रोज की तरह आज भी सुबह की धूप जब राजघराना हवेली पर पड़ी, तो सब उठकर अपने-अपने काम में लग गए। हवेली की पुरानी जालियों से छनकर सूरज की रोशनी भीतर तक उजाला फैला रही थी। लेकिन वो कमरा जहां वीर अक्सर बैठकर बच्चों को कहानियाँ सुनाता था, आज सूना था। क्योंकि वीर अब तक वहां नहीं आया था। ऐसे में सबको लगा कि शायद वो आज ज्यादा देर तक सो रहा है।

इसके अलावा पुराने गलीचे पर किताबें भी बिखरी पड़ी थी। वहां कोई नहीं था, जो बच्चों को डांटकर कहता कि सामान को समेट कर अच्छे से अपनी-अपनी जगह पर सेट कर दें, क्योंकि वीर आज सुबह से यहां भी नहीं आया था।

सुबह के 10 बज गए, लेकिन वीर अब तक उठकर कमरे से बाहर नहीं आया। ऐसे में मुक्तेश्वर हैरान-परेशान हो खुद से बड़बड़ाते हुए बोला— “कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी तबियत खराब है। क्योंकि आम तौर पर तो वो कभी इतनी देर से नहीं उठता।”

ये ही बड़बड़ाता हुआ मुक्तेश्वर वीर के कमरे की तरफ बढ़ा,लेकिन जैसे ही वो कमरे के बाहर पहुंचता है वो देखता है कि दरवाजा खुला हुआ है। वो धीमे कदमों की आहट के साथ अंदर बढ़ता है, लेकिन अंदर वीर कहीं नजर नहीं आता। वीर को कमरे में ना देख मुक्तेश्वर अब बहुत ज्यादा परेशान हो जाता है, लेकिन उसकी ये परेशानी उस वक्त और गहरी हो जाती है, जब कमरें में बेड के दाई तरफ रखें टेबल पर उसे एक सफेद चिट्ठी नज़र आती है। 

मुक्तेश्वर कांपते कदमों से धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। टेबल के पास पहुंच कर उसकी हिम्मत उस चिट्ठी को उठाकर खोलकर पढ़ने की नहीं होती, क्योंकि वो एक बार फिर वीर को खोने के ख्वाब से भी डर रहा था। पर फिर भी वो कांपते हाथों से चिट्ठी को उठाता है और फिर खोलकर पढ़ना शुरु करता है। कुछ ही देर में उसकी चीख पूरे राजघराना में गूंज उठती है।

“वीर चला गया था।”

ये बोल मुक्तेश्वर फूट फूट कर रोने लगता है और तभी उसकी चीख सुन प्रभा ताई वहां आ जाती है और पूछती है— “क्या हुआ, तू इतनी जोर से वीर का नाम लेकर चिल्लाया क्यों, मेरा तो दिल ही बैठ गया….बता वीर कहां है।”

ये सुनते ही मुक्तेश्वर और तेज रोने लगा और कांपती हुई आवाज में बोला— “वो कहीं चला गया, फिर से हमें छोड़कर चला गया। किसी से बिना कुछ कहे, बस एक चिट्ठी छोड़ गया, जिसमें उसने लिखा था कि उसे कुछ समय के लिए सबसे अलग रहना है। वो खुद को जानना और समझना चाहता है और अपनी पढ़ाई भी पूरी करना चाहता है। पर यहां नहीं, राजस्थान से बाहर जा रहा है। न शहर का नाम बताया, न लौटने की तारीख।”

प्रभा ताई ने वो चिट्ठी सबसे पहले पढ़ी थी। पढ़ते ही उसका गला भर आया। उसने जब चुपचाप चिट्ठी मुक्तेश्वर को थमाई, तो उसके हाथ काँप रहे थे। क्योंकि 22 साल उन्होंने वीर को राजघराना वापस लाने का इंतजार किया था और वो 22 महीने भी महल में नहीं रहा, फिर सब छोड़कर चला गया।

मुक्तेश्वर ने चश्मा ठीक करते हुए चिट्ठी पढ़ी और गहरी सांस ली—जैसे किसी भारी कर्ज को फिर से उठाना रहा हो। कमरे में सन्नाटा था, मगर आंखों में बहुत कुछ उथल-पुथल मची थी।

चिट्ठी पढ़ने के बाद वो उस रात नहीं सोया और बस सोचता रहा कि आखिर वीर कहां गया होगा? उसने कुछ खाया भी होगा या नहीं? वो सोया भी होगा या नही? बार-बार मुक्तेश्वर के दिमाग में ये ही सवाल घूम रहे थे। 

आखिर होता भी क्यों ना... एक पिता ने अपने बेटे को 22 साल बाद पाया और कुछ ही दिनों में वो उसे वापस छोड़कर चला गया। 

एक हफ्ते बाद...मुक्तेश्वर ने हर दिन वीर के नाम एक चिट्ठी लिखना शुरु कर दी। वो उसका पता नहीं जानता था, इसलिए उन चिट्ठियों को उसके कमरे में ले जाकर रख देता था।

उन चिट्ठियों में मुक्तेश्वर वीर को अपना हाल-चाल बताने के साथ-साथ हवेली की खबरें, बच्चों की शरारतें, गजेन्द्र के घोड़ों की बातें और अंत में एक पंक्ति जरूर लिखता था— “वीर, लौट आओ... इस घर में तुम्हारे बिना कुछ अधूरा सा है।”

मुक्तेश्वर हर दिन एक चिट्ठी लिखता और उसे चुपचाप वीर के कमरे की अलमारी में रख आता। वो जानता था कि उन चिट्ठियों का जवाब कभी नहीं आयेगा, मगर फिर भी वो उन्हें हर रोज लिखता।

कुछ दिनों बाद तो वो उन चिट्ठियों को वीर के पुराने पते पर भी डाल कर आया और जवाब में हर सुबह मुक्तेश्वर डाकिये का इंतज़ार करने लगा। आलम ये था कि जब भी दरवाजे की घंटी बजती, तो मुक्तेश्वर की आंखें और उसके पैर बिना देर किए बस दरवाज़े की ओर दौड़ पड़ते। मगर हर बार दरवाजे पर कोई और होता…ऐसे में उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता।

उधर, रेनू ने अपने भीतर के द्वंद से जूझते हुए आखिरकार वो काम किया जो वो सालों से टाल रही थी। हवेली का वो कमरा, जो कभी उसके हिस्से में आया था, लेकिन जो उसे कभी “घर” नहीं लग रहा था, अब वो उसमें दाख़िल हुई। धीरे-धीरे उसने एक-एक पर्दा बदला, दीवारों पर अपनी पंसद के रंग चढ़ाये और आखिर में वो पुराना सूटकेस निकाला, जिसे उसने वर्षों से छुआ तक नहीं था।

उस सूटकेस में वो सारी चिट्ठियाँ थीं, जो उसने कभी अपने पिता गजराज सिंह को लिखी थी और सोचा था कि वो जब भी उनसे मिलेगी तो उन्हें वो सारी चिट्ठियां देगी। लेकिन जब वो अपने नाजायज पिता से मिली, तो उसे प्यार की जगह उनसे नफरत हो गई। इतना ही नहीं उसने तो दुबारा कभी उनके घर में कदम ना रखने की कसम भी खाई। 

लेकिन नियती को कुछ और ही मंजूर था। नाजायज बेटी की बेरूखी ने ही हैवान पिता को इंसान बनने पर मजबूर कर दिया... और तो और वो अपनी अंतिम इच्छा में ना सिर्फ अपनी नाजायज बेटी को सम्मान से बेटी कहलाने का हक देकर गया, बल्कि साथ ही अपने बाकी बच्चों की तरह उसे भी अपनी जायदाद का हकदार बनाया।

रेनू ने गहरी सांस लेते हुए उसे खोला और पहली बार महसूस किया कि दर्द और प्रेम, दोनों को एक साथ समेटकर भी जिया जा सकता है। वो चिट्ठियां उसने खुद लिखी थी, लेकिन ऐसा लग रहा था मानों पहली बार उस दर्द को महसूस कर रही हो।

वो उस कमरे की दीवार पर एक सादा सा फ्रेम टांगती है, जिसमें लिखा था— “ठहरना भी एक यात्रा है... और लौट आना, उसका सबसे सुंदर पड़ाव।”

तीन हफ्ते बीत चुके थे, लेकिन अब तक ना वीर लौटा था और ना ही मुक्तेश्वर की किसी चिट्ठी का जवाब। वो आज भी राजघराना महल के दरवाजे को उम्मीद से निहारता था। 

महल के आश्रम में रोज की तरह बच्चे अब भी खेलते थे, गजेन्द्र अब भी अस्तबल में सिखाता था, सुधा और मधु हर सुबह बाग़ीचे में नए पौधे लगाती थीं। मगर सबकी नज़र हर शाम हवेली के मेन गेट पर टिक जाती….शायद कोई घोड़े की टापें, कोई जीप की आवाज़... कोई वापसी राजघराना महल के दरवाजे पर दस्तक दें।

मुक्तेश्वर अब हर चिट्ठी की एक कॉपी बनाकर एक उसके कमरें में रखता और एक उसके पुराना पते पर भेजने लगा। ये ही सोचते हुए वो हर दिन खुद से कहता— “शायद वीर कहीं से किसी भी एक पते से मेरी चिट्ठी का जवाब दे दे। मेरा दिल बस ये ही इंतजार कर रहा है।”

रेनू हर दिन अपने भाई को ऐसा करते देखती, लेकिन चुपचाप रहती। एक तरफ उसके मन में वीर के लौट आने की कामना उठती, तो दूसरी ओर अपने और विराज के रिश्तें की उलझन। 

वहीं अपने कमरे में अकेले कुर्सी पर बैठा मुक्तेशवर आज कुछ ज्यादा परेशान था। उस रात उसकी आंखे जरा भी नहीं सोई या यूं कहें कि पलकें भी नहीं झपकी। देर रात तक बालकनी में बैठा, वो वीर की भेजी हुई एक पुरानी रिकॉर्डिंग सुनता रहा, जिसमें वो बच्चों को कविता सुना रहा था।

“हौसला हो तो हर डर छोटा लगता है... और घर, वो है जहां मन का डर मिट जाए।”

मुक्तेश्वर ने वो रिकॉर्डिंग बार-बार सुनी। और उसी रात उसने तय किया, अब वो हर हाल में पाताल से भी खोजना पड़े तो खोजेगा... लेकिन अपने बेटे को उसके अपने घर राजघराना महल लाकर ही सांस लेगा। 

उधर दूसरी ओर... वीर कहाँ था, ये कोई नहीं जानता। लेकिन एक रेलवे स्टेशन के शांत से कोने में बैठा वो लड़का—जिसके हाथ में एक डायरी थी और जेब में कोई फोन नहीं….हर शाम सूरज के डूबते ही अपनी आंखें बंद करता और कुछ पक्तियां अपनी उस डायरी में लिखता, तो कुछ पंक्ति मन में दोहराता।

“पढ़ने आया हूँ... लेकिन खुद को समझना ज़्यादा जरूरी है मेरे लिए और जब समझ जाऊँगा, तो लौट आऊँगा। ज़रूर लौटूंगा। बाबा-भाई मैं जानता हूं आप दोनों हर दिन मुझे पुकार रहे होंगे।”

दो महीने बीत गए। मुक्तेश्वर ने इस बार चिट्ठी के साथ एक पुरानी तस्वीर भेजी, जिसमें वीर, रेनू, मुक्तेश्वर, प्रभा ताई और गजेन्द्र साथ बैठे हैं। साथ ही एक छोटा नोट भी लिखा….“बेटा, हम यहां हैं। घर, तुम्हारे इंतज़ार में है। लौट आओ मेरे बच्चे।”

आज मुक्तेश्वर ने जब वो चिट्ठी पोस्ट की तो वो दो दिन बाद एक घर के एक कोने में पड़े टेबल पर नजर आई... और ये वहीं ठिकाना था, जहां वीर पिछले दो महीनें से रह रहा था। आज वीर ने उस चिट्ठी को देखने के बाद दो महीनों में पहली बार अपने पिता की चिट्ठी का जवाब लिखा, लेकिन वो खत उसने पोस्ट नहीं किया।

बस मेज की दराज में रख दिया... शायद कभी खुद वीर अपने हाथों से अपने पिता को उसका जवाब देना चाहता था। दूसरी ओर तब तस्वीर वाली चिट्ठी का भी जवाब नहीं आया तो मुक्तेश्वर को लगने लगा कि वो जरूर अपने पुराने पते पर भी नहीं गया होगा। वरना एक ना एक चिट्ठी पढ़कर उसका दिल पसीज जाता और वो अपने पिता को जवाब देता।

हवेली के दालान में अब भी शामें होती थीं। अब भी सब वहां बैठकर सुबह और शाम एक साथ चाय की चुस्की का मजा लेते थे, लेकिन बातें सिर्फ वीर की होती थी। हर किसी की जुबान पर वीर का नाम और उसकी यादें तैरती थी।

तो वहीं कभी-कभी सुधा मधुर आवाज़ में बच्चों को कहानियाँ सुनाती, मधु अब बच्चों को पौधे लगाने का तरीका भी बताने लगी थी। तो उनका भाई गजेन्द्र घोड़ों की आवाज़ों से बच्चों की पहचान कराता और साथ ही उन्हें घोड़ों से दोस्ती करने को भी कहता।

इन सबसे परे रेनू, जो आज तक गजराज सिंह की नाजायज औलाद होने का बोझ उठा रही था... वो अब खुले दिल से हवेली के कोनों में जाती थी। मानों जैसे उसने भी अब भगवान के जोड़े इन नए रिश्तों को अपना लिया हो, जहाँ कभी उसके कदम रोक दिये जाते थे, वहाँ अब वो अपने रंगों से दीवारें सजाने लगी थी। 

लेकिन मुक्तेश्वर की कलम और उसकी चिट्ठियों में झांकती राजघराने की हर दीवार पर एक सवाल अब भी गूंजता था— “क्या वीर लौटेगा?”

मुक्तेश्वर हर रात खुद से ये सवाल करने के बाद ही सोता था। और शायद… इसी सवाल के जवाब में ही छिपा था राजघराना महल के अगले अध्याय की शुरुआत का बीज... जो वीर के लौटने के बाद शायद राजघराना में बोया जाना तय माना जा रहा था। 

दूसरी ओर वीर अब हर दिन अपने पिता की चिट्ठियों के आने का इंतजार करता। जैसे ही डाकियां चिट्ठी लाता वो तुंरत उन्हें खोल कर पढ़ता, लेकिन बीते एक साल में उसने एक भी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया। 

एक साल बाद एक दिन ऐसा आया, जब मुक्तेश्वर की वीर के लौट आने की उम्मीद डगमागे लगीं। उसने चिट्ठी लिखना बंद कर दिया।

एक दिन... दो दिन... तीन दिन... चिट्ठी नहीं आई। वीर तड़पप उठा। उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, वो क्या करें। अपने पिता मुक्तेश्वर को फोन कर सीधे-सीधे पुछ ले कि, तबियत तो ठीक है ना... या फिर भाई गजेन्द्र... या घर में किसी और को फोन करें।

 

आखिर क्या हुआ था मुक्तेश्वर को, वो क्यों नहीं लिख रहा था वीर को अब चिट्ठिया? 

क्या वीर अब लौट आयेगा राजघराना महल वापस?

क्या लौटना आसान होगा… या फिर चल रहा है उसके दिमाग में कुछ और?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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