फोन के स्पीकर से निकली विराज की गूंजती हुई आवाज़, मुक्तेश्वर के कानों को चीर देती है— "अंकल, एक तस्वीर भेजी है... देख लीजिए... मैं आप से माफ़ी चाहता हूं..."
इतना कहकर विराज फोन काट देता है। जिसके बाद मुक्तेश्वर अपने कांपते हाथों से फोन के उस फोल्डर को खोलता है, जिसमें वो तस्वीर थी। उस तस्वीर को देखते ही उसकी आंखें किसी पत्थर की मूरत जैसी स्थिर हो जाती है। गजेन्द्र के चेहरे पर खून फैला था, आंखें आधी खुली थीं, और उसके माथे पर ज़ख्म की लाल लकीर थी, जैसे किसी युद्ध के मैदान से लौटा हो। उस तस्वीर को देखते ही मुक्तेश्वर की चीख निकल जाती है— “हे भगवान…मेरा गजेन्द्र”
उसकी सांस जैसे ही रुकी, शरीर का संतुलन टूट गया, और वो ज़मीन पर औंधे मुंह गिर पड़ा। तभी जादूगर बाबा ने दौड़कर उसे संभाला, लेकिन मुक्तेश्वर तो जैसे आत्मा से ही खाली हो चुका था। वो बस एक ही वाक्य बुदबुदा रहा था — “गजेन्द्र... नहीं...”
पिछले आठ घंटे से ऑपरेशन कर रहीं जयगढ़ अस्पताल के आईसीयू डॉक्टरों की टीम अब भी अंदर थी। रिया की आंखें रो-रोकर सूज चुकी थीं और विराज के चेहरे पर भय और जिम्मेदारी दोनों का संघर्ष साफ दिख रहा था। एक तरफ वो गजेन्द्र का लीगल वकील था, तो वहीं दूसरी ओर वो गजेन्द्र से अपने सगे भाई से भी ज्यादा प्यार करता था।
तभी आईसीयू का दरवाज़ा खुला और एक डॉक्टर बाहर आया और धीमी आवाज़ में कहा— "सांसें वापस आ चुकी हैं। अभी खतरे से बाहर नहीं है, लेकिन स्टेबल हैं।"
डॉक्टर की ये बात सुनते ही रिया वहीं ज़मीन पर बैठ गई और फूट-फूट कर रो पड़ी। विराज ने राहत की सांस ली, लेकिन उसके चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं आई थी। मानों जैसे ये सिर्फ एक जंग थी, जंग नहीं बल्कि एक युद्ध की पहली जीत… क्योकि अभी गजेन्द्र की आंखे खुलना बाकी था।
रात काफी हो चुकी थी, चारों तरफ काला अंधेरा छाया हुआ था। विराज ने रिया के दोनों हाथों को अपने हाथों में लिया और बोला— "प्लीज रिया तुम रात को राजघराना लौट जाओ, सुबह फ्रैश होकर आराम से लौट आना…। तब तक मैं यहा गजेन्द्र की देखभाल करता हूं।"
रिया विराज की बात मानने से साफ इंकार कर देती है और कहती है— “मैं एक पत्रकार हूं विराज… और मैंने अक्सर हर केस में अस्पताल में ही सारा खेल पलटते देखा है। मैं गजेन्द्र से अपनी आंखे एक सेकेंड के लिए नहीं हटाउंगी। फिर चाहों तो तुम घर जाकर सुबह आ सकते हों…मैं हूं यहा।”
विराज को इस तरह रिया को अकेले अस्पताल में छोड़कर जाना सहीं नहीं लगता, ऐसे में वो भी रिया के साथ वहीं रूक जाता है और मुक्तेश्वर को फोन कर गजेन्द्र के ऑपरेशन सक्सेसफूल होने की खबर दे देता है, जिसके बाद वो भी रात को चैन से सो जाता है।
वहीं, अगली सुबह राजमहल का पुराना शाही कमरा, जिसमें सो रहा मुक्तेश्वर अब पहले की तरह कमजोर नहीं लग रहा था। उसके हाथ में वही धूल से भरी डायरी थी, जिसमें उसके पिता गजराज सिंह की गुप्त साजिशों की साक्षी बन जादूगर बाबा ने सारा सच लिखा था।
सुबह नींद खुलते ही वो उस डायरी को लेकर सीधे अपने पिता के कमरे में जा पहुचा। वहां गजराज अपने बड़े से पलंग पर लेटा था, आंखें बंद थीं, लेकिन जैसे ही मुक्तेश्वर कमरे में घुसा... गजराज ने आंखें खोली और कहा— “डायरी ले आया तू?”
मुक्तेश्वर चौंक गया... उसने डायरी उसकी आंखों के सामने फेंकी और बोला— “इसका मतलब आपको सब पहले से ही पता था? फिर तो आप ये भी जानते होंगे कि जादूगर बाबा लौट आये है”
मुक्तेश्वर का गुस्से भरा अंदाज सुन गजराज हल्के से हंसा और बोला— "राजघराना पर 50 सालों तक राज किया है मैंने मुक्ति… मेरी आंखों से कभी कुछ नहीं छिपता, समझा।"
मुक्तेश्वर के अंदर की आग अब फूट पड़ी और वो चिल्लाकर बोला— "तो ये सब सच है? शारदा की मौत, वो जमीन में दफनाई गई औरत, घोड़ों का अवैध व्यापार, रेस फिक्सिंग... ये सबकुछ आपके इशारे पर हुआ… छीं, मुझे घिन्न आ रही है आपकों अपना पिता कहते हुए अब..."
गजराज धीरे से उठ बैठा और मुक्तेश्वर के करीब सीधे उसके सामने खड़ा हो गया और उसकी आंखों में आंखे डालकर बोला— "तू घोड़े दौड़ाता था, मुक्ति… मैंने साम्राज्य खड़े किए थे, जिसमें तुझे कोई दिलचस्पी ही नही थी। तू ही बता मैं क्या करता… मेरा एक बेटा नामर्द बना बैठा जवान आदमियों के पीछे पागल था, तो दूसरा राजघराना की विरासत से दूर जाना चाहता था…"
"तो आपने मुझे रेस फिक्सिंग के केस में फंसा दिया… और अब बीस साल बाद वहीं खेल आप मेरे बेटे के साथ खेल रहे हैं। आखिर क्यों?”
मुक्तेश्वर के इन आरोपो से गजराज का दिल छल्ली हो गया और वो तुंरत पलट कर बोला— "मेरी बात कान खोलकर सुन ले मुक्तेश्वर मैंने बीस साल पहले भी कुछ नहीं किया था और ना ही आज कुछ किया है। मेरी गलती सिर्फ इतनी है कि मैंने तेरी बहन प्रभा ताई के पति से मदद मांगी और उसने मदद के नाम पर मेरे साथ घिनौना खेल खेला।"
आगे गजराज ने जो बताया उसे सुन मुक्तेश्वर के कान सुन्न पड़ गए— "तू सोचता रहा इज्ज़त कमाना ही राजघराना का असली राज है… और मैं तुझे हर पल ये सिखाने की कोशिश कहता रहा कि इज्ज़त खरीदनी होती है—पैसे से, डर से, और खून से।"
मुक्तेश्वर ये सुन दंग रह गया। उसके भीतर पहली बार उसके पिता की "विरासत" दरकती हुई महसूस हुई।
"तो गद्दी की कीमत, जानकी की मौत थी? गजेन्द्र की मासूमियत की कुर्बानी थी?"
गजराज ने कोई जवाब नहीं दिया। बस मुस्कुराया, जैसे उसका बेटा मुक्तेशवर अब राजघराना की असलियत और उसकी मांग को समझने लगा हो। दोनों के बीच की बहस अब और तीखा रुख लेने लगी।
दूसरी ओर ठीक इसी वक्त, महल के तहखाने में भीखू एक नयी चाल चलने की तैयारी कर रहा था। दरअसल भीखू दीवार पर लटकी पुरानी तस्वीरें देख रहा था। एक तस्वीर में वो और राज राजेश्वर एक साथ खड़े थे। ये तस्वीर करीबन 18 साल पुरानी थी, जब दोनों किशोर अवस्था में, महल के लॉन में एक-दूसरे का हाथ थामे हुए… प्यार भरी बांते कर रहे थे— "प्यार…"
राज राजेश्वर ने धीरे से भीखू के कानों में कहा, तो भीखू ने पलटकर कहा— "उसे हमेशा सौदे में तब्दील कर दिया जाता है इस राजघराना में, कोई हमें नहीं समझेगा…"
वहीं आज का दिन, जहां भीखू अब राज राजेश्वर का सिर्फ वफादार नौकर नहीं रहा था। दरअसल अब वो एक कठपुतली बनकर थक चुका था। वो जानता था राजेश्वर जो गद्दी पर बैठना चाहता है, वो गद्दी अब खून से सनी हुई है।
ऐसे में अब भीखू ने तय कर लिया था, वो इस बार कुछ ऐसा करेगा, जिससे वो राज राजेश्वर के चंगुल से हमेशा-हमेशा के लिए आजाद हो जाये। तभी राज राजेश्वर ने अपनी राज सभा का ऐलान कर दिया— महल में सब इकट्ठा हो गए, जिसके बाद राज राजेश्वर फूल शाही अंदाज में सभा में आया और राजघराना की गद्दी पर बैठते के साथ बोला—
"गजेन्द्र अब इस राज्य का हिस्सा नहीं रहेगा, क्योंकि वसीयत में उसे किसी और पिता की संतान बताया गया है। यानि ये साफ है कि वो मुक्तेश्वर भैया की औलाद नही है।"
राज राजेश्वर के उस खुलासे से राज सभा में बैठे लोगों में खलबली मच गई। यहां-वहां चारों तरफ कानाफूंसी शुरु हो गई, लेकिन तभी एक नौकर भागते हुए अंदर आया— "सरकार… राज राजेश्वर सरकार… मुक्तेश्वर साहब आपकी सभा में आ रहे हैं… उनके साथ कोई बूढ़ा आदमी भी है…!"
राज राजेश्वर बूढ़े आदमी का जिक्र सुनते ही चौंक जाता है— “वृद्ध...? पक्का वो जादूगर बाबा ही होंगे… उनके आने से मेरे सारे इरादें मिट्टी में मिल जायेंगे।”
एक तरफ राज राजेश्वर के दिमाग में ये सारे सवाल चल रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर उसकी सभा में मुक्तेश्वर के साथ जादूगर बाबा बिना इज्जात के आ गए। उन्हें देख राज राजेश्वर अपनी राजगद्दी से खड़ा हो गया। उसने देखा मुक्तेश्वर के हाथ में वही लाल डायरी थी, जो बीस साल पहले खो गई थी। उस पर उसके साथ जादूगर बाबा भी थे। आते के साथ मुक्तेश्वर ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा और बोला—
"आज मैं कोई दावे नहीं कर रहा। आज मैं सिर्फ वो पेश करने आया हूं, जो मेरे पिता ने इस राजघराने को दिया — और जो बीते 20 सालों से इस पूरे राजगढ़ से छुपाया गया।"
एकाएक पूरी सभा में सन्नाटा पसर गया और तभी मुक्तेश्वर ने डायरी से वो पन्ना खोलकर पढ़ना शुरु किया, जिस पर शारदा का सच लिखा था—
दिनांक: 12 जून 1985 —
आज शारदा ने सच जान लिया कि वो बच्चा मेरा है । मैंने उसे समझाने की कोशिश की, पर वह बगावत पर उतर आई। अब वह ज़िंदा नहीं रह सकती, लेकिन उसकी कोख में राजघराना की औलाद है। ऐसे में मुझे उसके जन्म का इंतजार करना होगा, क्योकि अगर बेटा हुआ तो मेरा असली वारिस बन सकता है। मेरे दो बेटे है और दोनों में से कोई वारिस बनने लायक नहीं है।”
उस डायरी के इस खुलासे ने सभा में हड़कंप मचा दिया। लोग एक-दूसरे को देखने लगे। तभी राज राजेश्वर तिलमिलाता हुआ उठा… उसकी आंखें लाल थी, वो अपने बड़े भाई मुक्तेश्वर पर गरजा— "ये झूठ है! ये डायरी किसी नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं! और वैसे भी अभी मेरे पिताजी जिंदा है, वो खुद बता सकते है कि ये डायरी उन्होंने लिखी है या नहीं।"
राज राजेश्वर की तिलमिलाहट देख जादूगर बाबा आगे बढ़े और बोले— "तो फिर मुझे क्यों 25 साल की जेल हुई? क्यों गजराज सिंह ने मुझे पैसे देकर गायब किया? क्या तुम्हारे पास इन सवालों के जवाब है… और क्या तुम्हारे पिता इनके जवाब दे पायेंगे… सोच लो।"
सभा में मौजूद एक-एक शख्स दंग था, ऐसा लग रहा था किसी ने एक झटके में अपने खुलासे से उनके पैरों तले की जमीन खींच ली थी। सच्चाई अब दस्तावेज़ों और चश्मदीदों के मुंह से बोलने लगी थी। तभी जादूगर बाबा ने कहा, उस रात जब शारदा की डिलीवरी का समय आया तो, गजराज सिंह राज्य से बाहर थे और तब शारदा ने एक लड़की को जन्म दिया।
बच्ची के जन्म के साथ ही राज राजेश्वर ने उसे अपने एक आदमी को दे दिया और कुछ पैसे देकर उसे किसी अनाथ आश्रम में फेंकने का आदेश दे दिया। सबसे बड़ी बात तो ये थी कि उसे उस रात ये सब करते सिर्फ मैंने ही नहीं बल्कि मुक्तेश्वर की प्रेमिका जानकी ने भी देखा था। यहीं वजह थी कि गजराज और राज राजेश्वर मुक्तेश्वर की शादी के बाद उसकी गरीब पत्नी से नफरत करते थे।
जादूगर बाबा के इस खुलासे को सुन राज राजेश्वर भड़क उठा और बोला—
"मैं जानता हूं आप यहां मुझे राजघराना की गद्दी से उतारने आये है और इसके लिए ही आपने इस झूठी डायरी… झूठे गवाह और झूठे बयान तैयार किये है...। अभी भी वक्त है बंद कर लीजिये अपना मुंह… वरना अच्छा नहीं होगा, और भूलिये मत मेरे पिता और राजघराना की गद्दी के मालिक गजराज सिंह ने खुद मुझे इस गद्दी पर बैठाया है, तो आप होते कौन है मुझे इससे उतारने वाले...”
दूसरी ओर अस्पताल में रिया और विराज अभी भी गजेन्द्र के होश में आने का इंतजार कर रहे थे। रिया उसके पास बैठी थी, उसका हाथ थामे… एकटक बस उसे निहारे जा रही थी। उसके आंखों से बहते आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे।
तभी विराज के फोन पर एक मैसेज आया— "तैयार रहो। अगर गजेन्द्र को फिर से खत्म करने की कोशिश की गई, तो ये अस्पताल ही अगला मैदान बनेगा। — R"
इस मैसेज को देखते ही विराज की आंखें चौड़ी हो गईं और वो खुद से बड़बड़ाते हुए बोला— “R...? रेनू...? या… राजेश्वर…?”
तभी बाहर से गोलियों की आवाज़ आई। अस्पताल के सुरक्षा गार्ड्स इधर-उधर भागते हुए अपनी जान बचाने लगे। विराज बाहर की तरफ देखने के इरादे से भागा। तभी रिया चीख पड़ी— “गजेन्द्र...!”
क्या हुआ गजेन्द्र के साथ? आखिर क्यों चीखी रिया?
इस तरह विराज को मैसेज भेज किसने किया अस्पताल पर हमला?
क्या डायरी सबूत बनकर अदालत तक पहुंच पायेगी?
आगे अब क्या होगा राज राजेश्वर के साथ?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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