राजघराना महल के हॉल में आज फिर एक अर्थी उठने जा रही थी। पर इस बार नफरत की नहीं, बल्कि पश्चाताप की आग में जलकर महल में सब कुछ ठीक होने वाला था। गजराज सिंह, जिसका नाम कभी डर और सत्ता का खौफ से लोगों की जुबान पर आता था, आज बेजुबान फर्श पर पड़ा था और उसके इर्द-गिर्द लोग उसके ही अतीत के पन्नों को कुरेद रहे थे।
एक तरफ हमेशा सब पर चिल्लाने-चीखने वाला गजराज सिंह चिता पर शांत, निस्पंद, मगर चेहरे पर एक अजीब-सी राहत लिए लेटा था, तो वहीं दूसरी ओर उसके इर्द-गिर्द खड़े लोग उसके जाने से जैसे सुकून में थे।
कोई कह रहा था बड़ा पापी था, तो किसी ने कहा इसने महल की औरतों से लेकर बाहर राजगढ़ की औरतों तक को बहुत परेशान किया है। तो वहीं कुछ लोग तो ये तक कह रह थे, कि जो आदमी अपने बच्चों का सगा नहीं हुआ वो राज्य के लोगों का क्या होता। हम तो बस उसे डर से वोट देते थे।
लोगों की ऐसी बातें मुक्तेश्वर, प्रभा ताई, रेनू, गजेन्द्र और वीर के कानों को चुभ रही थी, लेकिन वो जानते थे कि लोग जो कह रहे हैं वो ही गजराज सिंह का असली सच है। इसी बीच वीर ने ध्यान से गजराज की तरफ देखते हुए कहा- “इस शख्स ने पूरी जिंदगी कितने पाप किये। लेकिन मौत के वक्त कितने सुकून में है। चेहरा देख कर लगता है जैसे उन्होंने अपने सारे पापों की गठरी वहीं ICU के बिस्तर पर ही छोड़ दी हो।”
राजघराना के दरवाजे पर खड़ी भीड़ दुख में शामिल होने नहीं, बल्कि गजराज जैसे बुरे इंसान को जाते देख खुश होने आई थी। दुख की झलक तो सिर्फ —मुक्तेश्वर, प्रभा ताई, रेनू, गजेन्द्र और वीर के चेहरे पर ही नजर आ रही थी। लाख बुरा सही पर आज उसके घर का एक सदस्य इस दुनिया को अलविदा कह गया था।
वीर और गजेन्द्र, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बिना दादा के बिताई थी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था, कि उनकी अंतिम विदाई पर क्या कहे। वो बस चुपचाप... बिना एक शब्द कहें... बस उनके पार्थिव शरीर के पास खड़े थे। उनकी आंखों में कोई रंज नहीं था, न ही नफरत, और ना ही कोई अधुरी बात, जिसे आज वो अंतिम यात्रा पर पूरा करना चाहते हो। बस एक खालीपन, जो केवल रक्त के रिश्तों से ही भर सकता है। चाहे कितनी भी दरारें क्यों ना पड़ी हों, पर खून के रिश्ते तोड़े नहीं जा सकते।
चिता की आग लगाने से पहले सब लोग मौन में खड़े थे, तभी दरवाज़े पर अचानक एक कार रुकी। सबकी निगाहें उस ओर मुड़ीं। सफेद शर्ट, काली कोट और गले में नीली टाई लगाए एक अधेड़ वकील, हाथ में लाल रंग का एक लिफाफा लिए हुए तेज़ कदमों से अंदर आया। सब चौक कर उन्हें देख रहे थे और तभी वीर ने फुसफुसाते हुए गजेन्द्र से पूछा– “कौन है ये?”
“मुझे नहीं पता… लेकिन ये वक्त किसी बाहरी के आने का नहीं है।”
गजेन्द्र की आवाज़ में काफी खरखरापन था, लेकिन शायद एक पहचान भी जो शायद अभी उसके दिमाग से बिखरी हुई थी।
वकील सीधे जाकर मुक्तेश्वर के सामने खड़ा हो गया और बोला– “मैं एडवोकेट वीरेन्द्र सिंह राठौर हूं। गजराज सिंह जी का निजी वकील।
बस इतना इंट्रो मिलते ही गजेन्द्र को याद आ गया कि वो उस शख्स को कैसे जानता है। उसने वीर के कानों के पास जाकर कहा– “ये विराज के पापा वीरेन्द्र प्रताप राठौर है। विराज ने एक बार इनसे मिलवाया था और तब बताया था कि दादाजी के सारे लीगल-इनलीगल केस ये ही देखते है। जरूर दादा जी की वसीयत से जुड़ा कुछ बताने आये होंगे।”
गजेन्द्र की बातें वीरेन्द्र प्रताप राठौर के कानों में भी पड़ी। तो उन्होंने तुरंत पलटकर कहा– “बिल्कुल सही समझे बरखुरदार.... मरने से तीन दिन पहले तुम्हारे दादा जी ने मुझे ये लिफाफा सौंपा था और स्पष्ट निर्देश दिया था कि इसे केवल उनकी अंतिम यात्रा के दिन, सबके सामने खोला और पढ़ा जाए।”
बूढ़े वकील की ये बात सुनते ही राजघराना की दहलीज पर खड़ी उस भीड़ में हलचल और फुस-फुसाहट शुरु हो गई। प्रभा ताई ने तुरंत टोका और बोलीं— “इस वक्त ये तमाशा जरूरी है क्या? क्या ये सब आग के बाद नहीं हो सकता... ? तब यहां सिर्फ परिवार के लोग ही होंगे। अभी देखिये यहां कितनी भीड़ है।”
लेकिन वकील वीरेन्द्र प्रताप राठौर ने शांत और धीमी आवाज में जवाब देते हुए कहा— “माफ कीजिए, लेकिन स्वर्गीय गजराज सिंह की अंतिम इच्छा थी कि यह दस्तावेज़ उनकी चिता जलाने से पहले सबके सामने पढ़ा जाए। ये उनकी आखिरी वसीयत से जुड़ा है।”
अब सबकी सांसें थमीं।
मुक्तेश्वर ने एक पल सोचा और फिर सिर हिलाकर इशारा किया और बोला— “जी ठीक है, आप पढ़िए।”
वकील ने दस्तावेज़ खोला और पढ़ना शुरू किया— “मैं, गजराज सिंह, पुत्र पृथ्वीपाल सिंह, राजघराना हवेली निवासी, अपने पूरे होशो-हवास में ये अंतिम घोषणापत्र दे रहा हूं। मैं जानता हूं कि मैंने जीवन में बहुत गलतियां की हैं। पर अब, अपने आखरी दिनों में, मैं ये तय करना चाहता हूं कि मेरा खून, मेरी विरासत से वंचित न रहे।
इसलिए मैं अपने पोते, वीर मुक्तेश्वर सिंह को, जो मेरी बहू जानकी देवी और मेरे बेटे मुक्तेश्वर का बड़ा पुत्र है, अपने पौत्र के रूप में स्वीकार करता हूं।
और इसके साथ ही, मैं राजघराना की कुल संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा वीर के नाम करता हूं।
मेरा उद्देश्य स्पष्ट है—कोई बच्चा अब आनाथ नहीं होगा। कोई विरासत से वंचित नहीं होगा, सिर्फ इसलिए कि उसने राजघराना के झूठ के खिलाफ जन्म लिया।”
गजराज की वसीयत का ये हिस्सा सुन सब सदमे में आ गये। सबके चेहरे पर सन्नाटे छा गया।
“क्या!?” – गजेन्द्र की आवाज़ गूंजी, जिसे वो चाहकर भी दबा नहीं पाया। “तुम कहना चाहते हो… मेरा भाई अब इस हवेली का मालिक है?”
वीर शांत था, लेकिन उसकी आंखें नम थीं। उसे डर लग रहा था कि कहीं वो राजघराना का वारिस बन अपने भाई को तो नहीं खो बैठेगा। तभी प्रभा ताई ने हाथ जोड़ कर भगवान की ओर देखा और बोलीं— “अब मेरे जानकी के बेटे को उसका हक़ मिल गया। इरावती भाभी… देखो, अब तुम्हारा पोता अनाथ नहीं कहलायेगा। देख जानकी मैंने तेरे बेटे को आखिरकार उसका हक दिला दिया।”
गजेन्द्र तेज़ी से आगे आया और वकील से पूछा— “क्या मुझे इस वसीयत में कुछ मिला है, पैसा नहीं जिम्मेदारी... क्योंकि मेरे दादा जी जिंदगी में पहली बार तो कुछ अच्छा करने जा रहे हैं, तो मैं भी उनकी आखरी इच्छा में उनका साथ देना चाहता हूं।”
तभी वकील ने दुबारा बोलना शुरु किया और कहा— “अनाथों के लिए खोले जाने वाले उस स्कूल के प्रिंसिपल तुम ही रहोगे। और हा तुम्हारे दादा ने तुम्हारे नाम पर एक हॉर्स रेंसिग सेंटर भी खोलने का ऑर्डर इसमें दिया था, ताकि तुम उनकी पुश्तैनी पहचान को आगे लेकर जा सको।
गजेन्द्र ये सुनकर काफी खुश हो गया और बोला— “पर बाबा ने मुझे कभी नहीं बताया… कि वो मुझे इस तरह…” गजेन्द्र की आवाज़ कांप रही थी।
तभी मुक्तेश्वर ने वकील से कहा- “आपने वसीयत सुना दी हो तो क्या हम अंतिम संस्कार की क्रिया को आगे बढ़ा सकते है?”
लेकिन तभी रेनू आगे आई और बोलीं— “क्योंकि वो खुद नहीं चाहते थे कि ये बात उनकी मौत से पहले बाहर आए।”
गजेन्द्र चौक गया और सवाल किया— “इसका मतलब अभी भी राजघराना का कोई दुश्मन बचा है, जो राजमहल की नींव हिला सकता है या हम लोगों में फूट डाल सकता है। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया”
वकील ने आगे बढ़कर दस्तावेज़ मुक्तेश्वर को थमाया। “इन कागजों पर पूरे हस्ताक्षर, सरकारी मुहरें और रिकॉर्ड मौजूद हैं। ये अदालत में भी वैध है।”
वीर अब तक कुछ नहीं बोला था। वो आगे बढ़ा और बोला— “मुझे इस दौलत की चाह नहीं थी। मुझे तो सिर्फ मेरी मां के लिए इंसाफ चाहिए था। उसकी इस हवेली में एक बहू के तौर पर पहचान चाहिए थी। और अब... जब दादाजी ने मुझे अपना पोता कहकर अपनी अंतिम इच्छा में शामिल किया है... तो ये हक़ मेरी मां की आत्मा की जीत है।”
भीड़ मौन थी, लेकिन अब एक गरिमा उसमें समा गई थी।
गजेन्द्र धीरे से पीछे हट गया। उसकी आंखें वीर से मिलीं और उसने कुछ पल चुप रहकर कहा— “शायद ये राजघराना अब सचमुच राजघराना बनने लायक हो गया है।”
उसने सिर झुकाया और वहां से जाने लगा। तभी मुक्तेश्वर ने उसे रोका और दादा की अंतिम यात्रा में शामिल रहने को कहा। पूजा-पाठ की रस्मों के बाद बात आई गजराज सिंह के मृत शरीर को मुखाग्नि देने की। तो वीर आगे आया और मुक्तेश्वर की ओर देखते हुए बोला— “बाबा, मैं चाहता हूं कि आप ही उन्हें मुखाग्नि दें।”
मुक्तेश्वर एक पल रुका, फिर कहा— “नहीं बेटा, आज तुम्हारे दादाजी ने जो फैसला किया... वो सिर्फ दस्तावेज़ नहीं, वो विरासत की सौगंध थी। मुखाग्नि अब उनका पोता यानि तुम ही दोगे।”
वीर आगे बढ़ा, हाथों में अग्नि ली, और पूरी गरिमा और शांति के साथ गजराज सिंह की चिता को अग्नि दी। कुछ दो घंटों तक मुक्तेश्वर, वीर और गजेन्द्र चिता को वैसे ही जलते देखते रहे। फिर एक वक्त आया जब तेज हवा की फिजाओं में गजराज सिंह की राख उड़ रही थी... लेकिन इस बार कोई श्राप नहीं, कोई पाप नहीं... बस एक अधूरी कहानी का अंतिम अध्याय जल रहा था।
तीन दिन बाद – राजघराना ट्रस्ट ऑफिस की तरफ से एक चिट्ठी आई, जिसके साथ एक बड़ा सा बोर्ड भी था। उस बोर्ड पर लिखा था “जनकी–इरावती बाल निकेतन – राजघराना ट्रस्ट द्वारा संचालित”
उस बोर्ड को देख मुक्तेश्वर के मुंह से एक ही लाइन निकली और वो बोला— जहां कभी बंदूकें और तलवारें रखी जाती थीं, अब वहां पेंसिलें, रबड़ और किताबें रखी जायेंगी। और जहां लोगों को डर और खौफ लगता था, अब वहां छोटे-छोटे बच्चों की चहचहाहट और हंसी गूंजेगी।
कुछ दिनों के अंदर एक-एक कर सारे काम निपटाये जाने लगे। पहले महल को स्कूल... फिर स्कूल के साथ बच्चों का हॉस्टल, उनकी किताबे, उनकी जरूरतों का सामन... कुछ इस तरह बदला जाने लगा। करीब तीन महीने के अंदर राजघराना पूरे तरीके से एक स्कूल में बदल गया। इसके बाद वीर ने एक-एक कर बच्चों को इकट्ठा करना और साथ ही दूसरे जरूरत मंद अनाथ आश्रमों की मदद करना सब शुरु कर दिया।
शुरुआत में बच्चें कम थे, लेकिन वीर पूरे दिन उन बच्चों में मगन रहता था। एक दिन वीर ने बच्चों के बीच बैठकर उन्हें पढ़ाते हुए कहा— “तुम जानते हो, कुछ दिनों में एक नामकरण पूजा होगी, जिसमें आप सबको नाम मिलेगा… और वो नाम मिटाया नहीं जाएगा। और ना ही उसके बाद कोई तुम्हें अनाथ कहकर बुलायेगा। फिर तुम्हारे नाम के साथ तुम्हारी पहचान होगी।”
रेनू और प्रभा ताई, दूर खड़ी वीर का ये अंदाज देख बार-बार मुस्कुरा रही थी। तभी रेनू ने प्रभा ताई से पूछा— क्या अब ये कहानी खत्म है?
प्रभा ताई ने कुछ देर सोचा और फिर बोलीं— “शायद नहीं, शायद ये एक नई शुरुआत है। कुछ लोगों की नई पहचान की। राजघराना के नए नाम की। ये बस अब एक अच्छी शुरुआत है।”
प्रभा ताई की ये बातें सुन रेनू के मुंह से कुछ अजीब सी बातें निकली, जिन्हें सुन प्रभा ताई चौक गई— “ताई क्या नई पहचान, नया नाम नए विवाद... नई साजिशों को जन्म नहीं देगा। क्या अब राजघराना महल में सब कुछ सच में अच्छा और सुकून भरा होगा। क्या दो लोगों की मौत इस महल में सुकून के दिन और रात ले आयेंगी।”
आखिर क्या है रेनू की इन बातों का मतलब?
आखिर किस नई पहचान और नई साजिश की बात कर रही है रेनू?
अपनी वापसी के बाद भी अब तक क्यों रेनू ने एक बार भी बात नहीं की अपने प्यार विराज से?
क्या रिया के साथ विराज के अतीत के चलते खत्म हो गया है दोनों का रिश्ता?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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