जैसे ही वन्दे भारत के आने की अनाउंसेमंट हुई। कानपुर स्टेशन पर भाग-दौड़ शुरू हो गयी। बहुत से लोग इस ट्रेन का इन्तज़ार प्लेटफॉर्म नंबर एक पर कर रहे थे। जल्दी से सभी प्लेटफॉर्म नंबर पाँच की तरफ़ भागने लगे। इस भीड़ के बीच ही दशरथ के पैर भी बहुत तेज़ी से प्लेटफॉर्म नंबर एक की तरफ़ भागे और वो चिल्लाने लगा “कुली, कुली, कुली”
आज फिर से ज़्यादातर लोगों के पास ट्रोली बैग था या कम सामान। जिन्हें ज़रूरत थी उनके पास पहले ही और लोग सामान उठाने के लिए पहुँच चुके थे। धीरे- धीरे भीड़ प्लेटफॉर्म नंबर पाँच पर पहुँच गयी और हताश दशरथ की “कुली कुली” की आवाज़ धीमी पड़ती हुई गुम हो गयी।
वो हताश होकर पाँच नंबर प्लेटफॉर्म से वन्दे भारत को दिल्ली जाता देखता रहा। उसकी आँखें कईं रात जागने के कारण सूजी हुई थी। संस्कृति की तबियत ख़राब होने के बाद से वह रातों में कई बार उठ जाता था और संस्कृति को देखता था। इस कारण उसकी नींद पूरी नहीं हो पाती थी।
दशरथ (गहरी साँस भरते हुए) - दिल्ली स्टेशन ही ठीक था, कम से कम एक दो तो पैसेंजर तो अपना सामान मुझ जैसे कुली से उठवा ही लेते।
इनदिनों जब घर की हालत और भी बिगड़ रही थी। दशरथ अक्सर बीस बाईस साल पहले नई दिल्ली स्टेशन पर अपने कुली के किए गए काम को याद करता था। पैसों के कमी के कारण दशरथ अपनी पुरानी चप्पल को ही बार-बार सिलवाकर पहन रहा था। बेटियों की शादी में एक नया चप्पल उसने लिया था लेकिन शादी के बाद उसे उसने नहीं पहना। इस पुरानी चप्पल और फटी एड़ियों के साथ दशरथ उदास बैठा रहा।
दशरथ मन ही मन दिल्ली की बहुत सी बातें सोचने लगा। इतने में नरेश हाथ में दस-दस का नोट गिनते हुए उसके पास आ पहुँचा।
नरेश ने दशरथ को फिर से सोच में पड़ा देखा। उसने इसकी सुजी आँखें देखी। उसने आगे बात की “क्यों दशरथ भाई, किस चिंता में पड़े हो, फिर से कोई पैसेंजर नहीं मिला क्या।” ये पूछते-पूछते वह दशरथ के साथ वहीं बैठकर बाक़ी पैसों के साथ दस-दस के नोट को जोड़ने लगा।
अगले ही पल
दशरथ (झूठ का मुस्कुराते हुए) - “अरे! नहीं, नहीं कोई चिंता की बात नहीं है, हाँ पैसेंजर तो नहीं मिला कोई भी, जबतक पहुँचे तबतक जिसको कुली करना था वो कर चुके थे, हमको पहुँचने में देर हो गयी”
दशरथ की बात सुनते हुए नरेश ने पैसे अपने बटुए में रखे और समझाते हुए उसे अपनी तबियत का ख़्याल रखने के लिए कहा।
जैसे ही दशरथ ने संस्कृति की शादी की बात सुनी उसकी पहले से सूजी हुई आँखें और चौड़ी हो गयी।
दशरथ (गुस्से में) - हम कितनी बार कह चुके हैं कि हमसे इस बारे में मत पूछा करो, लेकिन तुम हर बार एक ही बात पर आकर अटक जाते हो। कितनी बार कहा है, संस्कृति बड़ी है, बहनों में सबसे समझदार है, वह अभी शादी नहीं करना चाहती। उसे और पढ़ने का मन है”
गहरी साँस लेते हुए और एक चुप्पी के बाद
दशरथ (ठंडी आवाज़ में) - ये बात और है कि मेरी हालत नहीं है कि उसे और आगे पढ़ा सकूं।
अपनी बात खत्म करते ही दशरथ ने अपना गमछा उठाया और प्लेटफॉर्म से बाहर निकल घर की ओर चल दिया।
उसे जाते देख नरेश (बुदबुदाया) “आप कितना भी गुस्सा कर लीजिये, लेकिन हमको मालूम है, ज़रूर कुछ और बात है जो आप संस्कृति की शादी नहीं कर रहे हैं, एक न एक दिन सच सबके सामने आ ही जायेगा”
दशरथ को जानने वाला हर इंसान संस्कृति को जानता था। वो अपने नाम को सही साबित करती थी। देखने में जितनी सुन्दर, बात करने में उतनी ही मीठी, अपनी छोटी बहनों से इतना स्नेह जैसे माँ अपनी बेटियों से करती है। तीनों छोटी बहनों की शादी के समय सभी ने उसके स्वभाव को बहुत सराहा था। घर में किसी भी शख्स को ज़रा भी दिक्कत या दर्द हो तो समझो उसे ख़ुद ही दर्द महसूस होने लगता था।
जब भी स्वभाव और सुन्दरता की बात होती आस-पड़ोस में उदाहरण के तौर पर संस्कृति का ही नाम लिया जाता था। मोहल्ले में तो लोग अपनी बेटियों को उसके जैसा होने की बात करते थे। भले ही दशरथ मेहनत मजदूरी और कुली का काम करता था, पैसों की कमी की वज़ह से उस पर ज़्यादा क़र्ज़ था, लेकिन उसने मोहल्ले से लेकर कानपूर स्टेशन तक अपनी ईमानदारी और स्वभाव से नाम कमाया था। उसके इस नाम को धरोहर की तरह संस्कृति आगे बढ़ा रही थी।
लेकिन तीनों छोटी बहनों की शादी के बाद से इस नाम के साथ एक सवाल जुड़ गया था “आख़िर, बड़ी बहन की शादी क्यों नहीं हुई?”
“दशरथ ने ऐसा क्यों किया?”
मोहल्ले के बहुत से बड़े बुजुर्गों ने दशरथ को समझाया था कि कम से कम सबसे छोटी बहनों के साथ एक ही मंडप पर कोई अच्छा सा लड़का देखकर संस्कृति की शादी कर दे। कम से कम दुबारा ख़र्च से बच जायेगा, लेकिन दशरथ ने किसी को कोई जवाब नहीं दिया था। चुपचाप सभी की बात सुनता रहा और सभी का मान रखने के लिए हामी भरता रहा।
ख़ुद संस्कृति को समझ नहीं आया था कि उसके पिता ने ऐसा क्यों किया है। भले ही संस्कृति पढ़ना चाहती थी, लेकिन दशरथ ने संस्कृति पर शादी करने के लिए एक बार भी दबाव नहीं बनाया था। वह अपने पिता को दिन रात मेहनत करते देखा करती थी। बीमारियों में भी काम करते देखा था। जब से तीनों बहनों की शादी का कर्ज़ बढ़ा था, तब से वह कुली के काम के साथ-साथ और भी दूसरे मजदूरी के काम कर लेते थे ताकि शादी का कर्ज़ चुका सकें।
हालांकि सूद पर लिए गए क़र्ज़ तो फूटी हुई मटकी की तरह थे, कितनी भी कमाई उसमें डालते जाओ वो पूरा होने वाला नहीं था। संस्कृति के इलाज़ में ख़र्च होने वाले पैसे के कारण वो ख़ुद में शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। उसे लगता था कोई ऐसी चिंता है जो उसके पिता को खाई जा रही है। शायद उस सबकी वज़ह वही है। कितनी ही बार उसने अपने पिता से सुना था कि दिल्ली ही रहते तो आज हालत कुछ और होती।
बहनों की शादी के बाद घर में दशरथ और संस्कृति ही थे। जो समाज संस्कृति जैसा होने का उदहारण दिया करता था वो सब ताने में बदल चूका था। घर से निकलते ही संस्कृति को सभी घूरने लगते थे। ऐसे घूरते मानों कह रहे हो “इतनी भोली दिखती है, कहीं किसी के साथ इसका चक्कर तो नहीं, ज़रूर चक्कर होगा, तभी शादी नहीं कर रही, अपने बाप का कहा भी नहीं मान रही होगी, झूठ-मुठ का पढ़ाई का नाटक कर रही है।”
ऐसी न जाने कितनी ही बातें संस्कृति के बारे में होने लगी थी। एक तो घर की ऐसी हालत की कभी-कभी खाने को सोचना पड़ जाए। दूसरा पिता की बेचैनी तीसरा समाज के ताने और इन सबसे अलग ख़ुद में एक अकेलापन जो बार-बार संस्कृति को खाए जाती थी।
नरेश की बात से गुस्सा होकर दशरथ घर पहुँचा। तब तक शाम हो गयी थी। कल की कमाई से बचे कुछ पैसे से दशरथ ने रास्ते में ही थोड़े से आलू और गोभी ख़रीद लिए थे सब्जी के लिए।
दशरथ(पुकारते हुए)- “संस्कृति ये ले, तेरी तेरे मनपसंद गोभी ले आया”
उधर से कोई जवाब नहीं आया। उसने हाथ- मुँह धोकर गमछे से पोछा
दशरथ (ज़्यादा ज़ोर से आवाज़ लगाते हुए) - “बना ले सब्जी, सुबह के बचे चावल के साथ खा लेंगे दोनों बाप बेटी”
फिर से कोई जवाब नहीं आया।
उसने संस्कृति को पुकारते हुए कमरे की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़ा खुला था लेकिन अन्दर कोई नहीं था।
उसने घर से बाहर निकलकर देखा कहीं आस पड़ोस में होगी, लेकिन वो आस पड़ोस में कहीं नहीं थी।
उसने हिम्मत करके बगल वाले घर में संस्कृति को ढूंढने गया। एक पड़ोसी ने रूखी आवाज़ में कहा कि अब संस्कृति उनके यहाँ नहीं आती, इसलिए कहीं और ढूंढने को कहा। इतने में दूसरा पड़ोसी दबे आवाज़ में फुसफुसाया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी लड़के के साथ फरार हो गई हो। दशरथ ने बात को अनसुना कर दिया। वो आगे बढ़कर संस्कृति के बारे में पूछने लगा। एक-एक करके आस पड़ोस छान मारा। एक-एक दुकानदार से पूछा, लेकिन किसी ने संस्कृति को नहीं देखा था। दशरथ के मन में डर समाने लगा।
उसके पैर संस्कृति को ढूंढने के लिए तेज़ी से हर तरफ़ बढ़ने लगे। इस बीच उसकी टूटी हुई चप्पलें ना जाने कितनी बार उसके पैरों का साथ छोड़ती रही। ऐसा लग रहा था जैसे दशरथ की साँस अटक गयी हो। वो संस्कृति को ढूंढते-ढूंढते घर से बहुत आगे आ गया था। कुछ बच्चे सड़क पर ही क्रिकेट खेल रहे थे। दशरथ को लगा शायद बच्चों ने उसकी बेटी को देखा हो। किसी बच्चे ने उसे संस्कृति के बारे में नहीं बताया, लेकिन जैसे ही वह थोड़ा आगे बढ़ा, एक बच्चा चिल्लाते हुए बोला कि उसने ब्लू सूट पहने एक लड़की को स्टेशन की ओर जाते हुए देखा था, जो बिल्कुल संस्कृति दीदी जैसी लग रही थी। ब्लू सूट का ज़िक्र सुनते ही दशरथ का दिल दहल गया और वह डर के मारे काँपने लगा।
अपनी छोटी बेटी की शादी में उसने संस्कृति को ब्लू सूट दिलाया था। वो जितनी तेज़ी से भाग सकता था कानपूर रेलवे स्टेशन की तरफ़ भागने लगा। भागते-भागते वो जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचा। उसने देखा प्लेटफॉर्म पर बहुत भीड़ लगी है। भीड़ बात कर रही थी कि अगर कोई नहीं देखता तो आज उसकी जान चली जाती। दशरथ भाग कर भीड़ से होते हुए आगे पहुँचा। उसने देखा, सामने संस्कृति बैठी है और साथ में नरेश बैठा है। दशरथ को सामने देखकर संस्कृति रो पड़ी और आकर अपने पिता से लिपट गई। दशरथ को समझते देर न लगी कि आख़िर संस्कृति प्लेटफ़ॉर्म पर क्या कर रही है। उसने उसे कुछ भी नहीं पूछा, बस चुपचाप उसे गले लगाए रखा। धीरे-धीरे भीड़ कम होती चली गई।
दशरथ (बहुत ही प्यार से) - घर चलें!
संस्कृति ने कुछ भी जवाब नहीं दिया और घर लौटने के लिए तैयार हो गई। नरेश ने दशरथ को संस्कृति का ख़्याल रखने के लिए कहते हुए वहाँ से विदा ली।
संस्कृति ने अपने आप को खत्म करने की कोशिश की थी, जिंदा बचने के बाद अब उसकी ज़िन्दगी कैसी होगी? क्या वो अपने आप से, अपने पिता से नज़रें मिला पाएगी? क्या ये हादसा उसे ज़िन्दगी के नए मायने देगा?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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