"मिस्टर पटेल, आपकी वाइफ किसी डर या सदमे से बेहोश हुई हैं, वह तो अभी ठीक हैं पर बच्चा नहीं बच पाया। हमें अभी ऑपरेशन करके बच्चा निकालना पड़ेगा क्योंकि ज्यादा देर पेट में रहा तो इन्फेक्शन फैल जाएगा और मिसेज पटेल की जान को खतरा बढ़ जाएगा।" यह आवाज़ थी उस डॉक्टर की जिसने अंकिता का चेकअप किया था और अब जो आकार के सामने खड़ा, उससे ऑपरेशन की इजाज़त मांग रहा था।
थोड़ी देर पहले, घर में उस से बहस करते हुए, अंकिता का पैर सीढ़ियों से फ़िसल गया था, मगर गिरने से पहले आकार ने उसे संभाल लिया। उस के संभालने से वह गिरने से तो बच गई थी पर बेहोश हो गई। वह घबराकर चिल्लाया, “अंकिता… क्या हुआ तुम्हें? आँखें खोलो”। उसके होश में ना आने पर घबराकर उस ने उसे गोद में उठाया और जल्दी से गाड़ी में पीछे लिटाकर हॉस्पिटल ले गया। रास्ते में घबराहट में खुद ही से बात कर रहा था।
आकार : – ( घबराकर ) ऐसा क्या हुआ अचानक, बोलते बोलते बेहोश कैसे हो गई! मुझे पता है, वह इतनी कमज़ोर नहीं है कि घबरा कर बेहोश हो जाए। कहीं बेहोशी का असर बच्चे पर भी तो... बच्चा तो बाद की बात है पहले तो वह ठीक हो जाए, वरना मैं कभी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाऊँगा। वह सारी रात जागती रही, वहीं बेड के आस पास टहलती रही, और मैं आराम से सो गया। मुझे पता भी नहीं चला कि वह सोई ही नहीं।
उस की आँखें गीली थीं, अंकिता की हालत के लिए उसे पछतावा हो रहा था। वह इतनी परेशान थी, उसे एहसास ही नहीं हुआ। अस्पताल पहुँचकर, डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद जो कहा, उसे सुनकर कुछ समय के लिए तो उसके पैरों तले से जमीन खुसक गई। आकार को तब सिर्फ़ उस की जान बचाना जरूरी लगा, उसने जल्दी जल्दी पेपर साइन कर दिए और डॉक्टर से हर हाल में उसे बचाने की रिक्वेस्ट करने लगा, मग़र पहले बच्चे के जाने से उन दोनों के बीच इतनी दूरियाँ बन गईं कि फिर वह सिर्फ़ एक रिश्ते में बंधे रह गए। अंकिता के काम छोड़ने से प्रोजेक्ट भी उस के हाथ से निकल गया, और बच्चा भी नहीं बचा। धीरे धीरे दोनों ही इन परिस्थितियों के लिए, एक दूसरे को दोष देने लगे। फिर वक्त के साथ दोनों के बीच के झगड़े भी ख़त्म हो गए और पूरे घर में एक सन्नाटा छा गया। आज उस के सामने अतीत नया रूप लेकर खड़ा था जहाँ ख़ुद को वह आकार की जगह देख रही थी।
अंकिता : – ( रोते हुए ) आज मुझे शेखर ग़लत लग रहा है, तब आकार ग़लत लगता था। सच तो यह है कि मैं खुद भी सिर्फ़ अपने लिए ही सोचती हूँ। शेखर सच कहता है, मैं वाकई सेल्फिश हूँ, मगर उस के लिए मैं यह बच्चा कैसे रख सकती हूँ? मेरी पूरी दुनिया ही हिल जाएगी। मेरे बच्चे जब बड़े होंगे और मुझसे सवाल करेंगे तब कोई जवाब नहीं होगा मेरे पास, सिर्फ सर झुकाकर खड़ी रह जाऊँगी। नहीं,,, तुम्हें समझना होगा शेखर, मैं ऐसा नहीं कर सकती। मुझे सेल्फिश ही बनना पड़ेगा। मेरी ग़लती की सजा, मैं अपने बच्चों को कभी नहीं मिलने दूँगी।
उस के पास अब कोई रास्ता नहीं था। मुश्किलें चारों दिशाओं से आकर घेर रही थीं और वह रास्ता बनाने की कोशिश में यहाँ से वहाँ भाग रही थी। शेखर बार - बार फ़ोन करके उसे कह रहा था, “बच्चा सही सलामत रहना चाहिए…”। वह मानसिक दबाव में डूबती जा रही थी। ना ही उसे घर से निकलना अच्छा लग रहा था और ना ही किसी काम में मन लग रहा था। आराम करने लेटती तो आकार का गुस्सा सामने आ जाता। अगर आँख बंद हो भी जाए तो हड़बड़ा कर उठ जाती थी। उस को अब एक और डर लग गया था, पहली बार की तरह अगर इस बार बच्चा नहीं बचा पाई तो शेखर आकार के सामने आकर खड़ा हो जाएगा और सब कुछ तबाह हो जाएगा।
कभी अंकिता उस को समझाना चाहती थी, कभी आकार को बताने का फैसला कर लेती थी, पर अंत में खाली हाथ रह जाती थी। अपनी गलतियाँ गिनते हुए अंकिता फिर शेखर में खोने लगी थी। शेखर का अपनापन, इतनी फिक्र और काम के साथ साथ ख़ुद के लिए वक्त निकालने की आदत, सब कुछ इतना आकर्षक था कि कोई भी उसकी तरफ खिंचता चला जाए। उस को अहसास हो रहा था कि शेखर ने कुछ भी ग़लत नहीं किया, अभी भी उसने तो बस अपना बच्चा मांगा है, प्रॉब्लम तो ख़ुद उसी के साथ थीं। पति का सपोर्ट मिलता, तो शायद उस से भिड़ जाती मग़र सबसे पहले तो आकार से ही डर था। एक ग़लती तो उससे हुई थी मग़र उसकी वजह भी वही खालीपन था, जो उस ने दिया था। एक् बार फिर उसने शाम को आकार से बात करने का फैसला किया।
अंकिता : – ( अपने आप से ) आज तुम्हें मेरी बात सुननी होगी, मैं तुम्हें सब समझाकर ही रहूंगी। अब तुम्हें मुझे अपना वक्त देना ही होगा। मुझे तुम्हारी अनदेखी और लापरवाहियों की सजा मिली है। तुम साथी होकर भी अपनी जगह क्यों नहीं बना पाए? क्यों मेरे दिल में इतना अकेलापन भर दिया कि मुझे किसी अजनबी के सहारे की जरूरत पड़ गई? अब यह आख़िरी मौका है, हमें सम्भलना होगा वरना ऐसी आंधी आएगी कि सब बर्बाद हो जाएगा।
वह जानती थी कि इन मुश्किलों से भागा नहीं जा सकता। हारकर हालात के भरोसे सब कुछ छोड़ने से तो अच्छा है, मज़बूत बनकर लड़ा जाए। आकार अगर नहीं समझा तो उसे सख्ती से समझाएगी, मग़र अपनी गृहस्थी ज़रूर बचाएगी। शाम को उस के आते ही अंकिता ने उसे ऊपर जाते हुए रोक कर कहा कि उसे बात करनी है और अभी करनी है। आकार हमेशा की तरह फिर उलझाना चाहता था, मग़र वह उसके सामने जाकर खड़ी हो गई, “तुम्हें मेरी बात सुननी है और समझनी भी है आकार। तुम समझते क्यों नहीं? हमारा बात करना बहुत ज़रूरी है” उस के रास्ता रोकने पर आकार झुंझला गया।
आकार : – ( चिल्लाते हुए ) क्या ज़िद पकड़ रखी है अंकिता??? क्या कहना है तुम्हें? मेरे पास तुम्हारी तरह फुर्सत नहीं है। तुम्हें तो टाइम पास करने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। तुम अपने लिए आज़ादी चाहती थीं, मैंने दे दी… और कितना आज़ाद होना है? मेरे साथ मेरा काम करने की जगह, तुम दूसरी जगह काम करने जाती हो। मेरे मना करने के बावजूद तुमने एक इंटरनेशनल असाइनमेंट एक्सेप्ट किया, फिर जब तुम्हें प्रमोशन मिलना था, तुमने जॉब छोड़ दिया? फिर भी मैं तुम्हें कुछ नहीं कहता। अब जब तुम फुर्सत में हो, तुम्हें रोज बातें करने के लिए कोई चाहिए। मुझे माफ़ करो, मैं तुम्हारा टाइम पास नहीं करवा सकता।
अंकिता : - ( चिल्लाकर )मुझसे क्या सवाल कर रहे हो, आकार… ख़ुद से पूछो, मुझे तुम्हारा काम क्यों छोड़ना पड़ा? क्यों मुझे दूसरी जगह जॉब तलाशनी पड़ी? क्यों मैं अपने बच्चों तक को छोड़कर, विदेश जाने तैयार हुई? इतना अच्छा मौका छोड़कर क्यों घर बैठना पड़ा मुझे? कभी कुछ पूछा है तुमने?? यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी थी। शादी के बाद तुम्हारे आस पास फुदकते रहने वाली तुम्हारी बीवी क्यों बिल्कुल चुप हो गई? सुबह से शाम तक अपने काम करने के अलावा कुछ नहीं रह गया हमारी ज़िंदगी में। यहाँ तक कि बच्चे भी दूर भागते हैं तुमसे, पापा के साथ कहीं जाएंगे तो पूरा टाइम वह फ़ोन पर बात करते रहेंगे… बेचारे बच्चे बोर होकर घर आएँगे। एक बार अपने आपको देखो, काम के अलावा क्या किया है तुमने, ज़िंदगी भर ?
दोनों की बहस इतनी तेज हो गई थी कि बच्चे भी अपने कमरे से बाहर निकल आए। उस ने सोच लिया था वह आकार को उसकी गलती का एहसास दिला कर रहेगी पर वह तो इसे बिना मतलब बहस से ज्यादा कुछ मान ही नहीं रहा था। माँ बाप को इस तरह लड़ते देख बच्चे सहमे से खड़े थे। चिल्लाते हुए अचानक अंकिता की नज़र रजत पर गई और वह तुरंत चुप हो गई। वह अपनी दीदी से चिपका खड़ा था, उसने पास जाकर दोनों बच्चों को गले लगा लिया। आकार ने भी उन तीनों को देखकर नज़र नीचे कर ली और चुपचाप अपने कमरे में चला गया।
वह फिर ख़ुद को मज़बूत बनाने की कोशिश करती रह गई, पर अब अश्विनी बड़ी हो रही थी, उसे बहुत कुछ समझ आने लगा था। उसने अपनी माँ के आँसू पोंछकर कहा, "मम्मा, पापा से लड़ाई मत करो, उनसे कुछ भी कहने का कोई फ़ायदा नहीं है। पापा नहीं समझते कि हमें उनकी कितनी ज़रूरत है! सब बच्चे अपने पापा के साथ बाहर जाते हैं, एंजॉय करते हैं, हॉलिडे प्लान करते हैं, पर हम अपने पापा से यह सब कभी नहीं कहते, क्योंकि पापा बात बात पर गुस्सा करते हैं।” अश्विनी की सयानी बातों से उस की आँखें भर रही थीं, दोनों बच्चों को गले लगाकर वह रो पड़ी।
अंकिता : - ( रोते हुए ) ऐसा नहीं कहते बेटा,,, पापा बहुत सारा काम करते हैं ना इसलिए हमें टाइम नहीं दे पाते, पर वह तुम दोनों से बहुत प्यार करते हैं। बिल्कुल चिंता मत करो, वह जल्दी समझ जाएँगे। मैं तो उनको समझाने के लिए झूठ मूठ उनसे लड़ रही थी, मतलब यह असली झगड़ा नहीं था। मैं तो बस पापा को दिखा रही थी कि सच में ऐसा झगड़ा हो जाएगा, पर अभी सब ठीक है। तुम लोग जाओ, सो जाओ आराम से।
बच्चों के सवाल और बड़ी होती समझ, उस की चिंता बढ़ा रहे थे। अपने पापा से उनकी दूरियाँ पहले ही इतनी ज्यादा हैं कि वह पापा से कुछ कहने की बजाय, चुप रहना पसंद करते थे। अब अगर माँ बाप के झगड़े की वजह से माँ भी उनसे छूट गई तो बच्चों का भविष्य ही बर्बाद हो जाएगा। दोनों मासूम से बच्चों को देखकर उस के आँसू बह रहे थे। सब कुछ ठीक करने के लिए वह जो भी कोशिश कर ले, सब फेल हो जाती थी। उसे समझ आ गया था कि हालात को सुधारना है तो शेखर को समझाना ही पड़ेगा, इसके अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता। अंकिता ने तुरंत उस को फ़ोन लगाया और एक बेल भी पूरी नहीं हुई कि उस की आवाज़ आ गई, जैसे मोबाइल हाथ में लेकर ही बैठा हो। "हाँ अंकिता,,,? क्या हुआ सब ठीक तो है?" वह बोलने की कोशिश में रो पड़ी।
अंकिता : – ( रोते हुए ) मैं बहुत परेशान हूँ शेखर, प्लीज़ मेरी मदद करो, तुम ही मुझे सही रास्ता दिखा दो। इतना दर्द अब और नहीं सह सकती। मैं क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा। तुम्हें हर हाल में मुझसे अपना बच्चा चाहिए, यहाँ आकार को केवल काम से मतलब है। मेरे लिए और मेरे बच्चों के लिए सोचने वाला कोई नहीं है। मैं जीते जी तुम्हारे बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, प्लीज़ मेरे हालात को समझो…
अंकिता का रोते हुए इस तरह बिखरना बता रहा था कि अब हालात से लड़ना उसके बस में नहीं है। शेखर को समझ आ गया कि दोनों के बीच कुछ हुआ है, जो उस के लिए बर्दाश्त से बाहर है। वह इतनी ज्यादा टूटती जा रही थी कि उसे समझाना मुश्किल लग रहा था। उसने किसी तरह उस को शांत किया और मिलकर कोई रास्ता निकालने को कहा। उसकी दी हुई तसल्ली से एक बार फिर वह शेखर की तरफ़ झुक रही थी। उसे विश्वास था कि वह उसे कुछ हद तक तो समझेगा। अपने आप को बहलाती हुई अंकिता ऊपर जाने के लिए पलटी और सामने देखा, तो घबराकर दो कदम पीछे हट गई… आकार उसके पास ही खड़ा उसको देख रहा था।
क्या आकार ने अंकिता और शेखर की बातें सुन लीं?
कोई रास्ता निकलने से पहले क्या फिर कोई तूफ़ान आने वाला था??
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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