हवेली का अंधेरा और भी घना हो चुका था। रात का सन्नाटा नए तूफान की दस्तक के साथ मंडराता महसूस हो रहा था। दीवारों से धूल झड़ रही थी, फर्श हिल रहा था, जैसे महल खुद लड़खड़ा रहा हो।

पर अचानक तभी किसी के चिल्लाने की आवाज गूंजी— “रुको!”

महल के दरवाज़े के पास एक साया खड़ा था, जिसकी आवाज ने सबको चौका दिया था। ये साया और कोई नहीं खुद अनुराधा और राज राजेश्वर की बेटी सुधा का था।

“इतनी भी क्या जल्दी है, गजराज सिंह… तुम सब तब तक इस लड़ाई को नहीं जीत सकते, जब तक तुम्हें नहीं पता कि असली दुश्मन कौन है।”

तभी उसने एक चाकू से वीर की तरफ हमला किया, जिससे वीर के हाथ से राइफल गिर गई... और वो चिल्लाकर बोला— “तुम… तुम अनुराधा नहीं हो…”

"बिल्कुल सही कहा, मैं अनुराधा सिंह नही... बल्कि उसकी बेटी सुधा सिंह हूं। मेरी मां तुम लोगों के ही बीच खड़ी है, वो देखो।"

सुधा के इतना कहते ही राजघराने की रसोई में घूंघट ओढ़े खड़ी एक औरत बाहर आई और उसने धीरे से अपना घूंघट ऊपर उठाया, उसका चेहरा देख सभी की सांसे थम गई। वो सोच से भी ज्यादा डरावनी थी। उसका चेहरा आधा नहीं 70 प्रतिशत तक जला हुआ था।

ये देख वीर के शब्द हवा में गूंजे, लेकिन उन सभी के होठ सन्नाटे में जुर्म और डर की चुभन लिए थम गए। गजराज सिंह तो ऐसे खड़ा था, जैसे कोई लाश खड़ी हो। महल के अंदर और बाहर हर तरफ उस आधे चले चेहरे वाली औरत की बातें शुरु हो गई थी। आज से पहले किसी ने भी ऐसा नजारा नहीं देखा था, सब जुबान और दिमाग से पूरी तरह सन्न थे।

दूसरी ओर महल की खिड़की से अंदर झांककर जो आंखें उसके चेहरे को देखकर बाहर हर किसी को बयां कर रही थी, अब वो भी डर कर सहम गई थी। ऐसा नहीं था कि अनुराधा हमेशा से इतनी बदसूरत थी। ब्लकि ये सब तो एक हादसे की देन था, जिसने उसके अंदर की अनुराधा को तो मार दिया था... और जो जिंदा थी, वो बस एक रुह थी। उसका मकसद अपनी बेटियों को न्याय दिलाना और अपने साथ हुई हैवानियत का बदला लेना था।

अनुराधा का एक झुलसा चेहरा था, आंखों में बदला, कंधों पर एक खून से लाल रंग का शॉल था।

गजराज सिंह खुद उस पर उम्र की कमजोरी को भूलकर चिल्ला उठा, “अनुराधा...तुम...?”

उसने न शब्दों का जवाब दिया, न आँसू का….बल्कि एक मीठी लेकिन हज़ारों कहानियाँ कहती मुस्कान दी, और बोली— “तुम सोचते हो राज राजेश्वर जिंदा है? वो मर चुका है। उसी रात जिस दिन वीर ने गवाही दी और कोर्ट ने उसे उमक्रैद की सजा सुनाई गई। उस रात वो जेल से भागकर मेरे घर आया और उसने कहा कि वो अब अपना अतीत भूलकर मेरे और मेरी बेटियों के साथ रहना चाहता है, लेकिन इसके बाद जैसे ही मैंने उसे अपनी शक्ल दिखाई वो मुझसे घिन खाने लगा और दूर भाग गया।”

“मेरे चेहरे से डरता हुआ वो कमरे से उल्टे पैर उतर रहा था और तभी सीढ़ियों से गिरकर उसकी मौत हो गई। कहते हैं ना भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं...। उसने जैसी दर्दनाक मौत लोगों को दी, वैसी ही उसे भी नसीब हुई।”

अनुराधा की इस कहानी को सुनने के बाद मुक्तेश्वर ने उससे पूछा— “आखिर तुम्हारी ये हालत हुई कैसे, किसने की? कौन है आखिर इसका जिम्मेदार?”

“मुक्तेश्वर भैया... तुम्हारे इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है। तुम्हारा ये हैवान-शैतान बाप...गजराज सिंह”

फिर एक नए कांड, एक औरत के साथ हुई हैवानियत में अपने दादा गजराज सिंह का नाम सुन जहां गजेन्द्र और वीर का सर शर्म से झुक गया। लेकिन वो कोई सवाल करते उससे पहले मुक्तेश्वर ने चौक कर पूछा— “पर वो कैसे... तुम्हारे साथ तो ये कभी सपने में भी कुछ नहीं कर सकते। तुम्हें तो इन्होंने खुद अपनी बहू चुना था, और ये तुम्हें पसंद भी बहुत करते थे।”

मुक्तेश्वर की बात सुन अनुराधा ने एक सांस में गुस्से से भरी आवाज में जवाब दिया, “वहीं तो मैं भी जानना चाहती हूं कि आखिर क्यों... मैंने इन्हें पिता माना था। जब मैं राज राजेश्वर को छोड़कर जा रही थी, तो इन्होंने कहा था- कि मैं जब चाहूं यहां लौट सकती हूं। इस राजघराना महल पर मेरा भी उतना ही अधिकार है, जितना आप दोनों का….फिर क्यों?”

अनुराधा के सवालों और उसकी चीख से महल की फर्श से अर्श तक जैसे सन्नाटे की दरारें पड़ चुकी थीं। हवेली की हर ईंट, हर झरोखा, हर परछाईं अब एक अपराध की गवाह बन चुकी थी।

अनुराधा की आंखों में बदले की आग और ज़ख्मों की राख थी। अनुराधा ने कुछ देर चुप रहने के बाद फिर से धीरे-धीरे बोलना शुरू किया— “तुम सब सोचते हो... मैं यहां सिर्फ अपने बच्चों का हक़ लेने आई हूं? नहीं। मैं आई हूं उस हर एक जले टुकड़े की चीख को इंसाफ़ दिलाने, जो मेरे जिस्म का हिस्सा थी… और जिसे इस लालची गजराज सिंह ने राख कर दिया…”

गजराज अब भी बुत बना खड़ा था। वो कुछ बोलना चाहता था, लेकिन उसकी ज़ुबान साथ नहीं दे रही थी।

तभी रिया सहमी हुई बोली — “ये कैसे हो सकता है... कोई इंसान इस हद तक कैसे गिर सकता है…!”

अनुराधा ने रिया की ओर देखकर कहा— "ये गजराज सिह है... ये शैतान के लिए भी हैवान है। मुझे जलाना इसी की साजिश थी। इसने ही उन लोगों को मेरे घर में आग लगाने का हुक्म दिया था।

राज राजेश्वर से मेरा रिश्ता बचा नहीं था, लेकिन मेरे गर्भ में उसकी जुड़वां बेटियां पल रही थीं…और ये गजराज सिंह… ये नहीं चाहता था कि राजघराने की जायदाद में उनका नाम आए।"

गजराज सिंह चीख पड़ा और अपनी सफाई देते हुई बोला— "ये झूठ है! तुम झूठ बोल रही हो!"

अनुराधा ने अपने चेहरे का जला हिस्सा फिर से सबको दिखाते हुए ठंडी हँसी में जवाब दिया— “झूठ? तो फिर सुनो सच्चाई… उस रात जब मैं अपने मायके लौट गई थी, उन्होंने अपने लोगों को मेरे पीछे भेजा। गुंडों ने मेरे घर को घेरा, पेट्रोल डाला, दरवाज़े तोड़े… और जैसे ही मैं अपनी बेटियों को बचाकर बाहर भागी, एक गुंडे ने मेरी साड़ी में आग लगा दी… मैंने अपनी बेटियों को कंबल में लपेट कर बचा लिया…पर मेरा चेहरा… वो रात… मेरी चीखें… वो नहीं बचीं।”

गजराज अब तक चुप था। मुक्तेश्वर उसके पास आया और गुस्से में चिल्लाया— “बोलिए बाबा! क्या ये सब सच है? क्या आपने वाकई...?”

गजराज ने कांपते हुए हाथों से दीवार थामी… उसकी आंखें अब भर चुकी थीं। आखिरकार वो टूट गया और बोला— "हाँ… किया था मैंने। क्योंकि मैं बस इतना चाहता था, कि ये डर जाए और राजघराना महल लौट आएं। मैं बस इतना चाहता था कि राज राजेश्वर का सच कभी महल के बाहर ना जाए। मैं बस इतना ही चाहता था कि अनुराधा हमेशा मेरे घर की बहू बनी रहें। 

मैं सच-सच बताता हूं... मैंने उन गुंडो को सिर्फ आग लगाने की धमकी देने के लिए कहा था। लेकिन उन्होंने कुछ और ही कहा और कुछ और ही किया। मैंने उनसे कभी नहीं कहा कि मेरी पोतियों को नुकसान पहुंचाओ। और मुझे तो सुधा के साथ जो कुछ हुआ, वो भी कई सालों बाद लोगों के मुंह से पता चला। क्योकि ये उस हादसे के बाद गायब हो गई थी।

...और फिर मैं डर गया था… कि राजेश्वर की औलाद कहीं मेरे बेटों को जायदाद से बाहर न कर दे।

मैंने सोचा… एक औरत जो मायके चली गई है… अगर उसका वजूद मिटा दिया जाए… तो नाम, हक़ और विरासत भी मिट जाएगी।"

वीर सन्न रह गया। गजेन्द्र ने गजराज की ओर देखा— “आपने पापा और चाचा को झगड़ते देखा, टूटते देखा… और कभी एक शब्द नहीं कहा। आप चुप रहें। जब मां की मौत हुई, तब भी आप तमाशा देखते रहें। आपने ही दादी मां को भी जिंदा जलकर आत्महत्या करने पर मजबूर किया। आप शैतान है या कोई हैवान... आखिर क्या है आप दादा जी...?”

गजराज फूट-फूटकर रो पड़ा और बोला— “मुझसे गलती हुई… मैंने जो तोड़ा… उसे कभी जोड़ नहीं सका। अब समझ में आया… कि ताकत से बड़ा बोझ… पछतावे का होता है।”

अनुराधा धीरे से आगे आई और गजराज की आंखों में आंखे डालकर बोलीं— “मैं बदले में सिर्फ ज़ख्म नहीं लाई… मैं तुम्हारा पाप भी लाई हूँ… सबूतों के साथ। तुम्हारे भेजे उन गुंडों में से एक—‘कालिया’ अब भी जिंदा है… और मैंने उसे पुलिस को सौंप दिया है। उसकी गवाही... और वीर की USB ड्राइव तुम्हें गुनागार साबित करने और मुझे इंसाफ दिलाने के लिए तुम्हें कानून की चौखट तक घसीट कर ले जाएगी।”

तभी मुक्तेश्वर ने अनुराधा से कहा — “तुमने बहुत सहा है अनुराधा, मैंने हमेशा से तुम्हें अपनी बहन के रूप में देखा है। मेरे भाई से तुम्हारी शादी मेरे इस घर को छोड़ने के बाद हुई थी। मैं वादा करता हूं… अब ये राजघराना तुम से और तुम्हारी बेटियों से कभी मुंह नहीं मोड़ेगा।”

रिया अनुराधा के पास आई, उसके हाथ पकड़कर बोली — "आप मेरी मां जैसी हैं… और मैं वादा करती हूं, जो हुआ… उसका हिसाब हम सब मिलकर पूरा करेंगे। सुधा और मधु दोनों इस घर की राजकुमारी है। भले ही उन्हें उनके अपने भाई देर से मिले, लेकिन अब वो अपनी बहनों का फूल जैसा ख्याल रखेंगे।"

तभी एसीपी रणविजय ने फोन उठाया और पुलिस मुख्यालय में कॉल कर कहा— “सारे बयान और सबूत हमारे पास हैं। गजराज सिंह पर IPC 307 और 120B के तहत मामला दर्ज किया जाएगा। साथ ही उनकी छोटी बहू अनुराधा सिंह के केस को रिओपन किया जाएगा।”

तभी गजराज ने एसीपी से कुछ वक्त की मोहलत मांगी और कहां कि वो एक आखरी बार अपने परिवार के साथ एक बैठक करना चाहता है। इजाज़त मिलने के बाद गजराज ने खुद अपने दस्तावेज़, वसीयत और गहनों की चाबी अनुराधा की बेटियों को सौंप दी।

“मैंने जो बर्बाद किया… उसे अब तुम बनाओ। इतिहास मेरी चुप्पी को नहीं… तुम्हारी दया को याद रखें। अब ये हवेली... एक इंसाफ़ का मंदिर बनेगा। जिसके लिए मैं तुम लोगों की सफलता की कामना करता हूं।”

मुक्तेश्वर आगे कुछ कहता उससे पहले किसी ने महल के दरवाजे पर दस्तक दी। सब चौक कर पलटे, तो देखा वहां रेनू... गजराज सिंह की नाजायज बेटी खड़ी थी। जिसे कुछ दिन पहले गजराज ने धक्का मारकर महल से बाहर निकाल दिया था। लेकिन आज उसने फोन कर अपनी उसी बेटी को महल में उसकी आखरी बैठक में शामिल होने के लिए बुलाया।

गजराज सिंह की आंखों में अब डर नहीं… सिर्फ पश्चाताप और आसुओं का गीलापन था। उसकी आवाज भारी थी, लेकिन अब पहली बार उसमें झूठ नहीं था। वो कुछ देर के लिए ठहर सा गया। फिर उसने धीरे से हाथ उठाकर कहा— “मुक्तेश्वर... रेनू... प्रभा बेटा... ज़रा पास आओ, आख़िरी बार।”

तीनों चौंक गए... लेकिन फिर धीरे-धीरे तीनों ने कदम आगे बढ़ाये, वे चुपचाप उसके पास आए। हवा में सिसकियों की गूंज थी। पूरे हॉल में सभी अब उस आखिरी बैठकी के गवाह बनने लगे। गजराज सिंह जैसे खुद को एक खुली किताब की तरह अपनी ही अदालत में खड़ा कर लिया था।

गजराज ने एक-एक की आंखों में देखा… और धीरे से कहा— “मुक्तेश्वर… तू मेरा सबसे समझदार बेटा था… पर मैंने तुझे कभी उतना हक़ नहीं दिया, जितना तुने कमाया। क्योंकि तू मेरी गलतियों का आइना था। मेरी चीख और मेरी जिद्द का सामना तुझसे नहीं होता था।”

“प्रभा बेटा... जब भी किसी ने घर में रोशनी बुझाई, तूने बातों से उजाला किया। पर तूने जो देखा… सुना… तू फिर भी मौन रही… क्यों? मैंने तेरी शादी भोंसले खानदान में कर तेरे साथ हमेशा नाइंसाफी की है।”

ये सुनते ही प्रभा ताई की आंखें भर आईं और वो बोली— “मैं डरती थी पिताजी… आपने हमेशा चिल्लाकर ही हम सबसे बात की, आपका खौफ हम लोगों के अंदर समाया हुआ था। इज्जत के नाम पर… सत्ता के नाम पर… और आपके खौफ से... हम सब बुत बनते चले गए।”

गजराज अब रेनू की ओर मुड़ा… और वहां एक गहरा मौन टूटने वाला था। वो एकाएक उसके पैरों में गिर गया और बोला— “रेनू... तुझे मैं सबसे ज़्यादा चाहता था। तू मेरी इज्ज़त थी… और मेरी सबसे बड़ी गलती भी। इसलिए मैंने तूझे अनाथ आश्रम में रखकर... हमेशा इस दुनिया से छिपाया। लेकिन जिस दिन तू मेरे अतीत को लेकर मेरे सामने मेरी औलाद बनकर खड़ी हुई... मैं गुस्से से तिलमिला उठा और तुझे ना चाहकर भी वो सब बोल दिया। मुझे माफ कर दे बेटा।”

सब चौंक गए। रेनू खुद पीछे हट गई, उसकी आंखें डगमगा उठीं और वो बोलीं— “ये क्या कह रहे हैं आप...? मैं आपकी औलाद हूं, ये सुनते ही उस दिन आपने मुझे धक्के मारकर महल से निकाला था। तो अब ये माफी किस बात की…?”

गजराज की आखें लाल हो चुकी थी। उसकी आंखों से अब आंसू नहीं, लहू बह रहा था।

“हाँ रेनू… तू मेरी औलाद है… पर तुझे मैंने बेटी कभी नहीं माना। तेरी माँ… एक विधवा थी, जिसका इस्तेमाल मैंने किया। और जब तू लौटी तो तुझे इस हवेली में पनाह देकर सोच लिया कि मैंने कोई पुण्य किया, पर सच ये है… कि मैंने तुझे तेरी मां की तरह चुप करा दिया… बिना नाम, बिना हक़ के… सिर्फ एक एहसान की छत्त के भरोसे।”

गजराज के इस कुबूलनामे के साथ जैसे पूरे दरबार में बम फट पड़ा। रेनू की आंखों से अब तक सुलगता मौन लावा बन चुका था। वो फूट पड़ी— “तो इसलिए… जब भी मैंने सवाल किया, आपने मेरी आंखें झुका दीं। जब मैंने विराज के साथ शादी की बात की, आपने कहा मैं इस खून की नहीं हूं… और तब चिल्लाकर कहा- मैं आपकी नाजायज औलाद हूं?”

विराज को आज रेनू के शादी से इंकार करने का कारण भी पता चल गया था। सच सुनने के बाद उसके दिल में रेनू के इज्जत और बढ़ गई। दूसरी ओर गजराज सिंह अपनी बेटी के सामने सफाई देते हुए बोला….

“तू नाजायज नहीं रेनू… मैं ही नाजायज था… जिसने तुम्हें सिर्फ एक मोहरे की तरह पाला। पर अब मैं चाहता हूं, तुम्हें तुम्हारा नाम… तुम्हारा अधिकार… और तुम्हारी पहचान मिले। मैंने जो बर्बाद किया, उसका हिसाब तुम सबको देना है, लेकिन मेरी ये सच्चाई अब दबनी नहीं चाहिए।”

इतना कहते हुए गजराज ने एक फोल्डर रेनू को सौंपा। वो उसके जन्म प्रमाण पत्र, उसकी मां के पत्र, और एक डीएनए रिपोर्ट थी—जो अब तक तिजोरी में बंद थी... और इसी के साथ उस सभा का सन्नाटा टूटा… और न्याय की गूंज सबके कानों को चीर गई।

ACP रणविजय आगे बढ़ा और बोला— “आपका अपराध अब सिर्फ कानूनी नहीं रहा… ये एक परिवार का ताबूत बन चुका था। पर आपने जो कबूल किया है, वो कोर्ट में आपकी सज़ा तो तय करेगा ही… पर शायद कुछ आत्मा को सुकून भी देगा।”

गजराज अब धीरे-धीरे पुलिस की ओर बढ़ा। हथकड़ी की चमक, किसी ताज से ज़्यादा भारी लग रही थी। उसके पैर कांप रहे थे, पर चेहरा शांत था।

महल के दरवाजे पर रुक कर उसने पीछे देखा…और बोला— “मैंने जो महल खड़ा किया… वो मेरे पाप की नींव पर था। अब इस धरती पर सच की हवेली बनाना तुम सबका काम है। मुझे इतिहास में विलेन मानो… पर भुलाना मत... बुरा ही सहीं, पर खून का रिश्ता है मेरा तुम सबसे...अलविदा...बच्चों।”

गजराज इतना कहता है, जिसके बाद पुलिस उसके हाथों में हथकड़ी पहना उसे अपने साथ ले जाने लगती है। महल से बाहर कदम रखते ही गजराज को दिल का दौरा पड़ जाता है और वो बेहोश होकर वहीं औधें मुह दरवाजे पर ही गिर जाता है। उसकी हालत देख पुलिस उसे जेल ले जाने के बजाये... तुरंत सीटी अस्पताल ले जाती है। 

तभी अनुराधा अपनी बेटी सुधा और मधु को गले लगाकर फूट-फूटकर रोती है।

दूसरी तरफ रेनू पहली बार छत की ओर देखती है, जैसे अब उसे अपना पूरा अस्तित्व मिला हो। और मुक्तेश्वर, गजेन्द्र और वीर—एक नई शुरुआत के लिए कमर कसते हैं और हवेली का दरवाजा धीरे से बंद होता है… जैसे बीते ज़माने को दफ़न करता हुआ... लेकिन तभी रणविजय फोन कर गजराज की हालत की खबर देता है।

 

क्या जिंदा बचेगा गजराज...या इस फोन कॉल पर उसकी मौत की आई है खबर? 

और अब क्या होगा राजगद्दी का फैसला? आखिर कौन बनेगा राजघराना का अगला मालिक? 

क्या दुबारा एक हो जाएंगे विराज और रेनू?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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