“महल को दुल्हन की तरह सजा दो... महल का हर कोना चमकना चाहिए। पाक-पकवान, मिठाइयों के ढेर बनाओ... मेरा वीर लौटने वाला है।”

मुक्तेश्वर की इस आवाज में उम्मीद थी, जो पिछले 1 साल 4 महिनों के इंतजार के बाद टूटने लगी थी। वहीं जब आज सुबह गजेन्द्र ने उसे वीर की चिट्ठियों का ढ़ेर दिया, तो मानों उसके अंदर मरी सारी उम्मीदें फिर से जाग उठी। उसका चेहरा, जो बीते महीनों में झुका, टूटा और सूना हो गया था — अब किसी नए अंकुरित हुए पौधे के तरह चहकने लगा। वहीं दूसरी ओर कमरे में बैठे गजेन्द्र, रिया, रेनू, विराज — सबकी आंखों में आंसू थे, लेकिन पहली बार ये आंसू दुख के नहीं, सुकून और वीर के लौटने की उस उम्मीद के थे, जो लगभग टूट सी गई थी।

गजेन्द्र ने चुपचाप सिर झुकाया और मन ही मन सोचा — “अब सिर्फ वीर के लौटने की कसर बाकी है... फिर ये घर फिर से घर लगेगा।”

अगली सुबह, राजघराना महल – गजेन्द्र का कमरा रोज की तरह शांत था। सूरज की किरणें खिड़की से छनती हुई कमरे में फैली थीं। गजेन्द्र एकटक बैठा उन चिट्ठियों को देख रहा था, जो वीर ने मंदिर के डाक-पेटी में डाल रखी थीं। एक चिट्ठी उसने अपने तकिए के नीचे रखी थी। ये वो चिट्ठी थी, जिसमें वीर ने उसका नाम लिखा था। 

चुपचाप कमरे में रिया दाखिल हुई और उसके पास बैठते हुए बोली— “आज की सुबह, कुछ अलग सी है ना?”

गजेन्द्र ने उसकी तरफ देखा और मुस्कुराकर सिर हिलाया।

“रिया... अब डर नहीं लगता। एक वक्त था जब मैं सोचता था, हम कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। लेकिन अब लगता है, अधूरे लोग ही शायद सबसे ज्यादा जीते हैं क्योंकि उनके अंदर एक खुशनुमा वक्त की उम्मीद होती है। तुम्हें पता है, वीर की इन चिट्ठियों ने मेरे दिल में इतना सुकून भर दिया है कि अब मौत भी आ जाये तो डर नहीं।”

ये सुनते ही रिया चौक गई और गजेन्द्र के मुंह पर हांथ रखते हुए बोलीं— “भाई के प्यार में बीवी को ना भूलों मिस्टर गजेन्द्र। भाई ने सुकून दिया तो बीवी का सुकून-चैन छीनना चाहते हो क्या?”

गजेन्द्र ने तुरंत रिया को सीने से लगा लिया और बोला— “ऐसा नहीं है रिया, मैं तो बस खुशी-खुशी के जोश में बोला बैठा।”

रिया ने उसकी आंखों में देखा। फिर उसी खामोशी में दोनों की हथेलियां एक-दूसरे से टकरा गईं। कहीं कुछ था — जो बिना बोले कह दिया गया था।

जहां एक तरफ इस समय राजघराना महल के अंदर गजेन्द्र और रिया का प्यार परवान चढ़ रहा था, तो वहीं दूसरी ओर ठीक इसी समय जयपुर के सिटी हॉल में एक समारोह चल रहा था। दरअसल इस समारोह में गजेन्द्र के वकील विराज प्रताप राठौर को राष्ट्रीय कानूनी उत्कृष्टता पुरस्कार (National Legal Excellence Award) दिया जा रहा था। मंच पर तालियों की गूंज थी, प्रेस कैमरों के फ्लैश चमक रहे थे। मंच से किसी ने नाम पुकारा— “श्री विराज प्रताप राठौर — राजस्थान की शान, देश के सबसे युवा और ईमानदार वकीलों में एक... को आज इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है।”

विराज मंच पर गया, ट्रॉफी लेने के बजाय उसने माइक उठाया और बिना कुछ सोचे बस बोलना शुरु कर दिया….

“मैं ये सम्मान पाकर अभिभूत हूँ… लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि जिसने मुझे बदला, जिसने मुझे असली वकालत के मायने समझाये और इंसान बनाया... वो केस था ‘राजघराना के राजा गजराज सिंह बनाम उनका अपना परिवार’। उस केस ने मुझे बताया, कानून सिर्फ किताबों में नहीं... इंसानी रिश्तों में भी लिखा जाता है। और कुछ इंसानी रिश्ते ही हमारी जिंदगी में ऐसे होते है, जो हमें तबाह करने से लेकर हमारी मौत की रहस्यमय कहानियां भी लिखते है... और ऐसे ही लोग कानून को खिलौना भी समझते हैं। यहां चौकाने वाली बात तो ये हैं, कि कुछ लोगों की वजह से मासूम लोगों का न्याय और कानून जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ रहा है।”

विराज के इस बयान को सुनकर पूरा हॉल चौक गया। हर किसी के होंठ फुसफुसा रहे थे, हर कोई शक भरी नजरों से विराज की तरफ देख रहा था। दूसरी तरफ विराज ने स्टेज से उतरते हुए अपने उस अवॉर्ड को वहीं मेज़ पर रखा दिया और मंच से नीचे उतर गया। तभी रेनू आगे बढ़ी और मुस्कुराकर बोली— “आज तुमने सिर्फ सिस्टम नहीं, खुद को भी जीत लिया विराज। पर मेरा एक सवाल है.... क्या तुमने... खुद को माफ कर दिया?” 

विराज ने फिर ये ही सवाल पलटकर रेनू से पूछा— क्या तुमने मौत के बाद अपने पिता गजराज सिंह को माफ कर दिया...?

रेनू ने हल्के से सिर झुकाया और कहा— “अब हम दोनों बराबरी पर हैं...। बिना किसी अपराधबोध के... मैंने मेरे पिता को उनके गुनाहों के लिए माफ किया और तुमने खुद को उनका साथ देने के लिए। चलो, अब फिर से शुरुआत करते हैं... अगर तुम चाहो तो हम....।”

रिया इतना कहते-कहते रूक गई, तो विराज ने उसका हाथ थामा और बोला— हां चलों अब एक नई शुरुआत करते हैं।  

विराज ने बस एक कदम रेनू की ओर बढ़ाया, जिसके बाद रेनू ने उसके उस अधूरे कदम को अपने एक कदम से पूरा कर दिया और उसके सीने से लिपट गई।

इसके बाद विराज और रेनू ने एक दूसरे से काफी देर तक बात की, जिसके बाद विराज ने कहा— “सुनो रेनू मैं आज ही तुम्हारे भाई साहब मुक्तेश्वर जी से तुम्हारा हाथ मांगने वाला हूं। बस मैं अब हमारी शादी के लिए और इंतजार नहीं कर सकता।”

ये सुनते ही रेनू एक पल के लिए शर्मा गई और मुंह फेर लिया। लेकिन दूसरे ही पल वो पलटी और विराज से बड़ा कड़वा सवाल पूछा— “क्या तुमने अपने घर वालों से हमारी शादी की मंजूरी ले ली है। देखों विराज मैं नहीं चाहती कि तुम उन्हें झूठ बोलकर हमारे रिश्ते की शुरुआत करों। मैं किसी भी हाल में अपने जीवन के सबसे खूबसूरत सफर के सात फेरें झूठ और फरेब से जली अग्नि के इर्द-गिर्द नहीं लेना चाहती।”

विराज ने रेनू की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। तब तक राजघराना महल का बड़ा सा दरवाजा भी आ चुका था। विराज रेनू का हाथ पकड़े महल के अंदर घुसा, तो देखा माहौल थोड़ा सीरीयस है। उसने बिना पलक झपकाये रेनू का हाथ छोड़ दिया।

तभी गजेन्द्र सामने से आया और विराज, रेनू और रिया को आंखों से “मिशन वीर” पर बात करने का इशारा किया। इसके बाद तीनों एक कमरे में चले गए। गजेन्द्र ने दिखाया कि उसने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया है, जिसमें उसने वीर को ढूंढने को लेकर काफी कुछ कहा है। 

“मेरा नाम गजेन्द्र सिंह है। मैं एक रॉयल फैमिली से हूं, लेकिन मेरा भाई वीर, इस देश के किसी भी कोने में हो सकता है। दरअसल वो हमारी रॉयल फैमली छोड़ एक आम इंसान की तरह कुछ दिन रहना चाहता था, लेकिन अब बहुत दिन हो गए है, वो नहीं लौटा...। अगर किसी को भी वीर सिंह नाम का ये व्यक्ति, हां फोटों ध्यान से देख लीजिए... ये लड़का मिलता है। ये किसी समाजसेवा से जुड़ा भी हो सकता है, तो कृपया संपर्क करें।”

वीडियो वायरल हो गया। रातों-रात मीडिया में ‘Missing Heir of Rajgharana’ ट्रेंड करने लगा। लेकिन अभी तक वीर को लेकर कोई फोन कॉल या मैसेज नहीं आया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन.... और फिर पाँचवा दिन – एक अनजाना ईमेल आया। गजेन्द्र और रिया दोनों के मेल पर एक अनजान लड़की ने भेजा था। 

जिसने अपने मैसेज में लिखा था— “मैं मुंबई के ‘स्नेह फाउंडेशन’ से हूं। हमारे NGO के साथ एक युवा काम करता है — वो सबको अपना नाम ‘वीर आनंद’ बताता है। उसकी शक्ल आपकी दिखाई तस्वीर से काफी हद तक मेल खाती है। साथ ही उसके पास एक पुरानी किताब भी मिली है, जिस पर ‘वीर सिंह राजघराना’ लिखा हुआ है।”

रिया ने बिना एक पल गंवाए, गजेन्द्र को कॉल किया — “मुझे लगता है... हमने उसे ढूंढ़ लिया है।”

गजेन्द्र सारे काम छोड़ कार को दौड़ाता हुआ पहले राजघराना महल और फिर वहां से रिया और विराज को लेकर सीधे मुंबई के उस NGO ऑफिस पहुंचा, जहां से उस लड़की ने वो मेल किया था।

गजेन्द्र, रिया और विराज वहां पहुंचे। वहां एक पुरानी चर्चनुमा बिल्डिंग थी, जहां बच्चे हँस-खेल रहे थे। और तभी... गजेन्द्र की आंखें ठहर गईं — वहाँ एक युवक था, जिसकी पीठ उनकी ओर थी। लेकिन चाल... वही थी। कंधे से लेकर शरीर की बनावट तक गजेन्द्र ने पहली ही झलक में उसे पहचान लिया और वो चिल्लाया... हां, ये वही थी।

गजेन्द्र ने काँपते हुए पुकारा— “वीर...? मेरे भाई वीर....”

वो 22 से 25 साल का नौजवान... पुकार सुनते ही रुका। फिर धीरे-धीरे पलटा और गजेन्द्र की तरफ देखा। दोनों भाइयों की आंखें मिलीं। बिना कुछ कहे गजेन्द्र दौड़ा और उसे गले से लगा लिया। वीर भी गजेन्द्र के गले लगते ही फूट पड़ा।

“माफ करना भाई... मैंने सब देखा, सब जाना, लेकिन लौटने का साहस नहीं था।”

“अब लौटना नहीं... अब बस साथ रहना है। हम पीछे नहीं जाएंगे वीर... अब हम बस आगे चलेंगे।”

इतना कह गजेन्द्र ने वीर का सारा समान अपने हाथों से उसके बैग में पैक किया और फिर वापस राजगढ़ के राजघराना महल लौटने का मन बना लिया। फिर क्या विराज, रिया और वो दोनों भाई एक साथ कार में बैठे और वीर की पिछले 1 साल 7 महीने की पूरी जर्नी सुनते-सुनते मुंबई के जुहू से राजगढ़ के राजघराना पहुंच गए।

राजघराना में वीर जैसे ही कार ने नीचे उतरा, उसने देखा... महल को दुल्हन की तरह सजाया गया था। हर तरफ हाथी-घोड़े उसके स्वागत में खड़े थे। बच्चों के हाथ में फूलों की माला से लेकर मिठाई के डब्बे तक थे... उसे खिलाने के लिए। 

राजघराना महल में आज सिर्फ वीर की ही एक नई शुरुआत नहीं थी, बल्कि ये राजघराना की भी नई शुरुआत थी... क्योंकि आज वीर की वापसी से परिवार पूरा हुआ था।

आज राजघराना महल का कोन-कोना दुल्हन की तरह सज चुका था। गेट पर मुक्तेश्वर सिंह हंस भी रहा था और रो भी रहा था। उसकी झुकी कमर में आत्मगौरव था। जैसे ही वीर महल के आंगन में दाखिल हुआ, उसके पिता मुक्तेश्वर सिंह ने कांपते हाथों से उसका सिर छूकर आशीर्वाद दिया और कहा— “मेरे बेटे, मेरी गलती ने तुझे हमसे दूर किया... लेकिन तू फिर लौटा। अब ये महल तेरा है... और तेरा ही रहेगा।”

मुक्तेश्वर सिंह, जो कल तक मुरझाया रहता था, वो अपने बेटे को सामने देख... बस मुस्कुराए जा रहा था।

“अब मैं सुकून से जी सकता हूँ... अब मैं सच में पिता हूँ... फिर से। एक पूरा पिता, जिसकी आंखों के दोनों तारे उसकी आंखों के सामने है। वाह....।”

वीर का स्वागत आज राजघराना महल में बड़े जोरो-शोरों से हुआ। इसके बाद मुक्तेश्वर अपने बेटे वीर का हाथ पकड़ उसे अपनी पत्नी यानि वीर की मां के कमरे में ले गया। जहां उसकी तस्वीर के आगे झुक कर पहले वीर ने मां को नमस्कार किया और फिर अपने फैसले के लिए माफी भी मांगी।

कुछ दो घंटे बाद वीर मां के कमरे से बाहर आया, गजेन्द्र और रिया के बुलावे पर दीवानखाना में पहुंचा, जहां सब लोग साथ बैठे थे — रिया, गजेन्द्र, वीर, रेनू, विराज, प्रभा ताई और मुक्तेश्वर सिंह। चाय के प्यालों के साथ हंसी की आवाजें अब राजघराना महल के कोने-कोने में गूंजने लगी थीं। जो महल पिछले 1 साल 7 महीने में हंसी की आवाज तक भूल गया था, अब वो खिलखिला रहा था।

वीर ने चुपचाप एक आखरी चिट्ठी निकाली और गजेन्द्र को देते हुए बोला—भाई इसे जरूर पढ़ना, पर अकेले में...।

“भाई, ये जीवन वापसी के लिए नहीं बना... ये आगे बढ़ने के लिए बना है। इसलिए मेरे इस अगले सफर के अध्याय का नाम है— ‘वापस नहीं, आगे।’”

गजेन्द्र ने चौक कर पूछा— आगे से तेरा क्या मतलब है वीर... साफ-साफ बोल और हां याद रखना अब अगर तूने राजघराना छोड़ा तो पापा दुनिया छोड़ देंगे। पापा तेरे जाने से पागल हो गये थे... और एक तू है अभी पूरी तरह महल के अंदर लौटा भी नहीं और मेरे हाथ में अपने फिर से छोड़कर जाने का फरमान थमा रहा है।

पर मेरे भाई गजेन्द्र... ये तो....।

वीर अपनी बात पूरी करता, उससे पहले गजेन्द्र ने एक जोरदार चाटा वीर के गालों पर जड़ दिया और बोला— क्या मतलब है तेरे इस अगला अध्याय का, बोलता क्यों नहीं... तब से बातें क्यों घुमा रहा है...?

 

आखिर क्या है वीर की इस आखरी चिट्ठी का मतलब? 

क्या राजघराना की ये नई शुरुआत, पुराने घावों को भर पाएगी? या फिर मिलने वाला है कोई नया जख्म? 

क्या विराज और रेनू का नया रिश्ता वक्त की कसौटी पर खरा उतरेगा? 

क्या वीर और गजेन्द्र मिलकर महल को एक नई दिशा देंगे?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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