गजराज सिंह की चिता से उठता धुआं अब तक हवेली की दीवारों में छुपे हर गुनाह को जला चुका था। मगर उसकी राख, अब भी हवेली की छतों, गलियारों और पुराने तहखानों में उड़ती हुई घूम रही थी। हवेली पहले जैसी दिख रही थी — मगर अब वहां लोगों के दिलों में साजिशो का गुबार नहीं था। हर कोई एक दूसरे को साजिश भरी नजरों से नहीं देखता था। 

दूसरी तरफ वो सिंहासन, जिस पर वर्षों तक गजराज सिंह बैठा करता था। अपने सख्त फैसले सुनाता था और जनता पर रौब जमाता था, अब एक खाली कुर्सी बनकर रह गया था। मानों जैसे उस कुर्सी ने भी गजराज की मौत के बाद मौन धारण कर लिया हो।

हर बार की तरह इस बार भी हवेली खामोश थी... लेकिन बदलाव की बात ये थी, कि अब उस खामोशी में पहले जैसी दहशत नहीं थी, बल्कि सुकून था, एक अजीब सी राहत थी। जैसे कोई वर्षों का जख्म अब भरना शुरू हुआ हो।

सुनसान दीवारें और यादों की आहटें थी, लेकिन कुछ तस्वीरें ऐसी भी थी जो अतीत के बुरे दिनों को कुरेद रही थी। रोज की तरह आज भी मुक्तेश्वर उस सुबह जल्दी उठ गया था। लेकिन ना जाने क्यों कल की रात वो सो नहीं पाया। 

पिता के अंतिम संस्कार के बाद ये पहली रात थी, जब उसे एक अजीब सी बेचैनी अंदर ही अंदर खाये जा रही थी। वो बार-बार अपने कमरे में जाता, फिर गलियारे में आता... उसे बार-बार ऐसा लग रहा था, जैसे कोई परछाई उसे घूर रही है। एक पल को लगा, गजराज सिंह अब भी अपने सिंहासन पर बैठा, उसे ताक रहा है। लेकिन जैसे ही सूरज की रोशनी राजघराना महल के ऊपर पड़ी, एकाएक उसके अंदर की बेचैनी खत्म हो गए। और सुबह की धूप से सब साफ-साफ नजर आने लगा— उसने देखा कुर्सी सच में खाली थी। 

वो खुद से बातें करता हुआ बुदबुदाया…“बाबा चले गए, लेकिन ना जाने कितने अधूरे सवाल… यहीं छोड़ गए।”

ये बोलता-बोलता वो ट्रॉफी रूम के अंदर गया, जहां ना जाने कितनी ट्राफी पड़ी थी। ये सब एक दौर में राजघराना की जीत का फंसाना बयां कर रही थी। उन्हें देख एक पल के लिए तो मुक्तेश्वर के चेहरे पर खुशी झलकती है, लेकिन अगले ही पल एक सवाल कौंद जाता है।

“ना जाने इसमें से कितनी ट्राफी खरीदी गई होंगी। और ना जाने कितनों की जिंदगियों को उनके पीछे तबाह किया गया होगा।”

हवेली का वो कमरा जिसे “ट्रॉफी रूम” कहा जाता था, वहां गजराज सिंह अपने पूर्वजों की तस्वीरें, हथियार और पुरस्कार सजाकर रखा करते थे, उसे मुक्तेश्वर ने आज खुद अपने हाथों से खोला।

उसके हाथों में एक पुराना चाबी का गुच्छा था, जिसमें वो चाभियाँ थी जो कभी गजराज सिर्फ खुद के पास रखा करता था। इतना ही नहीं उन चाभियों को हाथ लगाने वालों को वो बड़ी कड़ी सजा देता था।

मुक्तेश्वर कमरे में यहां-वहां देख रहा था। तभी बार-बार उस कमरे का दरवाजा चरमराया, मानों जैसे कोई कह रहा है, कि कमरे से बाहर निकल जाओ। कोई आंखें मुक्तेश्वर को घूर रही थी, कि वो अतीत को ना कुरेदे और उस कमरे को बंद कर बाहर निकल जाये। 

कमरे के दाई तरफ पड़ी वो एक पुरानी कुर्सी, जो बहुत बदबू कर रही थी। दीवारों पर ढेरों बड़ी-बड़ी तस्वीरें थीं — कोई घोड़े पर बैठा, कोई हाथ में तलवार लिए, कोई शिकार के बाद खून से सनी जैकेट में मुस्कुराता हुआ।

मुक्तेश्वर कुछ देर उन्हें देखता रहा... फिर जैसे कोई बटन उसके अंदर एक एहसास को कुरदने के इरादे से दबा और वो खुद से बड़बड़ाते हुए बोला— “इतिहास का सम्मान ज़रूरी है,” 

आगे उसने कहा— “लेकिन पाप का महिमामंडन नहीं।”

उसी दिन, उसने सभी तस्वीरें एक-एक कर अपने हाथों से दीवार से उतारी और फिर उन्हें आग के हवाले कर दिया। बाद में कमरे की सफाई करने के बाद उसने उनकी जगह आने वाले दिनों में कुछ नई चीज़ें टांगीं। जैसे—बच्चों की बनाई रंग-बिरंगी पेंटिंग्स, पेड़ों, फूलों, स्कूलों और हंसते चेहरों की। गांव के बच्चों को बुलवाकर उसने उनसे दीवारों पर खुद पेंटिंग बनाने को कहा। वो कमरा अब बच्चों की खिलखिलाहट से गूंज उठा था।

वीर और गजेन्द्र, दोनों यह देखकर कुछ पल के लिए हैरान रह गए थे, लेकिन तभी गजेन्द्र ने धीरे से वीर के कानों में कहा— “भाई, ये सब... ये दीवारें... ये कभी इतिहास थीं, लेकिन पापा ने इसे बच्चों का एक पेंटिंग बोर्ड बना दिया। कहां पहले यहां एक से बढ़कर एक पेंटिग और अवॉर्ड रखे थे... पर तब भी ये इतना खूबसूरत नहीं था जितना आज लग रहा है।” 

गजेन्द्र की बातें सुन वीर ने पलट कर बाई तरफ खड़े अपने भाई को देखा और फिर हल्का सा मुस्कुराते हुए बोला— “ये राजगढ़ का आने वाला भविष्य हैं, दादा जी ने इससे बच्चों की किस्मत लिखने का जिम्मा मुझे दिया है, लेकिन पापा इसमें मेरा सच्चे दिल से मार्गदर्शन कर रहे है। सच में पापा दिल के बहुत अच्छे है। तुम्हारा बचपन पापा के साथ बहुत खूबसूरत होगा ना गजेन्द्र?”

ये सवाल करते-करते जहां वीर की आंखे अपने अनाथ दिनों को याद कर नम हो गई, तो वहीं गजेन्द्र ने भी अपनी आखों से छलकते आंसू को पोछा और बोला— “हां पापा के साथ मेरा बचपन बहुत खूबसूरत था, लेकिन मां का आंचल मैंने हमेशा मिस किया। और पता है मैं बचपन में दूसरों के भाई-बहनों को देख हमेशा सोचता था, कि मेरे भाई-बहन क्यों नहीं है? पर मुझे क्या पता था कि भगवान ने भाई जैसी खुशी मुझे भी दी है, बस उसे मेरे दादा जी ने मुझसे छीन लिया था।”

वीर और गजेन्द्र के बीच 22 सालों की यादों का लेन-देन कई घंटों तक चलता रहा। वहीं दूसरी ओर मुक्तेश्वर एक तरफ उस ट्राफी रूम में उन बच्चों से खूबसूरत रंगों की बौछार करवा रहा था। तो वहीं दूसरी ओर वो बार-बार कमरे के ठीक सामने की तरफ लगी अपने मृत पिता गजराज सिंह की राजगद्दी यानि उसके राज सिहांसन की खाली कुर्सी को देख रहा था। 

उस खाली कुर्सी को देख कभी उसकी आंखे नम होती तो कभी उसका मन भारी...मुक्तेश्वर को कुछ समझ नहीं आ रहा था, कि वो क्या करें?

उसी शाम मुक्तेश्वर फिर रात को सो नहीं पाया। वो सिंहासन बार-बार उसे बेचैन कर रहा था। ऐसे में वो उठा और हवेली के दीवानखाना यानी हॉल एरिया में...  जहां कभी गजराज सिंह का दरबार लगता था, वहां पहुंचा। उसने देखा वो कुर्सी अब भी जस की तस रखी थी। कोई उसे हटाने की हिम्मत नहीं कर रहा था। मुक्तेश्वर ने अब उसे वहां से हटाने का मन बना लिया।

हॉल से काफी शोर आने पर रेनू और प्रभा ताई दोनों वहां आ जाती है और देखती है कि आधी रात को मुक्तेश्वर उस कुर्सी को अकेले हटाने में लगा हुआ है। वो कभी उसे हथौड़े से तोड़ रहा है, तो कभी धक्का देकर खिसका रहा है। 

प्रभा ताई ने मुक्तेश्वर को देख पूछा— “ये आप आधी रात को क्या कर रहे है मुक्तेश्वर?”

मुक्तेश्वर सवाल सुनते ही सीधा खड़ा हुआ और कुछ देर तक उस कुर्सी को बस घूरता रहा। फिर बोला— “ये कुर्सी गूंगी नहीं है,” 

मुक्तेश्वर की ये बात सुन रेनू और प्रभा ताई दोनों चौक गई। लेकिन फिर उन्होने ध्यान से मुक्तेश्वर की तरफ देखा वो फिर से बड़बड़ाया….

“इसमें हर रोज़ कोई न कोई चीख सुनाई देती थी। अब... ये खामोश है। लेकिन लगता है, अभी भी बाबा इस पर बैठकर सब देख रहे हैं। मुझे रात भर सपने आते है, कि बाबा किसी बेगुनाह को फिर गुनाहगार ठहरा रहे है, और अपना शैतानी फैसला उन पर जबरदस्ती थोप रहे हैं।”

प्रभा ताई वहीं बैठीं थीं। उन्होंने कुर्सी की ओर देखा, फिर एक पुराना शॉल लाकर उस पर डाल दिया।

“अब ये कुर्सी किसी का डर नहीं, सिर्फ याद बनेगी मुक्तेश्वर, चलों तुम सो जाओं। रात बहुत हो गई है, कल का सूरज निकलते ही मैं इसे यहां से हटवा दूंगी।” 

मुक्तेश्वर ने पास आकर पूछा— “हटवाएं इसे...? क्या तुम भी इसे यहां से हटवाना चाहती हो…?”

प्रभा ताई ने सिर हिलाया और बोली— “नहीं, पर लेकिन अगर इस कुर्सी से मेरे भाई की नींद उड़ती है। वो बेचैन होता है, तो मैं इसे यहां से उखाड़ फेंकूंगी और इसे बेचकर अपने भाई का सुकून और नींद खरीदूंगी।”

अगले दिन का सूरज उगा। नया काम, नई शुरुआत का इरादा लेकर प्रभा ताई ने चार मजदूरों को बुलाया और ऑर्डर दिया— “जल्द से जल्द इस कुर्सी को यहां से उखाड़ कर ले जाओं और लेजाकर कहीं आग के हवाले कर दो। मुझे यहां इस कुर्सी का नामों निशान... छोड़ों एक दाग नहीं चाहिए, समझे।”

प्रभा ताई का ऑर्डर मिलते ही मजदूर काम पर लग गए और कुछ ही घंटों में उन्होंने उस हॉल के नजारे को सर से पैर तक बदल कर रख दिया। तीन दिन बाद वीर ‘जानकी–इरावती बाल निकेतन’ के पहले फेज़ का उद्घाटन करने के लिए पूरी तरह से तैयार था। ये एक छोटा सा समारोह था, कोई बड़ा मंच नहीं, सिर्फ बच्चे, गांव के कुछ शिक्षक और कुछ साधारण ग्रामीण लोग, जिनके सामने वीर अपने अगले कदम आगे की तरफ बढ़ाना चाहता था।

क्रार्यक्रम शुरु हुआ। वीर ने पहले अपनी संस्था के बारें में और अपने दादा की आखरी इच्छा के बारे में बताया। फिर उसने अपनी आपबीति भी सुनाई, कि किस तरह एक राजघराने में जन्म लेने के बाद भी वो एक अनाथ आश्रम में 22 सालों तक पला। कैसे लोगों ने उसे ठुकराया, अनाथ होने की गालियां तक दी। पढ़ा-लिखा होने के बावजूद जब वो नौकरी के फार्म में मां-बाप के नाम की जगह अनाथ आश्रम का नाम लिखता, तो नौकरी देने वाला उसे हीन भावना से देखता। ऐसे में उसे हमेशा मजदूरी कर के ही अपना पेट पालना पड़ा।

इसके बाद उसने माइक अपने पिता के हाथों में दिया और कहां कि वो लोगों को जानकी–इरावती बाल निकेतन’ के बारें में बतायें। मुक्तेश्वर ने माइक कुछ पल के लिए हाथ में तो लिया, पर वो कुछ बोल ना सका। ये पल उसके मन को अंदर तक झकझोर रहा था, वो खुश भी था और बेचैन भी... ऐसे में उसने बिना उद्घाटन भाषण दिये माइक को जानकी–इरावती बाल निकेतन के नए सदस्यों... यानि उन छोट-छोटे बच्चों के हाथों में थमा दिया, जिनका जानकी–इरावती बाल निकेतन’ नया पता और नई पहचान बन गया था।

बच्चे माइक हाथ में आते ही बहुत खुश हुए। सबने एक-एक कर अपने भविष्य की प्लानिंग के बारें में बताया। तभी एक लड़की ने कहा— “मुझे डॉक्टर बनना है!” 

एक छोटे से लड़के ने हाथ उठाकर चिल्लाया— “मैं क्रिकेटर बनना चाहता हूं!”

उस बच्चे की तोतली आवाज में उसका सपना सुन सभी हंसने लगे।

फिर अचानक एक लड़की उठी। वो करीब आठ साल की थी। दुबला सा शरीर, आंखों में गहराई... लेकिन जुबान पर कड़कपन। वो बोली— “मैं प्रधान बनना चाहती हूं, ताकि कोई गजराज सिंह फिर से गांव वालों को डरा न सके।”

हवेली में एक क्षण को सन्नाटा छा गया... हर कोई हैरान-परेशान हो गया, कि आखिर इस नन्ही सी जान के साथ गजराज सिंह ने कौन सा जुल्म किया था। वीर की आंखों में हजारों सवाल घूम गये, लेकिन वो उस बच्ची से कुछ पूछता उससे पहले मुक्तेश्वर आगे आया और बोला — “बिल्कुल बनोगी, मेरी नन्ही गुड़िया। तुम हर नाइंसाफी करने वाले के खिलाफ बुलंद आवाज बनोगी एक दिन...।”

वीर की चुप्पी... और मुक्तेश्वर की बेचैनी अब उस बच्ची पर निगाह बनकर अटक गई थी।

एक तरफ उस लड़की के सपने ने वीर को बेचैन कर दिया था, तो वहीं दूसरी ओर उस कमरे में मौजूद दो नजरें रह-रह कर आपस में टकरा रही थी। लेकिन दोनों के बीच एक लंबी खामोशी थी।

रेनू ने आज भी विराज से बात नहीं की। जब से वह हवेली लौटी थी, उसने उससे आंख तक नहीं मिलाई थी, वो बस छिप-छिप कर उसे देखा करती थी। दूसरी ओर विराज चाहता था कि रेनू उसे बिना कुछ कहे छोड़कर गई थी, तो वो खुद उसके सामने आये और जवाब दें।

“क्या विराज अब भी मुझसे प्यार करता है?” 

ये सवाल बार-बार रेनू के मन में गूंज रहा था। उस रात जब सब सो चुके थे, रेनू अकेले दीवानखाना में आई और एक खाली सोफे पर आकर बैठ गई। कुछ देर तो वो वहां बैठे अकेले में सोचती रही, फिर बुदबुदाई, “जाते-जाते बाबा आपने मुझसे मेरा प्यार छीन लिया। पहली बार तो मैं किसी पर भरोसा करने लगी थी, लेकिन आपकी बातें सुन मैंने ही उसका भरोसा तोड़ दिया। क्या मैं गलत थी? क्या विराज अब कभी मेरी जिंदगी में नहीं लौटेगा?”

पीछे से एक आवाज़ आई— “हर सच का वक्त आता है रेनू... और तुम्हारे सवालों का भी जवाब है।”

ये आवाज़ प्रभा ताई की थी, जो कब से वहीं खड़ी थी। दोनों बहनों के बीच विराज और उसके रिश्तें को लेकर करीब तीन घंटो तक बात हुई। फिर दोनों बहनें अपने-अपने कमरे में जाकर सो गई। 

अगली सुबह हवेली में एक और वकील आया, वही आदमी जिसने पिछली वसीयत सुनाई थी। वो आया और सबकों पहले इकट्ठा होने के लिए कहा, और फिर बोला— “मेरे पास एक और लिफाफा है।” 

इतना कह उसने लिफाफा खोला और उसमें रखी चिट्ठी को मुक्तेश्वर के हाथ में दे दिया— “जो गजराज सिंह ने ‘मुखाग्नि के बाद, तीसरे दिन’ खोलने को कहा था।”

ये सुनते ही सन्नाटा छा गया।

मुक्तेश्वर ने चिट्ठी को खोला, पढ़ा… और फिर वहीं बैठ गया।

रेनू ने डरते हुए पूछा— “क्या लिखा है?”

मुक्तेश्वर के होंठ कांप रहे थे।

उसने धीरे से कहा— “राजघराना का एक और वारिस है… और वो अभी जिंदा है।”

 

क्या अगली जंग अब वारिस के असली हक की होगी? 

क्या गजराज ने एक और बच्चे को छुपा कर रखा था? 

और विराज… क्या वो राजघराना से भी बड़ा झूठ लेकर जी रहा है, क्या वो सच में अब तक रिया को नही भूला है? 

क्या सच में विराज लौट जाएगा अपने नए प्यार रेनू के पास?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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