छोटू काका की मौत की खबर अब तक पूरे राजगढ़ में आग की तरह फैल गई थी। पुलिस से लेकर आम लोगों के बीच गरीब छोटू काका की बेरहमी से हुई मौत नें फिर से राघराना महल के लोगों पर सवाल उठा दिये थे। ऐसे में लोगों की जुबान पर एक ही बात थी….
“राजघराना के मामले में हमेशा यहीं हुआ है, जिसने भी सच सामने लाने की हिम्मत की, उसे भी मार दिया गया…ये हैवानों की हवेली है, जहां इंसानों की जिंदगी का कोई मोल नहीं है।”
जहां एक तरफ लोगों के जहन मे इस तरह की बातें चल रही थी, तो वहीं अब राजघराना से लेकर राजगढ़ की सत्ता को बदलने की आग भी गांव वालों के दिल में सुलग रही थी। सब राजघराना की सत्ता में बदलाव चाहते थे।
वहीं रिया, जो अभी-अभी छोटू काका के घर उनकी बेसुध पड़ी लाश देखकर लौटी थी, वो अब टूट गई थी। उसके हाथ में एक लिफाफा था, जिसे वो अपने सीने से लगाए अस्पताल में मुक्तेश्वर के वार्ड की ओर दौड़ रही थी।
इस खत्त को हाथ में लिए रिया के दिमाग में सिर्फ एक ही बात चल रही थी, कि ये खत अब केवल मुक्तेश्वर अंकल को दिखाने के काम का नहीं था, बल्कि इसके जरिये राजघराना का बीस साल पुराना काला इतिहास भी दुनिया के सामने रखा जा सकता है। क्योकि इसमें मुक्तेश्वर अंकल की पत्नी और गजेन्द्र की मां जानकी ने मरने से पहले सबको अपने साथ हुई उस रात की पूरी कहानी बताई है। और शायद ये उन्हीं की मर्जी से इतने सालों तक छुपाकर रखा गया था।
ये ही सोचते-सोचते रिया ने फाइनली ICU का दरवाज़ा खोला। सामने बेड पर मुक्तेश्वर लेटा था, दरवाजे के खुलने की आवाज से वो जगा और उसने रिया को देखा। रिया को देखते ही मुक्तेश्वर की आंखों में वो उम्मीद थी, कि शायद वो दुबारा जानकी से जुड़ा कोई राज बताने वाली है, लेकिन वो इस बात से अंजान थे कि ये राज उम्मीद नहीं बल्कि दर्द की दांस्ता का है।
रिया ने धीरे से पास आकर चिट्ठी मुक्तेश्वर के हाथ में रख दी, “अंकल... जानकी आंटी की दूसरी चिट्ठी मिली है। छोटू काका ने इसे अपनी जिंदगी की आख़िरी सांस… अपने आखरी वक्त में अपनी अलमारी से निकालकर बचाया। शायद… इसमें कुछ ऐसा है, जो आपको पता होना चाहिए।”
मुक्तेश्वर ने कांपते हाथों से चिट्ठी खोली। इस दौरान उसकी आंखों से आंसू लगातार टपक रहे थे, मानों जैसे हर शब्द उनके सीने में नश्तर की तरह चुभ रहा हो।
जानकी की दूसरी और आखरी चिट्ठी— “जानकी की आँखें”
“प्रिय मुक्तेश्वर,
अगर ये चिट्ठी तुम्हारे पास पहुँची है, तो इसका मतलब है कि मेरी पहली बात सामने आ चुकी है, और अब वो राजघराना का शैतान साया छोटू काका के पीछे भी पहुंच चुका होगा।
हाँ मुक्ति, मुझे यकीन था कि तुम्हारे पिता गजराज सिंह के आदमी मुझे मारने जरूर जायेंगे। मैं जानती थी कि मैं ज़्यादा दिन नहीं बचूंगी। लेकिन मेरे जाने से पहले मैं एक अच्छा काम करना चाहती थी। मैं तुम्हें तुम्हारे पिता की सच्चाई बताना चाहती थी, और साथ ही अपने बेटे गजेन्द्र को भी इस राजघराना के साये से बचाना चाहती थी।
क्योंकि मैं जानती थी कि राज राजेश्वर ने तुम्हारे साथ जो किया, उससे तुम टूट जाओगे, इसलिए मैंने ये खत छोटू काका को सौंपा था।
मैं चाहती हूं कि गजेन्द्र जिस दिन भी राजगढ़ की घरती पर कदम रखे, उसी दिन छोटू काका उसे ये देकर यहां से जाने के लिए कह दे।
.… और एक बड़ी बात, मैं जानती हूं कि तुम्हें राजघरना के लोगों ने ये ही बताया होगा कि मैंने आत्महत्या की है, लेकिन नहीं मुक्ति… मुझे मारा गया है। गजराज के इशारे पर। सबसे पहले वो प्रभा ताई को भी मारने वाले थे, जब ताई ने गजेन्द्र को जिंदा रखने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी।
उस समय प्रभा ने मेरी अंतिम इच्छा के लिए एक वादा किया था, कि वो मेरे बच्चे को बड़ा करेगी, और मेरी आंखें बनकर उसे सच्चाई तक ले जाएगी। उम्मीद करती हूं मेरा बेटा जिंदा हो और हंस खेल रहा हो अपनी जिंदगी में… तुम्हारे परिवार के लोगों का साया भी उसे ना छू पाए।
आज अगर तुम ये खत पढ़ रहे हो, तो शायद वक़्त बदल चुका है।
लेकिन याद रखना, राजघराना महल की नींव में झूठ और खून की दीवारें हैं। अब फैसला तुम्हारे और गजेन्द्र के हाथ में है कि इसे गिराया जाए, या इसके अंदर से एक नई शुरुआत की जाए।
मुक्तेश्वर…सुनों, अगर इस खत्त को पढ़ने और अपने परिवार का घिनौना सच जानने के बाद तुम कभी रोना चाहो, तो रो लेना। अब तुम्हारे आंसुओं पर कोई सवाल नहीं करेगा। और तुम अपने इन आंसुओं को कभी अपनी कमजोरी मत बनाना...इससे इस पूरे राजघराने को आग लगा देना, जिन्होंने हमे जुदा किया।
तुम्हारी,
पत्नी जानकी”
जानकी के खत्त का एक-एक शब्द जैसे सीधा मुक्तेश्वर के सीने में उतर गया था। उसने खत को सीने से लगाया और फूट-फूट कर रोने लगा, ऐसा लगा कि बीस साल से जमी कोई बर्फ़ अचानक पिघल गई हो। मुक्तेश्वर इस कदर फूट-फूट कर रोया, कि मानों जैसे हजारों शांत पड़े सवालों का जवाब एक झटके में मिल गया हो।
उनकी आंखों से बहते आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। आज इस खत्त को पढ़ने के बाद मुक्तेश्वर को यकीन हो गया, कि वो इस दुनिया के सामने लाख बुरा हो, लेकिन वो अपनी पत्नी जानकी की आंखों में कभी दोषी नही था, बीस साल से खुद को रोके उसके ये आसूं उसकी आवाज के साथ बाहर आ रहे थे।
तभी रिया ने उनकी पीठ सहलाई और पानी का ग्लास एक हाथ में थमाते हुए दूसरे को अपने दोनों हाथों से थाम लिया और बोलीं— “बस करिये मुक्तेश्वर अंकल, बीस सालों का सारा दर्द आज ही बहां देंगे क्या… अभी तो बहुत कुछ अच्छा होना और देखना बाकी है।”
कमरे में रिया और मुक्तेश्वर की दर्द भरी बातें सुन डॉक्टर अंदर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और बाहर ही खड़े सब सुनता रहता है। साथ में खड़ी प्रभा भी शांत रहती है, वो भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। क्योंकि मुक्तेश्वर की बीस सालों की बदनामी की खबरें मीडिया पर हर साल दर साल चलती रही। इन बीस सालों में मुक्तेश्वर ने दो वक्त की रोटी से लेकर जिंदगी के सबक सीखने और अकेले अपने दो महीने के बेटे को पालने तक का सफर देखा था।
ऐसे में बीस सालों में ये पहली बार था, जब मुक्तेश्वर टूटा था। और उसके इस टूटने वालों पलों में ही शायद उसकी जिंदगी की एक नई ताक़त जन्म ले रही थी। जिसकी इस वक्त उसे सबसे ज्यादा जरूरत थी।
वहीं राजघराना महल में दूसरी ओर प्रभा ताई का सच भी सबके सामने आ गया था, कि वो अपने पति राघव भोंसले, पिता गजराज सिंह और भाई राज राजेश्वर का साथ देने का सिर्फ ढ़ोंग कर रही थी। असल में तो वो शुरु से ही शारदा और जानकी के साथ थी।
ऐसे में सबसे बचते हुए राजमहल के सबसे पुराने हिस्से में बैठी प्रभा ताई बस एकटक अपने आप को ही शीशे में निहारते हुए खुद से बातें कर रही थी— “जानकी… तूने मेरी आंखों में वो भरोसा देखा था…जो मैं भी कभी खुद में नहीं देख पाई थी। दरअसल मैं हमेशा से अपने पिता से डरती रही। तेरी मौत के बाद मैंने उस बच्चे को बचा तो लिया… लेकिन सच से और खुद से उसे हमेशा दूर रखा। पर अब वो वक़्त आ गया है… मुझे रिया को सब बताना होगा, ताकि गजेन्द्र की रिहाई में विराज को और भी सबूत मिल सकें।”
ये ही सब सोचते हुए प्रभा ताई ने नौकर से रिया को बुलाने भेजा। प्रभा ताई के इशारे पर जैसे ही वो नौकर राजघराना के बाहर आया तो वहां लोगों का हुजूम और उनके भीतर की आग देख वो डर गया और दौड़कर प्रभा ताई के पास गया।
“ताई… प्रभा ताई, सब खत्म हो गया। आप जानती है गांव की गलियों में अब नारे बदल चुके थे। हर कोई राज राजेश्वर की गिरफ्तारी और गजराज सिंह की मौत की दुआ कर रहा है।”
राजगढ़ की हर गली, हर कूचे में इस वक्त मुक्तेश्वर सिंह जिंदाबाद के साथ अब एक नया नाम लिया जा रहा है, और ये नाम है “गजेन्द्र सिंह का…जिसे लोग राजघराने की नई आवाज़ कह रहे हैं!”
इतना ही नहीं जब मैंने उस भीड़ के लोगों से बात की तो पता चला कि इन लोगों को अब सिर्फ गुनहगार की सज़ा नहीं चाहिए थी, उन्हें उस गद्दी पर ऐसा इंसान चाहिए जो झूठ के खिलाफ खड़ा हो... और सच के साथ लोगों को इंसाफ दे।
जहां एक तरफ महल में ये तमाशा चल रहा था, तो वहीं दूसरी ओर मुक्तेश्वर के साथ अस्पताल में सोफे पर बैठी-बैठी रिया अपनी जिंदगी के नए सफर के सपने बुन रही थी।
दरअसल गजेन्द्र कुछ ही दिनों में बगुनाह जेल से बाहर आने वाला था। ऐसे में रिया उस दिन की शुरुआत का सपना देख रही थी, जब वो एक प्रेमिका की तरह गजेन्द्र की बाहों में लेटी होगी और उसके साथ आपने आने वाले खुशहाल जीवन की बातें करेगी। शादी की तैयारी करेगी…
इन सपनों में खोई रिया, गजेन्द्र के पिता मुक्तेश्वर के बगल में रखें सोफे पर बैठी खुद से बातें कर रही थी, कि तभी उसने कुछ सोचते-सोचते मुक्तेश्वर से एक वादा किया — “अंकल, जानकी आंटी की आँखें आज भी सब देख रही हैं। अब हम ये लड़ाई सिर्फ अदालत में नहीं… बल्कि जनता की नज़रों में भी जीतेंगे। और गजेन्द्र की बेगुनाही, आपकी विरासत हर एक चीज के साथ हम इंसाफ करेंगे। आप देखना मैं गजेन्द्र को जल्द से जल्द वापस लाऊंगी।”
रिया की ये आत्मविश्वास भरी बातें सुन मुक्तेश्वर की आंखें नम हो गई और आज उसने पहली बार अपना हाथ रिया के सिर पर रखा, “रिया बेटी… अब तू मेरे बेटे की जानकी है। उसका हमेशा अच्छे से ख्याल रखना। याद रखना उसे कभी किसी परेशानी की घड़ी में अकेला मत छोड़ना। चल… अब लड़ाई के लिए तैयार हो जा, क्योंकि राजघराना के लोगों से जंग आसान नहीं होगी।”
मुक्तेश्वर इतना कह रिया का माथा चूम उसे आर्शिवाद दे ही रहा होता है कि उसी समय, अस्पताल की खिड़की से फिर एक तेज़ हवा का झोका मुक्तेश्वर के वार्ड में आता है, जिसे रिया अंदर तक महसूस करने के लिए खिड़की पर जा खड़ी हो जाती है और बाहर के नजारे को निहारने लगती है।
कि तभी एक डॉक्टर उस कमरे में आता है और कहता है— “आपके केस के वकील विराज प्रताप राठौर आये थे, पर आप उस वक्त सो रहे थे और रिया मैडम भी कहीं बाहर गई थी। उन्होंने कहा है कि आपके बेटे गजेन्द्र के केस मामले में उस से बात हो गई है… लेकिन उन्हें कुछ सबूतों की जरूरत है, जिसके लिए वो पूणे जा रहे है। साथ ही विराज ने आपको जगते ही फोन करने के लिए भी कहा है।”
विराज के पुणे जाने की खबर सुन... ना जाने क्यों रिया की आंखें नम पड़ गई और वो खुद से बड़बड़ाते हुए बोली— “तो ये खेल खत्म नहीं हुआ... ये तो बस इंटरवल था। इस खेल के असली तार पुणे से जुड़े है। हे भगवान विराज की रक्षा करना।”
रिया के चेहरे पर विराज के लिए एक बार फिर फिक्र भरा अंदाज देख मुक्तेश्वर को बुरा लगता है। आखिर कौन सा ससुर अपनी होने वाली बहू के चेहरे पर किसी गैर मर्द के लिए किसी भी तरह के हाव-भाव देख खुशी जता सकता था।
ये ही सब सोच मुक्तेशर ने अचानक रिया से एक ऐसा सवाल किया, जिसे सुन रिया के चेहरे का रंग सफेद और उसके कान सुन्न पड़ गए।
क्या विराज प्रताप राठौर और तुम्हारें बीच कुछ चल रहा है? क्या तुम मेरे बेटे गजेन्द्र को धोखा देने वाली हो?
मुक्तेश्वर के इन सवालों का आखिर क्या जवाब देगी रिया?
आखिर क्यों अचानक से पुणे गया है विराज? क्या होने वाला है वहां उसके साथ?
क्या गजेन्द्र को फंसाया जा रहा है फिर से किसी नए जाल में?
प्रभा ताई के पास और कौन सा राज छुपा है? और आखिर अब राजघराना में किसका चेहरा होने वाला है बेनकाब?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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