसे मालूम था कि दशरथ को पैसों की बहुत ज़रूरत है वह ज़रूरत आज से पहले भी थी लेकिन आज जैसा दशरथ, उनमें से किसी ने नहीं देखा था। दशरथ ने लाख कोशिश की कि वह अपने मन की बात किसी से ना कहे लेकिन नरेश के बार-बार कहने पर उसने बताया।

 

दशरथ (परेशानी में) - अब क्या बताऊं नरेश, मेरे घर की हालत तुमसे तो छुपी नहीं है, इस समय संस्कृति की तबियत भी ख़राब है, दवा भी खत्म हो चुकी है। डॉक्टर ने कहा था कि दोबारा चेकअप करने की ज़रूरत पड़ेगी और आज तो अस्पताल भी जाना है। इन सारे ख़र्चों के साथ बेटियों की शादी में जो कर्ज़ा लिया था, उनके पैसे भी लौटाने हैं। पिछले हफ़्ते जो पैसे इकट्ठे हुए थे वह संस्कृति के इलाज़ में लग गए और आज भी पैसे ख़र्च होंगे। सच कहूँ तो जिन-जिन से मैंने उधार लिया है, उनको अगर सही समय पर पैसे नहीं लौटाए तो वह घर तक आ पहुँचेंगे। तुम तो जानते ही कि ब्याज पर पैसा देते वक़्त अपने कानपुर में सारे साहूकार जितने प्यार से बात करते हैं, पैसा वसूलने के टाइम वही लोग दुश्मन से भी बड़े दुश्मन बन जाते हैं। भगवान की कृपा से आज तक ऐसी नौबत तो नहीं आई है, लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है कि अगर मैंने पैसे इकट्ठे नहीं किए तो मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा।

 

यह बात सुनकर नरेश ने उस दिन के कमाए हुए पैसे दशरथ को देने की कोशिश की लेकिन उसने लेने से मना कर दिया। शाम होने से पहले ही दशरथ घर लौट गया, संस्कृति तैयार बैठी थी। अस्पताल दशरथ के घर से थोड़ी दूर था और दिवाकर भी घर पर नहीं था। दशरथ पूछने पर एक पड़ोसी ने उन दोनों को अस्पताल छोड़ दिया। कुछ चेकअप्स के बाद डॉक्टर ने संस्कृति को कमरे से बाहर भेज दिया और दशरथ से कहा कि अभी संस्कृति को कुछ दिन और दवा खानी होगी। इससे ज़्यादा ज़रूरी ये है कि उसे किसी भी तरह का कोई टेंशन ना दिया जाए। उसे घर या घर से बाहर ख़ुशनुमा माहौल में रखा जाए।

 

दशरथ (मन ही मन) - ख़ुशनुमा माहौल! सारी उम्र भर इसी की कोशिश की है। अपने परिवार को मैं कुछ दे ही कहाँ पाया। आख़िर घर के बाहर और कहाँ ले जाऊं जहाँ सिर्फ़ ख़ुशियां ही ख़ुशियां हो और अगर इलाज़ से ज़्यादा ज़रूरी यही है, तो फिर मैं अपनी बेटी का इलाज़ कभी करवा ही नहीं पाऊंगा।

 

दशरथ को परेशानी में उलझा देख डॉक्टर ने समझाते हुए कहा कि सबसे पहले आप परेशान होना बंद करें, ऐसा लगता है जैसे वह आपको परेशान देखकर और भी ज़्यादा परेशान हो जाती है। तो बेहतर है कि उसे किसी भी तरीके की परेशानी न दी जाए। डॉक्टर को दशरथ के घर की हालत पूरी तरह से पता नहीं थी, लेकिन वह जितना अनुमान लगा सकता था, उसे यह बात समझ में आ चुकी थी कि उनकी सबसे परेशानियों पैसों की है।

दशरथ, संस्कृति को लेकर अस्पताल के दवाई वाले काउंटर पर पहुँचा, जहाँ पर दवा के लिए कुछ पैसे कम पड़ गए। दशरथ ने फारमेसिस्ट से कहा कि वह अगली बार बकाया पैसे दे देगा, लेकिन उसने झिड़कते हुए दशरथ को कहा कि जितने पैसे हों उतनी ही दवा ले। अपनी आँखों के सामने अपने पिता को इस तरीके से बेइज़्ज़त होते देख, संस्कृति की आँखें भर आईंं। उसका मन किया कि वह अपने पिता को दवा लेने से मना कर दे, लेकिन वह चुपचाप अपने पिता को हताश और निराश होता देखती रही।

दशरथ (मुस्कुराते और समझाते हुए) - संस्कृति तुम चिंता मत करो यह पाँच दिन की दवाई हो गई है, उसके बाद बाकी दवाइयां ले लेंगे। ठीक है ना, अब बिना किसी लापरवाही के टाइम पर अपनी दवा खा और जल्दी-जल्दी ठीक हो जा।  

संस्कृति ने कुछ जवाब नहीं दिया, थोड़ी देर बाद दोनों वापस घर लौट आए थे। संस्कृति का मन अभी भी अस्पताल में दवाई की दुकान पर ही था। अपने पिता का मजबूर चेहरा उसकी नज़रों के सामने घूम रहा था। गरीबी किसी इंसान को किस तरह से मजबूर कर सकती है, वो पल उसने कुछ मिनट पहले ही जिए थे।

संस्कृति के दिमाग़ में चल रही इसी उधेड़-बुन में ना जाने कब शाम ढल गई और दशरथ ने रात का खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी। उसके लाख मना करने के बावजूद संस्कृति उसकी मदद करने लगी, आख़िरकार दोनों ने मिलकर खाना बनाया और साथ में खाना खाने लगे।

खाना खाते-खाते, दशरथ उसे दिल्ली के दिनों की बात बताने लगा। जब भी वह दिल्ली की बात करता था तब वह बहुत ख़ुश होता था। संस्कृति अपने पिता को दिल्ली की बात करते समय ख़ुश देखकर हमेशा सोचती आख़िर क्या था दिल्ली में ऐसा कि आज भी उसकी बात करने पर पिता बहुत ख़ुश दिखाई पड़ते हैं।

 

खाने के बाद दवा खाकर संस्कृति दूसरे कमरे में सोने चली गई। उसकी नज़रों के सामने बार-बार वही सीन आ रहा था जब अस्पताल वाले फार्मेसिस्ट ने उसके पिता को डांटते हुए कहा कि “भीख मत माँगों, ये दवाखाना है, सड़क नहीं है”। ये बात ना चाहते हुए भी बार-बार संस्कृति के मन में कौंध रही थी, यही सब सोचते हुए संस्कृति ने मन ही मन सोचा, ‘नहीं अब और नहीं, मैं अपने कारण पापा को और बेइज़्ज़त नहीं होने दे सकती। मेरे इलाज़ के कारण उन्हें अपने स्वाभिमान से सौदा नहीं करने दे सकती। उनकी बरसों की मेहनत और ईमानदारी को झुकने नहीं दे सकती। अगर मेरी तबियत ख़राब नहीं होती तो आज पापा को दवाई की दुकान पर पैसों की वज़ह से कोई भला-बुरा नहीं कहता। अगर मैं ही नहीं होती तो तबियत ही ख़राब ही नहीं होती और ना ही यह परेशानी होती। इसका मतलब ये है कि सारी समस्याओं की जड़ मैं हूँ। ना मैं होती ना तबियत ख़राब होती ना इलाज़ के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ती और न ही पापा को किसी के सामने ऐसे बेइज़्ज़त होना पड़ता। ना मैं रहूँगी और ना यह परेशानियां रहेगी। मेरे जाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा। मुझे अब चले जाना चाहिए। हाँ…हाँ…बिल्कुल...चले जाना चाहिए।’

यह सोचत- सोचते संस्कृति की बेचैनी बढ़ने लगी लेकिन साथ ही दवाओं का असर भी होने लगा था। वो बेचैनी में न जाने क्या-क्या बुदबुदाती रही। वह कभी हँस रही थी, तो कभी रो रही थी और कभी बेचैनी में करवट बदल रही थी। दशरथ भी खाट पर लेटा-लेटा करवट बदल रहा था। उसकी नज़रों के सामने भी आज अस्पताल का वही सीन घूम रहा था। आज से पहले कभी भी किसी ने उसकी बेटी के सामने इस तरह से बात नहीं की थी।

साथ ही वह यह भी सोच रहा था कि आख़िर कैसे वो अपनी बेटी को ख़ुशनुमा माहौल दे और हँसी-ख़ुशी से भरी ज़िंदगी दे, लेकिन दूसरी तरफ़ संस्कृति कहीं ना कहीं अपने मन में ठान चुकी थी कि उसे ये ज़िंदगी जीनी ही नहीं है।

तो क्या दशरथ वाकई अपनी बेटी की ख़ुशियों के लिए एक नई दुनिया एक नया माहौल बना पाएगा या परेशानियों से घिरी संस्कृति ये दुनिया छोड़कर ही चली जाएगी?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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