आकार : - ( चिल्ला कर ) चुप हो जाओ अंकिता... नाटक करने की भी कोई हद होती है। मैं बर्दाश्त कर रहा हूँ तो बेवकूफ मत समझो।  

ज़िंदगी रोज़ नए इम्तिहान लेने तैयार रहती है। वह कई दिनों से कोशिश कर रही थी कि आकार से बात कर ले पर उस के पास सुनने फुर्सत नहीं थी। आज जब शेखर से फोन पर बात की और वह कुछ समझने के लिए तैयार हुआ तो फोन रखके मुड़ी और आकार सामने खड़ा था, उसने सब सुन लिया था। अब अंकिता की हालत न कुछ कहने की थी न कुछ समझाने की। उसने सब सुन लिया था या वह तभी आया था, यह भी पता नहीं था। वह दो क़दम आगे बढ़कर उस के पास आ गया।  वह हड़बड़ाती सी कुछ बोलना चाहती थी पर आकार ने उसे रोककर कहा, ‘’यह किसके बच्चे की बात हो रही थी और किससे? शिकागो में क्या हुआ था तुम्हारे साथ? कौन मेरी तरह सेल्फिश निकला और तुम्हें किसके साथ अपना दर्द बांटना पड़ रहा है? उम्मीद है, मेरे सवालों के सीधे – सीधे ज़बाव तुम्हारे पास ज़रूर होंगे या कहो तो फिर से साफ शब्दों में तुमसे पूछ लूँ… किस मुँह से अपनी अय्याशी को साथ लेकर घूम रही हो? कैसे अपने आप से नज़र मिलती हो? सब कुछ अपनी मर्जी से करके, अब अपनी गलतियाँ मेरे सर थोपना चाहती हो?''

उस के पास सफाई देने के लिए अब कुछ नहीं बचा था। आकार ने जो कुछ भी आधा अधूरा सच सुना, वह उस के ही मुँह से सुना था। वह जानती थी उससे गलती हुई है और इसके बाद वह कुछ नहीं सुनेगा, लेकिन उसके हिसाब से वह अगर ग़लत थी तो आकार भी कहीं न कहीं तो ज़िम्मेदार था। वहीं आकार ने उस की ग़लती सामने आते ही ख़ुद को बिल्कुल बेगुनाह समझ लिया। उसने साफ कह दिया “और कुछ नहीं तो अपना कैरेक्टर ही सही रख लेतीं, फिर मुझसे सवाल करतीं तो मैं मान भी लेता, पर तुमने तो अपनी मनमानी की हदें पार कर दीं”। वह कुछ बोलना चाहती थी पर उस ने चुप रहने का इशारा कर दिया। अंकिता को अपनी गलती पता थी और उसने मान भी ली पर यह इल्जाम कि सिर्फ़ वही ग़लत है, उसे मंजूर नहीं था। उसके रोकने पर वह और तेज़ चिल्लाई।  

अंकिता ; – ( गुस्से में चिल्लाते हुए ) तुम कह दोगे कि मैंने ही सारी गलतियाँ की हैं और मैं मान लूँगी, ऐसी ग़लत फहमी मत पालना। मैं मानती हूँ, मुझसे ग़लती हुई है पर मेरे बहकने के लिए मुझसे ज़्यादा तुम ज़िम्मेदार हो, और यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा। कितनी बार कोशिश की, तुमसे बात करने की, पर हर बार तुम्हारा जवाब वही… टाइम नहीं है, बहुत काम है। फिर बात करते हैं, बहुत काम है। तुम्हारे काम ने तुम्हें अपने परिवार से दूर कर दिया,,, इतना सा सच क्यों नहीं देख पाते तुम...

उस की चीखों में उसके दिल का दर्द फूट पड़ा था, वहीं आकार गुस्से से तिलमिला रहा था। उसने दोनों हाथ की मुट्ठियां बांध कर मेज़ पर मार दिए। जो गुस्सा मेज़ पर निकला वह अंकिता के लिए था, उस के हिसाब से गलती सिर्फ और सिर्फ उसी की थी। शेखर कौन था,कैसे मिला, उसने क्या किया, इससे उस को कोई मतलब नहीं। बच्चा अंकिता के पेट में था इसलिए गुनाहगार वही थी। उसके आगे पीछे की कहानी को कोई नहीं समझ सकता कि शेखर ने किस तरह अंकिता को एक गहरी उदासी से बाहर निकाल दिया, उसके दिल से खालीपन ख़त्म कर दिया। जो सुकून आकार उसे इतने सालों में नहीं दे सका, उस ने उसे पल भर में दे दिया था।

अंकिता समझाना चाहती थी कि ऐसे ही वह उस की तरफ़ खिंचती नहीं चली गई, कुछ तो किया होगा उस ने, जिससे वह उसे नहीं छोड़ पाई। आकार कुछ सुनना नहीं चाहता था, क्योंकि उसे खुद को सही साबित करने का मौका मिल गया था। यही अंतर दिखता था अंकिता को उसमें और शेखर में। शेखर उस के इतने विरोध के बाद भी उसके साथ खड़ा था, उसके लिए कोई रास्ता निकालने के लिए तैयार था, उसके आँसू उसे बर्दाश्त नहीं थे और आकार को उसके रोने से चिढ़ आ रही  थी। अंकिता को चुप कराने के लिए वह एकाएक चिल्लाया, ‘’चुप हो जाओ... नाटक करने की भी कोई हद होती है। मैं बर्दाश्त कर रहा हूँ तो बेवकूफ मत समझो।  याद करो अपनी बातें, क्या क्या बोलती थीं... और मौके मिलेंगे, मैं आगे बढ़ना चाहती हूँ, मेरे सपने किसी के लिए कोई मायने नहीं रखते। आगे बढ़ने के यह सारे बहाने, तुम्हारी अय्याशी के लिए थे? मुझे तो लगता है तुम्हें कोई असाइनमेंट मिला ही नहीं, उस शेखर के साथ शिकागो घूमने के लिए बहाना था, और असाइनमेंट तो छोड़ो, अब मुझे शक हो रहा है तुम्हें जॉब भी मिली थी या ऐसे ही...''

उस ने बोलने की हदें पार कर दी थीं। अंकिता सुनकर कुछ भी नहीं बोल पाई क्योंकि जो इल्जाम उस ने दिए थे, उनके बाद उसने खुद को उस की नजरों में गिरा दिया था। उसकी बातों पर सफाई देकर, वह अपने आप को उस गंदगी का हिस्सा नहीं बनाना चाहती थी।उसे पता था, उसने अपने काम से कभी समझौता नहीं किया, अपनी सारी जिम्मेदारियों को पूरा किया था। आकार के भी कितने ही काम घर से करती थी और यह तो वह खुद भी जानता था कि उसकी खुद की इतनी व्यस्तता के बावजूद, कोई परेशानी नहीं आने दी उसने। आज उसे हैरानी यह थी कि एक गलती सामने आई नहीं कि आकार की नजरों में वह अय्याश हो गई… अंकिता की चुप्पी से उस ने खुद को पूरी तरह सही समझ लिया था।

 

आकार : - ( गुस्से में ) अपनी मनमानी को महानता बताना चाहती हो,,,,? तुम्हें क्या लगता है एक मनगढ़ंत कहानी सुनाकर तुम ख़ुद को सही साबित कर लोगी? बच्चों की देख रेख करके अपनी अय्याशी को त्याग बना लिया। अपने आप को देखो, किसी से नज़र मिलाने लायक नहीं हो… तुम जो करके आई हो ग़लती नहीं गुनाह है।

 

अंकिता : - ( रोते हुए ) मैंने किसी त्याग या तपस्या की बात नहीं की, ना अपने आप को सही कहा है, पर सिर्फ़ मैं ही ग़लत हूँ, यह भी नहीं मान सकती। तुम भी ग़लत हो आकार, तुमने अपनी लापरवाही से मेरी ज़िन्दगी बर्बाद की है। मेरी इतनी गलतियाँ तो गिनवा दीं, जरा अपना एक कान्ट्रब्यूशन बता दो, अपने परिवार के लिए।

दोनों के बीच, कभी ख़त्म न होने वाली बहस छिड़ी थी। सच क्या है और आगे क्या होना चाहिए, यह सब सोचने की दोनों के पास फुर्सत नहीं थी। एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाकर दोनों एक दूसरे की गलतियाँ बता रहे थे। आखिर में आकार वहाँ से जाते हुए बोला, "तुम सिर्फ़ अपनी आज़ादी से प्यार करती हो अंकिता, और मैं तुम्हें आज़ाद करता हूँ"। वह गुस्से में चला गया मग़र जाते - जाते उसने जो बोला, उसे सुनकर वह चिल्लाई,  

"आकाआआअरर, रुक जाओ…" लेकिन उस के चीखने का कोई असर नहीं हुआ। अंकिता ने बच्चों के लिए ही सारे समझौते किए थे पर उस ने एक बार भी बच्चों के लिए नहीं सोचा। वह अगर आकार को छोड़ देती तो बच्चों से पापा छूट जाते और बच्चों की खुशियों से वह कोई समझौता नहीं कर सकती थी। अंकिता को फिर शेखर याद आया, "छोड़ देगा तुम्हें आकार तो छोड़ने दो, मैं हूँ ना, मैं तुम्हारी और हमारे तीनों बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने तैयार हूँ।” अपने अंदर उठ रहे दर्द से कराहती, वह फिर रो पड़ी।

अंकिता : - ( सिसकते हुए ) इतना एडजस्ट करने के बाद भी तुम मुझसे आज़ादी चाहते हो आकार, पर मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकती, क्योंकि तुम मेरे बच्चों के पिता हो। मैंने जो कुछ भी बर्दाश्त किया है, इन बच्चों के लिए किया है, और मैं हमारे रिश्ते को तोड़कर बच्चों का भविष्य बर्बाद नही करूंगी और ना तुम्हें करने दूँगी। बहुत हुआ, एक बार फिर तुम जीते। मैं सारी ग़लती अपने सर ले लूँगी, इस बहस को खत्म करने के लिए मैं आज ही शेखर से मिलूंगी। मुझे विश्वास है, वह हालात को समझ जाएगा।

यह सोच, वह घर से निकल गई। शेखर ने दो घंटे बाद मिलने का समय बताया था पर उस को घर में घुटन हो रही थी… वह पार्क में जाकर बैठ गई। वह जब आया, अंकिता घुटनों में सर छुपाकर बेंच पर बैठी थी। उस ने टाइम देखा, वह खुद एक घंटे पहले आ गया था…  अंकिता को खुद से भी पहले आया देखकर वह हैरान था। वह जाकर उस से पूछना चाहता था कि ऐसा भी क्या हुआ है, पर कदम बढ़ाते ही रुक गया… वह रुमाल निकाल कर अपने आँसू पोंछ रही थी। फिर उसने पास रखा मोबाइल उठाया, शायद टाइम देखकर वापस रख दिया और फिर से वैसे ही बैठ गई। शेखर को उसकी हालत समझ आ गई कि वह अंदर से टूट रही है। वह उदास हो गया और उसने तय कर लिया कि वह उस को टूटने नहीं देगा।

शेखर : – ( उदास होकर ) तुम इतनी कमज़ोर नहीं हो सकतीं अंकिता। तुम्हारा पति कुछ भी कहे, सारी दुनिया कुछ भी कहे, पर तुम जानती हो कि तुम ग़लत नहीं हो। तुमने ऐसा कुछ नहीं किया कि तुम्हें खुद से नज़र चुरानी पड़े। मैं तुम्हें किसी की बातों से घबराकर बिखरने नहीं दूँगा। जैसे भी हो, तुम्हें खुद को संभालना होगा।

उस को रोते देखकर शेखर को एहसास हुआ कि उस के हालात के लिए कुछ हद तक वह भी ज़िम्मेदार है, और उसे बिखरने से बचाने के लिए उसे भी समझौता करना पड़ेगा। वह धीरे से जाकर उस के सामने खड़ा हो गया, और अंकिता तुरंत ही उठकर खड़ी हो गई, जैसे उसे आभास हो गया हो, उस के आने का। उस के सामने खड़ा शेखर उसे एकटक देख रहा था। वह कुछ बोलना चाहती थी पर उस ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया और सिर हिलाकर कुछ भी बोलने से मना कर दिया। शेखर उसकी आँखों से बहता दर्द देख रहा था। वह भी उससे नज़र मिलाते ही पूरी तरह बिखर गई और उस के गले लग़कर रो पड़ी तो उस ने समझाते हुए कहा, ‘’गलतियाँ सबसे होती हैं, हमसे भी हो गई, पर यह कोई पाप नहीं है। ख़ुद को इतना भी मत झुकाओ, कि सच देख ही न पाओ। एक बात हमेशा याद रखो, तुम्हें तब तक कोई ग़लत साबित नहीं कर सकता जब तक तुम अपने आप को ग़लत नहीं मान लोगी, और मैं तुम्हें कभी ख़ुद की नज़रों में नहीं गिरने दूँगा। मेरी तरफ़ से तुम निश्चिन्त रहो, हमारे रिश्ते का फ़ैसला तुमने ही किया था, अब मैं हमारे बच्चे के लिए भी फ़ैसला तुम पर छोड़ता हूँ। जो तुम्हें सही लगे, वही करो।''

उस की ज़िद ऐसे ख़त्म हो जाएगी, अंकिता ने सोचा भी नहीं था। एक बार फिर उस को बिखरने से शेखर ने ही संभाला। आकार गुस्से में अपनी ही गृहस्थी उजाड़ने का फैसला सुनाकर चला गया, जबकि वह तो पिछले कई दिनों से उससे बात करना चाहती थी। शेखर ने उसे फिर मजबूती से खड़ा कर दिया था, पर उस के लिए अब फ़ैसला करना और भी मुश्किल हो गया। उसकी गृहस्थी बचाने के लिए शेखर ने अपनी ज़िद छोड़ दी पर वह सोच में पड़ गई कि अब उस की उम्मीदों को कैसे तोड़ दे। उसके दिल की बात समझकर, उस ने अंकिता को एक सलाह देते हुए कहा, “इस पर सोच लेना”। वह बिना पलक झपके उसे देख रही थी। शेखर बोलता जा रहा था और वह खामोशी से सुन रही थी और उसकी आँखो से आँसू बह रहे थे।

क्या थी शेखर की सलाह???

क्या अंकिता की गृहस्थी और शेखर का बच्चा दोनों बच पाएंगे???

क्या अब कोई नई मुश्किल सामने  खड़ी थी???

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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