आज कानपुर रेलवे स्टेशन पर कुछ देर पहले जो भी हलचल हुई थी, वह किसी ट्रेन के आने से नहीं, बल्कि संस्कृति की वज़ह से हुई थी। नरेश ने दशरथ को सारी बातें बता दी थीं। वह भी अपने घर लौटने ही वाला था, जब उसने देखा कि संस्कृति प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी है। वह शून्य में खोई हुई थी। प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन आने वाली थी, लेकिन संस्कृति प्लेटफ़ॉर्म के किनारे पर खड़ी रही। लोग चिल्लाते रहे, लेकिन उसने सभी की आवाज़ें अनसुनी कर दीं। तभी एक लड़के ने दौड़कर संस्कृति को ट्रेन आने से पहले प्लेटफ़ॉर्म की ओर खींच लिया। संस्कृति जबरदस्ती उसका हाथ छुड़ाकर दोबारा ट्रेन के सामने कूदने की कोशिश करने लगी। उस लड़के ने उसे बहुत समझाया। तब तक नरेश वहाँ पहुँच चुका था। वह संस्कृति को अच्छी तरह पहचानता था। उसने वहाँ लगी हुई भीड़ को भी हटने के लिए कहा। तभी दशरथ वहाँ पहुँच गया। अपने पिता को प्लेटफ़ॉर्म पर देखकर संस्कृति बस चुपचाप रोती रही। दशरथ भी उससे कुछ नहीं कह पाया। दोनों ही घर लौट आए। दशरथ को डॉक्टर की बात याद आई, जिसने कहा था कि उसे किसी भी प्रकार की तकलीफ़ या परेशानी नहीं होनी चाहिए।

 

दशरथ (समझाते हुए) - तुझे क्या लगता है, तेरे ऐसा करने से सारी परेशानियां खत्म हो जाएंगी? तूने एक बार भी अपने पापा के बारे में नहीं सोचा। अगर आज तुझे कुछ हो जाता, तो मैं कैसे जिंदा रहता? मैं भी वहीं, उसी प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी जान दे देता। क्या इसी दिन के लिए मैंने सारी उम्र इतनी मेहनत की है? क्या मैं अपनी आँखों के सामने अपनी बेटी को इस तरह देखूं?

 

अपनी बात खत्म करके दशरथ भी फूट-फूट कर रोने लगा। अपने पिता को इस हालत में देखकर संस्कृति और भी जोर से रोने लगी। उसने सोचा था कि अपनी जान देकर अपने पिता को सारी परेशानियों से मुक्त कर देगी, लेकिन अपने पिता की हालत देखकर उसे अब बहुत पछतावा होने लगा।

 

संस्कृति (सुबकते हुए) - पापा, मुझे माफ़ कर दो। बस माफ़ कर दो। मुझसे ग़लती हो गई। मैं तो बस आपकी मदद करना चाहती थी। मैं आपको और परेशान होता नहीं देख सकती। इस तरह घुट-घुट कर जीने से तो अच्छा था कि मैं चली जाती।

 

दशरथ (काँपती आवाज़ में) - तू समझती क्यों नहीं? तुझे क्या लगता है, तेरे जाने से सब ठीक हो जाएगा? मुझे मालूम है कि मैंने तुझे कुछ भी काम या नौकरी करने से मना किया है। अब मैं तुझे बिल्कुल नहीं रोकूंगा। तुझे जैसा करना है, जो करना है वह कर, लेकिन यह सब बेवकूफ़ी करने की बात अपने मन से निकाल दे। तुझे कुछ हो गया, तो मैं भी जिंदा नहीं रहूँगा।

 

उस रात घर में खाना नहीं बना। न तो दशरथ की इच्छा थी और न ही संस्कृति की हिम्मत। दशरथ खाट पर पड़ा रोता रहा और संस्कृति दूसरे कमरे में।

 

संस्कृति को आज स्टेशन पर हुआ पूरा सीन याद आने लगा। सामने से ट्रेन आ रही थी और वह प्लेटफ़ॉर्म के किनारे खड़ी थी। उसके मन में अपने पिता और अपनी बहनों की शक्लें घूम रही थीं। उसका घर उसकी नज़रों के सामने घूम रहा था। दीवार पर टंगी माँ की तस्वीर उससे जैसे बात कर रही थी। वह हर तरह से अपनी माँ से माफ़ी माँग रही थी। उसे लगा था जैसे सब खत्म होने वाला है। उसके खत्म होते ही सारी परेशानियां खत्म हो जाएंगी, लेकिन तभी एक लड़के ने उसका हाथ पकड़कर उसे प्लेटफ़ॉर्म की ओर खींच लिया था।

 

जिस लड़के ने उसकी जान बचाई थी, उसे दूसरी ट्रेन पकड़नी थी, इसलिए वह ज़्यादा समय तक संस्कृति के पास नहीं रुक पाया। संस्कृति को उस लड़के का कहा हुआ एक वाक्य अभी भी कानों में गूंज रहा था - "अब यह बची हुई जिंदगी सिर्फ़ तुम्हारी नहीं रही।"

 

रात भर उस लड़के की आवाज़ न जाने कितनी बातें कहती रही।

 

संस्कृति की आत्महत्या की कोशिश के बारे में पूरे शहर में हंगामा हो गया था। ज़्यादातर लोग इससे ज़्यादा ताज्जुब में नहीं थे। बहुत सारे लोग अब भी उसके चरित्र को लेकर न जाने कितनी बातें कर रहे थे। कुछ लोग यह कह रहे थे कि उसने यह सब अपनी शादी न होने के कारण किया है। किसी ने कहा कि उसे किसी से प्रेम है और उसका पिता दशरथ उसके खिलाफ़ है।

 

अगली सुबह दशरथ बहुत जल्दी घर से बाहर निकल गया। दिवाकर ने उसे मोहल्ले में ही रोकने और कल की घटना के बारे में जानने की कोशिश की, मगर दशरथ ने बाद में बात करने को कहकर वहाँ से निकल पड़ा।

दिवाकर पूरी बात जानने के लिए संस्कृति के पास पहुँचा। संस्कृति ने पूरी घटना बताने से इनकार कर दिया। तब दिवाकर ने समझाते हुए कहा कि मरना किसी भी समस्या का हल नहीं है। अच्छा होगा कि वह अपने पिता का हाथ बंटाए। वह पढ़ी-लिखी और समझदार है, घर में सबसे बड़ी है। दिवाकर ने यह ज़िम्मेदारी ली कि वह दशरथ को संस्कृति के बाहर जाकर नौकरी करने के लिए भी राज़ी करेगा। यह बात दशरथ पिछली रात को ही संस्कृति से कह चुका था और संस्कृति की हालत देखकर दिवाकर ने आगे उससे कुछ नहीं कहा। आख़िरी में उसने बस यही कहा कि जिंदगी बहुत अनमोल है। अगर दशरथ बाकी लोगों जैसा होता, तो संस्कृति इस दुनिया में आती ही नहीं। बहुत से लोग तो अपनी बेटियों को गर्भ में ही मार देते हैं, लेकिन दशरथ ने उसे बड़े नाजों से पाला है। कम से कम अपनी नहीं, तो अपने पिता की ही फिक्र करे। उसे जो यह नई जिंदगी मिली है, इसे ख़ुशी-ख़ुशी जीते हुए दुःखों का सामना करे और समस्याओं का हल निकाले।

 

संस्कृति ने दिवाकर को ज़्यादा कुछ जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बैठने के बाद दिवाकर चाय पीकर वापस अपने घर लौट गया।

बार-बार संस्कृति के मन में एक ही लाइन गूंज रही थी - "अब यह बची हुई जिंदगी सिर्फ़ तुम्हारी नहीं रही।”

 

कुछ रोज संस्कृति अपने पिता से नज़रे नहीं मिला पाई और ना ही दशरथ अपनी बेटी से, लेकिन अब संस्कृति के मन में अपने पिता का ख़्याल ज़्यादा था। एक सुबह काम पर जाने से पहले दशरथ ने संस्कृति से कहा।

 

दशरथ (खाना खाते हुए) - मैंने अपनी जान पहचान में ही कुछ लोगों से कहा है कि वह तुम्हारी लिए कोई नौकरी ढूंढ दे। अगर तुम्हें कोई नौकरी मिल जाएगी तो तुम्हारा भी मन लगा रहेगा।

 

संस्कृति ने कुछ भी जवाब नहीं दिया, बस मुस्कुरा कर उसने कहा, “ठीक है”

 

कुछ रोज बाद दशरथ को वही पैसेंजर मिला जिसने उसको मज़दूरी के पैसों के अलावा सौ रुपए अलग से दिए थे।

 

पैसेंजर (ख़ुशी से) - कैसे हैं चाचा? घर पर सब ठीक-ठाक न?

इस बार उस पैसेंजर के पास सिर्फ़ एक लैपटॉप बैग था। वह फिर कहीं से वापस आ रहा था।

 

दशरथ (ख़ुशी से) - बहुत अच्छे हैं, आप अपना बताइए कैसे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? यह ट्रेन तो दिल्ली से आई है, लगता है आप भी दिल्ली से आए हैं।

 

पैसेंजर (हामी भरते हुए) - हाँ अभी-अभी दिल्ली से वापस आया हूँ।  कुछ दिनों बाद फिर से वापस जाना है। मेरा दिल्ली कानपुर आना-जाना तो लगा रहता है। ऐसा लगता है कि अब मैं पूरी जिंदगी सफ़र में ही रहने वाला हूँ।  

 

दशरथ(हँसते हुए)- जिंदगी तो एक सफ़र ही है, कुछ लोगों की ट्रेन में कटती है और कुछ लोगों की प्लेटफ़ॉर्म पर।

 

यह सुनकर दोनों ही हँस पड़े। अगले ही पल एक दूसरी ट्रेन आई और दशरथ उस ट्रेन की तरफ़ बढ़ गया और वह पैसेंजर है फिर से ऑटो लेने के लिए स्टेशन से बाहर आ गया।

 

दशरथ (मन ही मन) - मुझे उस पैसेंजर से बात करनी चाहिए थी। संस्कृति के बारे में अगर मैं उसे बताऊंगा तो ज़रूर कहीं ना कहीं वह नौकरी दिलाने की बात करेगा। देखने में तो बहुत ही भला मालूम पड़ता है और स्वभाव भी इतना अच्छा है वह जरुर मदद करेगा।

 

मन ही मन यह बात सोचते हुए दशरथ ने पीछे मुड़ के देखा लेकिन दूर-दूर तक वह कहीं दिखाई नहीं पड़ा।

उसने थोड़ा अफ़सोस करते हुए फिर से मन ही मन कहा

दशरथ (मन हो मन) - उसने कहा है वह अभी फिर से वापस दिल्ली जाएगा, तब मैं पक्का उससे संस्कृति की नौकरी लगवाने के बारे में बात करूँगा।

 

संगीता बुआ अपना इलाज़ कराने के लिए बिराना मोहल्ले में कुछ दिन पहले ही आई थी। आते ही उसे संस्कृति के आत्महत्या करने के बारे में पता चला। पास के अस्पताल में इलाज़ कराने के बाद एक दिन संगीता बुआ संस्कृति से मिली और उसे बहुत समझाया। बुआ ने अपने जीवन में देखे गए बहुत से उदाहरण दिए जिसमें लोग गरीब से अमीर बन रहे थे। बहुत से ऐसे लोगों का उदाहरण दिया जिन्होंने अपने जीवन में बहुत सारी परेशानियां अच्छी और उनसे लड़ते हुए एक दिन आगे बढ़ते हुए दुनिया में नाम किया।

 

संस्कृति (विश्वास दिलाते हुए) - संगीता बुआ, आप बात तो ठीक कह रहे हो। मेरा विश्वास करो, अब मैं भूल कर भी ऐसी कोई ग़लती नहीं कर सकती जिसे अपने पापा को या अपनी बहनों को तकलीफ़ हो।

 

संस्कृति की तबियत ख़राब होने का सुनकर दिव्या घर आने वाली थी, लेकिन आत्महत्या की कोशिश करने के दिन ही दशरथ ने फ़ोन करके उसे आने से मना कर दिया था। वह नहीं चाहता था कि उसके ससुराल वालों को इस बात की ज़रा सी भी भनक लगे।

उस रोज़ के बाद से संस्कृति ने अपनी तीनों बहनों से बात की थी और उनसे माफ़ी भी माँगी थी। तीनों बहनों को समझ नहीं आया था कि आख़िर उसकी बड़ी बहन उनसे किस बात की माफ़ी माँग रही है। संस्कृति ने ख़ुद से कुछ भी नहीं बताया था अपनी बहनों को और ना ही उसकी बहनों को किसी से ख़बर लगी थी।

 

वैसे तो दिवाकर हर एक ख़बर उनके ससुराल वालों को देता था लेकिन एक इस बात की ख़बर उसने अपने पास रख ली थी। उसने किसी ने बताया था कि संस्कृति उस रोज कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर जाकर ट्रेन के सामने आकर जान देने वाली थी। उस रोज़ के बाद से दिवाकर जब भी संस्कृति से मिलता तो हँसकर मिलता था उससे अच्छी-अच्छी बातें करता, उसे मोटिवेट करता।

 

संस्कृति के मन में भी अपने उठाए गए कदम को लेकर बहुत अफ़सोस हो रहा था लेकिन वह अपने किए को बदल नहीं सकती थी। इसलिए उसने अपने पिता से दिवाकर से अपने बहनों से और ख़ुद से एक वादा किया

संस्कृति (पछतावा और आत्मविश्वास से) - सच में, अब मुझे लगने लगा है कि मैंने जो कदम उठाया था, वह वाकई ग़लत था। अब मैं अपने जीवन का उद्देश्य ढूंढ के रहूँगी, आख़िर मुझे यह जिंदगी वरदान में मिली है।

 

संस्कृति को धीरे-धीरे अपने उठाये गए फैसले का पछतावा हो रहा था। क्या वह अपनी नयी जिंदगी को नए सिरे से शुरू कर पाएगी?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

 

 

 

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