काशी में मणिकर्णिका घाट पर जलती हुई चिताओं के बीच नारायण आगे बढ़ता चला जा रहा था। उसने आज से पहले भी कई बार चिता को जलते हुए देखा था, लेकिन आज पहली बार उसकी आँखों के सामने आधी रात होने के बाद भी चिताएं अपने वेग से जली जा रही थी।
मणिकर्णिका घाट की हवा में हमेशा की तरह धुएं की कसैली गंध थी और लकड़ियों की चटकती आवाज़ें वहाँ के शांत माहौल को बीच-बीच में भंग कर रही थी। घाट के एक तरफ लोग अपनी यात्रा को पूर्ण विराम देकर आगे बढ़ते जा रहे थे, तो उधर दूसरी ओर लोग अपनों को खोने के गम में रोये जा रहे थे।
कहते हैं, बनारस में मरने वालों को मोक्ष मिलता है, लेकिन ये बात उन लोगों को कौन समझाए, जिनके घर के किसी सदस्य ने आखिरी सांसें ली है। इसलिए मणिकर्णिका पर इस वक्त कुछ स्थायी और कुछ अस्थायी चुप्पियाँ छाई हुई थी और वहां हर ओर मौत की आग जल रही थी।
मणिकर्णिका घाट पर आने के बाद जैसे ही नारायण ने इस पूरे नजारे को देखा, उसके कदम रुक गए और दिल की धड़कन ना चाहते हुए भी तेज होने लगी। मृत्यु अंतिम सत्य है, ये हर कोई जानता है, लेकिन इसके बाद भी लोगों को सबसे ज्यादा भय मृत्यु का ही होता है। नारायण के ऊपर भी ये भय छाने लगा था और उसके कदम वापस जाने की गुहार लगा रहे थे।
"नारायण, तू यहाँ आ तो गया है, लेकिन वो त्रिकालदर्शी आखिर कहाँ और कब मिलेगा.? और क्या जब तक वो नहीं मिलता, तू यहीं पर भटकता रहेगा.? ये श्मशान है नारायण, तेरी रात यहां कैसे गुजरेगी.?" मन में ये सवाल आते ही नारायण परेशान होने लगा था।
लेकिन, कहते हैं न, काशी में लोगों की दुविधा ज्यादा देर तक नहीं टिकती। अगले ही क्षण नारायण की नजरें मणिकर्णिका पर जलती हुई चिताओं के बीच विश्राम करने के लिए इधर उधर लेटे लोगों पर पड़ी। उन लोगों को देख नारायण ने भी खुद को वहीं रुकने के लिए मना लिया।
नारायण ने अब अपने लिए जगह खोजनी शुरू कर दी और वहीं मणिकर्णिका घाट पर ही बने एक चबूतरे को उसने अपना ठिकाना बनाया। वो चबूतरा, जलती हुई लाशों के बिल्कुल पास था और वहां से नारायण को सब कुछ बहुत अच्छी तरह से दिख रहा था, "नारायण तूने अपने लिए जगह तो अच्छी खोज ली है, बस ये ध्यान रहे कि तेरी आँखों में नींद नहीं आनी चाहिए। त्रिकालदर्शी कभी भी इस ओर आ सकता है, इसलिए तुझे हमेशा जागते रहना होगा।"
ये सोचते हुए नारायण वहीं चबूतरे पर पालथी मारकर बैठ गया। नारायण अब अपनी आंखों के सामने उन लोगों को देख रहा था, जो अपनों को इस जगह पर आखिरी विराम देने के लिए आये थे।
उन लोगों को देखते हुए नारायण ने एक बहुत ही गूढ़ बात भी समझी, "यहां लोग जब अपनों को लेकर आते हैं, तो उनकी आँखों से आंसुओं की नदी बहती रहती है और घरवाले बिलख-बिलख कर रोते हैं। लेकिन, जब उनके अपने चिता पर जल रहे होते हैं, तो उनका रोना बंद हो जाता है। अंततः जब चिता की राख ठंडी होने लगती है, तो उनके घरवाले भी सामान्य होकर यहां से जाने लगते हैं। तो क्या अपने लोगों से ये मोह, सिर्फ शरीर के जलने भर तक ही होता है?"
पहले से ही परेशान नारायण के मन में जब ये बात आई, तो उसका मन और भी व्यथित होने लगा।
नारायण ये सब अभी सोच ही रह था, तभी उसके फोन पर बेटे चिंतामणि का कॉल आने लगा। ये देख नारायण के हाथ पहले तो इस कॉल को उठाने के लिए आगे बढ़े, लेकिन अगले ही पल उसके मन में कई सारी बातें घूमने लगी और उसने खुद को रोक दिया।
"फोन उठाने पर वो फिर वापस आने की बात करेगा और तुम त्रिकालदर्शी से मिले बिना यहां से नहीं जा सकते। इसलिए सही यही होगा कि तुम इस फोन को मत उठाओ।" ये सोचकर नारायण ने फैसला किया और उसने चिंतामणि का कॉल नहीं उठाया।
उधर मुंबई में नारायण के घर का माहौल भी काफी टेंशन से भरा था और चिंतामणि फोन ना उठाने के बाद भी नारायण को लगातार फोन लगाए जा रहा था "ये बाबा भी न, इन्हें जल्द मुंबई आना चाहिए, तो ये वहीं बैठे हैं। इनकी वजह से हमारी टेंशन बढ़ती जा रही है।" लगातार घर में आ जा रहे पुलिसवालों की वजह से अब चिंतामणि को भी नारायण पर गुस्सा आ रहा था।
तभी चिंतामणि की बहन आभा ने उससे कहा, “छोड़ दो भैया, बाबा खुद भी बहुत परेशान हैं, इसलिए वो तुम्हारा फोन भी नहीं उठा रहे हैं। उन्हें काशी में अपने सवाल का जवाब मिलते ही वो वापस लौट आएंगे।”
आभा की बातों पर ध्यान दिए बिना चिंतामणि, नारायण को फोन लगाना जारी रखे हुए था। ये देख उन लोगों की मां राधिका ने भी चिंतामणि से कहा, “आभा ठीक कह रही है चिंतामणि। वो सवालों का जवाब खोजे बिना वापस नहीं आने वाले हैं, इसलिए तुम भी अब उन्हें कॉल मत करो। हमें अब उनसे जो भी बात करनी है, उनके यहां आने के बाद ही करेंगे।”
अपनी मां की बातों को सुन चिंतामणि गुस्से में घर से निकल गया, तो इधर मणिकर्णिका घाट पर बैठे नारायण की आंखों में भी नींद दस्तक देने लगी थी। नारायण जैसे तैसे चिताओं की ओर देखते हुए खुद को जगाने की कोशिश कर रहा था और नींद से उसकी जद्दोजहद गंगा की ओट से सूरज निकलने तक जारी रही।
रात की अंधेरी घटाओं के छटने के बाद अब सूरज का उजाला, उन्हें अपनी आगोश में ले रहा था, लेकिन इसके बाद भी वहां जल रही चिताओं की संख्या में कोई कमी नहीं आई थी। सुबह होते ही सूरज की पहली किरण के साथ गंगा की ठंडी हवाएं जब नारायण के बदन से टकराई, तो वो सब कुछ भूल सा गया और नींद उसे अपने आगोश में लेने लगी।
वहीं चबूतरे पर बैठे-बैठे नारायण की आंखें बंद हो गई थी, तभी एक शख्स ने उसे झकझोरते हुए कहा, “उठो भाई, ये भी भला कोई सोने की जगह है।”
ये आवाज सुनते ही नारायण ने घबराते हुए अपनी आंखों को खोला। नारायण को लगा, ये शख्स कहीं त्रिकालदर्शी तो नहीं, लेकिन अगले ही पल जब उसने उस शख्स को देखा, तो ये शख्स सफाईकर्मी था, जो घाटों को साफ कर रहा था। ये देख नारायण बिना कुछ बोले थोड़ा साइड हो गया।
मणिकर्णिका पर सुबह से ही लाशों की लाइन लगनी शुरू हो गई थी और ये सब देखते हुए नारायण चुपचाप वहीं बैठा रहा। थोड़ी ही देर में उसे भूख सताने लगी, लेकिन वो वहां से जाना भी नहीं चाहता था, “नारायण, अगर तू यहाँ से गया और इसी बीच त्रिकालदर्शी आ गया, तो तू बहुत कुछ खो देगा। इसलिए अभी अपनी भूख को मार दे नारायण, मार दे।”
ये सोच नारायण किसी तरह मन मानकर वहीं बैठ गया। जैसे जैसे दिन चढ़ता गया, वैसे-वैसे लोग वहां आकर अपनों को आखिरी विदाई देकर वहां से जाते रहे, लेकिन इन सब के बीच नारायण अभी भी चुपचाप बैठा हुआ था। वो भूख प्यास सब कुछ भूल गया था और उसके सर पर बस त्रिकालदर्शी से मिलने का भूत सवार था।
धीरे-धीरे समय बीतता गया और फिर रात हो गई। नारायण ने आज रात भी उस श्मशान घाट पर काफी कुछ देखा, लेकिन उसे बस वो नहीं दिखा, जिसे वो देखना चाहता था। धीरे-धीरे ये रात भी बीत गई और एक बार फिर से सूरज अंधेरे को हराकर निकल चुका था।
नारायण को यहां आए दो रात बीत चुकी थी और चिता की राख उसके बदन पर मोटी परत बनकर जम चुकी थी, लेकिन नारायण सब कुछ भूलकर बस त्रिकालदर्शी के इंतजार में वहीं बैठा रहा।
तभी वहाँ घूमने आए कुछ हाईस्कूल के कुछ बच्चों की नजर नारायण के ऊपर पड़ी। पिछले दो दिनों से बिना एक बूंद पानी और अन्न ग्रहण किए चिता की लपटों के समीप बैठे नारायण का चेहरा काफी व्याकुल लग रहा था। लेकिन, उन बच्चों को नारायण में कुछ और ही दिख रहा था।
"ये नया पागल इस घाट पर कब आ गया। क्या तुम लोगों ने इसे पहले कभी यहां देखा था?" एक लड़के की इस बात को सुनकर नारायण झेंप गया, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
तभी दूसरे लड़के ने पहले लड़के को जवाब देते हुए कहा, “छोड़ गया होगा कोई इसे यहीं पर….चलो आज हम इस पागल की क्लास लेते हैं और अगर हमारे सामने इसने पागलपंती दिखाई तो हम इसे गंगा में फेंक देंगे।”
उस लड़के की बातों को सुनकर उन लोगों ने नारायण के चारों तरफ एक घेरा बना लिया और नारायण का चेहरा अपनी ओर करते हुए एक लड़का उससे बोला, “चल मुन्ना, जल्दी बता, तेरा नाम क्या है और तुम कहाँ के रहनेवाले हो?”
उस लड़के की बातों को सुनने के बाद भी नारायण चुप था। तभी दूसरे लड़के ने नारायण को अपनी ओर घुमाते हुए कहा, “ये घाट है, तेरे बाप का घर नहीं, जो तू यहीं रहने की सोच रहा है। सच सच बता, वरना हम अभी तुझे गंगा में डाल डेंगे। बोल डाल दें?”
उन लड़कों की बातों को सुनकर नारायण को डर तो लग रहा था, लेकिन वो चुप होकर खड़ा था। तभी वहां से गुजर रहे एक साधु की नजर नारायण और उन लड़कों पर पड़ी और उन्होंने तुरंत आगे आते हुए कहा, “ये क्या उद्दंडता है। कोई यहां पर ध्यान करने के लिए आया है, तो तुम लोग उसे परेशान कैसे कर सकते हो?”
उस साधु की बातों को सुनकर वो लड़के तुरंत नारायण से अलग हो गए। तब तक आसपास के और भी लोग वहां दौड़ते हुए आये और उन्होंने साधु की तरफ देखते हुए कहा, “क्या हुआ बाबा, ये परेशान कर रहे हैं, तो हम इनकी मरम्मत कर दें क्या.?”
उन लोगों की बातों को सुनकर लड़कों के चेहरे पर खौफ छाने लगा, तभी साधु ने वहां जमा हुए लोगों को वापस जाने के लिए कहा और फिर उन्होंने उन लड़कों की तरफ देखते हुए कहा, “हर विचलित शख्स पागल ही नहीं होता। इनके पहनावे और रहने के सलीके को देखो। ये जरूर कोई विद्वान हैं और ऐसा प्रतीत होता है, यहां किसी जवाब की खोज में हैं।”
साधु की बातों को सुनकर उन लड़कों ने नारायण से माफी मांगी और वहां से चले गए। उनके जाने के बाद साधु ने नारायण की ओर देखते हुए कहा, “मुझे पता है, तुम किसी बहुत बड़े सवाल का जवाब खोज रहे हो, क्योंकि मैं पिछले दो दिनों से तुम्हें यहीं देख रहा हूँ। ऐसे ही हठ में रमे रहो वत्स, तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब जरूर मिलेगा।”
उन साधु महात्मा की बातों को सुनकर नारायण का खत्म हो रहा आत्मविश्वास फिर से एक बार नया जीवन हासिल कर चुका था और वो वहीं रुक गया। लेकिन, नारायण को ये नहीं पता था कि उसका इंतजार अभी काफी लंबा होने वाला है और ये नारायण को तोड़कर रख देगा।
नारायण को वहां आये तीन रात बित चुकी थी और अब वो अपने जीवन और विश्वासों पर भी सवाल उठाने लगा था, "नारायण तू जब एक सवाल का जवाब नहीं खोज पा रहा है और तुझसे एक शख्स मिलने तक नहीं आ रहा है, तो तेरी जीवन की क्या ही अहमियत बाकी रह गई है? जिस ज्योतिष को तू अपनी जिंदगी समझता था, उसी ने तुझे बर्बाद कर दिया नारायण। तू वैसे भी इस जवाब को हासिल कर के क्या ही उखाड़ लेगा.?"
रात के अंधेरे में चिता की लपटों के बीच बैठे नारायण के मन में ये ख्याल आ तो रहे थे, लेकिन सूरज की पहली किरण को अनुभव करने के साथ ही उसके ऐसे विचार मन से निकल गए। धीरे-धीरे ये दिन भी खत्म हो गया और आज चौथी रात शुरू हो गई थी।
नारायण अपने मन के विचारों को काबू तो कर रहा था, लेकिन अब भूख और प्यास उसके वश में नहीं थे….भूखे पेट उसकी हालत खराब होने लगी। "नारायण, यहां और रुका, तो भूख और प्यास की वजह से तेरी मौत भी हो सकती है।" ये सोचते हुए नारायण बेचैनी भरी निगाहों से इधर उधर देखने लगा, लेकिन उसे कहीं भी त्रिकालदर्शी नहीं दिखाई दे रहा था।
नारायण खुद से लड़ते हुए खुद को वहाँ रोकने की कोशिश तो कर रहा था, लेकिन बीतते समय के साथ उसकी हिम्मत अब जवाब देने लगी। रात का आखिरी पहर शुरू होते ही जब मणिकर्णिका घाट पर लोगों की संख्या थोड़ी कम हुई, नारायण ने भी वहाँ से वापस जाने का निर्णय ले लिया।
ये फैसला कर नारायण जैसे ही वापस जाने के लिए मुड़ा, तभी उसके कानों में एक आवाज सुनाई पड़ी, "रुको नारायण….."
आखिर कौन है ये, जिसने नारायण को दी आवाज.?
क्या आज नारायण का त्रिकालदर्शी से मिलने का मकसद होगा पूरा.?
क्या नारायण को मिल जाएगा उसके सारे सवालों का जवाब.?
मणिकर्णिका घाट पर बिताई इन रातों का नारायण के जीवन पर क्या होगा असर.?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'स्टार्स ऑफ़ फेट'!
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