राजगढ़… अस्पताल का कमरा, रात का पहला पहर... खिड़की से आती हवा कमरे के पर्दों को हौले से हिला रही थी। रिया चुपचाप खड़ी थी, सामने खिड़की से दूर बस एक टक आसमान को निहारती हुई... कहीं खोई हुई थी। बेड पर लेटा मुक्तेश्वर उसे अजीब नजरों से देख रहा था। उसे देख ऐसा लग रहा था, मानों जैसे कुछ कहने की कोशिश में हो, मगर बार-बार वो खुद को रोक रहा था।
फिर अचानक, मुक्तेश्वर की आवाज़ गूंजी… और उसने सीधे-सीधे रिया से वो सवाल पूछ ही लिया, जो कुलधरा के जंगलों में हुए हादसे के बाद से उसे परेशान कर रहा था। “रिया… क्या विराज प्रताप राठौर और तुम्हारे बीच कुछ चल रहा है?”
अपने बॉयफ्रेंड गजेन्द्र के पिता मुक्तेश्वर सिंह के मुंह से ये सवाल सुन रिया भौच्चकी रह गई, जैसे ज़मीन पर नहीं, वो हवा में खड़ी हो। कुछ सेकेंड के लिए तो वो हिल भी नहीं सकी और ना बोल पाई, और तभी मुक्तेश्वर ने एक और सवाल कर दिया।
“क्या तुम मेरे बेटे गजेन्द्र को धोखा देने वाली हो?”
मुक्तेश्वर के इस सवाल के साथ वहां कमरे में सन्नाटा पसर गया। रिया ने धीरे से आँखें मूंदी, क्योकि वो जानती थी कि ये सवाल एक पिता का था। जो पिछले कुछ दिनों से लगातार अपनी होने वाली बहू को एक गैर मर्द के सिर्फ करीब ही नहीं देख रहा था, बल्कि साथ ही उसने विराज को बचाने के लिए रिया को अपनी जान की बाजी तक लगाते हुए देखा था।
ऐसे में कुछ पल चुप रहने के बाद रिया ने आंखें खोलीं, जब उसकी आंखों की नमी सूख गई। फिर उसने पीछे मुड़कर मुक्तेश्वर को देखा… इस वक्त उसके चेहरे की लकीरों में टूटी हुई उम्मीदें थीं। ये देख रिया धीरे से बोलीं…“नहीं अंकल, मैं आपके बेटे गजेन्द्र से बेइंतहा मोहब्बत करती हूँ… विराज गजेन्द्र की रिहाई और बेगुनाही साबित करने की लड़ाई में मेरा सिर्फ एक साथी है, लेकिन अगर मेरे किसी फैसले ने आपकी आंखों में भरोसा तोड़ा है… तो मैं गजेन्द्र से कभी नज़रे नहीं मिला पाऊंगी।”
रिया की ये बात सुन मुक्तेश्वर को अपने शब्दों पर शर्मिंदगी होने लगी और इस बीच उसकी आंखों से एक आँसू गिर पड़ा।
दूसरी ओर इस वक्त.. रात के दो बजे थे। पुणे का मौसम आमतौर पर शांत होता है, लेकिन आज हवा में कुछ अजीब बेचैनी थी। विराज प्रताप राठौर एयरपोर्ट से बाहर निकला, तो उसके चेहरे पर थकावट से ज़्यादा चिंता साफ़ झलक रही थी। हाथ में छोटी सी फाइल, कंधे पर स्लिंग बैग और आंखों में गजेन्द्र की बेगुनाही साबित करने की जिद लिए वो सीधा पहुंचा "विक्टोरिया हॉर्स रेस क्लब", जहाँ से गजेन्द्र की पुरानी ट्रेनिंग शुरू हुई थी, लेकिन अब ये क्लब बंद हो चुका था। लेकिन विराज को यकीन था… कि यही वो जगह है जहां गजेन्द्र के खिलाफ झूठ की पहली ईंट रखी गई थी।
पुराने ऑफिस में विराज घुसा तो देखा कि वहां एक बूढ़ा आदमी रजिस्ट्रेशन करने वालों की कुर्सी पर बैठा है। विराज उसके पास गया और उसे जगाते हुए बोला, काका क्या किसी से बात हो सकती है, थोड़ा जरूरी है।
विराज की बात सुन वो बूढ़े काका भड़क उठे और बोलें— दिमाग खराब है क्या लड़के… दिखता नहीं रात के तीन बजने वाले है। कल सुबह आना बात करने के लिए, चलों निकलों।
विराज समझ गया कि बूढ़े काका थके हुए है और उन्हें नींद भी आ रही है। ऐसे में उसने पैसों का सहारा लिया, जिसके लिए वो पहले से इस उम्र में उस कुर्सी पर बैठ अपनी नींद से समझौता कर रहे थे। ऐसे में थोड़े और पैसे मिले तो वो खुश हो गए और बोले…"बताओं क्या काम है तुम्हें इस बूढ़े गोवर्धन नायक से...?”
गोवर्धन नायक ये नाम सुनते ही विराज को वो तहखाने से मिली काली बहीखाता की किताब याद आ गई, जिसमें साफ-साफ लिखा था कि गोवर्धन नायक कभी गजराज सिंह का खास आदमी रह चुका था। विराज ने धीरे से उससे कहा— “मुझे 20 साल पुरानी रेस की फाइल्स चाहिए… जिसमें गजेन्द्र के पिता मुक्तेश्वर पर फिक्सिंग का आरोप लगा था।”
गोवर्धन… गजराज का नाम सुनते ही चौक गया और कुछ पल चुप रहा… फिर बोला— “आपको यह सब कैसे पता है?”
ये देख विराज ने तुरंत पलटकर कहा— “मैं जर्नलिस्ट रिया शर्मा की तरफ से आया हूँ… और गजेन्द्र सिंह का वकील भी हूँ।”
गोवर्धन ने रिया शर्मा का नाम सुनते ही गहरी सांस ली। क्योंकि रिया पुणें की सबसे फेमस जर्नलिस्ट थी, बच्चें से लेकर बूढ़े तक हर कोई उसे जानता था। उस पर मामला गजराज सिंह से जुड़ा था, तो वो तुरंत बोल पड़ा— “तो फिर आप अंदर आइए।”
इतना कह गोवर्धन विराज को अपने साथ अंदर एक लॉकर रुम में ले गया, जहां उसने एक धूल भरी अलमारी खोली और उसमें से एक लाल रंग की फ़ाइल निकाली गई, जिस पर लिखा था…
“Case #GR-9823 | Mukteshwar Singh | Internal Inquiry – Confidential”
विराज ने तुरंत उस फाइल को हाथ में लिया और खोलकर पढ़ने लगा। इस दौरान उसने देखा कि मुक्तेश्वर के केस में एक गुमनाम गवाह का बयान दर्ज था, जो था जानकी द्वारा कोर्ट में दिया गया एक बंद लिफाफा...जिसे असल में कभी कोर्ट में खोला ही नहीं गया था।
इसके अलवा उस फाइल में एक ऑडियो कैसेट भी थी, जिस पर लिखा था…
“जनवरी 2005 – गजराज सिंह की वॉइस रिकॉर्डिंग”
उसे सुनते ही विराज के हाथ-पैर कांप उठे। लेकिन उससे पहले कि वो कुछ समझ पाता, बाहर एक ज़ोरदार धमाका हुआ। ऑफिस के कांच चटखने लगे। गोवर्धन चिल्लाया, “भागो! वो आ गए… उन्होंने कहा था कोई पूछताछ करने आया तो जिंदा नहीं छोड़ना!”
विराज ने बाई ओर की खिड़की से देखा तो तीन नकाबपोश लोग क्लबहाउस में घुस हुए थे। एक के हाथ में लोहे की रॉड, दूसरे के पास बंदूक, और तीसरे ने सीधे विराज की तरफ लपकते हुए कहा— “तेरी ज़िंदगी ज्यादा लंबी नहीं बची वकील…”
ये सुनते ही गोवर्धन ने विराज को धक्का देते हुए फुसफुसाया — “बाहर की बाईं गली से भागो… और ये सबूत ले जाना मत भूलना।”
विराज ने किसी तरह खुद को संभाला, और पीछे के दरवाज़े की तरफ भागा। इस दौरान हमलें में उसकी पीठ पर एक वार लग गया, जिसे शायद हमलावर ने लकड़ी से किया था, लेकिन वो गिरा नहीं। दौड़ते हुए वो एक ऑटो में बैठा और फोन निकाला... पहला कॉल रिया को किया।
दूसरी ओर राजगढ़ अस्पताल के वार्ड में रिया की आंखें पर आधी रात मोबाइल की रोशनी पड़ी, वो चौक कर देखती है, और फोन उठा हैलों बोलने ही वाली होती है, कि दूसरी तरफ से विराज की कांपती हुई आवाज सुनाई देती है।
“रिया… मैं ठीक हूँ… लेकिन कोई नहीं चाहता कि ये फाइल बाहर आए। किसी ने यहां पुणे में गोवर्धन के ऑफिस पर हमला किया… मैं बच गया… लेकिन शायद अगली बार नहीं बच पाऊंगा।”
ये सुनते ही रिया सन्न रह गई। इस दौरान मुक्तेश्वर पास बैठा उसे शक भरी नजरों से देख रहा था कि आधी रात आखिर किसका फोन है, और उसका ये शक यकीन में बदल गया जब रिया ने विराज का नाम लिया। लेकिन तभी रिया ने अपनी समझदारी दिखाई और उसने फोन स्पीकर पर कर दिया— “मैं अपनी जान पर खेलकर गजेन्द्र की रिहाई के सबसे अहम सबूत लेकर आ रहा हूं… कल गजेन्द्र हमारे साथ होगा रिया”
ये सुन जहां रिया के चेहरे पर खिलाखिलाहट दौड़ जाती है, तो वहीं मुक्तेश्वर ने कहा— “बेटा, जो भी हो, फाइल लेकर लौटना… मेरी बीवी ने 20 साल पहले जो लड़ाई अधूरी छोड़ी थी, उसे अब हम खत्म करेंगे और मेरे बेटे को रिहाई दिलायेंगे।”
अगले दिन कोर्ट में गजेन्द्र के केस पर आखरी फैसले की तारीख के तहत सुनवाई शुरु हुई। विराज ने लंबी बहस और कई बड़े अहम सबूत पेश कर गजेन्द्र सिंह को फाइनली रिहाई दिलवा ही दी। हालांकि ये अभी पूरी जीत नहीं थी फिर भी ये साबित हो चुका था कि गजेन्द्र इस मामले में साजिश का शिकार हुआ है, लेकिन असली आरोपी की गिरफ्तारी अभी बाकी थी।
बेटे की रिहाई के बाद कोर्ट रुम में सबसे आगे खड़ा मुक्तेश्वर कुछ बोल नहीं पाया, लेकिन गजेन्द्र ने उसकी आंखों में झांककर धीरे से कहा— “पिता… मैं वापस आ गया हूँ।”
अपनी बेगुनाही के बाद गजेन्द्र की रिहाई मुक्तेश्वर की जिंदगी की सबसे बड़ी सफलता थी। आज राजगढ़ की अदालत ने जो फैसला सुनाया, वो सिर्फ एक कागज़ का आदेश नहीं था, बल्कि वो बीस साल के इतिहास का सबसे बड़ा मोड़ था।
गजेन्द्र सिंह को हर रविवार को पुलिस रजिस्टर में हस्ताक्षर करने की शर्त पर अस्थायी जमानत दे दी गई थी। जिसके बाद सभी मीडिया ने हेडलाइन चलाई— “गजेन्द्र सिंह रेस फिक्सिंग मामले में बड़ा मोड़… गजेन्द्र को मिली अस्थायी रिहाई, लेकिन असली युद्ध अब शुरू हुआ है।”
सड़क पर, मोहल्लों में, मंदिरों और चाय की दुकानों में सिर्फ एक नाम गूंज रहा था— “गजेन्द्र...”
पर ये गूंज राजघराना की नींव में सेध की थी, जिसे गजराज सिंह नें भाप लिया था। ऐसे में वो गजेन्द्र की रिहाई के बाद राजघराना की इज्जत को बचाने की लड़ाई में जुट गया।
दूसरी ओर... जेल से बाहर आने का मतलब ये नहीं था कि गजेन्द्र अब आज़ाद था, क्योकि उसे हर हफ्ते पुलिस स्टेशन साइन करने जाना था। "हफ्ता नंबर दो" की सुबह उसकी इस नई जिंदगी की असली परीक्षा शुरू तब शुरू हुई जब….
अदालत से सीधे उसे एक "अस्थायी पुनर्वास इकाई" भेजा गया। एक पुराना सरकारी गेस्ट हाउस, जहाँ CCTV की निगरानी में कुछ दिनों तक उसे रखा जाएगा। पुलिस को शक था कि गजेन्द्र के बाहर आते ही राज राजेश्वर या उसके लोग कोई बड़ा खेल खेल सकते हैं। इसलिए गजेन्द्र अब स्वतंत्र होकर भी एक बंद पंछी जैसा था।
पुनर्वास इकाई से दूसरे दिन गजेन्द्र ने एक आवेदन दिया, जिसमें लिखा था- कि क्या उसे वो पुराना रेस ट्रैक देखने की इजाज़त मिल सकती है, जहां उसने पहली बार घुड़सवारी सीखी थी।
कोर्ट की ओर से उसकी इस मांग को परमिशन मिल गई… पर साथ में निगरानी और भी ज्यादा बढ़ा दी गई। उस शाम, एक धुंधली, गुलाबी सूरज की डूबती हुई रोशनी में, गजेन्द्र एक पुलिस जीप में बैठकर राजगढ़ के उस वीरान ट्रैक पर पहुंचा, जहां कभी उसका बचपन दौड़ता था, और जहां उसके बाप मुक्तेश्वर सिंह के नाम का इतिहास गूंजता था।
"लगता है इसे बंद कर दिया गया है, ये कितना वीरान पड़ा है... आखिर क्यों?”
उस रेस कोर्स में चारों तरफ लंबी-लंबी घास उग आई थी। पटरियों पर अब घोड़ों के खुरों की आवाज़ नहीं गूंजती थी। जब गजेन्द्र वहां चलते हुए उस कोर्स की गर्मी को महसूस करने की कोशिश करता है तो उसे सिर्फ़ अतीत की सिसकियाँ सुनाई देती है।
गजेन्द्र धीरे-धीरे उस जगह चला गया, जहां कभी "शेरू", उसका घोड़ा पहली बार उसके नीचे दहाड़ा था। वो ज़मीन छूकर रो पड़ा और खुद से बोला— “मैं कितनी बार यहां आया… और ना जाने कितनी रेस जीती… लेकिन कभी ये एहसास नहीं हुआ कि इन रेस कोर्स के मैदान ने मेरे पिता से उनकी पूरी जिंदगी, उनके सपने सब छीन लिए थे। मुझे तो दो सालों की जंग के बाद रिहाई मिल गई… लेकिन मेरे पिता को 25 साल लग गए अपनी बेगुनाही साबित करने में। क्या अमीर और सियासी परिवार से होने की सजा काटी है मेरे पिता ने… आखिर क्यों?”
गजेन्द्र को इस तरह फूट-फूट कर रोते कुछ दूर पेड़ की छांव में एक व्यक्ति चुपचाप खड़ा देख रहा था। ये कोई ओर नहीं गजेन्द्र के पिता मुक्तेश्वर सिंह थे। गजेन्द्र ने उन्हें देखा… और उनकी आंखों से जैसे ही उसकी आंखे टकराई उसने अपना सर झुका लिया और आसुंओं को पोछने लगा। ये वो वक्त था, जब दोनों ने एक-दूसरे से एक शब्द नहीं कहा…लेकिन फिर भी दो पीढ़ियों के बीच एक चुप और गहरी बातचीट हुई।
इस वक्त मुक्तेश्वर की आंखों में गर्व था और अपराधबोध भी… वो गजेन्द्र से माफी मांगना चाहता था, कि वो उसका पिता है, जिसकी वजह से वो ना चाहते हुए भी राजगढ़ के सिंह खानदान का खून है। अगर वो भी दूसरे बच्चों की तरह आम परिवार से होता तो उसे कभी इतना कुछ नहीं झेलना पड़ता।
मुक्तेश्वर एक टक बस उसे निहार रहा था, पर गजेन्द्र ने कुछ नहीं कहा, बस सर झुकाया और पुरानी घास के टुकड़ों को छूकर कुछ फुसफुसाया— “मैं वापस आया हूं, मां। अब कोई भी इस कहानी को अधूरा नहीं छोड़ेगा।”
एक तरफ यहां बाप-बेटे का अतीत की परछाई से मिलन हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर उसी रात, गजराज सिंह, जो अब महल के अंदर अंधेरे में साये की तरह ज़िंदा था, अपने कमरे में अकेला बैठा जानकी की चिट्ठियों को बार-बार पढ़ रहा था।
उसके हाथ कांप रहे थे। उसकी आँखें लाल थीं। उसकी सांसों में एक अजीब डर था, जिसे समेटे वो खुद से बड़बड़ा रहा था— “जानकी… तू अभी भी मर कर मुझे देख रही है क्या? क्या तेरा बेटा अब मेरा अंत लिखेगा?”
तभी उसके कमरे में एक पुराना नौकर दाखिल हुआ, और चुपचाप एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो गजराज के हाथ में रख दी। गजराज ने पलट कर देखा...फोटो में जानकी, प्रभा, शारदा और एक नवजात गजेन्द्र थे।
वो फोटो देख गजराज की आंखें कांप गईं। उस फोटो के पीछे एक पेन से लिखा था— “एक और चिट्ठी बची है। और वो इस फोटो के पीछे की हकीकत से जुड़ी है।”
गजराज समझ गया था—खेल खत्म नहीं हुआ।
उस तस्वीर को देख जहां गजरात को अपनी मौत की तारीख नजर आने लगी, तो वहीं दूसरी ओर ठीक इसी समय, महल के सबसे पुराने तहखाने में, रेनू और प्रभा ताई एक पुराना संदूक खोल रही थीं।
जिसे खोलते ही उन्हें उसमें एक पुरानी डायरी मिली। उस डायरी को देख रेनू ने तुरंत कहा, ये तो वहीं संदूक और डायरी है, जो उस रात गजराज सिंह के कमरे से लाइट जाने के तीस सेकेंड में गायब हो गई थी।
रेनू उसका पहला पन्ना खोलती है- गजराज सिंह की निजी डायरी। वो एक-एक कर उसके हर पन्नें को पढ़ते है। उस डायरी में एक ऐसे दिन की एंट्री थी, जिसे देख प्रभा ताई बोल पड़ती है—
"जानकी की मौत का दिन…5 जून 2005
जानकी को मारना मेरी भूल थी या राज राजेश्वर के सच को छुपा पाने में मेरी जीत? मुझे नहीं पता। लेकिन जिस दिन गजेन्द्र बड़ा होगा, वो मेरी गर्दन पर होगा। और मुक्ति… वो तो अब खुद एक गूंगा शेर है। पर प्रभा… वो मेरी सबसे बड़ी हार बन सकती है अगर उसने जुबान खोली।”
प्रभा ताई कांप गई और उसने रेनू की ओर देखा और कहा— “अब वक्त आ गया है… हमारे हैवान-शैतान पिता गजराज सिंह को उसकी डायरी खुद पढ़वाने का। ये युद्ध अब खत्म करना ही होगा।”
प्रभा ताई का ये खुलासा सुन रिया की आंखों से आग दौड़ गई। एकाएक उसने गजेन्द्र को वीडियो कॉल किया। उसने देखा… गजेन्द्र टूटी मुस्कान लिए हंसने और बात करने की कोशिश कर रहा है, मुक्तेश्वर का टूटा हुआ दिल जैसे धड़कना बंद कर चुका है, ये देख वो चाहकर भी उसे डायरी वाली बात नहीं बता पाई।
तभी रिया के फोन पर विराज का एक मैसेज आया, "अलविदा… रिया..”
क्या मतलब था विराज के इस मैसेज का? आखिर कहां जा रहा था वो रिया को छोड़कर और क्यों?
क्या गजेन्द्र अपने रिहाई के बाद अब बर्बाद करेगा राजघराना को?
क्या मुक्तेश्वर देगा इस काम में अपने बेटे का साथ?
आखिर क्या लिखा है गजराज और राजघराना की किस्मत में?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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