​​कुमार के हाथ में जलती हुई लकड़ी देखकर उसकी मां घबरा गई। ​​​​​“तेरे बाबा कहां हैं कुमार….कहीं गए हैं क्या वो?”​​​​ कुमार की मां ने पूछा, ठीक उसी वक्त अंदर कमरे से उसके बाबा बाहर आए। उनकी पत्नी को थोड़ा सुकून मिला, मगर वो सोच में पड़ी हुई थी कि आख़िर वहां हो क्या रहा है। तभी कुमार के बाबा ने कहा,​​ ​“तूने आज मेरी नाक कटा ही दी है…आज मुझे जला कर आज़ाद कर दे…”​​ ​कुमार की मां ने जैसे ही ये सुना, वो चौंक गई। उन्होंने अपने पति से कहा,​​ “ये…ये आप क्या कह रहे हैं…इस तरह की अशुभ बातें कोई करता है भला….”​​  

​​“हां तो क्या करूं…तुम्ही बताओ….तुम्हारे बेटे ने आज जो किया है…उसके बाद क्या करूंगा जी कर…समझ नहीं आता कि क्या कमी रह गई हमारे प्यार में…जो ये ऐसा निकल गया….”​​  ​​​कुमार ने जैसे ही ये सुना, उसे अपने पुराने दर्द याद आने लगे, उसने जलती हुई लकड़ी को फेंक दिया और अपने बाबा से बोला,​​  

​​​कुमार(फीकी मुस्कान से) : “प्यार दिया ही कहां बाबा आप लोगों ने….आपको तो ये भी नहीं पता कि मेरे साथ क्या क्या होता था….(Pause)... मैं भी किससे कह रहा हूं…छोड़िए….”​​  

​​इतना ​कहते हुए कुमार वहां से चला गया।​​ ​​​रात के क़रीब 9 बजे कुमार अपनी छत पर घूम रहा था और ख़ुद को कोस रहा था कि उसे इतनी जल्दी मैथिली के घर नहीं जाना चाहिए था। अगले ही पल अचानक से उसे मैथिली की बातें याद आई, ​​ ​​

​​मैथिली (आवाज को ऐसे ट्रीट करना है किसी के दिमाग में आई हो): “मगर मैं तुमसे प्यार नहीं करती और तुम्हे अगर ये लग रहा है कि मैं और जीतेंद्र दूर हो गए हैं…तो ऐसा बिलकुल नहीं है…बस कुछ दिन रुक जाओ…. यह शादी तो होकर रहेगी….” ​​  

​​​कुमार को लगा था कि मैथिली अब जीतेंद्र के खिलाफ़ हो गई है मगर आज उसकी बातें सुनने के बाद कुमार को फ़िर से जीतेंद्र पर गुस्सा आने लगा था। उसने ख़ुद से कहा,​​  

​​​कुमार(मन में) : “मैंने गलती कर दी…. मगर कोई बात नहीं…मैं इस ग़लती को सुधारूँगा…. पहले मुझे मैथिली को जीतेंद्र के खिलाफ़ करना होगा…और उसके सामने मुझे ख़ुद को अच्छा साबित करना होगा…हां यही रास्ता है अब।”​ ​  

​​​कुमार अब सही वक्त का इंतजार करने लगा। वो जानता था कि थोड़े ही दिनों में मैथिली सब भूल जाएगी और हुआ भी ऐसा ही। करीब दो दिन बाद ही मैथिली सब कुछ भूल कर अपनी लाइफ सही ढंग से जीने की कोशिश करने लगी। उसे जीतेंद्र की याद तो आती थी मगर अब वो उदास नहीं होती थी और ना ही रोती थी। ​​  

​​​मैथिली को लगा कि अब सब सही हो जाएगा धीरे धीरे, उसके चाचा जी अपनी तरफ़ से जीतेंद्र के बारे में पता करने की कोशिश कर रहे थे कि क्या सच में उसका किसी दूसरी लड़की के साथ चक्कर है या नहीं।​​  

​​​सुबह के क़रीब 8 बज रहे थे, मैथिली बिस्तर पर बैठ कर किताब पढ़ रही थी कि अचानक से उसका फोन बजा। अनजान नंबर देख कर उसे एक पल के लिए लगा कि शायद जीतेंद्र उसे कॉल कर रहा है, उसने जैसे ही फोन उठाया, वो घबरा गई। फोन के दूसरी तरफ कोई और नहीं बल्की कुमार था। मैथिली ने गुस्से से कहा,​​  

​​​मैथिली(बिगड़ते हुए) : “कुमार…उस दिन मेरे घर में इतना ड्रामा किया, उसके बाद आज फ़िर बेशर्मों की तरह कॉल कर दिया…. मैं तुम्हें कैसे समझाऊं कि….”​​  

​​​कुमार(बेताबी से) : "मैथिली, देखो मैं तुम्हें परेशान करना नहीं चाहता। उस दिन जो हुआ प्लीज उसे भूल जाओ और एक बार मेरी बात सुन लो। उसके बाद फिर तुम्हें जो ठीक लगे तुम करना….तुम मुझसे कभी बात नहीं भी करोगी तो भी चलेगा मगर तुम एक बार मेरी बात सुन लो।"​​  

​​​मैथिली को ना जाने क्यों अंदर से इस बार ऐसा लगा कि वो एक बार कुमार की बात सुन ले। उसने बस हल्का सा हां कहा, जिसके बाद कुमार ने तपाक से कहा, ​​"क्या तुम मुझसे मिल सकती हो?"​​ ​​​यह सुनते ही मैथिली ने कहा,​​  

​​​मैथिली(बिगड़ते हुए) : "कुमार अपनी हद में रहना सीखो, तुम इस तरह से अपनी टीचर को परेशान नहीं कर सकते। मैं अगर शांत हूँ तो बस इसलिए कि तुम एक 16 साल के लड़के हो, अगर मैंने तुम्हें सबक सीखा दिया, उसके बाद फिर तुम्हारे माँ बाप का क्या होगा? वो बेचारे बूढ़े हैं, इसलिए मुझे मजबूर मत करो।"​​  

​​​मैथिली इतना कह रही थी कि अचानक से कुमार ने उसे शांत करते हुए कहा,​​  

​​​कुमार(हड़बड़ा कर) : "नहीं....नहीं...नहीं मैथिली!!...तुम गलत समझ रही हो, प्लीज़ तुम गुस्सा मत हो। मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था ताकि अगर हम मिल सकते तो फिर मैं तुम्हे कुछ बताना चाह रहा था पर कोई नहीं, अगर तुम नहीं मिलना चाहती तो सुनो...."​​  

​​​इतना कहने के बाद कुमार ने एक गहरी सांस ली। वो जानता था कि उसे अपनी बात अब मैथिली के सामने कैसे रखनी है। वहीं मैथिली मन ही मन ये सोच रही थी कि आगे अब कुमार उससे ऐसा क्या कहने वाला है? कुमार ने काफी देर बाद थोड़ा सा शांत होकर धीमी आवाज में कहना शुरू किया,​​  

​​​कुमार(समझाते हुए) : "मैंने जो भी किया, हो सकता है कि मेरा तरीका ग़लत हो।”​​  

​​​इतना कहने के बाद कुमार थोड़ा रुका, मैथिली उसके आगे कहने का इंतज़ार कर रही थी, मैथिली की बेताबी कुमार महसूस कर पा रहा था। उसने आगे कहना शुरू किया,​​  

​​​कुमार(soft tone में) : “तुमने उस दिन मुझे कहा कि जीतेंद्र सही है…. मगर मुझे नहीं लगता….क्योंकि मैं ये बातें ऐसे ही नहीं कर रहा…इसके सुबूत हैं मेरे पास…जिन्हें मैं तुम्हें मिल कर दिखाना चाहता था।”​​  

Narrator:  

​​​मैथिली धीरे-धीरे कुमार की बातें सुन रही थी। वो इस वक्त इतने प्यार से मैथिली को सारी बातें बता रहा था कि मैथिली ना चाहते हुए भी उसकी बातें सुनने से इंकार नहीं कर पा रही थी। वो ये सोच सोच कर अंदर ही अंदर रो रही थी कि उसने जिसको प्यार किया, अपना सब कुछ मान लिया, वो इस तरह का इंसान निकलेगा।​​  

​​मैथिली का दिल बीच बीच में यह भी कहता था कि जीतेंद्र उसके साथ कभी भी गलत नहीं कर सकता क्योंकि उसे जीतेंद्र की आँखों में कुछ गलत दिखा ही नहीं था। मैथिली अभी अपने दिलोदिमाग के बीच एक जंग लड़ रही थी। वो कुछ भी सोचने समझने के काबिल नहीं बची थी। ठीक उसी वक्त कुमार ने फिर से कहना शुरू किया, ​​  

​​​कुमार(भड़काते हुए) : "मैथिली!!....तुम्हें याद है जब तुम पहली बार जीतेंद्र के साथ कैफै गई थी, उस वक्त मैं उधर से ही गुजर रहा था, जब मैंने उसे तुम्हारे करीब आते हुए देखा था, तुम खुद याद करो, उस वक्त तुम्हारा मन नहीं था, तुम सबके सामने झिझक गई थी, मगर जीतेंद्र ने तुम्हारी एक नहीं सुनी थी। वो तुम्हारे करीब आ गया था और आख़िर में तुम्हें ही पीछे हटना पड़ा था। उस दृश्य को तुम याद करो और अपने मन से पूछो कि जीतेंद्र का वो प्यार था या ज़रूरत ...."​​ ​तुम्हें क्या लगता है जीतेंद्र तुम से शादी करेगा, उसके बाद वह हमेशा यहीं रहेगा....बिल्कुल भी नहीं, तुम गांव में बाकी औरतों की तरह बनकर रह जाओगी और वह शहर में मज़े करेगा।”​​  

​​​धीरे धीरे बातें और ज्यादा गंभीर होती गई, आख़िर में मैथिली को ये सारी बातें बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने कुमार से कहा, ​​  

​​​मैथिली(हड़बड़ा कर) : "बस!!....अब मुझे कुछ और नहीं सुनना। मेरा दिमाग फट रहा है। मैं पागल हो जाऊंगी प्लीज़ मुझे छोड़ दो.... मुझे अभी किसी की भी जरूरत नहीं है।"​​  

​​​इतना कहते हुए मैथिली ने अपना फ़ोन काटा और रोते हुए दूसरे कमरे में चली गई। रीमा जो उसे दूसरे कमरे से देख रही थी, उसने जब मैथिली को इस तरह से भागते हुए देखा तो वो उसके पीछे भागी। "​​​​मैथिली दरवाजा खोलो.... मैथिली इस तरह तुम दरवाजा बंद कर के क्या कर रही हो? देखो ये टूटने का वक्त नहीं हैं मैथिली.... प्लीज़ दरवाजा खोलो...."​​​​ रीमा दरवाजा पीटे जा रही थी मगर मैथिली ने अंदर से दरवाजा बंद कर रखा था। ​​  

​​​रीमा मगर हार कहां मानने वाली थी। उसने दो से तीन बार दरवाजा पीटा और तभी मैथिली ने एकाएक ही दरवाजा खोला और रीमा से आकर लिपट गई। रीमा से लिपटते ही उसके जज्बात बाहर आ गए, वो फूटफूट कर रोने लगी। रीमा उसे कमरे के अंदर ले गई और उसे कुर्सी पर बैठाते हुए प्यार से समझाया, "देख इस तरह रोने से कुछ नहीं होगा।"​​  

​​​मै​​थली(रोते हुए) : "तो फिर मैं क्या करूँ रीमा.... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। कोई कहता है कि जीतेंद्र ऐसा है वैसा है, यहाँ तक कि जीतेंद्र के खिलाफ़ जो सबूत हैं, उस पर भी मैं यकीन करूँ या न करूँ, मुझे समझ नहीं आ रहा है।"​​  

​​​मैथिली की परेशानी देखकर रीमा ने उससे बस यही पूछा कि उसका दिल क्या चाहता है, जिसके जवाब में मैथिली ने बस इतना कहा की उसे नहीं पता। वो कुछ समझ नहीं पा रही है कि वो किसका विश्वास करें, वो गांव वालों का विश्वास करें, वो उन तस्वीरों का विश्वास करें या फिर जीतेंद्र ने जो कुछ भी कहा उस पर विश्वास करें। ​​  

​​​मैथिली को इस तरह से परेशान देखकर रीमा ने उसको समझाते हुए कहा,​​​​ "ठीक है, अगर तुझे ऐसा लग रहा है तो तू थोड़ा वक्त ले, तू स्कूल से भी छुट्टी ले ले, बाहर निकलना भी बंद कर दे और जीतेंद्र से भी मिलना बंद कर दे....तू एक ब्रेक ले... और खुद सोच कि क्या करना है?"​​  

​​​सारी बातें सुन कर मैथिली ने हां में सर हिलाया। ​​ ​​ अगली सुबह, जीतेंद्र कुछ सोचकर मैथिली के घर की ओर जाने लगा। वो जिस रास्ते से जा रहा था, उसे वहीं पर कुछ फूल वाले दिखाई पड़े। जीतेंद्र ने एक फूल वाले से गुलदस्ता बनवाया और उसमें एक बड़ा सा नोट लिखा,  जिसमें लिखा था, ​सॉरी ​मैथिली...​​​​उस नोट को गुलदस्ते में डालने के बाद जीतेंद्र एक नई ऊर्जा और एक नई उम्मीद लिए मैथिली के घर की ओर बढ़ने लगा। ​​  

​​​थोड़ी देर बाद जैसे ही वो मैथिली के घर के बाहर वाले आंगन के पास पहुंचा, उसे सामने मैथिली के पिताजी और उसकी माँ दिखाई पड़े। जीतेंद्र का दिल जोरों से धड़क रहा था। उसने दोनों को प्रणाम किया, मगर दोनों खामोश रहे।​​  

​​​जीतेंद्र ने जब ये ख़ामोशी देखी तो उसे थोड़ा अजीब लगा। वो कुछ कहने ही वाला था कि तभी मैथिली के पिताजी ने अपनी जगह से उठते हुए कड़क आवाज में कहा, ​​​​"मैंने तुमसे उसी दिन कहा था कि हमें जब तक विश्वास ना हो जाए कि तुम सच बोल रहे हो तब तक तुम मेरे परिवार से और मेरी बेटी से दूर रहोगे।”​​  

​​​जीतेंद्र को सब कुछ याद था मगर जीतेंद्र को कहीं न कहीं बेचैनी महसूस हो रही थी। वो मैथिली से मिलना चाहता था, उससे बातें करना चाहता था। ​​ ​​​वहीं मैथिली की माँ ने जब जीतेंद्र के हाथों में गुलदस्ता देखा तो उन्हें कहीं ना कहीं उसपर पर दया आने लगी। मैथिली की माँ ने अपने पति को समझाने की कोशिश की मगर तभी उसके चाचा जी वहाँ आ गए और उन्होंने कड़क आवाज़ में कहा, ​​​​"नहीं भाभी अगर आप अपनी बेटी का भविष्य बचाना चाहती हैं तो आपको ये कदम उठाना पड़ेगा।”​​  

​​​जीतेंद्र ने जब ये सब सुना, वो गुस्से से पैर पटकता हुआ वहाँ से चला गया। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने गुलदस्ते को कचरे में फेंक दिया और आगे बढ़ गया। ​​​​​इधर दूसरी तरफ मैथिली जो छत के कोने पर ही थी, उसने जीतेंद्र को देख लिया था। जीतेंद्र को इस तरह से जाता देख कहीं ना कहीं मैथिली का दिल बैठ गया था। ​​  

​​​एक तरफ जहाँ मैथिली ये सब सोच रही थी और जीतेंद्र गुस्सा होकर चला गया था, वहीं इधर दूसरी तरफ अपने छत पर मौजूद कुमार दूरबीन ये सब कुछ देख रहा था, वो अचानक से खुश होते हुए अपने छत पर ही बच्चों की तरह नाचने लगा। उसने नाचते हुए कहा, ​​  

​​​कुमार(ख़ुशी से) : "मुझे यकीन नहीं हो रहा हैं कि मैंने जैसा सोचा था...सब कुछ उसी मुताबिक चल रहा हैं। अब लगता है मुझे मैथिली के पास जाना चाहिए, उसके साथ थोड़ा वक्त बिताना चाहिए..."​​  

​​​इतना कहते हुए कुमार ने मैथिली के मोबाइल पर फोन लगाया, रिंग जा रही थी मगर मैथिली फोन नहीं उठाया रही थी।  इस वक्त वो उदास थी, मगर कुमार को पता था कि यही मौक़ा है जब वो मैथिली के क़रीब जा सकता है। कुमार अपनी तरफ़ से कोशिश किए जा रहा था मगर कम से कम दस बार कॉल करने के बाद भी जब मैथिली ने फोन नहीं उठाया तो कुमार के चेहरे पर उदासी आ गई। कुमार बेचैन होकर घर की छत पर यहां वहां टहलने लगा। ​​  

​​​"आख़िर क्या करूं... मैं... कैसे जाऊं मैथिली के पास...."​​​​ कहते हुए कुमार सोचने लगा। उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी, सुबह से दोपहर हो चुकी थी। दोपहर के क़रीब 2 बजे अचानक से कुमार के फोन पर एक मैसेज आया। उसने जैसे ही मैसेज देखा, वो हड़बड़ा गया। कुमार ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा,​​  

​​​कुमार(धीरे से) : "कहीं मैथिली को सच का पता तो नहीं चल गया.... मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि ये मैथिली नहीं जीतेंद्र है...?"​​  

​​ऐसा क्या लिखा था उस मैसेज में? और यह किसका मैसेज था? जानने के लिए पढिए कहानी का अगला भाग।

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