ज़िंदगी की उन तमाम ख़ामोशियों और हार के बीच हम सभी किसी एक दिन की जीत की कामना करते हैं...और वो दिन हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं होता। ऐसी ही एक रात, राजगढ़ के राजघराना के आंगन में भी आई, जहां कल की रात राजघराना के तहखानों में हुए हर एक पाप का सच दुनिया के सामने ना सिर्फ खुल गया, बल्कि साथ ही एक-एक गुनाहगार को उसकी सजा भी मिली। किसी को भगवान ने सजा दी, तो किसी की सजा का जिम्मा कानून ने उठाया। 

इंसाफ की ये गूंज राजघराना के नजदीक बने पुराने कब्रिस्तान में भी तब सुनाई दी, जब चार जज़्बातों की गवाही देती साँझ की तन्हाई चांद की रोशनी की सफ़ेद चादर ओढ़े इस पल की गवाह बनती है। वहां मौजूद एक बेजान पत्थर की ज़मीन पर कुछ कदमों की आहट होती है। दरअसल प्रभा ताई, मुक्तेश्वर, वीर और गजेन्द्र इंसाफ की गूंज के बाद उस कब्र की ओर बढ़ते, जहां महारानी इरावती सिंह देवी की मिट्टी में बसती उनकी यादें सोई थीं। चारों वहां घुटनों के बल बैठ जाते है, जिसके बाद मुक्तेश्वर ने अपनी मृत पत्नी जानकी की अस्थियां भी अपना मां इरावती के दाई तरफ मिट्टी खोदकर उसमें डाल दी।

इसके बाद प्रभा ताई अपने दाएं हाथ में रखें एक लिफाफे को खोलती है, जिसमें राजघराने का एक धुंधला-सा लौकेट था। वह लौकेट, जिसे उसने 22 साल तक दबाए रखा था, ताकि एक दिन उसे जानकी देवी की आंखों के सामने वीर के गले में पहना सके और उसे बता सके कि उसका दूसरी बेटा भी ठीक है और जिंदा है।

प्रभा ताई ने झुककर, साँसे धीमी कर, वह लौकेट पहले जानकी देवी की क्रब पर लगाया और और फिर उसे वीर के गले में पहना दिया... और बोलीं– “अब तू दोनों बेटों के साथ है, पगली… अब तेरे ये दो चिराग राजघराना के आगन को रोशन करेंगे।” 

प्रभा ताई के इतना कहते-कहते मुक्तेश्वर ने अपने दोनों बेटों को गले से लगा लिया। इस दौरान मुक्तेश्वर की आँखों में आंसू थे और ज़हन में वो सारी लड़ाइयां घूम रही थीं, जो उसने बीते सालों में अपने बेटों को बचाने के लिए लड़ी थी। मुक्तेश्वर की आंखों के वो आसूं बूंद-बूद कर जानकी की कब्र पर गिर रहे थे।

“तुम्हारे बिना... हमारा आंगन हमेशा अधूरा रहेगा, मां...” 

गजेन्द्र ने इतना कहा और फूल चढ़ाए, वहां से बिना किसी से कुछ कहे बस चला गया। वीर भी उसके पीछे-पीछे गया। मुक्तेश्वर वहीं खड़ा दोनों बेटों का नाम पुकारता रहा, लेकिन दोनों में से किसी ने पलटकर नहीं देखा और बस नाक की सीध में चलते हुए कार में जाकर बैठ गया। मुक्तेश्वर भी प्रभा ताई के साथ वापस लौटने लगा। 

लेकिन तभी उसका फोन बजा और दूसरी ओर से आवाज आई– “हैलों, मुक्तेश्वर जी... एसीपी रणविजय बोल रहा हूं। आपके पिता गजराज सिंह की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है। दरअसल उन्हें कल रात राजघराना के दरवाजे पर ही हार्ट अटैक आ गया था, लेकिन हमें लगा कि वो पिछली बार की तरह नाटक कर रहे हैं, ऐसे में हम उन्हें तुंरत सीटी अस्पताल ले आये। डॉक्टरों का कहना है सांसे बहुत कम है... एक बार परिवार से मिलवा दीजिए।”

पिता की गंभीर हालत सुन मुक्तेश्वर का दिल अंदर तक बैठ गया। लाख बुरा सहीं पर था तो वो पिता... और हर पिता अपने आखरी पलों में अपने बच्चों को सुखी और अपनी आखों के सामने देखने की आस रखता है। 

वो तुरंत प्रभा ताई की ओर मुड़ा और बोला— “ताई… बाबा की हालत बहुत खराब है”

“मैं नहीं जाउंगी मुक्तेश्वर... मैं जानती हूं ये जरूर उनका कोई नया नाटक होगा।”

“ताई इस बार सच है, खुद डॉक्टरों का कहना है, कि उन्हें हार्ट अटैक आया है। सोच ले ताई...”

मुक्तेश्वर के ये भावुक कर देने वाले शब्द सुन प्रभा ताई का दिल सोच में पड़ जाता है और ऐसे में मुक्तेश्वर दुबारा बोलना शुरु कर देता है— “बाबा को देखे बिना अगर कुछ हो गया, तो सारी उम्र खुद को माफ नहीं कर पाएंगे ताई... जैसा भी था, जन्मदाता था हमारा। एक आखरी मुलाकात के लिए चलते हैं...प्लीज।”

कुछ देर सोचने के बाद प्रभा ने गंभीर आवाज़ में कहा— “चल मुक्तेश्वर… इंसान बेशक लाख गलतियों से घिरा हो, लेकिन मौत के साये में उसकी आखरी प्रार्थना सुनी जानी चाहिए।”

तीन घंटों के सफर के बाद उस कब्रिस्तान से निकल प्रभा और मुक्तेश्वर सीधे सिटी अस्पताल के कमरा नंबर 307 में दौड़ते हुए पहंचे। दो डॉक्टर्स वहा पहले से खड़े आपस में बात कर रहे थे, जैसे ही उन्होंने प्रभा ताई और मुक्तेश्वर को देखा... अपने सर को दायें से बाये की तरफ हिलाते हुए अपना हाथ मुक्तेश्वर के कंधे पर रखा। 

मुक्तेश्वर डॉक्टर की बात का मतलब समझ गया था, कि अब गजराज सिंह के बचने की उम्मीद खत्म हो चुकी है। गजराज सिंह ICU में ऑक्सीजन मास्क लगाए निढाल लेटा था। मशीनों की बीप के बीच, ज़िंदगी और मौत की जंग बारीक सांसों में झूल रही थी। डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे और कमरे से बाहर जाते-जाते बोला….

“अब सिर्फ चमत्कार ही बचा सकता है… अंतिम वक्त नजदीक है।”

तभी ICU का दरवाज़ा खुला, और मुक्तेश्वर कमरे के अंदर आया। पीछे-पीछे प्रभा ताई थीं, जिनकी आँखों से निकलते आंसू इस वक्त रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, और फिर कुछ देर बाद रेनू भी वहाँ पहुंच गई।

गजराज की आँखें अधखुली थीं, लेकिन सामने अपने बच्चों को देख एक हल्की सी चमक उसके चेहरे पर दौड़ गई... और वो कांपती हुई आवाज में बोला— “मुक्तेश... प्रभा… रेनू...” उसने धीमे से कहा— “तुम लोग आ गए… अच्छा किया। अब ये दिल थोड़ा हल्का हो सकता है।”

मुक्तेश्वर ने कांपते हाथों से उसका माथा सहलाया, “बोलिए बाबा… क्या कहना है आपको?”

गजराज ने लंबी सांस भरी और बोला— “बहुत पाप किए है मैंने… अपनों के साथ… अजनबियों के साथ… और सबसे बड़ा पाप ये था कि मैंने अपने ही घर, अपने ही बच्चों को आग में झोंक दिया। लेकिन अब… अब मैं चाहता हूं कि ये आग ठंडी हो… और इसकी राख मिट्टी और खाद के साथ मिलकर कुछ नया खिलाये, जिससे आने वाले समय में राजघराना का आंगन-आंगन चहचहाट से महक जाएं।”

रेनू धीरे से पास आई और पूछा— “आखिर आप क्या चाहते हैं, बाबा? साफ-साफ शब्दों में कहिये, ताकि हम सब मिलकर आपकी आखरी इच्छा पूरी कर सकें।”

गजराज की आंखों से एक आंसू लुढ़का और होठ कांपते हुए बोले— “मैं चाहता हूं कि राजघराना हवेली को अब राजशाही का प्रतीक नहीं, बल्कि सेवा का मंदिर बनाया जाए। वहां एक ‘जनकी-इरावती स्कूल फॉर चिल्ड्रन’ खोला जाए। ये एक ऐसा स्कूल होगा… जहां अनाथ, बेसहारा, दलित, हर बच्चे को घर मिले… पढ़ाई मिले… और जिंदगी को समझने का मौका भी मिले।”

मुक्तेश्वर, प्रभा और रेनू तीनों की आंखें एक साथ चमक उठी और मानों जैसे वो अपने पिता के इस फैसले से बहुत खुश थे।

“बाबा…” 

रेनू ने भर्राई आवाज़ में कहा— “आप जैसे भी थे… लेकिन ये ख्वाब… आपके सारे पाप धो सकता है।”

गजराज के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आई और वो बोला— “अगर मेरी मौत के बाद… मेरी दौलत किसी की जिंदगी बना सके… तो शायद मैं अपने पापों का थोड़ा बोझ कम कर पाऊं। हवेली अब उन बच्चों की होनी चाहिए… जिनके पास कुछ नहीं या फिर जिनका इस दुनिया में कोई नहीं।”

वो कुछ देर चुप रहा, फिर कांपते होठों से बोला— “मेरी वसीयत अलमारी के नीचे वाले लॉकर में है… मैंने उसे कुछ दिन पहले ही बनवाकर साइन कर दिया था। उसमें सब लिखा है… और अगर तुम सब… मेरे इस आखरी फैसले को मान लो… तो शायद मेरी आत्मा को सही मायने में शांति मिल जाएगी... और शायद ये सब देख तुम्हारी मां इरावती और मुक्तेश्वर की पत्नी जानकी मुझे माफ भी कर दे।”

प्रभा ताई उसकी ओर झुकी और उसका हाथ अपने हाथ में लिया— “पिता जी, राजघराने की जो दीवारें आपने खून और डर से बनाई थीं… अब वे सेवा और शिक्षा से नई नींव बनेंगी... ये मैं आप से दिल से वादा करती हूं।”

गजराज ने आंखें बंद कीं, लेकिन उसके चेहरे पर पहली बार आत्मिक शांति की लहर नजर आ रही थी... और उसके चेहरे का येही सुकून देख उसके तीनों बच्चों को अपने पिता के अंतिम क्षणों का गहरा सदमा नहीं लगा, क्योंकि उनका पिता अपनी आखरी इच्छा बता कर सुकून से चैन की नींद सोया था।

गजराज ने धीरे-धीरे मुक्तेश्वर की ओर फिर से हल्की आंखे खोलकर देखा, और फिर अपनी आंखें रेनू पर टिकाईं और बोला— “रेनू बेटा… जब तू इस हवेली से निकली थी, मैं तुझे बेटी कह नहीं पाया… पर आज मैं तुझे बेटा कहकर मरना चाहता हूं।”

रेनू फूट पड़ी और गजराज के गले से लिपट गई— “आपके लिए आज भी मेरे दिल में नफरत थी, लेकिन अब उस नफरत की जगह एक नई उम्मीद ने ले ली है। मैं आपकी बातों को अमल में लाऊंगी बाबा… और आपका सपना पूरा करने में मुझे गर्व महसूस होगा।”

गजराज की सांसें अब धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थीं।

मुक्तेश्वर ने कांपती आवाज़ में पूछा— “कुछ और कहना चाहते हैं क्या आप, बाबा?”

गजराज के होंठ थरथराए, फिर उसने बहुत धीमे से कहा— “तेरी मां… इरावती… तेरी पत्नी… जानकी… और मेरी तीन संतानों—तुम, प्रभा, रेनू—तुम सबको मुझसे सिर्फ़ दुःख मिला। अगर ऊपर कहीं सच में आत्मा को सुकून मिलता है… तो मैं वहीं से तुम्हें देखा करूंगा… और उम्मीद करूंगा कि तुम सब मुझे माफ कर दोगे…”

फिर अचानक गजराज के चेहरे पर एक जोरदार दर्द की लहर सी उठी, उसने झटके से सांस ली और फिर मशीन की बीप एक लंबी सी आवाज़ में बदल गई... और गजराज सिंह की आंखें खुली की खुली रह गईं, मगर अब वो बेजान थी, जो एक टक बस कमरे की छत्त को निहार रही थी। दिल भी शांत हो गया था, और धड़कन रुक गई थी। गजराज सिंह दुनिया को अलविदा कह चुका था- एक अपराधी नहीं… एक पश्चाताप से भीगे इंसान के रूप में।

ये नजारा देख मुक्तेश्वर, प्रभा ताई और रेनू तीनों फूट-फूट कर रोने लगे। ये पहली बार था जब गजराज ने अपने बच्चों से दिल से बात की थी, लेकिन ये दिन उसका इस दुनिया में आखरी दिन था।

गजराज के पार्थिव शरीर को तीनों अस्पताल की एंबुलेंस में राजघराना महल लेकर पहुंचे। जहां आज की रात हर किसी को अंदर तक कचौड़ रही थी। तीन लोग वहां ऐसे थे, जिन्हें असल मायने में आज ही उनका पिता मिला था, लेकिन आज ही वो उन्हें अनाथ कर इस दुनिया से चला गया।

किसी तरह वो लंबी रात कटी... अगले दिन राजघराना हवेली के प्रांगण में गजराज सिंह के अंतिम संस्कार की तैयारी पूरे रिती-रिवाज के साथ शुरु की गई। हालांकि इस दौरान राजघराना में कोई शाही शोर नहीं, कोई हथियारबंद गार्ड नहीं— बस मिट्टी, फूल, और खामोशी के साथ रस्मों को निभाते हुए अंतिम विदाई देने की तैयारी की गई। 

वीर और गजेन्द्र, जो पिछली रात ही सब कुछ समझ चुके थे, लेकिन फिर भी अपने दादा गजराज सिंह से आखरी मुलाकात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। उस पर गजराज सिंह ने भी अपने अंतिम समय में अपने पोतों और पोतियों से मिलने से साफ इंकार कर दिया था। वो दोनों आज अपने उसी दादा के मृत पार्थिव शव के पास खड़े थे— चुपचाप, मगर अब नफ़रत के बिना।

अंतिम संस्कार के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा, क्योंकि सारी रस्मों के साथ-साथ मुक्तेश्वर अपने पिता को मुखाग्नि देने से पहले उनके सपने के बारें में सबको बताना चाहता था। ऐसे में उसने सबके सामने उसी वक्त घोषणा की….

“हम अपने पिता की आखिरी इच्छा को उनकी सजा का प्रायश्चित मानते हैं। राजघराना अब स्कूल बनेगा… और वो स्कूल उन बच्चों के नाम होगा, जिनके पास अपना खून नहीं… पर अब एक छत और एक नया नाम होगा।”

सबने तालियाँ नहीं, बल्कि मौन में सिर झुकाकर स्वीकार किया। जिसके बाद बाकी की रस्में विधि-विधान के साथ शुरु की गई। 

सारी रस्मों को मुक्तेश्वर अपने बेटों वीर और गजेन्द्र के साथ निभा रहा था। पिता के शरीर को राजघराना से बाहर ले जाने से पहले मुक्तेश्वर ने राजघराना महल के दरवाजे पर अब एक नया बोर्ड टंगा दिया था।

“जनकी-इरावती बाल निकेतन – राजघराना ट्रस्ट द्वारा संचालित”

बाहर नन्हे बच्चे खेल रहे थे। और अंदर गजराज सिंह के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी। दरअसल उन बच्चों को रेनू लेकर आई थी।

मुक्तेश्वर दूर खड़ा होकर सब देख रहा था… उसकी आँखें भी लगातार भीग रही थीं। लेकिन आज उसकी आखों मे दर्द से ज्यादा सुकून था, अपने पिता के सुधर जाने का सुकून... 

 

क्या अब राजघराने की कहानी यहीं खत्म होती है? या एक नई पीढ़ी, एक नई विरासत की शुरुआत होने वाली है? 

क्या अब भी बचे है राजघराना के कोई गहरे राज या अब होगा मुक्तेश्वर और उसके बेटों का आगाज? 

क्या रेनू सौंप देगी अपने भाई मुक्तेश्वर को सारी जायदाद या होने वाला है नए युद्ध?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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