घर की चौखट पर एक तरफ काव्या की माँ की लाश पड़ी थी और दूसरी तरफ काव्या हैरानी से अपने सामने खड़े आदित्य को देख रही थी। आदित्य किसी पुतले की तरह एक जगह खडा हुआ था। उसके चेहरे पर कोई एक्सप्रेशन नहीं था। काव्या ने आगे बढ़कर आदित्य के गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया। तभी आदित्य के हाथ से खंजर नीचे गिरा और काव्या ने फ़ौरन उसे उठा लिया। काव्या के हाथ में खंजर देखकर, आदित्य मुस्कुरा दिया… वो जानता है कि काव्या उसे नहीं मारेगी… वो तो बचपन का दोस्त है, वो उसे कैसे मार सकती है?... आदित्य दो कदम आगे आया तो काव्या दो कदम पीछे हट गयी… आदित्य फिर मुस्कुराताहै और बताता है कि वो उस रात काव्या के घर आया था, जिस रात घर में चोर घुसा था… उस चोर ने काव्या की माँ की जान ली… फिर काव्या के साथ मिलकर आदित्य ने उस चोर को, उस कातिल को पकड़ लिया था। पुलिस भी आने वाली थी, वो जल्दी भी आ सकती थी, लेकिन पुलिस आई देर से… और तब तक… तब तक देर हो चुकी थी। कातिल भाग चुका था। आदित्य ने काव्या पर इलज़ाम लगाते हुए आगे कहा…
आदित्य: तुमने उसे भागने दिया… उसे रोका ही नहीं… क्यूँ काव्या, कौन था वो चोर?... बोलो, क्यूँ भागने दिया तुमने अपनी माँ के कातिल को?... जबकि तुम उसे मार भी सकती थी…
काव्या: नहीं, तुम नहीं थे उस रात यहाँ… मुझे ड्राप करने के बाद तुम चले गए थे। तुम नहीं जानते क्या हुआ था?... मैंने बहुत कोशिश की उसे पकड़ने की… लेकिन हार गयी उससे और वो खूनी, वो कुछ रुपयों के लिए?... मेरी दुनिया ख़त्म करके चला गया… अगर वो मेरे सामने आ जाए तो मैं सच में उसे मार दूँगी… लेकिन आदि… तुम उस चोर की जगह पर इस वक़्त यहाँ क्यूँ हो?...
आदित्य: तुम जानती हो ऐसा क्यूँ है?... तुमने एक कातिल के चेहरे से नकाब हटाया और ठीक उसी पल तुम्हें मेरा ख़याल आया… क्यूंकि बाकी दुनिया की तरह, तुम्हें भी लगता है कि मैं अपने दोस्त… रवि का कातिल हूँ।
काव्या ने सामने खड़े आदित्य को यकीन दिलाते हुए कहा कि वो उसे रवि का कातिल नहीं मानती, ये सुनकर आदित्य को यकीन तो नहीं आया लेकिन उसे गुस्सा ज़रूर आ गया और अगले ही पल उसका रूप ही बदल गया। आदित्य की जगह अब वो चोर खडा था जिसने 5 साल पहले, असल में काव्या की माँ की जान ली थी। उस कातिल ने काव्या की आँखों में देखा और मुस्कुराने लगा। काव्या घबराई हुई है, उसमें इतनी हिम्मत नहीं कि वो अपनी माँ की मौत का बदला ले सके?... उस रात भी, मौक़ा था लेकिन काव्या ने उसे नहीं मारा… काव्या के हाथ उस रात काँप रहे थे और आज, आज फिर वही मौक़ा आया है… और आज तो खंजर भी काव्या के हाथ में है और वो कातिल, वो ठीक सामने। उस खूनी ने काव्या से कहा - “भोंक दो ये खंजर मेरे सीने में और कर लो अपने दिल की अधूरी ख्वाइश को पूरा। आगे बढ़ो काव्या… तुम ये कर सकती हो… तुम ये करना चाहती हो?... कितनी बार तो मारा है तुमने मुझे… अलग अलग तरह से, अपने ख्यालों में… आज अपने उन ख्यालों को… हकीकत में बदल दो काव्या…”
काव्या ने एक नज़र अपनी माँ के चेहरे को देखा और पिछले पांच साल से हाथ में पकडे हुए खंजर को आखिरकार फ़ेंक ही दिया। उस एक पल में, काव्या उस कातिल को माफ़ कर चुकी थी। वो खुद को माफ़ कर चुकी थी। काव्या ने सामने देखा लेकिन वो कातिल अब वहां नहीं था। वहां अब कुछ नहीं था… ना वो घर, ना काव्या की माँ और ना ही हरी घास का मैदान। काव्या की आँखों के सामने केवल रौशनी थी… एक सफ़ेद रौशनी जो उसकी तरफ ही आ रही थी। ये श्रीधर था जिसकी टोर्च की सफ़ेद रौशनी काव्या की आँखों पर पड़ रही थी। काव्या, हृदय गुफा के अन्दर वापिस आ चुकी थी। श्रीधर को सामने देखते ही काव्या ने राहत की साँस ली।
श्रीधर (आश्चर्यचकित और चिंतित): तुम ठीक हो?...
काव्या: हाँ, अब ठीक हूँ। आदि और संध्या कहाँ हैं?
श्रीधर: वो दोनों मिल नहीं रहे। वो भी तुम्हें ही ढूंढ रहे थे फिर पता नहीं कहाँ गायब हो गए?...
काव्या तो निकल आई लेकिन आदित्य को अपने अतीत की उस एक याद से निकलने के लिए कोई रास्ता नहीं मिल रहा था… वो पहाड़ से नीचे उतरता और वापिस उसी जगह पर आ जाता जहाँ बर्फ़ के नीचे रवि फंसा हुआ है। आदित्य को अपनी उस याद में फंसे हुए कई दिन हो चुके हैं। भूख और प्यास के मारे उसका बुरा हाल है। कई दिनों से यही एक चक्र चल रहा है। आदित्य नीचे जाकर वापस वहीं आ जाता है और उसके वापस आते ही रवि उससे मदद माँगता है और आदित्य बिना मदद किये फिर पहाड़ से नीचे उतरने लगता। लेकिन अब वो थक चुका है। इस बार जब रवि ने मदद की गुहार लगाई तो आदित्य वहीँ उसके पास बैठ गया और कुछ देर तक चुप रहने के बाद धीरे से बोला…
आदित्य: मैं जानता हूँ कि मुझसे गलती हुई… मुझे वो नहीं करना चाहिए था जो मैंने किया… मैंने कोशिश की थी रवि कि वापिस आऊँ लेकिन वापस आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। तुझसे जो कुछ बोलकर गया था, उसके बाद वापस आकर तुझसे नज़र कैसे मिलाता। लेकिन मैंने रेस्क्यू टीम को बताया था… उन्हें भेजा था तुझे बचाने के लिए… तू उनको कहीं मिला नहीं।
आदित्य अपनी जगह से उठा और रवि को बर्फ़ से बाहर निकालने के लिए अपने हाथों से बर्फ़ हटाने लगा… अगले कई घंटों तक आदित्य बर्फ़ हटाता रहा लेकिन रवि उसे कहीं नहीं मिला। रवि वहां था ही नहीं। आदित्य बेचैन हो गया, वो पागलों की तरह रवि को बर्फ़ में ढूंढता रहा। रवि को पुकारते हुए बस यही कहता रहा कि अगर एक बार और रवि उसे फिर से आवाज़ लगा दे… तो वो उसे ढूंढ लेगा… रवि का नाम लेते हुए आदित्य रो पड़ा, फूट फूट के रो पड़ा… आदित्य के आंसू बर्फ़ पे गिरते रहे और धीरे-धीरे आसपास की सारी बर्फ़ पिघलने लगी… और कुछ देर बाद आदित्य उसी पानी में डूब गया। पानी से बाहर आने लिए आदित्य ने बहुत हाथ पैर मारा, उसने बहुत कोशिश की लेकिन वो बाहर नहीं आ पाया… पर जैसे ही आदित्य ने पानी से बाहर निकलने की कोशिश छोड़ दी और अपने अंजाम को accept कर लिया… उसे पानी में एक हाथ नज़र आया। वह श्रीधर का हाथ था। श्रीधर ने उसको पानी से बाहर निकाला पर हैरानी की बात यह थी की आदित्य पानी में नहीं, उस गुफ़ा में था। वो इतनी देर से पानी के एक छोटे से टैंक में था जो बहुत ज्यादा गहरा भी नहीं था…
आदित्य: “मैं... मैं यहां कैसे पहुंचा?”
श्रीधर को देख, आदित्य ने उसे गले से लगा लिया और उसकी जान बचाने के लिए शुक्रिया कहने लगा। श्रीधर बस हकले से मुस्कुराया। काव्या ने आदित्य को उसका बैग देते हुए कहा…
काव्या: तुम चेंज कर लो नहीं तो बीमार पड़ जाओगे।
आदित्य: ओ के गुड टू सी यू गाईस वैसे, संध्या कहाँ है?
संध्या तो वहीं थी। ऑर्फनिज के हाल में। उसकी आँखों से टप-टप करके आंसू गिर रहे थे। वार्डन उसे गुस्से से घूर रही थी… जब संध्या कुछ नहीं बोली तो वार्डेन ने तेज़ आवाज़ में अपना सवाल फिर से दोहराते हुए कहा - “आज के बाद यहाँ से भागेगी?... बोल, भागेगी यहाँ से?... कान खोल के सुन लो तुम सब लड़कियां, अगर किसी ने यहाँ से एक कदम भी बाहर रखा तो मैं तुम सबकी टाँगें तोड़ दूँगी।”
संध्या: तू ऐसा कुछ नहीं करेगी…
संध्या ने पलट कर जवाब दिया तो वार्डेन का पारा चढ़ गया। उसने गुस्से में कहा - “क्या बोली तू? मुझसे ज़बान लड़ाएगी? बीना, मेरी बेल्ट लेके आ।”
संध्या: मैं डरती नहीं हूँ तुझसे… ना तेरी मार से, ना तेरी उस बेल्ट से…
संध्या के तेवर देखकर वार्डेन को हँसी आ गयी… हँसते हुए उसने संध्या से कहा कि आँख से तेरी आंसू टपक रहे हैं… बदन पूरा कांप रहा है और तू डरती नहीं है मुझसे… पागल लड़की… जैसी तेरी माँ पागल थी लगता है वैसी पागल तू भी है।
वार्डन ने जैसे ही संध्या की माँ को पागल कहा, उसकी आँखों में खून उतर आया। ठीक तभी बीना वहाँ बेल्ट लेकर पहुंची। संध्या ने झट से उसके हाथ से बेल्ट छीन ली और बिना देर किये, बेल्ट घुमा के मारी… वार्डन को। बेल्ट लगते ही वार्डन की चीख निकली और वो फ़र्श पर गिर पड़ी। संध्या ने वार्डन की कमर पे जमा के एक बेल्ट और मारी और तेज़ आवाज़ में बोली…
संध्या: मेरी माँ पागल नहीं थी… सुना तूने… पागल नहीं थी वो… अगर तूने दुबारा मेरी माँ को पागल कहा तो मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगी। समझी या और समझाऊं?...
ऑर्फनिज में मौजूद जितनी लड़कियों ने ये मंज़र देखा उन सबके चेहरे पर मुस्कान थी और सबने संध्या के लिये खूब तालियाँ बजाई। संध्या ने अपने डर को खुद से अलग किया, अपने आँसू पोंछे और मुस्कुराने लगी तभी संध्या को ऑर्फनिज के गेट के बाहर एक सफ़ेद रौशनी दिखी… संध्या दौड़ते हुए बाहर आ गयी, वहां रौशनी का एक गोला बना हुआ था… रौशनी के उस गोले में संध्या को आदित्य दिखा। आदित्य ने अपना हाथ संध्या की तरफ बढ़ाया और वो वापस गुफ़ा के अन्दर आ गयी।
आदित्य: तुम ठीक हो?
संध्या: हाँ, मैं ठीक हूँ… पर... आदि, मैं तो ऑर्फनिज में थी... यहाँ कैसे पहुंची?
आदित्य: पता नहीं... बट नाउ यू आर सेफ गुफ़ा में, वहाँ, वो पीछे दीवार पे जो छोटा सा आइना है… उसमें तुम्हारा चेहरा दिखा… बस जैसे ही तुमने मेरी तरफ़ देखा, मैंने अपना हाथ बढ़ा दिया।
संध्या: थैंक्यू … जितने लगते हो, उतने बुरे हो नहीं तुम…
आदित्य: जितना होना चाहिए… उतना अच्छा भी कहाँ हूँ।
आदित्य और संध्या वापस उस तरफ़ चलके जाने लगे जहाँ श्रीधर और काव्या थे। तभी एक साथ कुछ पत्थर गिरे, संध्या और आदित्य गिरते पत्थरों से बचने के लिए गुफ़ा की एक संकरी गली में भागे। वहां एक लाल रंग की दीवार थी, जिसपर किताब के आकार जैसा कुछ बना था… और उसपर चमकते अक्षरों में लिखा हुआ था - “ये गुफ़ा वो सबकुछ ले लेगी, जो भी है तेरे दिल के अन्दर!”
तभी संध्या और आदित्य की नज़र गलियारे के आखिर में गयी… उन्होंने जो देखा वो देखकर उनके होश ही उड़ गए। वहां एक कंकाल था… एक आदमी का कंकाल।
यह कैसे मायावी गुफ़ा है?
किसका है वो कंकाल?
क्या यह गुत्थी सुलझा पाएँगे संध्या और आदित्य?
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