“राजघराना का एक और वारिस है… और वो अभी ज़िंदा है।”
मुक्तेश्वर के हाथों से चिट्ठी नीचे गिर गई। उसके चेहरे का रंग भी सफेद हो गया था। तो वहीं उसके इन शब्दों ने सबके पैरों तले जमीन खिसका दी थी। कमरे में फैला सन्नाटा अब धीमे-धीमे बेचैनी में बदल रहा था। हर चेहरा कुछ ना कुछ पूछना चाहता था, मगर जुबान पर जैसे ताले जड़े थे।
लेकिन तभी वीर ने सबसे पहले चुप्पी तोड़ और बोला— “क्या फिर से वही सब शुरू होगा...? जायदाद... अधिकार... कुर्सी?”
मुक्तेश्वर ने चेहरे पर आई शिकन को हल्का करते हुए सिर झुकाकर पहले उठ चिट्ठी को उठाया और फिर पढ़ते हुए जवाब दिया— “नहीं... क्योंकि ये कोई नया वारिस नहीं है। ये वो हैं, जिन्हें जन्म से पहले ही घर से निकाल दिया गया था, लेकिन हाल ही में वो लौट आई है...”
रेनू, जो अब तक मौन थी, आगे बढ़ी और मुक्तेश्वर के हाथ से वो चिट्ठी लेकर जोर से पढ़ने लगी— “मैं, गजराज सिंह, यह घोषणा करता हूं कि मेरे छोटे भाई, स्वर्गीय राज राजेश्वर सिंह की दोनों पुत्रियां— सुधा और मधु— अब इस राजघराने की संपत्ति में समान हिस्सेदार होंगी। उन्हें मैंने सिर्फ खून का नहीं, अब अपना नाम भी दिया है। जहां मेरी पहली वसीयत सत्ता के लिए थी, ये दूसरी वसीयत आत्मा के लिए है।”
सभी की आंखों में एक साथ बहुत कुछ उभरा — हैरानी, शर्मिंदगी, पछतावा। और सबसे ज्यादा... एक बीते हुए इतिहास की कसक। लेकिन साथ ही सबकों सुधा और मधु को उनका हक मिलने की खुशी थी, क्योंकि वो दोनों सच में हकदार थी।
तभी वीर ने धीरे से कहा— “इस घर ने पहले भी औरतों को कमतर समझा है... लेकिन अब नहीं। दादा जी ने देर से ही सही, पर एकदम सही फैसला लिया है... तो हम उसे पूरा करेंगे। सुधा और मधु दोनों हमारी बहनें है, हम उन्हें उनका हक जरूर देगें। क्यों गजेन्द्र सही कहा ना मैंने?”
गजेन्द्र, जो अब तक चुप खड़ा था, आगे बढ़ा और वीर के सवालों का जवाब देते हुए बोला— “भाई, अब इस घर को दीवारों की नहीं, जड़ों की ज़रूरत है। और जड़ें बिना महिलाओं के कभी मजबूत नहीं होतीं। बात रही बहनों की तो हर भाई को अपनी बहन को पलकों पर रख फूलों की तरह पालना चाहिए। देर से ही सही पर हम भी अपनी बहनों का ख्याल आज से फूलों की तरह ही रखेंगे।”
दो दिन बाद…
“जानकी–इरावती बाल निकेतन” में बच्चों का पहला दिन था, एक-एक कर हर बच्चा अपना नाम और अपनी पहचान के बारे में जितना भी जानता था, वो बता रहा था। सबकी प्यारी-प्यारी बातें सुनने के बाद वीर ने उन्हें जिंदगी का पहला पाठ पढ़ाना शुरु किया।
वो मैदान, जहां कभी घोड़े दौड़ते थे, अब वहां मासूम बच्चों की हंसी गूंजने लगी थी। मुक्तेश्वर और वीर, जो कोने अभी भी अधूरे थे, उन्हें खुद अपने हाथों से सजा रहे थे। दूसरी तरफ रेनू बच्चों के साथ रंग भर रही थी। और गजेन्द्र... वो अस्तबल में बच्चों को घोड़ों के नाम बता रहा था।
“ये देखो बच्चों, ये है ‘शौर्य’। ये था मेरा पापा का घोड़ा। मेरे पापा ने इस घोड़े पर बैठकर ना जाने कितनी रेसें जीती थी...और आज से ही ये तुम सबका दोस्त भी है। तो अब से तुम लोग इसे इसके नाम से ही बुलाना।”
तभी एक छोटा सा बच्चा आया और अपनी तोतली सी आवाज में बोला— “आप घुड़दौड़ में नहीं जाते अब?”
गजेन्द्र कुछ पल चुप रहा। फिर मुस्कुराया, और बोला— “शायद अब मैं रेस नहीं जीतना चाहता। मैं बस डर के बिना सवारी करना चाहता हूं। मेरे अतीत ने मुझे सिखाया है, मैदान की रेस जीतने से ज्यादा, जिंदगी की रेस जीतना और लोगों के भरोसे को हासिल करना जरूरी है। इसलिए अब मैं खेल को खेल की तरह देखता हूं।”
मुक्तेश्वर, जो वहीं पास खड़ा था, गजेन्द्र की ये परिपक्वता भरी गंभीर बातें सुनकर मुस्कुराया और खुद से बड़बड़ाते हुए बोला— “डर से नहीं... अब सिखाने से जीत होगी। सच में मेरा गजेन्द्र अब बड़ा हो गया है।”
इसके बाद सब अपने अपने कामों में लग गए। फिर जानकी-इरावती शाम को हवेली में एक और बैठक हुई।
वकील फिर आया, इस बार दस्तावेज़ लेकर। मगर इस बार कोई सस्पेंस नहीं था। सब जानते थे — सुधा और मधु के नाम अब संपत्ति में दर्ज हो रहे थे। वीर ने दस्तावेज़ पर सबसे पहले साइन किए, फिर रेनू ने। और अंत में गजेन्द्र ने चुपचाप कलम उठाई और बिना कोई बात किए साइन कर दिए। साइन करते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी झलक रही थी... और तभी मधु और सुधा वहां पहुंच चुकी थीं।
सादा साड़ी, सख्त चेहरा और आंखों में गहराई लिए — सुधा ने सबसे पहले अपने पिता की तस्वीर को देखा और फिर बोली— “हमें यहां हिस्सा चाहिए, लेकिन पैसे का नहीं... सम्मान का। जो हमारे पिता को कभी नहीं मिला, वो उनकी बेटियों होकर हम हासिल करना चाहती है। हां ये बात हम भी जानते है कि हमें तो कभी हमारे पिता तक ने नहीं अपनाया था, तो हमे बाकी रिश्तों से भी किसी तरह की कोई उम्मीद रखने का भी हक नहीं है।”
प्रभा ताई ने उठकर उन्हें गले लगाया और बोलीं— “अब ये हवेली भी तुम्हारी है, और इसका हर कोना भी मेरी राजकुमारियों। माफ करना कि आज तक हम तुम्हें तुम्हारे हक का प्यार, शरारते, डांट, जिद्द करने का हक नहीं दे पायें। लेकिन अब और नहीं, इस हवेली का हर कोना तुम्हारा है, जहां जिद्द करनी हो करों। जहां जो सजाना हो... कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।”
ये सुनते ही मधु और सुधा दोनों की आंखों से आसुंओ की धार बहने लगी। दोनों ने दुबारा प्रभा ताई को कस की गले लगाया, लेकिन इस बार उन्होंने उन्हें बुआ भी कह कर पुकारा, जिसे सुन प्रभा ताई का रोम-रोम खिल उठा।
इसके बाद सभी अपने-अपने कमरे में चले गए। उस रात राजघराना महल के अस्तबल में रेनू अब भी विराज से सीधे बात नहीं कर पाई थी, लेकिन आज वो साहस कर के अस्तबल की तरफ गई, जहां विराज अकेला बैठा था।
उसने जान-बूझ कर अपने कदमों की आहट को तेज किया। उसकी पायलों की आवाज सुनते ही विराज थोड़ा सीधा होकर बैठ गया। तभी रेनू ने कहा— “तुम अब भी मुझसे गुस्सा हो? वैसें इतनी रात को यहां क्या कर रहे हो?”
विराज ने रेनू के किसी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। बस चुपचाप एक टक चांद की रोशनी को निहारता हुए वैसे ही बैठा रहा... एक डग भी नहीं हिला।
तभी रेनू उसके और करीब आ गई “मैंने जो किया, वो बाबा के डर से था। पर जो महसूस किया, वो दिल से था।”
ये सुनते ही विराज ने पहली बार उसकी तरफ देखा और बोला— “क्या वो अब भी है...? क्या हमारे बीच के एहसास अब भी तुम्हारे अंदर जिंदा है।”
रेनू की आंखें भर आईं और वो विराज की आंखों में देखते हुए बोलीं— “अगर मैं कहूं कि अब भी हर रात तुम्हारा नाम सोचती हूं... हर रात दिल में तुम्हारे जज्बात और आंखों में आंसू लेकर सोती हूं, तो क्या तुम मेरी बात मानोगे?”
विराज खड़ा हुआ, उसके पास आया... और बिना कुछ कहे गिटार का वो टुकड़ा थमाया जो उसने उसके लिए बनाया था।
रेनू ने कांपते हाथों से उसे लिया और मुस्कुराई... इस वक्त उसके चेहरे की हंसी बता रही थी कि उसकी उम्मीद के जिंदा होने ने उसे अंदर तक खुश कर दिया है। वो खिल खिलाकर बोलीं— “तो क्या अब ये रिश्ता फिर से एक नई धुन में बज सकता है? सच में विराज हम फिर से एक हो सकते है?”
विराज ने अपना कॉलर को थोड़ा ऊपर किया, फिर धीरे-धीरे बाजुओ से हाथ के कफ को मोड़ते हुए बोला— “हाँ... अब की बार सुर मिलाकर रिश्ता सिर्फ बढ़ेंगा नहीं, उसे पक्के भरोसे के साथ निभायेंगे भी...याद रखना।”
तभी विराज ने अपने दोनों हाथों में रेनू के दोनों हाथों को लिया और फिर उन्हें चूमते हुए बोला— “देखों रेनू, मैं नहीं चाहता कि पिछले चार महीनों में जो मेरे दिल ने झेला... वो फिर कभी झेले। मैं आज इस रिश्तें को दुबारा शुरु करने से पहले एक वादा तुमसे चाहता हूं और एक वादा तुम्हे करना चाहता हूं।“
रेनू ने चौकती हुए नजरों से पहले उसे देखा और फिर बोलीं— “हां बताओं विराज, मैं सुन रही हूं।”
विराज ने बिना सांस लिए कहा— पहला वादा मुझे तुमसे चाहिए, कि हम दोनों के बीच कभी किसी तीसरे को नहीं आने दोगी। और नां ही कभी किसी तीसरे के कारण मुझे बिना कुछ कहें... बिना मुझसे बात किये मुझे छोड़कर जाओगी। मैं बता दूं, अगली बार अगर इस तरह मुझे छोड़कर गई, तो मैं मर जाउंगा।
वीर की ये बात सुनते ही रेनू ने अपने दायें हाथ की उंगली उसके होठों पर रख दी। अगले ही पल विराज ने धीरे से उस उंगली को अपने होठों से हटाया।
“अगला वादा मैं तुमसे करता हूं, कि मैं कभी हम दोनों के बीच किसी को नहीं आने दूंगा। और रही बात रिया की तो मैं बता दूं कि रिया मेरा पांच साल पुराना अतीत थी। हम कॉलेज में एक-दूसरे को पसंद करते थे, लेकिन हमारी सगाई, जबरदस्ती की धार पर हुई थी, जिसे हमने तोड़ दिया था। क्योंकि मैं और रिया दोनों एक-दूसरे के लिए सही नही थे और इस बात का एहसास हमे सगाई वाली रात ही हो गया था।
ऐसे में सगाई के अगले दिन ही हम दोनों अलग हो गए और रहीं बात अब की, तो ये एक इत्तेफाक था कि गजराज अंकल ने मुझे गजेन्द्र का वकील चुना और इत्तेफाक से रिया... गजेन्द्र की गर्लफ्रैंड निकली। मैं सच कहता हूं, अब रिया से मेरा कोई नाता नहीं है।”
विराज एक सांस में बस बोलें जा रहा था। जब उसकी बात खत्म हुई तो रेनू ने उसे कस के गले लगाया और बोली— “हां-हां मैं समझ गई कि मैं गलत थी और तुम सहीं। लेकिन एक जगह तुम गलत हो विराज... मैं बता दूं कि अगर मैं तुमसे अलग हुई, तो मैं भी इस दुनिया में सांस नहीं ले पाउंगी।”
ये रात विराज और रेनू के मिलन की गवाह बनीं। आज चार महींने बाद फाइनली रेनू और विराज एक हो गए थे। ढ़लती रात के साथ चांद की चांदनी भी ढ़ल गई और अगली सुबह सूरज की नई रोशनी एक नई चमक लेकर आई…
आज का दिन राजघराना के लिए बहुत खास दिन था। आज पहली बार गजेन्द्र ने बच्चों के लिए एक छोटा सा ‘घुड़सवारी प्रशिक्षण शिविर’ शुरू किया। बच्चे अस्तबल के बाहर लाइन लगाकर खड़े थे। गजेन्द्र ने उन्हें हेलमेट पहनाए, फिर हंसते हुए निर्देश दिए और हर घोड़े का नाम, स्वभाव और उसके साथ बात करने के तरीके भी बच्चों को बारीकी से सिखाए, ताकि वो उन घोड़ों के साथ दिल से जुड़ सकें।
ये सब देख वीर ने अपने पिता मुक्तिेश्वर से धीरे से कहा— “क्या गजेन्द्र हमेशा से ऐसा ही था, लोगों से इतने ही प्यार और अपनेपन से बात करने वाला।”
मुक्तेश्वर मुस्कुराया और बोला— “हां वो हमेशा हर किसी से प्यार से ही बात करता है। टूट तो वो उस केस के बाद गया था, लेकिन उससे बाहर निकलने और तुमसे यानि अपने जुड़वा भाई से मिलने के बाद दुनिया को देखने का उसका नजारा बिल्कुल बदल गया है। ऐसे में वो इन बच्चों के अंदर भी तुम्हारी ही तरह हिम्मत देखना चाहता है। ये ही वजह है कि वो इन बच्चों को डर नहीं सिखा रहा, आज़ादी सिखा रहा है।”
मुक्तेश्वर और वीर आपस में ये सब बातें कर रहे थे, कि तभी पीछे से मधु और सुधा आ गई। आते के साथ उन्होंने वीर को बताया कि आज उन्होंने राजघराना महल के पुराने बगीचे में अपने हाथों से एक आम और नीम का पौधा लगाया है।
“हम जड़ें हैं... हमें छांव नहीं, जड़ों की ज़मीन चाहिए। ये ही बात इन बच्चों के साथ भी लागू होती है... इन पौधों को लगाने के साथ वीर भाई हम आपको ये ही समझाना चाहते हैं।”
सुधा की आवाज़ में अब वो आत्मविश्वास था, जो सालों पहले छिन गया था। तभी मधु भी अपने मन की बात जाहिर करते हुए कहती है— “अब जो उगेगा, वो सबका होगा... सिर्फ एक नाम का नहीं, क्यों भैया सच कहा ना मैंने... ये बच्चे प्यार और भरोसे के साथ जीना सिख जायेंगे।।”
अंत में... मुक्तेश्वर आज एक बार फिर ट्रॉफी रूम में खड़ा था। वहां अब रंग-बिरंगी दीवारें थीं। वीर और गजेन्द्र बच्चों के बीच थे। रेनू और विराज एक पेड़ के नीचे बैठे, कुछ नया लिख रहे थे। कुछ देर बाद बच्चे वहां आये तो देखा दीवार पर लिखा था— “इतिहास बदलना हो, तो राजसिंहासन नहीं, सोच बदलो।”
आखिर क्या मतलब था इस बात का?
क्या राजघराना अब सच में बदल गया था? या बीते हुए रिश्तों की जड़ें फिर से कोई तूफान लाएँगी?
क्या विराज और रेनू का रिश्ता अब अपने असली सुर में बहेगा?
और क्या मधु और सुधा की वापसी पुराने दर्द को मिटा पाएगी...?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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