सुबह की पहली किरण हवेली की झरोखों से छनकर अंदर तक आई, लेकिन राजघराना आज एक बार फिर सूना था। अब ये पहली बार नहीं था कि राजघराना की सुबह ऐसी खामोशी भरी हो, बल्कि पिछले एक साल में अब ये रोज का किस्सा बन गया था। दीवार पर लटकी घड़िया भी अब टिक-टिक की आवाज धीमें से करती थी। चाय की चुस्की अब बातों और यादों की गॉसिप कम, बल्कि खामोशी का मंजर बन गई थी। महल के हर कोने में बच्चों की दौड़ती आवाज़ें, अस्तबल की खुली खिड़कियों से घोड़ों की हल्की चिल्लाने की आवाज़ें ही बस राजघराना की पहचान बनकर रह गई थी।
ये आवाज़ें अब किसी डर की नहीं, उम्मीद की थीं। लेकिन आज की बहती हवा इशारा कर रही थी कि आज राजघराना में कोई तमाशा होने वाला है, लेकिन कब... क्यों... और कैसे...? ये कोई नहीं जानता था।
फिलहाल अभी तो सुबह की शुरुआत हुई थी। सुबह के आठ बज रहे थे। ‘सिंह ग्राउंड्स’ के चौकों में गजेन्द्र एक सावल्थ घोड़े की रस्सियां बांध रहा था। और उसके दाई तरफ खड़े दस-बारह बच्चे, आंखों में चमक, चेहरे पर मुस्कुराहट लिए बस एक टक उसे निहार रहे थे। ये बच्चे भले ही सारी दुनिया के ठुकराये हुए थे, लेकिन राजघराना महल और उसके लोगों ने उन्हें पूरी तरह से अपना लिया था। अब मुक्तेश्वर से लेकर गजेन्द्र, रेनू और रिया सब उन बच्चों के हर कदम में उनका साथ देते थे।
अस्तबल में खड़े गजेन्द्र ने घोड़े की खाल थपथपायी और बच्चों से कहा- “तैयार हो? डर को छोड़ो, आत्मा को गले लगाओ। ये महल तुमसे सीख रहा है। और तुम अपनी जिंदगी के हर पल से सीखों मेरे शेरों।”
बच्चे खिलखिला कर हंसे और फिर उन्होंने ख़ामोशी से सिर हिलाया, दो-चार ने हिम्मत कर चमचमाते हेलमेट पहने, घोड़े के पास पहुंचे और फिर उनकी तनी पकड़े खड़े हो गए। मानों गजेन्द्र से रेस करने को पूरी तरह तैयार हो।
ठीक उसी वक़्त प्रभा ताई वहां आ गई। इस वक्त उनकी आंखों में एक अजीब सी खुशी की चमक और आंसू दोनों थे। उन्होंने गजेन्द्र की तरफ देखा और बोली- “तुम्हारी ये ताक़त देखो… पहले राजघराने की हवा होती थी, अब तो ये हवा तुम्हारे अंदाज़ की बन गयी है, बेटा।”
गजेन्द्र मुस्कुराया और कुछ सोचते हुए बोला- “ये आप कैसी बातें कर रही है बुआ जी? अब मैं किसी की कैद का बंदी नहीं हूं, बल्कि मैं तो आज पहले से कहीं ज़्यादा आजाद… एक मस्तमौला आज़ाद परिंदा हूँ।”
तभी वहां गजेन्द्र की गर्लफ्रैंड रिया आ गई और बोली- दरअसल प्रभा ताई अपने अंदाज में तुम्हारी तारीफ कर रही है गजेन्द्र... तुम उनकी बात का मतलब समझे ही नही।
अपनी रिपोर्टर गर्लफ्रैंड को सामने देख गजेन्द्र के अंदर एक अजीब सी झिलमिलाहट दौड़ गई। क्योंकि उसने आज पूरे 15 दिन बाद रिया को देखा था। रिया एक स्पेशल केस के चलते पिछले कई दिनों से बहुत बिजी थी। लेकिन आज जो खबर वो लेकर आई थी, उसे सुन पुरा राजघराना झूमने वाला था।
दरअसल आज सिर्फ राजगढ़ में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में गजेन्द्र का नाम चर्चाओं में था, जिसकी खबर लिए रिया हाथ में आज सुबह का अख़बार ‘राजगढ़ समाचार एक्सप्रेस’ लेकर आई थी। अखबार के पहले पन्ने पर छपा एक बड़ा-सा फोटो... जिसमें गजेन्द्र घोड़े पर मुस्कुराते, चार-पांच बच्चे उसके साथ सिर हिलाते नजर आ रहे था। पहली नजर देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे राज्य का कोई राजकुमार हो, और उसके पीछे उसकी प्रजा के बच्चे उसे देख चहक रहे हो।
गजेन्द्र की उस तस्वीर के कैप्शन में लिखा था— “The Singh Legacy, Galloping Toward Grace” यानि... “सिंह विरासत, गरिमा की ओर दहाड़ रही है।”
मुक्तेश्वर अंकल, प्रभा बुआ जी, सुधा, मधु और रेनू... रिया ने सबको आवाज लगाकार बुलाया। सब घर में ही थे, तो रिया की अवाज सुनते ही झट से आ गए। तभी रिया ने सबके सामने अखबार खोला और पढ़ने लगी…
“कल दोपहर सिंह ग्राउंड्स पर कुछ ऐसा हुआ, जिसे देखकर राजगढ़ की जनता ने आंखों पर भरोसा नहीं किया। राजघराने के उत्तराधिकारी श्री गजेन्द्र सिंह, जो कभी रेस फिक्सिंग के झूठे आरोप में फंसने के बाद हॉर्स रेसिंग छोड़ने का फैसला कर चुके थे। आज वो फिर एक नई भूमिका एक नए अवतार में वापसी करते नजर आये। उन्हें देख लाखों बच्चों ने उन्हें अपना मार्गदर्शक और साथी कहा।
तस्वीर में साफ देखा जा सकता है—गजेन्द्र सिंह एक सुंदर, चमकीले सफ़ेद घोड़े पर सवार हैं, और उनके साथ हैं चार उनके ही अनाथ आश्रम के बच्चे, जो पहली बार घोड़े की सवारी कर रहे थे।
श्री गजेन्द्र सिंह ने न केवल बच्चों को अस्तबल में घोड़ों के साथ समय बिताने दिया, बल्कि उन्हें अपने हाथों से सुरक्षा हेलमेट पहनाए और सवारी का प्रशिक्षण भी दिया। एक पल ऐसा भी आया जब एक डरता हुआ बच्चा रोने लगा, लेकिन गजेन्द्र सिंह ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा— “तू राजा है... डर मत, ये घोड़ा भी तुझसे दोस्ती करना चाहता है।”
स्थानीय महिलाएं जो कल तक राजघराने के बारें में बात करने से भी कतराती थी। आज उन्होंने ना सिर्फ राजघराना के मुद्दे पर खुलकर बात की बल्कि साथ ही सिंह परिवार और गजेन्द्र को अनाथ बच्चों का मसीहा भी कहा।
आगे एक औरत ने बताया— “पहले इस महल को हमारी परछाई को भी छूने की इजाज़त ना थी। लेकिन अब हम गरीबों के बच्चों की हंसी यहां गूंजती है। यह बदलाव सिर्फ एक खबर नहीं, एक क्रांति है और वो इसके लिए गजेन्द्र और वीर का तहे दिल से धन्यवाद करते है।”
तभी गांव के मुखिया ने गजेन्द्र की तारीफ करते हुए कहा— “गजेन्द्र अब बस रियासत का उत्तराधिकारी नहीं, वो इस बदलाव का प्रतीक बन चुका है। वैसे तो इसकी असली नींव वीर ने रखी थी, लेकिन ना जाने कहां वो इन दिनों लापता है। राजघराना और राजगढ़ के अलावा महल के भीतर पलने वाले बच्चों को भी वीर के लौटने का बेसब्री से इंतजार है।”
राजघराने की यह बदली हुई छवि न केवल राजगढ़ बल्कि पूरे जिले के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरी है।
रिया ने इतना पढ़ा ही था कि प्रभा बुआ की आँखें भर आईं। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा— “गजेन्द्र तो अब सिर्फ सिंह नहीं... वो अब राजगढ़ का गहना है, लेकिन ना जाने मेरा वीर कहां है...? कैसा है? काश वो भी आज अपनी आंखों से अपने देखें सपने को चमचमाते देख पाता, तो कितना अच्छा होता।”
मुक्तेश्वर की आंखें रिया के होठों के रूकने के बाद भी अखबार से नहीं हटी। वो अभी भी भी फ्रंट पेज पढ़ रहा था। और उसके होंठों से बस एक फुसफुसाहट निकली— “काश... वीर भी देख पाता ये सब। मेरा वीर... 22 सालों बाद मिला और 22 महीने भी मेरे साथ नहीं रहा। लौट आ मेरे बच्चे, घर लौट आ।”
और हवेली में एक पल को सन्नाटा छा गया... सिवाय उस उम्मीद के, जो अखबार के पहले पन्ने से सबके दिलों तक पहुँच रही थी। कुछ पल पहले जहां सबके चेहरे पर खुशी थी, अब उन्हीं चेहरों पर मुक्तेश्वर की फुसफुसाहट सुन मायूसी छा गई थी।
मुक्तेश्वर ने तस्वीर देख कर आह भरी और फिर दुबारा बोला— “देखा तुमने? ये तस्वीर महज़ तस्वीर नहीं… ये राजघराने की पहचान बदलने की ओर पहला कदम है। ये सबूत है इस बात का कि गजराज सिंह की मौत और उनके आखरी सपने के साथ राजघराने की सिर्फ चौखट नहीं बदली है, बल्कि अंदर की तस्वीर भी बदल रही है।”
तभी रेनू मुस्कुराई और बोलीं— “वैसे तो मैं अपने जन्म से इस महल में आने तक सिर्फ एक सूटकेस में पल रही थी… लेकिन ये… ये तस्वीर और इसे देख कर मेरे अंदर जो खुशी उमड़ रही है, जो गर्व हो रहा है, वो मुझे एहसास करा रहा है, कि मैं अपनों के बीच हूं और मुझे भी मेरे घर-आंगन में आये इस बदलाव की तहे दिल से खुशी हो रही है।”
वहीं गजेन्द्र की चचेरी बहन मधु की आंखों में चंचल चमक थी, जिसे शब्दों के साथ जाहिर करते हुए उसने कहा— “अब वो दिन नहीं जब लोगों के दिलों में राजघरानना महल के नाम से डर पैदा होता था… अब लोग महल की खबरे पढ़कर खुश होते है। हमसे जुड़ाव महसूस करते हैं। राजघराना का फर्द कहलाते हुए अब मुझे भी गर्व महसूस होता है।”
ये बातें करते-करते सुबह से दोपहर हो चली थी। हवेली का आँगन हल्का हंगामेदार था। आश्रम के बच्चों के साथ-साथ गांव में रहने वाले कुछ बच्चे भी महल के प्रांगण एरिया में खेल रहे थे। पहली बार बड़े महल के कमरे तक खुशियाँ खिला कर आवाजों में गूंज रही थी।
…और उसी गूंज में, हवेली के बरामदे में खड़ी रिया चुपचाप गजेन्द्र की कामयाबी में सबको खुश होते देख रही थी। हल्की धूप में उसके बालों की लटें चेहरे पर आकर ठहर सी गई थीं, और उसकी आंखों में कुछ अलग ही भाव थे। ये भाव न तो रिपोर्टर वाली छवि से मेल खाते थे, न ही हवेली वाली संजीदगी से...। वो भाव थे सुकून और सच्चे जुड़ाव के, जो उसे गजेन्द्र से था। वहीं बरामदे के दूसरे कोने पर खड़ा गजेन्द्र बार-बार सबसे नजरें चुरा उसे देख रहा था। आखिरकार 15 दिन बाद आज दोनों आमने सामने थे।
थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को यूं ही देखते रहे। कोई शब्द नहीं, कोई मुस्कान नहीं, फिर भी दोनों की आंखों में अनकहे संवाद लगातार चल रहे थे।
रिया ने नजरें झुकाईं और धीमे से बोली— “मैं सोच रही थी... कि तुम्हारे साथ बिताया हर पल पर जिंदगी की एक खास रिपोर्ट लिख डालू। और अब मैं खुद उस कहानी का हिस्सा हूं, तो उसे बारीकी से सजाऊं।”
गजेन्द्र कुछ कदम आगे बढ़ा और रिया के बिल्कुल पास आकर बोला— “कहानी? ये कहानी तो उसी दिन शुरू हो गई थी जब तुम पहली बार महल में मेरा हाथ थाम कर मेरे भरोसे पर दाख़िल हुई थीं, रिया। अब सवाल सिर्फ इतना है कि क्या तुम इस कहानी का अगला अध्याय मेरे साथ लिखना और पढ़ना पसंद करोगी?”
रिया ने चौंककर उसकी आंखों में देखा। वो जानती थी कि ये मज़ाक नहीं था। गजेन्द्र का चेहरा बेहद गंभीर था, लेकिन उसकी आंखों में मोहब्बत का समंदर लहरा रहा था। ऐसे में रिया ने नजरे झुका बड़े धीमें अंदाज में पूछा— "गजेन्द्र... तुम क्या कह रहे हो?"
गजेन्द्र ने रिया का हाथ थामते हुए कहा— “मैं अब किसी से छिपकर नहीं जीना चाहता, रिया। ना अपने जज़्बात से, ना अपने अतीत से, ना अपनी मोहब्बत से। आज जब पूरा महल मुस्कुरा रहा है, तो मैं भी मुस्कुराना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे नाम से इस महल में एक नई शुरुआत हो— मिसेज रिया सिंह।”
पल भर के लिए हवेली की सारी आवाज़ें मौन हो गईं। रिया की आंखों से एक बूंद आंसू लुढ़क कर गजेन्द्र की हथेली पर गिरा, लेकिन वो आंसू दुख का नहीं, बल्कि बरसों से दिल में छिपी राहत का था। अपने प्यार को पाने का था।
"क्या तुम मेरे साथ चलोगी... इस सफर पर?" गजेन्द्र ने अपना सवाल इस बार साफ और सीधे शब्दों में दोहराया।
रिया की मुस्कान में अब कोई झिझक नहीं थी। उसने सिर हिलाया और बोलीं— “हाँ गजेन्द्र, मेरी तो हमेशा से हां ही थी।”
रिया की हां के बाद गजेन्द्र ने अपने पिता मुक्तेश्वर और प्रभा बुआ दोनों की रजामंदी ली, जिसके बाद दोनों की शादी की तारीख फाइनल हो गई।
अगले कुछ दिनों में हवेली शादी की तैयारियों में रंग गई। वर्षों बाद फिर से शहनाई की धुन सुनाई देने लगी। दीवारों पर पुराने पर्दे हटाए गए और नए रंग-बिरंगे रेशमी परदे सजाए गए। महल की दीवारें जैसे खुद कहने लगीं— "प्रेम लौट आया है, राजघराने में।"
प्रभा ताई ने रिया के हाथ में मेंहदी लगाते हुए कहा— “बेटी, तू सिर्फ गजेन्द्र की पत्नी नहीं, इस हवेली की सबसे खूबसूरत कहानी बनने जा रही है।”
रेनू, मधु, और सुधा ने मिलकर रिया के लिए गुलाबी-पीले फूलों से झूला सजाया, जिस पर बैठकर वो अपनी मेंहदी से हल्दी तक की रस्मों में झूमती नजर आई। इस वक्त रिया की आंखों में छोटी बच्ची जैसी खिलखिलाती चमक थी, और साथ ही दुल्हन के चेहरे का नूर भी खिल रहा था।
गजेन्द्र, जो कभी रेसिंग ट्रैक का चमकता सितारा था, अब खुद को रिया के चारों ओर चक्कर लगाते चकोर-सा महसूस कर रहा था। वो बार-बार खुद से यही पूछ रहा था….
“कि क्या यही है असली जीत? जब सारी दुनिया ताली बजाए, लेकिन एक मुस्कान के लिए दिल दौड़ जाए? क्या सच में मैं रिया के प्यार में इस कदर गिरफ्तार हो गया हूं, कि उसके अलावा दुनिया मे कुछ नजर ही नहीं आता... हाय... ये प्यार भी बड़ा बेइमान है।”
एक-एक कर सारी रस्में हो गई। आखिरकार शादी वाला दिन भी आ गया। ‘सिंह ग्राउंड्स’ को ही मंडप बनाया गया। गजेन्द्र घोड़े पर नहीं, बल्कि अनाथ बच्चों के हाथों बनी बग्घी में बैठकर आया। उसके लिए ये सबसे बड़ा सम्मान था और साथ ही उन बच्चों का उसके लिए उपहार भी।
रास्ते भर गांव की महिलाएं और बुज़ुर्ग फूल बरसाते रहे, जैसे राजघराना फिर से जनमानस के बीच लौट आया हो... और राजघराना की इस खुशी में गली-गली, मौहल्ला-मौहल्ला मुस्कुरा रहा हो।
मंडप में पहुंचते ही गजेन्द्र ने एक पल रिया की तरफ देखा, फिर बच्चों की ओर और खुद से बोला— “आज जो कुछ भी हूं, वो इन सबकी वजह से हूं। लेकिन जो बनना चाहता हूं... उसके लिए मुझे सिर्फ एक नाम चाहिए—रिया!”
पंडित ने मंत्र पढ़ने शुरु किया, अग्नि दोनों के रिश्ते की साक्षी बन रही थी। सात फेरे शुरू हुए, लेकिन रिया और गजेन्द्र ने हर फेरे पर एक वचन सिर्फ एक-दूसरे से नहीं, बल्कि उस समाज से भी किया जो उनके भविष्य के साथ-साथ राजगढ़ की धरती पर बदलाव चाहता है, उम्मीद चाहता है।
पहला फेरा—प्यार का
दूसरा—बराबरी का
तीसरा—इज्जत का
चौथा—सच्चाई का
पाँचवां—सामाजिक ज़िम्मेदारी का
छठा—एकता का, सम्माम का
और सातवां—हर बच्चे की मुस्कान के लिए जीने का…
सात फेरे पूरे हुए। शादी के बाद रात को जब दोनों बालकनी में खड़े थे, नीचे बच्चों की परछाइयाँ नाच रही थीं। हल्की हवा चल रही थी, रिया ने गजेन्द्र के कंधे पर सिर रखा और कहा— "अब सब बदल चुका है ना?"
गजेन्द्र ने सिर हिलाया और जवाब देते हुए बोला— "नहीं, अभी बहुत कुछ बाकी है। लेकिन अब हम साथ हैं... और यही सबसे बड़ा बदलाव है।"
और दूर, महल की दीवारों से टकराकर फिर वही शब्द गूंज उठें — "The Singh Legacy, Galloping Toward Grace"
लेकिन इस बार, वो सिर्फ अखबार की हेडलाइन नहीं थी...बल्कि सचमुच की विरासत का जीवंत संगीत बन चुकी थी, जो इस समय राजघराना महल की फिजाओं में गुनगुना रहा था।
लेकिन इन सबसे परे... अपने कमरे में अकेला बैठा मुक्तेश्वर आज भी खुद से बातें कर रहा था— “तेरे जुड़वा भाई गजेन्द्र की शादी हो गई, लेकिन तू उसकी खुशी में शामिल होने भी नहीं आया। अब तो मुझे लगने लगा है तू मेरी मौत पर भी नहीं आयेगा, लौट आ वीर... लौट आ...।”
इतना कहते-कहते मुक्तेश्वर वहीं जमींन पर बेहोश होकर गिर गया। देर रात प्रभा ताई जब उसके कमरे के पास से गुजरी तो उसे औंधे मुंह जमीन पर पड़ा देख... घबरा गई। भागकर प्रभा ताई ने मुक्तेश्वर की नब्ज चैक की और फिर अगले ही सैकेंड वो जोर-जोर से चिल्लाने लगीं….
आखिर क्या हुआ है मुक्तेश्वर?
बेटे के मोह का लगा है सदमा या छोड़ दी है उसने दुनिया?
क्या अब लौटेगा वीर? और अगर लौटेगा... तो क्या कुछ बदलेगा राजघराना में...?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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