काव्या तेज़ क़दमों से उस अँधेरे संकरे रास्ते पर चल रही थी। उसके एक हाथ में बैग था और दूसरे हाथ में टॉर्च ,डर लगने के बावजूद भी काव्या चलती जा रही थी। आज 5 साल बाद उसने अपनी माँ की आवाज़ सुनी है, वो अपनी माँ से मिलने का ये चांस खोना नहीं चाहती। काव्या को फिर से अपनी माँ की आवाज़ सुनाई दी और उसने आवाज़ की दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया। संकरे रास्ते से बाहर निकलते ही काव्या रुक गयी… उसने एक गहरी साँस ली और हैरानी से सामने देखा। सामने हरी घास का एक बहुत बड़ा मैदान था और उस मैदान के ठीक बीच में था… एक घर। ये घर काव्या का था। काव्या ने पीछे मुड़कर देखा लेकिन पीछे सिवाय अँधेरे के और कुछ नहीं था… वो गुफ़ा भी नहीं।
काव्या: अरे… वो, वो गुफ़ा कहाँ चली गयी? मैं तो उसके अन्दर ही थी ना?... और मेरा घर, वो यहाँ कैसे?...यह कैसे संभव है?... आखिर ये सब हो क्या रहा है?...
काव्या अपने दिमाग पर भरोसा नहीं कर पा रही थी… वो कुछ समझ पाती उससे पहले ही उस घर का दरवाज़ा खुला और काव्या ने दरवाज़े पर अपनी माँ को देखा। माँ हाथ के इशारे से उसे बुला रही थी। काव्या के चेहरे पर मुस्कान उभर आई लेकिन तभी उस हरे मैदान के एक कोने में उसे एक आदमी दिखा। उसका चेहरा नकाब से ढका हुआ था और उसके हाथ में था एक बड़ा सा… खंजर। आदमी ने उसकी तरफ एक नज़र देखा और काव्या समझ गयी कि फिर से वही होने वाला है जो पाँच बरस पहले हुआ था। काव्या के चेहरे पर होने वाली दुर्घटना के काले बादल छा गए… उसके हाथ से बैग और टोर्च छूट गए और वो दौड़ पड़ी अपनी माँ की ओर… अपनी पूरी ताकत के साथ… ताकि इस बार वो बचा सके, अपनी माँ को… मरने से।
दूसरी तरफ, हृदय गुफ़ा के अन्दर, काव्या के तीनो दोस्त उसे ढूँढने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन काव्या उन्हें कहीं नहीं मिल रही थी, मिलती भी कैसे? वो तो गुफ़ा के बाहर थी… हरी घास के बड़े से मैदान में… लेकिन सवाल ये भी है कि वो बड़ा सा मैदान आखिर कहाँ है? अँधेरी गुफ़ा में तो ऐसा होने से रहा... क्या वो सच में गुफ़ा के बाहर है या अन्दर ही कहीं है… इन सवालों का जवाब अभी मेरे पास नहीं है। फ़िलहाल चलते हैं उन तीनों के पास जो इस गुफ़ा में फँसे हुए हैं और आदित्य को इसका ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं संध्या ने आदित्य को दोष देते हुए गुस्से में कहा…
संध्या: तुम्हीं ये गुफ़ा ढूंढना चाहते थे ना? तुम्हें नाम कमाना है, बड़ा बनना है और अब गौर से देखो… तुम्हारी वजह से हम यहाँ फँस चुके हैं। काव्या एक पल में कहाँ गायब हो गयी… हमें कुछ नहीं पता। आइ थिंक इट इस टाइम कि तुम बताओ कि तुम इस हृदय गुफ़ा के बारे में क्या जानते हो, शायद कोई क्लू ही मिल जाए, जिसके ज़रिये, हम काव्या तक पहुँच पाए।
आदित्य: ये हृदय गुफ़ा…कई तरह के रहस्यों से भरी है। ऐसा कहा जाता है कि ये एक तरह का मायाजाल है… यहाँ कुछ भी हो सकता है। बस हमें अपने दिल और दिमाग को कण्ट्रोल में रखना होगा… जो भी ऐसा कर पाता है, ये गुफ़ा उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
संध्या: और ये सब जानते हुए भी, तुम हम तीनों को अपने साथ ले आये… विदआउट वार्निंग अस! तुम्हें हम लोगों को यहाँ नहीं लेकर आना चाहिए था।
दीवार के पास रखे एक पत्थर पर आकर संध्या बैठ गयी और कुछ देर तक कुछ सोचने के बाद उसने आदित्य और श्रीधर को बताया कि गुफ़ा में आसपास ही कहीं कोई खुफिया दरवाज़ा होगा… काव्या शायद ऐसे ही किसी दरवाज़े से होकर गुफ़ा के किसी और हिस्से में चली गयी होगी। तीनो लोग मिलकर गुफ़ा की दीवारों में, आसपास रखे पथ्थरों में और दीवारों पर बने अलग अलग तरह के चित्रों में कोई क्लू ढूँढने लगे, जैसे कोई अलग तरह का निशान, कोई ख़ुफ़िया मैसेज जिससे बाहर जाने का रास्ता पता चले। दीवार पे कुछ लिखा हुआ था लेकिन अलग भाषा में। ऐसी लीपी ना आदित्य ने देखी थी और ना ही संध्या ने। पत्थर पर लिखे हुए को और फिर कोई सीक्रेट सिम्बल खोजने में तीनों को ये पता ही नहीं चला कि वे तीनों लोग अपनी अपनी जगह पर अब अकेले मौजूद हैं। आदित्य की टोर्च फिर से बंद हो गयी। आदित्य ने गुस्से में टोर्च को दीवार पे बने हुए चित्र पर दे मारा। वो एक पोलर बेअर का चित्र था। काफ़ी कोशिश के बाद भी जब टोर्च नहीं जली तो आदित्य ने पहले श्रीधर को और फिर संध्या को आवाज़ दी लेकिन दोनों में से किसी का जवाब नहीं आया। अचानक ही आदित्य को सर्दी लगने लगी, उसे लगा जैसे वो गुफ़ा के अन्दर नहीं किसी पहाड़ पर खडा है और फिर उसे सुनाई दी, दूर से आती एक आवाज़… ये किसी इंसान या जानवर की आवाज़ नहीं थी… ये तूफ़ान की आवाज़ थी… एक बर्फीला तूफ़ान आदित्य की तरफ तेज़ी से आ रहा था लेकिन उसे इसपर यकीन नहीं किया। वो कांपते होटों से खुद ही से बोला…
आदित्य: हाउ इस दिस पॉसिबल ? मैं… मैं गुफ़ा के अन्दर हूँ… कोई, कोई तूफ़ान नहीं आ रहा। नहीं, कोई तूफ़ान नहीं है।
आदित्य ने खुद से जो कहा उसका कोई फायदा नहीं हुआ क्यूँकी तूफ़ान आया… एक ज़ोरदार, बर्फीला तूफ़ान… जिससे टकराते ही आदित्य बेहोश हो गया, जब वो होश में आया तो उसने जो देखा वो देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी। आदित्य अब गुफ़ा में नहीं था, वो था हिमालय के एक पहाड़ पर। आदित्य ने बर्फ़ में डूबी एक लकड़ी उठायी और पहाड़ से नीचे उतरने लगा कि तभी रवि ने उसे मदद के लिए पुकारा। रवि, आदित्य का दोस्त और यूनिवर्सिटी का कालीग था. दोनों कॉलेज में मिले थे और जियोलॉजी में अपना करियर साथ ही शुरू किया था। दोनों एक ही यूनिवर्सिटी में प्रोफेससोर्स थे। 3 साल पहले दोनों एक प्रोजेक्ट के लिए अपनी टीम के साथ हिमालय के एक पहाड़ पर आये थे। उस पहाड़ पर एक बर्फीला तूफ़ान आया और वहां सबकुछ तबाह हो गया… उसी तूफ़ान में रवि और आदित्य बुरी तरह से फँस गए थे। जब तूफ़ान थमा तब रवि, बर्फ के काफी अन्दर था… उसने मदद के लिए आदित्य को पुकारा। रवि की आवाज़ सुनकर पहाड़ से नीचे उतरता हुआ आदित्य रुक गया था। उसने मुड़कर आवाज़ की दिशा में देखा, आदित्य को रवि का हाथ दिखा। आदित्य उसकी तरफ दौड़ा लेकिन अचानक ही रुक गया। रवि ने मदद के लिए उसे दोबारा पुकाराते हुए कहा कि - “आदि आई ऐम स्टक प्लीज हेल्प मी… प्लीज हेल्प मी… आदि … आदि ..डोंट गो … डोंट लीव मी अलोन … हेल्प मी … हेल्प मी आदि…”
आदित्य: सॉरी रवि, तू मेरा दोस्त है लेकिन दोस्त से ज़्यादा तू अब एक कम्पटीशन है और मुझे कम्पटीशन पसंद नहीं। मुझे बस जीतना है… मैं हार बर्दाश्त नहीं कर सकता। तूने कहा था कि तू कभी मेरे रास्ते में नहीं आएगा और कॉलेज के बाद तू मेरी ही कंपनी में आ गया। मैंने तुझे वार्न किया था लेकिन तू माना ही नहीं। इस प्रोजेक्ट का हेड मुझे होना था लेकिन सीनियर्स ने तुझे चुना। तू अपनी जीत के नाम पे, मेरी हार का जश्न मना रहा था। इस पहाड़ का हिस्सा बनना चाहता था ना तू… अब बन इस पहाड़ का हिस्सा। अब यहीं रहना, हमेशा, हमेशा के लिए।
आदित्य, इस वक़्त अपने गुज़रे हुए अतीत में था। थोड़ा सोचने पर, आदित्य ये बात समझ चुका था लेकिन वो घबराया नहीं… पहाड़ से नीचे उतरते हुए जब फिर से उसे रवि की आवाज़ सुनाई दी तो उसने मुड़कर इस बार बस इतना कहा…
आदित्य: सॉरी रवि… एक बार फिर से सॉरी … और सॉरी … इसलिए नहीं कि 3 साल पहले मैंने तुझे यहाँ मरने के लिए छोड़ दिया था, सॉरी …, क्योंकि मैं तुझे एक आसान मौत भी दे सकता था… लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। तो, सॉरी … फॉर दैट … वैसे मदद भी भेजी थी मैंने… लेकिन वो तुझे ढूंढ नहीं पाए।
उधर गुफा के अन्दर, संध्या के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, उसने दीवार पर बने एक सिंबल को जैसे ही छुआ तो उस सिम्बल के चारों ओर से एक तेज़ रौशनी निकली और वो गुफ़ा से निकलकर वापिस उसी ऑर्फनिज में पहुँच गयी… जहाँ उसे वार्डन लतिका से रोज़ मार पड़ती थी। वार्डन लतिका को सामने देखते ही संध्या घुटनों पर बैठ गयी, उसकी आँखों से आंसू गिरने लगे। संध्या इतनी डरी हुई थी कि ये भी भूल गयी कि वो अब 12 साल की कमज़ोर बच्ची नहीं है। वो अपनी रक्षा खुद कर सकती है। किसी और को बचाने से ज्यादा हिम्मत तब लगती है जब खुद को बचाना होता है। संध्या के पास अपने लिए वो हिम्मत ना तब थी और ना ही आज है। वार्डन ने संध्या के बाल पकडे और उसे कमरे से घसीटते हुए बाहर हॉल में ले गयी और उसके गाल पर एक तमाचा जड़ते हुए बोली कि आज फिर तूने यहाँ से भागने की कोशिश की? मेरे होते हुए कोई भी यहाँ से भाग नहीं सकता। अगर दोबारा बाहर निकलने का सोचा भी तो मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगी। समझी या और समझाऊं?
दूसरी तरफ काव्या, उस हरी घास के मैदान में अपनी पूरी ताकत के साथ दौड़ रही थी। उसके आगे दौड़ रहा था वो नकाबपोश जिसके हाथ में खंजर था। काव्या ने इस बार भी पूरी कोशिश की लेकिन उसके पहुँचने से पहले ही उस नकाबपोश आदमी ने काव्या की माँ के पेट में खंजर भोंक दिया।
काव्या: माँ, माँ, नहीं… माँ मुझे छोड़कर मत जाओ, माँ प्लीज़… माँ…
खंजर भोंक कर, किसी की जान लेने के बाद भी… वो नकाबपोश आराम से एक कुर्सी पर बैठा हुआ था। काव्या ने गुस्से से उसकी तरफ देखा और चीखते हुए बोली…
काव्या: कौन हो तुम?...कौन हो तुम?...
काव्या ने अपनी परवाह नहीं की और वो उस कातिल के ऊपर टूट पड़ी। दोनों में हाथापाई हुई और काव्या ने ज़मीन से चाक़ू उठाकर उस कातिल को इस बार मारने की कोशिश भी की लेकिन मार नहीं पायी… और कुछ देर बाद इस हाथापाई में उसका नकाब उतर गया। काव्या ने हैरानी से उसका चेहरा देखा… उसके सामने जो शख्स खडा था… वो नकाबपोश कातिल… आदित्य था।
क्या आदित्य ने ली थी, काव्या की माँ की जान?
क्या सच है और क्या झूठ?
और क्या ये चारों दोस्त निकल पाएंगे कभी… हृदय गुफा के इस मायाजाल से?
No reviews available for this chapter.