प्रभा ताई की चीख सुनकर पूरा महल दहल उठा। रिया, गजेन्द्र और मधु दौड़ते हुए मुक्तेश्वर के कमरे की ओर भागे। दरवाज़ा खुला, सामने ज़मीन पर बेसुध पड़े मुक्तेश्वर को देख गजेन्द्र के कदम कांपने लगे, तो वहीं रिया भी अंदर तक सिहर उठी। तभी गजेन्द्र मुक्तेश्वर को झकझोरते हुए चिल्लाया "पापा... पापा, उठिए ना पापा...!"
गजेन्द्र की आवाज कांप रही थी, लेकिन फिर भी वो चिल्लाया और तुरंत उसने अपने पिता को अपनी गोद में उठाया। फिर मुक्तेश्वर की नब्ज चैक की, तो देखा कि वो बेहद धीमी थी। इस पल गजेन्द्र को ऐसा लगा कि जैसे ज़िंदगी उससे रूठने की तैयारी में हो। दूसरी ओर रेनू ने तुरंत डॉक्टर को फोन कर राजघराना महल बुलाया। सबकी सांसें अटकी हुई थीं।
इसी बीच, रिया को कमरे के एक कोने में फर्श पर कुछ गिरा हुआ दिखा। उसने पास जाकर देखा….एक पुरानी, हल्के लाल रंग के सिल्क थेले में चिट्ठियों का ढ़ेर पड़ा था, जिस पर नाम लिखा था- "वीर सिंह... के नाम।"
रिया ने कांपते हाथों से चिट्ठी उठाई और देखा, तो उन सभी पर मुक्तेश्वर की ही लिखावट थी। ठीक उसी वक्त जब गजेन्द्र ने वो चिट्ठी देखी, उसकी आंखें भर आईं, और वो रोते-रोते बोला— “बाबा ने वीर को खत लिखा था? वो भी इतने सारे... आखिर कहां है वीर? उसे कैसे ढूंढ के लाऊ? कैसे बताऊं कि बाबा इसके बिना बेचैन हो रहे हैं।”
तभी वहां डॉक्टर आ गया और उसने सबको मुक्तेश्वर को अकेला कमरे में छोड़ बाहर जाने के लिए कहा। कुछ आधे घंटे तक डॉक्टर मुक्तेश्वर के साथ अंदर कमरे में रहा और फिर डॉक्टर बाहर आया और सिर झुकाकर बोला….
“इनके अंदर जीने की इच्छा मर रही है। ऐसा लग रहा है, जैसे किसी गहरे सदमें को दिल से लगाए बैठे है। क्योंकि इन्हे किसी भी तरह की कोई शारीरिक परेशानी नहीं है, ये तो मानसिक रुप से बीमार है। मैं बस इतना ही कह सकता हूं, कि ख्याल रखिये।”
गजेन्द्र डॉक्टर की बात सुन दौड़कर अपने पापा के बिस्तर के पास बाइ तरफ जमीन पर बैठ उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुए उसने कांपती आवाज़ में पूछा— “बाबा, क्या मैं वीर को ढूंढूं? अगर आप ये ही चाहते हैं, तो ठीक है मैं उसे जल्द से जल्द ढूंढ कर लाउंगा….पर आप प्लीज ठीक हो जाइये। प्लीज बाबा।”
वीर का नाम सुनते ही मुक्तेश्वर की आंखें खुलीं, होठ कांपते हुए सिर्फ एक शब्द निकला— "वीर..."
और फिर उनकी आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं।
बाहर आसमान में तेज़ बिजली चमकी, हवाएं एक बार फिर पुरानी हवेली की दीवारों से टकराईं, जैसे इतिहास फिर करवट लेने वाला हो…। गजेन्द्र को हालात बिल्कुल समझ नहीं आ रहे थे। तभी एक बार फिर उस कमरे का दरवाज़ा खुला और रिया, मधु, प्रभा ताई, सुधा तेज़ कदमों से कमरे में पहुंची।
डॉक्टर ने सिर हिलाया और बोला “लगता है, वो फिर से बेहोश हो गए है। पर चिंता की कोई बात नहीं है। बस ये जिनका नाम बार-बार ले रहे हैं, बस हो सके तो उन्हें बुला दीजिए।”
डॉक्टर इतना कहकर वहां से चला गया। जिसके बाद जहां एक तरफ मुक्तेश्वर अभी भी बेहोश था, तो उसे बेसुध बेहोश देख गजेन्द्र एक टक बस उसे ही निहार रहा था। कुछ देर बाद गजेन्द्र ने वो सिल्क का लाल थैला उठाया और एक-एक कर उसमें से अपने पिता की लिखी सारी चिट्ठी पढ़ने लगा।
उस थैले में चिट्ठियों का अंबार था। पुरानी, नए रंग-बिरंगे लिफाफों में बंद... हर एक चिट्ठी मुक्तेश्वर ने अपने दिल और जज्बातों के साथ वीर के लिए लिखीं थी। पर वो वीर का पता नहीं जानता था, इसलिए उन्हें पोस्ट नहीं कर पाया।
गजेन्द्र जब उन चिट्ठियों को पढ़ रहा था, तो उसमें से एक चिट्ठी का लिफाफा उसे बिलकुल अलग नजर आया, जिस पर वीर की जगह “मुक्तेश्वर सिंह” का नाम लिखा था। गजेन्द्र ने उसे खोला और पढ़ने लगा। खोलते ही वो चौक गया, क्योंकि ये चिट्ठी वीर की ही थी, जो वहां कैसे आई ये कोई नहीं जानता था।
गजेन्द्र धीरे-धीरे उस चिट्ठी को पढ़ना शुरु किया….
“प्रिय पिता-भाई,
मैंने वो सब देखा और महसूस किया, जो आपने राजघराना महल से लेकर उन अनाथ मासूम बच्चों तक, हवेली से लेकर समाज तक… किया और सब कुछ बेहद खूबसूरत और काबिले तारीफ है।
मैं भी कुछ और दिन अकेला रहना चाहता हूं। हां ये सच है कि मैं अभी वापसी के इंतज़ार में नहीं हूं, लेकिन ये भी सच है कि मैं अब आप लोगों से और भागना नहीं चाहता। देर से सहीं पर मैं जल्दी लौटूंगा….
आपका वीर...”
गजेन्द्र की आंखों से कुछ बूंदें निकलीं और उस कागज के पन्नें को भीगो गई। गजेन्द्र ने पूरी चिट्ठी पढ़ी लेकिन उसका ध्यान चिट्ठी में सिर्फ एक पंक्ति पर था।
“देर से सहीं पर मैं जल्दी लौटूंगा”
उसे पढ़ उसने खुद से बड़बड़ाते हुए कहा- “आखिर कब लौटेगा तू भाई, पापा तेरे इंतजार में अब टूट रहे है...लौट आ वीर”
इतना बड़बड़ाते हुए गजेन्द्र रोने लगा और वहीं अपने पापा के बेड के बगल में उनका हाथ पकड़े ही सो गया। वो पूरी रात वहीं सोता रहा, एक बार भी उसकी नींद नहीं टूटी। अगले दिन सुबह के सूरज की रोशनी खिड़की से छनती हुए गजेन्द्र के मुंह पर आई। तो उसने धीरे-धीरे अंगड़ाई लेते हुए आखें खोली तो देखा सामने सहर उजाला था, रात का अंधेरा ढल चुका था। दीवार की घंटी से भी तेज़-तेज़ आवाजें आ रही थी, जो बता रही थी कि सुबह हुए कई घंटे हो चुके हैं।
गजेन्द्र उठा तो देखा मुक्तेश्वर वहां नहीं था। वो घबराया यहां-वहां महल में हर जगह मुक्तेश्वर को ढूंढते हुए अवाजे देने लगा— “पापा... पापा... पापा कहां है आप…? बड़ी बुआ आपने पापा को देखा क्या”
“हां, आज सुबह वो जल्दी उठ गए थे और बोलें की जरा टहलने गार्डन की तरफ जा रहे हैं।”
प्रभा ताई की ये बात सुनकर गजेन्द्र के चेहरे पर सुकून की लकीरें दौड़ गई और वो भागता हुआ गार्डन एरिया में पहुंचा, लेकिन उसे वहां मुक्तेश्वर कहीं नजर नहीं आया।
गजेन्द्र, विराज, रिया और रेनू ने मुक्तेश्वर को हर जगह ढूंढा, लेकिन उसका कहीं कुछ पता नहीं चला। पहले वीर अचानक से घर छोड़कर चला गया और बीते एक साल से नहीं लौटा। उस पर आज अचानक से मुक्तेश्वर भी लापता था। भाई के बाद पिता के ना मिलने के गम ने गजेन्द्र को तोड़कर रख दिया।
आधी रात बीत गई, लेकिन मुक्तेश्वर का कहीं कोई पता नहीं चला था। हारकर रात दो बजे विराज, रिया, रेनू और गजेन्द्र सब वापस राजघराना लौट आये। गजेन्द्र लौटने के साथ ही एक बार फिर दौड़कर अपने पिता के कमरे में गया, लेकिन जैसे ही वो कमरे के अंदर पहुंचा वो वहां का नजरा देख सर से पैर तक हिल गया और जोर से चिल्लाया।
“पापा... पापा...आप कहां थे पूरा दिन। मैंने आपकों कहां-कहां नहीं ढूंढा, लेकिन आप कहीं नहीं मिले। आखिर कहां थे आप पापा?”
“बेटा... बेटा वो दरअसल मैं तेरी मां जानकी से बात करने उसके उस कमरे में गया था, जहां उसने आखरी सांस ली थी। मुझे बहुत घुटन हो रही थी, तो आज का दिन मैंने वहीं तेरी मां की यादों के साथ बिताया और उससे जी भर के बातें भी की।”
मुक्तेश्वर के मुरझाए स्वर में थकावट और विरह दोनों झलक रहे थे। पहले पत्नी, फिर भाई, फिर पिता और अब जवान बेटा, जो कुछ दिन पहले ही मिला था वो दुबारा छोड़कर चला गया था। निशब्द गजेन्द्र और रिया ने पापा को गुस्से से घूरा, लेकिन कुछ कहा नहीं। क्योंकि वो भी जानते थे कि उनका पिता मुक्तेश्वर मानसिक रुप से टूट रहा है।
लौटने के बाद फिर मुक्तेश्वर ने चुप्पी साध ली, और एक बार फिर अपने कमरे की शांत दीवारों को लेटे-लेटे एक टक घूरने लगा। बीते कुछ दिनों में मुक्तेश्वर ऐसा हो गया था, मानो जैसी कोई चलती-फिरती लाश हो।
गजेन्द्र ने धीरे से सिर हिलाया। उसकी आंखों में अजीब-सी शांति और होठों पर सवालों की बेचैनी थी, लेकिन वो पिता की हालत देख उन्हें पूछ नहीं पा रहा था। ऐसे में उसके मन के वो अनगिनत सवाल हवा में कोंद गए। लेकिन एक सवाल जिसे वो चाह कर भी नहीं छोड़ पाया, वो उसने अपने पिता से आखिरकार पूछ ही लिया।
“लेकिन पापा... आप कहां जा रहे हैं, ये किसी को बता कर क्यों नहीं गए। इसके बाद जब हम महल के हर कोने में आपको चिल्ला-चिल्लाकर ढूंढ रहे थे, तब भी आपने एक बार हमारी आवाज का जवाब नहीं दिया। ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको एक बार भी हमारी आवाज सुनाई नहीं दी।”
गजेन्द्र लगातार अपने सवालों की धार बढ़ा रहा था, लेकिन मुक्तेश्वर किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दे रहा था। ऐसे में जब रिया ने देखा कि मुक्तेश्वर की आंखों के नीचे अँधेरा गहरा रहा है, उसकी पलके थक कर झपक रही है, तो उसने अपने कदम आगे बढ़ाये और एक तकीया मुक्तेश्वर के सर के नीचे लगाते हुए बोलीं।
“पापा, आपकों नींद आ रही है ना... आप सो जाइये। हम सब आपके साथ है और आगे की बातें अब हम कल करेंगे। आप आज बस अराम से सो जाइये।”
ये देख प्रभा ताई ने रिया के सर पर हाथ रखते हुए उसे सहलाया और बोली— “बड़ों की खामोशी समझना बेहतर होता है। वक्त रहते जब वो बताएं, सुन लेना। जब नहीं बताना चाहता, तब ये समझना जरूरी है कि शायद उनके मन में कुछ ऐसा है जिससे जुड़ी टूटी हुई चुप्पियाँ मन में जगह बना लेती हैं। तुम बहुत अच्छी बहू हो रिया।”
सीधी-सरल बात थी। मगर महल में बने रिश्तों को जोड़ने वाली वो चुप्पी, अब उसी चुप्पी से राजघराने में आवाज़ बनने लगी थी।
उस शाम, महल में गजेन्द्र ने पूरे परिवार की एक बैठक बुलाई। वो अपने पिता की चुप्पी और उनके बदलते बर्ताव को लेकर काफी परेशान था, लेकिन वो किसी भी हाल में भाई के बाद अब अपने पिता को नहीं खोना चाहता था। इसलिए उसने इस बैठक में सबकों समझया कि वो मुक्तेश्वर के साथ रहें कभी भी कोई उन्हें अकेला नहीं छोड़ेगा। एक ना एक व्यक्ति मुक्तेश्वर के साथ रहेगा।
शाम को हुई बैठक के बाद अब मुक्तेश्वर की रात की चुप्पी उतनी भारी नहीं थी। बस एक अनंत आशा की चमक रह गई थी। दीवानखाने में एक लम्बी बैठक के बाद गजेन्द्र-रिया के मन को भी सुकून आ गया था।
अगली तड़के सुबह के हल्के उजाले में जब महल कोमल सा झिलमला रहा था, गजेन्द्र खड़ा अपने कमरे की खिड़की से एकटक सामने वाले कमरे को निहारे जा रहा था। रिया उठी तो उसे सामने वाले कमरे पर नजर रखते देख बोली— अब वो कहीं नहीं जायेंगे, डरों मत... और हां उनका दर्द कम करना है, तो वीर को ढ़ूंढ़ो। वीर लौट आया तो उनकी मुस्कान, सुकून और पहले वाली चमक सब लौट आयेगी।
गजेन्द्र रिया की बात का मतलब समझ गया और उसने विराज को फोन कर जल्द से जल्द मिलने को कहा। कुछ दो घंटे बाद रिया, विराज, रेनू और गजेन्द्र एक साथ एक होटल में मिले। जहां उन्होंने वीर को ढूंढने की प्लानिग की। गजेन्द्र की बात और मकसद साफ था, उसे सबसे पहले अपने पापा को नॉर्मल करना था। वो चाहता था, कि जिस शख्स ने मुझे पूरी उम्र सब्र, विश्वास और अच्छाई के साथ अच्छाई ही होती है, ये पाठ पढाया... उसका भरोंसा इश्वर और कर्म से ना टूटें। जिस बेटे की आस में वो भिखर रहा है, गजेन्द्र अपने उस जुड़वा भाई को अब वापस घर हर हाल में लाना चाहता था।
चारों ने एक मिशन तैयार किया, मिशन वीर की वापसी... जिसमें रिया ने मीडिया का सहारा लेने की प्लानिंग की। तो वहीं रेनू ने कहा, वो सारे अपने अनाथ आश्रमों के कॉन्टेक्ट में देखेगी... शायद वीर किसी के टच में हो। तो वहीं विराज और गजेन्द्र ने कानून की मदद लेने का मन बना लिया।
गजेन्द्र के वीर को ढूंढने के मिशन को उस वक्त सही दिशा मिल गई, जब वो मंदिर के पंडित जी के पास वीर को ढूंढ़ने के लिए उनका आशिर्वाद लेने पहुंचा।
पंडित जी ने कहा— “तुम्हारी हर इच्छा पूरी होगी बेटा... और तुम्हारा भाई खुद ही जल्द लौटने वाला है, या फिर शायद लौट आया है।”
पंडित जी की ये बात सुनकर गजेन्द्र हैरान हो गया और उसने चौक कर पूछा— “आप क्या कहना चाहते है पंडित जी, साफ-साफ बताइये ना...। आपकी बातें सुनकर मेरा दिल उछल कर बाहर आने को है। कृप्या अपनी बात का अर्थ जल्दी बताइए।”
गजेन्द्र के इस सवाल के जवाब में पंडित जी ने उसके हाथ में चिट्ठियों का एक ढ़ेर रख दिया और बोलें— “मंदिर के उस लाल चिट्ठी वालें बॉक्से में से ये कुछ 500 से ज्यादा चिट्ठियां निकली है। मै इन चिट्ठियों को देख दंग रह गया था, लेकिन जब इन पर लिखा नाम पढ़ा... तो बस मैं ये तुम्हें और तुम्हारें पिता मुक्तेश्वर को देने आ ही रहा था।”
चिट्ठियों को हाथ में लेते ही गजेन्द्र को ऐसा लगा जैसे वीर का हाथ पकड़ा है। वो उचक कर पंडित जी से बोला— हां-हां ये मेरे भाई वीर की ही है। मेरा भाई लौटने वाला है पंडित जी... मैं जल्दी से जाकर पापा को ये बताता हूं। उनके अंदर तो जान दौड़ पड़ेगी। और हां ये चिट्ठियां भी दीजिये, मैं और पापा इन्हें एक साथ बैठकर पढ़ेंगे।
इतना कह गजेन्द्र उन चिट्ठियों के ढ़ेर को उठाता है और लेकर सीधे मुक्तेश्वर के कमरे में पहुंच जाता है। वहां जाकर जैसे ही वो अपने पिता को वीर के लौटने की खबर और वो चिट्ठियों का ढ़ेर देता है.. मुक्तेश्वर चौक जाता है, और एक-एक कर सारी चिट्ठियों को खोलकर पढ़ने लगता है।
पांच घंटे तक वो बिना कुछ खाये-पिये कमरे से बाहर निकले बिना... बस लगातार मुक्तेश्वर चिट्ठियों को पढ़े जा रहा था। ऐसे में जैसे ही उसने आखरी चिट्ठी पढ़ी वो फूट-फूट कर रोने लगा और बोला…
“मेरे बेटे ने मुझे मेरी हर एक चिट्ठी का जवाब भेजा था, बस मैं ही अंधा पिता था... जिसे अपने बच्चे की दिल की कहीं पुकार नहीं सुनाई दी।”
मुक्तेश्वर ने एक चिट्ठी उठाई—उसके पन्ने उलटते वक़्त, एक तेज़ ठहराव जैसा महसूस हुआ और एक चिट्ठी उठा... उससे धीमे-धीमें भावों के साथ पढ़ते हुए बोला—
“प्रिय पिता-भाई,
मैं खुद के वजूद को इस दुनिया में देखना और ढूंढना चाहता था। मेरी तलाश खत्म होती है... मैं जल्द ही लौटने वाला हूं...।
आपका वीर…”
मुक्तेश्वर ने आंखें बंद कीं और चिल्लाकर बोला— “महल को दुल्हन की तरह सजा दो... महल का हर कोना चमकना चाहिए। पाक-पकवान, मिट्ठाइयों के ढेर बनाओं... मेरा वीर लौटने वाला है।”
क्या सच में वीर लौटने वाला है?
क्या गजेन्द्र ने मुक्तेश्वर को जो चिट्ठियां दी वो सच में वीर ने ही भेजी थी?
आखिर क्या होने वाला है विराज और रेनू की प्रेम कहानी का अंत?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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